संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : अभिव्यक्ति की आजादी, और धार्मिक भावनाएं, टकराव तो होगा ही होगा
03-Sep-2020 8:06 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : अभिव्यक्ति की आजादी, और धार्मिक भावनाएं, टकराव तो होगा ही होगा

फ्रांस की एक विख्यात व्यंग्य पत्रिका, शार्ली एब्डो, ने कुछ बरस पहले मोहम्मद पैगम्बर पर कुछ कार्टून बनाकर छापे थे, तो उसके बाद उस पर हुए एक हमले में 17 लोग मारे गए थे, और राजधानी पेरिस के आसपास तीन दिन तक हिंसा चलती रही थी। अब इस पत्रिका ने उस हमले की सुनवाई शुरू होने के मौके पर एक बार फिर अपने वही कार्टून फिर छापे हैं जिन्हें लेकर उसे वह हमला झेलना पड़ा था। इस बार पत्रिका का कहना है कि वह इसके पहले भी ये कार्टून दुबारा छाप सकती थी, उस पर कोई रोक नहीं थी, लेकिन ऐसा कोई मौका नहीं आया था कि उन्हें दुबारा छापा जाए। अब अदालत में सुनवाई शुरू हो रही है तो उसने ये कार्टून फिर छापे हैं। यह पत्रिका मुस्लिमों, यहूदियों, और दूसरे कई धार्मिक कट्टरपंथियों पर ऐसे तीखे संपादकीय-हमले करने के लिए जानी जाती है। 

फ्रांस या योरप के बहुत से दूसरे देश अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की एक अलग परिभाषा को मानते हैं। अमरीका या कुछ और देश भी धार्मिक मामलों में धार्मिक भावनाओं के बजाय अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को अधिक मानते हैं, और इन तमाम देशों में किसी धर्मग्रंथ को फाडऩा, या जलाना कोई जुर्म नहीं है। सदियों पहले से दुनिया में देशों के स्थानीय धर्मों से परे दूसरे देशों के धर्मों का वहां पहुंचना, और बसना शुरू हो चुका था। दुनिया के बहुत से देश किसी एक धर्म को अपना राजकीय धर्म मानते हैं, और इसमें मोटेतौर पर मुस्लिम देश ही हैं। चूंकि वहां देश ही इस्लामिक रहता है, इसलिए किसी और धर्म को बराबरी का अधिकार अधिकतर जगहों पर नहीं मिलता। लेकिन जब इस्लाम मानने वाले लोग योरप की उदार संस्कृति में जाते हैं, तो उन्हें वहां नागरिक अधिकार तो बराबरी के मिलते हैं, लेकिन सार्वजनिक जीवन में सांस्कृतिक अधिकारों को लेकर टकराव खड़ा होता है। मुस्लिम महिलाओं के बुर्के पहनने को लेकर बहुत से देशों में कानून बनाए गए हैं कि सार्वजनिक जगहों पर उन्हें मंजूरी नहीं दी जा सकती। फिर भी ऐसे तमाम देशों में बसे हुए, या शरणार्थी का दर्जा पाकर वहां ठहरे हुए लोगों के बुनियादी अधिकार उन लोगों के मुकाबले बहुत अधिक है जो कि इस्लामी देशों में बसे हुए गैरमुस्लिम लोग हैं। यह अपनी-अपनी राजनीतिक विचारधारा, और अपनी-अपनी संस्कृति है कि दूसरे देशों से आए हुए लोग, दूसरे धर्मों के लोग, इनके साथ कैसा बर्ताव किया जाए। 

लेकिन जब मुस्लिमों को, मुस्लिम देशों से आए हुए शरणार्थियों को बसने का मौका दिया जाता है, तो उनके धार्मिक अधिकारों के सामाजिक और सांस्कृतिक पहलुओं को कई देश अपने हिसाब से सीमाओं में बांधते हैं। इन पश्चिमी देशों की उदार राजनीतिक व्यवस्था भी मुस्लिम बिरादरी के माने जाने वाले बहुत से रीति-रिवाजों को बर्दाश्त नहीं करते, और उन्हें आमतौर पर मुस्लिम महिलाओं के खिलाफ मानते हुए उन रीति-रिवाजों के खिलाफ कानून भी बनाते हैं। इनमें से एक सबसे चर्चित मुद्दा बुर्का पहनने का रहा है। 

