संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : घुट-घुटकर जीती पीढ़ी, गलत फैसलों का खतरा
29-Aug-2020 5:50 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : घुट-घुटकर जीती पीढ़ी, गलत फैसलों का खतरा

उत्तरप्रदेश की एक ताजा घटना अभी एक टीवी चैनल के वेबसाईट पर पढऩे मिली जिसमें वॉट्सऐप पर हुई गोष्ठी के चलते एक मुस्लिम युवती अपने वॉट्सऐप-प्रेमी से शादी करने के लिए तीन सौ किलोमीटर अकेले सफर करके उसके घर पहुंच गई, और वहां जाकर उसे पता लगा कि वह लडक़ा तो उससे पांच बरस छोटा है, और नाबालिग है। उसकी बहुत सी तस्वीरें भी इस वेबसाईट पर आई हैं जिनमें वह एकदम गरीब इस परिवार के घर के बाहर खाट पर डेरा डालकर बैठ गई है, और वह अपने इस फेसबुक-प्रेमी के बड़े भाई से भी शादी करने को तैयार है, इस्लाम छोडक़र हिन्दू बनने को तैयार है लेकिन वह अपने घर जाना नहीं चाहती क्योंकि वहां सौतेली मां है जो उसे प्रताडि़त करती है। 

एलएलबी कर रही एक युवती की यह कहानी हैरान करती है, और दिल भी दहलाती है कि लोग बिना कुछ देखे-समझे, बिना किसी जानकारी के किस तरह पूरी जिंदगी किसी के साथ गुजारने के लिए न सिर्फ तैयार हो जाते हैं बल्कि आमादा भी हो जाते हैं। सोशल मीडिया पर होने वाले रिश्तों की कहानी आसानी से मैसेंजर सर्विसों तक पहुंच जाती है, और फिर फोटो-वीडियो का लेन-देन हो जाता है, अंतरंग पलों की रिकॉर्डिंग हो जाती है, और अनगिनत मामलों में ब्लैकमेल की नौबत आ जाती है, हत्या या आत्महत्या हो जाती है। इस नौबत को देखकर यह समझना जरूरी है कि ऐसा लापरवाह मिजाज आखिर होता कैसे है? 

हिन्दुस्तान में तो एक बहुत बड़ी वजह यह है कि देश के बहुत बड़े हिस्से में अभी भी जवान लडक़े-लड़कियों का मिलना-जुलना बहुत आसान नहीं है। महानगरों, और दूसरे शहरों तक तो लडक़े-लड़कियां मिल लेते हैं, लेकिन जहां बात छोटे शहरों या कस्बों की आती है, तो बेचैन और बेकरार दिल इसी तरह टेलीफोन और इंटरनेट के सहारे जीते हैं, और जब ऐसा जीना मुमकिन नहीं रह जाता तो साथ मर जाते हैं। इंटरनेट की दोस्ती कब मोहब्बत में तब्दील हो जाती है, और कब जिंदगी के राज, जिंदगी के नाजुक पल दूसरे के साथ बंटना शुरू हो जाते हैं, वह भी पता नहीं चलता। जिस तरह एक पहाड़ी नदी ऊंचाई से नीचे पहुंचते हुए चट्टानों से टकराते बेतहाशा रफ्तार पकड़ लेती है, कुछ वैसी ही बात ताजा-ताजा मोहब्बत के साथ होती है, आंखें और अक्ल दोनों बंद हो जाते हैं, किसी बुरे वक्त के बारे में सोचना बंद हो जाता है, और लोग मोबाइल-कैमरों के सामने तन-मन खोलकर बैठ जाते हैं, और हत्या-आत्महत्या की नौबत का सामान बन जाते हैं। यह पूरा सिलसिला टेक्नालॉजी का मामला तो कम है, समाज में लोगों के मिलने-जुलने पर जो रोक-टोक है, उससे उपजा हुआ अधिक है। 

दुनिया के जिन देशों में हमउम्र लोगों के साथ उठने-बैठने पर, साथ रहने पर, साथ जीने और घूमने पर रोक नहीं रहती है, वहां इस किस्म की नौबत कम आती है, या हो सकता है कि न भी आती हो। जहां लोगों को अपनी पसंद के जीवन-साथी के साथ रहने मिलता है, वहां शायद इस किस्म की अपरिपक्व हरकत भी कम होती होगी। लेकिन हिन्दुस्तान ऐसा देश है जहां ऑनरकिलिंग के नाम पर अपने ही बच्चों को उनके प्रेमी-प्रेमिका के साथ सार्वजनिक रूप से मार डालकर लोग फख्र महसूस करते हैं कि उन्होंने खानदान की इज्जत बरकरार रखी। हिन्दी फिल्में भी ऐसे तानाशाह, अकबर-मिजाजी जल्लाद बाप की कहानियों से भरी रहती हैं जिनमें बच्चों को मर्जी से जीने नहीं दिया जाता। फिल्में समाज से प्रेरित होकर बनती है, और समाज फिल्मों से प्रेरित होता है, और मां-बाप ऐसे ही फिल्मी किरदार बनने के लिए एक पैर पर खड़े रहते हैं जो नापसंद बहू को घर से निकाल दें, या नापसंद दामाद को बेटी सहित मार ही डालें। 

