विचार / लेख
राजद्रोह को दंड संहिता से निकाल फेंकने से सुप्रीम कोर्ट ने इंकार कर दिया है। आवेदक केदारनाथ सिंह ने यहां तक कहा था कि सीआईडी के कुत्ते बरौनी के आसपास निठल्ले घूम रहे हैं। कई कुत्ते-अधिकारी बैठक में शामिल हैं। भारत के लोगों ने अंग्रेजों को भारत की धरती से निकाल बाहर किया है, लेकिन गुंडों को गद्दी सौंप दी। लोगों की गलती से गुंडे गद्दी पर बैठ गए हैं। हम अंग्रेजों को निकाल बाहर कर सकते हैं, तो गुंडों को भी निकाल बाहर करेंगे। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आखिर ेप्रशासन चलाने के लिए सरकार तो होती है। उसमें उन लोगों को सजा देने की शक्ति होनी चाहिए जो अपने आचरण से राज्य की सुरक्षा और स्थायित्व को नष्ट करना चाहते हैं जिससे सरकार का कामकाज और लोक व्यवस्था बरबाद हो जाए। सुप्रीम कोर्ट ने अपने पुराने मुकदमों पर निर्भर करते कहा कि राजद्रोह की परिभाषा में ‘राज्य के हित में’ नामक शब्दांश बहुत व्यापक है। उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती। सुप्रीम कोर्ट ने कहा यह अपराध संविधान के अनुच्छेद 19 (2) के तहत राज्य द्वारा सक्षम प्रतिबंध के रूप में मुनासिब समझा जा सकता है।
पंजाब हाईकोर्ट ने 1951 तथा इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 1959 में राजद्रोह को असंवैधानिक करार दिया, लेकिन केदारनाथ सिंह बनाम बिहार राज्य वाले मामले में 1962 में सुप्रीम कोर्ट ने राजद्रोह को संवैधानिक कह दिया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा किसी कानून की एक व्याख्या संविधान के अनुकूल प्रतीत होती है और दूसरी संविधान के प्रतिकूल। तो न्यायालय पहली स्थिति के अनुसार कानून को वैध घोषित कर सकते हैं। बलवंत सिंह बनाम पंजाब राज्य प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट ने खालिस्तान जिंदाबाद नारा लगाने के कारण आरोपियों को राजद्रोह के अपराध से मुक्त कर दिया। कानून की ऐसी ही व्याख्या बिलाल अहमद कालू के प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट द्वारा की गई। राजनेता, मीडिया, पुलिस और जनता में देशद्रोह, राजद्रोह और राष्ट्रद्रोह शब्दों का कचूमर निकल रहा है। धारा 124-क के अनुसार-जो कोई बोले गए या लिखे गए शब्दों द्वारा या इशारों द्वारा, या दिखाते हुए अन्यथा कानून द्वारा स्थापित सरकार के प्रति घृणा या अवमानना पैदा करेगा, या पैदा करने की कोषिष करेगा या मनमुटाव उकसाएगा या उकसाने की कोषिष करेगा, वह आजीवन कारावास से, जिसमें जुर्माना जोड़ा जा सकेगा या तीन वर्ष तक के कारावास से, जिसमें जुर्माना जोड़ा जा सकेगा या जुर्माने से दंडित किया जाएगा। राजद्रोह का अपराध राजदंड है। वह बोलती हुई रियाया की पीठ पर पड़ता है। अंग्रेजों के तलुए सहलाने वाली मनोवृत्ति के लोग राजद्रोह को अपना अंगरक्षक मान सकते हैं। राज के खिलाफ द्रोह करना जनता का मूल अधिकार है, लेकिन जनता द्वारा बनाए गए संविधान ने भी तो खुद तय कर लिया है कि वह हिंसक नहीं होगा। यह भी कि वह राज्य की मूल अवधारणाओं पर चोट नहीं करेगा क्योंकि जनता ही तो राज्य है, उसके नुमाइंदे नहीं।
