विचार / लेख

मजहब चलें मध्यम मार्ग पर
30-Oct-2020 6:07 PM
मजहब चलें मध्यम मार्ग पर

बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक

इधर भारतीय विदेश मंत्रालय ने विशेष कूटनीतिक साहस और स्पष्टवादिता का परिचय दिया है। उसने एक बयान जारी करके तुर्की के राष्ट्रपति तय्यब एरदोगन और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान को आड़े हाथों लिया है। भारत सरकार ने फ्रांस के राष्ट्रपति इमेनुअल मेक्रो का खुलकर समर्थन किया है। मेक्रो ने इधर इस्लामी अतिवाद के खिलाफ अपने देश में जो अभियान चलाया है, उसका समर्थन सभी यूरोपीय देश कर रहे हैं। फ्रांस के एक अध्यापक की हत्या एक मुस्लिम युवक ने इसलिए कर दी थी कि उसने अपनी कक्षा में पैगंबर मोहम्मद के कुछ कार्टून दिखा दिए थे। यहां असली सवाल यह है कि फ्रांस या यूरोप की घटनाओं से भारत का क्या लेना-देना? वहां के अंदरुनी मामलों में भारत टांग क्यों अड़ा रहा है ? इसके कई कारण है। पहला यह कि भारत के विदेश सचिव हर्षवर्धन श्रृंगला आज ही फ्रांस, जर्मनी और ब्रिटेन की यात्रा पर जा रहे हैं। इन तीनों देशों से भारत के घनिष्ट संबंध हैं और ये तीनों देश इस्लामी आतंकवाद की मार भुगत चुके हैं। इन देशों में पूछा जाएगा कि आतंकवाद का सबसे बड़ा शिकार भारत है और वह इस मामले पर चुप क्यों है ?

दूसरा, तुर्की और पाकिस्तान दोनों ही मिलकर कश्मीर के सवाल पर भारत पर कीचड़ उछालने से बाज नहीं आते तो भारत भी उनकी टांग खींचने का मौका क्यों चूके ? तीसरा, यह यूरोप का आंतरिक मामला भर नहीं है। इस्लामी उग्रवाद ने दुनिया के किसी महाद्वीप को अछूता नहीं छोड़ा है। यदि भारत में आतंकवाद की कोई घटना होती है तो यूरोपीय राष्ट्र हमारे पक्ष में बयान जारी करते हैं तो अब मौका आने पर भारत भी अपनी जिम्मेदारी निभा रहा है। 2015 में फ्रांसीसी पत्रिका ‘चार्ली हेब्दो’ के 12 पत्रकारों की हत्या की गई थी, तब भी विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने इस्लामी आतंकवाद की खुली भत्र्सना की थी। ‘इस्लामी’ शब्द का प्रयोग न तब किया गया था और न ही अब किया गया है। भारत सरकार का यह रवैया राष्ट्रहित और तर्क की दृष्टि से ठीक मालूम पड़ता है लेकिन मुझे यह अधूरा भी लगता है। भारत जैसे महान सांस्कृतिक राष्ट्र से यह आशा की जाती है कि वह यह सीख उन्हें दे कि वे दूसरों की भावना का भी सम्मान करें। यदि पैगंबर मोहम्मद के चित्र या कार्टून से मुसलमानों को पीड़ा होती है तो ऐसे काम को टालने में कौनसी बुराई है या हानि है ? कौनसी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता इससे खत्म होगी ? दूसरों का दिल दुखाना ही क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है ?

किसी भी संप्रदाय या मजहब के गुण-दोषों पर आलोचनात्मक बहस जरूर होनी चाहिए लेकिन उसका लक्ष्य उनका अपमान करना नहीं होना चाहिए। तुलसीदास का यह कथन ध्यातव्य है— ‘परहित सरिस धरम नहिं भाई, परपीड़ा सम नहिं अधमाई।।’ यह सही समय है जबकि यूरोपीय राष्ट्र और मुस्लिम राष्ट्र अतिवाद को छोड़ें और मध्यम मार्ग अपनाएं। ईसा मसीह और पैगंबर मोहम्मद के प्रति सच्ची भक्ति इसी मार्ग में है। (नया इंडिया की अनुमति से)

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news