टकराव का दूसरा मुद्दा सामने आता है कि उदार लोकतंत्रों में लोग अपने या दूसरों के धर्मों को लेकर अपनी सोच लिख सकते हैं, या बोल सकते हैं। लेकिन हर धर्म का बर्दाश्त अलग-अलग होता है, अलग-अलग देशों में रहते हुए उसमें और भी फर्क आता है, दुनिया में जिस वक्त जैसा माहौल रहता है, उस माहौल से भी किसी धर्म का बर्दाश्त प्रभावित होता है। कुल मिलाकर एक व्यक्ति की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, और दूसरे व्यक्ति की धार्मिक भावना के बीच एक बड़ा टकराव कोई अनोखी बात नहीं है। खुद हिन्दुस्तान में ऐसा बहुत होता है, और आजकल तो आए दिन सोशल मीडिया पर किसी धार्मिक टिप्पणी को लेकर पुलिस रिपोर्ट होती रहती है। 

फ्रांस में जब पहली बार ऐसे कार्टून विवाद में आए, और वहां पर इस्लामी आतंकियों के हमले में दर्जन भर से अधिक लोग मारे गए, इस पत्रिका के दफ्तर पर भी हमला हुआ, तो भी फ्रांस और योरप में लोगों ने ऐसे आतंकी खतरे के बीच भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को ऊपर माना। 

हिन्दुस्तान जैसा रूख इन लोकतंत्रों का नहीं रहता कि सलमान रूश्दी की लिखी किताब जब दुनिया के किसी मुस्लिम देश में भी बैन नहीं हुई थी, तब वह हिन्दुस्तान में बैन हो गई थी। इसी तरह अभी कुछ बरस पहले एक पश्चिमी लेखक की हिन्दू धर्म पर लिखी हुई एक बहुत गंभीर शोधपरख किताब को भारत में बैन कर दिया गया। भारत के इतिहास के खरे तथ्यों को लेकर भी लोगों को नापसंद कोई बात लिखना यहां मुमकिन नहीं है, और अधिकतर पार्टियों की सरकारें पल भर भी जाया किए बिना इन पर रोक लगा देती हैं। हालत यह है कि बांग्लादेश छोडऩे को मजबूर लेखिका तसलीमा नसरीन ने भारत में शरण ली हुई है, लेकिन सांस्कृतिक रूप से वे अपने अनुकूल बंगाल में रहना चाहती थीं, लेकिन वहां की वामपंथी सरकार ने भी उन्हें इजाजत नहीं दी थी। 

आज दुनिया में लोकतंत्र के जितने किस्म के चेहरे प्रचलन में हैं, उनमें से बहुत से अपनी जमीन पर उदार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हिमायती हैं। इन लोकतंत्रों में धार्मिक कट्टरता मेल नहीं खाती है, लेकिन दूसरे देशों के नागरिकों को लेकर उनका जो कानूनी रूख है, उसके मुताबिक वे किसी धर्म के लोगों की अपने यहां आवाजाही, या बसाहट रोकते भी नहीं हैं। ऐसे लोगों को यह तय करना होगा कि वे जिस लोकतंत्र में हैं, वे वहां के कानून और वहां की संस्कृति के मुताबिक अपने को ढाल कर रहेंगे, या फिर वे लगातार एक टकराव का सामना करते रहेंगे, टकराव खड़ा करते रहेंगे? यह सिलसिला बहुत ही जटिल हो चुका है क्योंकि हाल के बरसों में बहुत से मुस्लिम देशों को छोडक़र दसियों लाख शरणार्थी दूसरे देशों में पहुंचे हैं, जिन्हें लेकर वहां के स्थानीय और मूल निवासियों के बीच भी तनाव है। बहुत से इलाकों को यह लग रहा है कि इतने बाहरी मुस्लिम आ जाने से उनके स्थानीय समाज का ढांचा ही बदल जाएगा। अपने देशों से बेदखल, लेकिन अपने धर्म को मानते हुए लोग जब ऐसे देशों में पहुंच रहे हैं जहां की स्थानीय संस्कृति भी उनसे मेल नहीं खाती, तो संस्कृतियों का यह टकराव खड़ा होता है। यह टकराव तब और बढ़ जाता है जब सिर्फ स्थानीय, या बाहरी आतंकी मदद से लोग उदारवादी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कातिल हमले करने लगते हैं। यह सिलसिला आसान नहीं है, और इसका कोई सरल हल नहीं है। लोग अगर आतंकी हमलों में थोक में मौतें झेलते हुए भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाकी चीजों से ऊपर मान रहे हैं, और उनका कानून भी उनका हिमायती है, तो फिर वहां बसे हुए, बाहर से आए हुए उन धर्मों के लोगों को सोचने की जरूरत पड़ती है जो कि ऐसे उदार व्यंग्य के खिलाफ हैं। संस्कृतियों का यह टकराव आसान मोर्चा नहीं है जिसे खारिज किया जा सके, यह आधुनिक लोकतांत्रिक सोच के साथ रखकर देखने पर ऐसे हिंसक टकराव का खतरा बताता ही है।  

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news