हिन्दुस्तान में नौजवान पीढ़ी इस कदर भड़ास में जीती है कि जिसकी कोई हद नहीं। लडक़े-लड़कियों का साथ पढऩा मुश्किल, साथ घूमना-फिरना मुश्किल,  मां-बाप टेलीफोन तक की जासूसी पर उतारू, वेलेंटाइन डे या फ्रेंडशिप डे पर धर्मान्ध साम्प्रदायिक संगठन बाग-बगीचों में पीटने को तैयार, और वहां मौजूद पुलिस वहां से भगाने को तैयार। कुल मिलाकर देश का माहौल जवान हसरतों को जिंदा रहने देने के बहुत ही खिलाफ है। लोग अपने बच्चों के लिए कॉलेज पहुंच जाने पर भी आगे की पढ़ाई तय करते हैं, उनके टी-शर्ट का रंग पसंद करते हैं, लड़कियों के घर आने-जाने का वक्त एक कडक़ चौकीदार की तरह तय करते हैं। ये ही तमाम वजहें हैं कि अपने घर से थके हुए लडक़े-लड़कियां आपा खोकर फैसला लेते हैं, कहीं किसी के साथ जीने के लिए चले जाते हैं, तो कहीं किसी के साथ मरने के लिए। 

हम इस मुद्दे पर लिख तो रहे हैं, लेकिन इसका कोई आसान इलाज हमारे पास नहीं है। फिर यह भी समझने की जरूरत है कि यह बात महज नौजवान पीढ़ी तक सीमित नहीं है, हर दिन ऐसी कई खबरें रहती हैं जिनमें शादीशुदा लोग भी जीवन-साथी से परे किसी और के साथ रिश्ता शुरू कर लेते हैं, बातचीत फेसबुक से शुरू होती है, और बाद में उन्हें किसी बंद कमरे से पीट-पीटकर निकालते हुए वीडियो चारों तरफ फैलते हैं। हिन्दुस्तानी अधेड़ लोगों ने भी फेसबुक जैसे सोशल मीडिया के रास्ते घर बैठे ऐसे संबंध बनने की बात कभी सोची नहीं थी, समाज में ऐसा कुछ आसान नहीं था, और आजकल अपने जीवन-साथी से थके हुए या निराश लोग बड़ी संख्या में ऐसे ऑनलाईन रिश्तों में पड़ जाते हैं क्योंकि ऑनलाईन एक-दूसरे की खूबियां ही खूबियां दिखती हैं, खामियां तो लोग मामूली समझदारी से ही छुपाए रख जाते हैं। 

अब एलएलबी की एक छात्रा अपना परिवार और अपना धर्म छोडक़र महज वॉट्सऐप-दोस्ती के रास्ते एक अनजान परिवार में शादी के लिए पहुंच जाती है, और प्रेमी के नाबालिग निकलने पर उसके भाई से भी शादी करके वहीं रहना चाहती है। यह सिलसिला भयानक है, नौजवान पीढ़ी को अधिक परिपक्व होने की जरूरत है, और उनके मां-बाप को, उनके भाई-बहनों को यह समझ आना जरूरी है कि लोग अपनी मर्जी से भी जीना चाहते हैं। प्रेम-संबंधों में नाकामयाब होने पर अनगिनत हत्या-आत्महत्या होती हैं, और प्रेम कामयाब रहने पर भी अगर उसके शादी में बदलने में कामयाबी नहीं मिलती, तो भी ऐसी ही किस्म की हिंसा होती है। इस देश के समाज को सार्वजनिक परामर्श की जरूरत है, पूरी की पूरी आबादी को अगली पीढ़ी के हक की इज्जत करना सिखाने की जरूरत है। जब तक ऐसा नहीं होगा, नई पीढ़ी घुट-घुटकर जिएगी, और घुट-घुटकर ही मर जाएगी। समाज की ऐसी सोच के खिलाफ लोगों को खुलकर सार्वजनिक बातचीत करनी चाहिए।

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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