2010 में कश्मीर के अध्यापक नूर मोहम्मद भट्ट को कश्मीरी असंतोष को प्रश्न पत्र में शामिल करने, टाईम्स ऑफ इंडिया के अहमदाबाद स्थित संपादक भरत देसाई को पुलिस तथा माफिया की सांठगांठ का आरोप लगाने, विद्रोही नामक पत्र के संपादक सुधीर ढवले को कथित माओवादी से कम्प्यूटर प्राप्त करने, डॉक्टर विनायक सेन को माओवादियों तक संदेश पहुंचाने, ओडिशा के पत्रकार लक्ष्मण चौधरी द्वारा माओवादी साहित्य रखने, एमडीएमके के नेता वाइको द्वारा यह कहने कि श्रीलंका में युद्ध नहीं रुका तो भारत एक नहीं रह पाएगा और पर्यावरणविद पीयूष सेठिया द्वारा तमिलनाडु में सलवा-जुडूम का विरोध करने वाले परचे बांटने जैसे कारणों से राजद्रोह का अपराध चस्पा किया गया। सुप्रीम कोर्ट ने श्रेया सिंघल बनाम भारत संघ के फैसले में सिद्धांत स्थिर किया कि किसी भी कानून में इतनी अस्पष्टता तो हो कि निर्दोष लोगों के खिलाफ यदि इस्तेमाल किया जा सके तो ऐसा कानून असंवैधानिक होगा। राजद्रोह के लिए मृत्युदंड का प्रावधान नहीं है। इंग्लैंड, न्यूजीलैंड, कनाडा, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया वगैरह में भी इस कानून की उपयोगिता अब बची नहीं है। राजद्रोह को आज़ादी कुचलने के सरकारी या पुलिसिया डंडे के रूप में रखे जाने का संवैधानिक औचित्य भी नहीं है। विनोद दुआ ने भी ऐसा कुछ घातक तो नहीं कहा था जिसको लेकर सरकारी तरफदारी करने वाले कुछ राजनीतिक कार्यकर्ता बवाल मचा गए। सुप्रीम कोर्ट ने केदारनाथ के प्रकरण में राजद्रोह की संवैधानिकता पर मुहर लगाई है। तब इंग्लैंड में प्रचलित समानान्तर प्रावधानों का सहारा लिया था। इंग्लैंड में संबंधित धारा का विलोप कर दिया गया है।
सुप्रीम कोर्ट ने केदारनाथ सिंह की संविधान पीठ में भाषा की केचुल तो उतारी लेकिन राजद्रोह के सांप को फनफनाने का मौका मिला। अंग्रेज जज कहते थे राज्य और सरकार के खिलाफ नफरत और असहयोग तो दूर मन में सरकार के नकार की भावना तक का प्रदर्शन नहीं करना है। (बाकी पेज 8 पर)
धीरे-धीरे उस पर तर्क की इस्तरी चलती चलाते भारतीय जजों ने कहा कि सरकार का मतलब राज्य के नुमाइंदों से नहीं है। सरकार एक भाववाचक संज्ञा है जो व्यक्तियों के जरिए तो उपस्थित है लेकिन वे व्यक्ति सरकार नहीं हैं। इससे कुछ सहूलियत मिली लेकिन आखिर यही तय हुआ कि यदि सरकार के खिलाफ लगभग गांधीवादी जुमले में असहयोग निष्क्रिय प्रतिरोध, सत्याग्रह और सिविल नाफरमानी कोई करेगा तो उससे एक ऐसी मनोवैज्ञानिकता पसर सकती है कि जनता को सरकार नामक उपस्थिति या तंत्र से कोई लेना देना नहीं है बल्कि सरकार का नकार है। ऐसे में सरकार के माध्यम से कोई हुकूमत कैसे करेगा। दुभागर््य है कि तिलक से लेकर दिशा रवि तक किसी ने भी हथियारों के जरिए किसी राज्य की मान्यता या संस्था को नेस्तनाबूद करने का आह्वान नहीं किया। अब तक यही कहा और ठीक कहा कि हम अंगरेजों के गुलाम नही रहेंगे लेकिन हमारी आजादी देष की सरकार में होगी। आज भी भारतीय नागरिक आजादी का जयघोष हो रहा है कि राज्य हमारा है क्योंकि हम संविधान के निर्माता हैं। हम सरकारें चुनते हैं। उन्हें हटा देने का हक हमारा है। इसलिए हमारे चुने हुए नुमाइंदों के उनके गलतसलत कामों को प्रतिबंधित करने के हमारे संवैधानिक अधिकार को राजद्रोह का कोड़ा फटकारते हमें डरा नहीं सकते। सैकड़ों मुकदमे हैं जिनमें दिशा रवि की तरह पहली फुर्सत में अदालतों को नागरिक आजादी के पैरोकारों के पक्ष में राय दे सकनी थी।
यदि राज्य की हुकूमत जुर्म करे तो संविधान का तीसरा स्तंभ न्यायपालिका के रूप में ही मुनासिब इंसाफ करने में ढिलाई क्यों करेगा? उसकी तपिश का अहसास तिलक और गांधी जैसे महान नेताओं ने अंगरेजी जुर्म से तंग आकर किया था। उन्होंने आजाद भारत के लिए मनुष्य के अधिकारों का अंतरिक्ष फैलाया था।