दो और दिल्ली की ओर
छत्तीसगढ़ कैडर के दो आईपीएस अफसर आंजनेय वाष्र्णेेय, और प्रभात कुमार केन्द्रीय प्रतिनियुक्ति पर जा सकते हैं। दोनों की पोस्टिंग आईबी (इंटेलिजेंस ब्यूरो) में होने की खबर है। वाष्र्णेेय धमतरी एसपी, तो प्रभात कुमार नारायणपुर एसपी हैं।
आईपीएस के 2018 बैच के अफसर आंजनेय वाष्र्णेेय नक्सल प्रभावित इलाकों में काम कर चुके हैं। वो सुकमा एसपी रह चुके हैं। इसी तरह वर्ष-2019 बैच के प्रभात कुमार नारायणपुर एसपी हैं। प्रभात कुमार ने नक्सल उन्मूलन अभियान में प्रभावी भूमिका निभा रहे हैं। यही वजह है कि दोनों ही अफसर आईबी के लिए सलेक्ट हुए हैं। इससे पहले प्रदेश के चार अफसर आईबी में सेवाएं दे चुके हैं।
रिटायर्ड डीजीपी विश्वरंजन आईबी में स्पेशल डायरेक्टर के पद पर रह चुके हैं। इसी पद पर स्वागत दास, और बीके सिंह भी रहे हैं। इससे परे मौजूदा रायपुर आईजी अमरेश मिश्रा भी आईबी में स्पेशल डायरेक्टर के पद पर काम कर चुके हैं। देखना है कि आंजनेय वाष्र्णेेय, और प्रभात कुमार को केन्द्रीय प्रतिनियुक्ति पर जाने की अनुमति मिलती है, या नहीं।
उल्लेखनीय है कि बस्तर आईजी सुंदरराज पी की भी हैदराबाद पुलिस अकादमी में पोस्टिंग हो गई थी, लेकिन राज्य सरकार ने प्रदेश में नक्सलियों के खिलाफ चल रहे अभियान को देखते हुए उन्हें प्रतिनियुक्ति में जाने अनुमति नहीं दी। बाद में केन्द्र ने भी इस पर सहमति दे दी।
कर्मचारी राजनीति से 62+ बाहर हो
कुछ वर्ष पूर्व राजनीति में 70+के रिटायरमेंट की वकालत जोरों पर थी। और अब कर्मचारी संगठनों में 62 में रिटायर होते ही नेताओं को गैर जरूरी माना जाने लगा है । इसे लेकर वाट्सएप चर्चा होने लगी है। प्रदेश कर्मचारी अधिकारियों के 110 अलग अलग संघ संगठनों के फेडरेशन की नई कार्यकारिणी में किसे लिया जाए किसे नहीं इस पर दावे प्रतिदावे भी हो रहे।
फेडरेशन के संयोजक का चुनाव सर्वसम्मति और निर्विरोध हो गया । क्योंकि वे अभी सेवारत हैं। चहुंओर से उन्हें बधाई के साथ कार्यकारिणी बनाने सुझाव भी मिल रहे। इसमें अधिकांश का कहना है कि वही परंपरागत पुराने नेताओं के बजाए नए चेहरों को फेडरेशन की स्टेट बॉडी में लिया जाए। न कि जो रिटायर्ड हो चुके हैं।
कर्मचारी कांग्रेस में एक पंडित जी ऐसे ही हैैं। एक ने तो सीधे कह दिया कि विनम्रता पूर्वक आग्रह एवं सुझाव है कि फेडरेशन की प्रदेश की नई टीम में किसी भी रिटायर्ड कर्मचारी या अधिकारी को शामिल न करें। क्योंकि इनके लिए पेंशनर्स फोरम बना हुआ है। नए एवं ऊर्जावान कर्मचारियों को प्रदेश की नई टीम में स्थान मिलना चाहिए। इसका समर्थन करते हुए दूसरे ने कहा कि सेवानिवृत्त वरिष्ठ सम्माननीय साथियों को पेंशनर फोरम को मजबूत एवं सुदृढ़ करने पर फोकस करना चाहिए। फेडरेशन की कार्यकारिणी में वर्तमान में सेवारत विभिन्न संगठनों के पदाधिकारियों को स्थान दिया जाना उचित होगा।
ऐसे लोग भी बाहर किए जाएं
इसी चर्चा में नई मांग भी आई कि फेडरेशन से ऐसे लोगों को बाहर का रास्ता भी दिखाया जाना चाहिए जो पहले तो साथ होने का दंभ भरते है और जब आंदोलन का समय आता है तो अपनी अलग मांग का बहाना बनाकर पीछे हट जाते हैं। ऐसे लोग मोर्चा बनाकर आंदोलन को कमजोर करते है।
रिटायर्ड अफसरों-कर्मचारियों के प्रति ऐसे विचार पढक़र एक अन्य ने कहा साथियों छत्तीसगढ़ कर्मचारी अधिकारी फेडरेशन प्रदेश इकाई रायपुर के कार्यकारिणी के अंदर सेवानिवृत कर्मचारी नेताओं को स्थान नहीं देना उचित नहीं लगता है। कई ऐसे सेवानिवृत कर्मचारी नेता हैं जो सेवारत नेताओं से ज्यादा सहयोग और संघर्ष में साथ दे रहे है । इसीलिए संयोजक पर ही भरोसा बनता है। इस चर्चा के बाद कमल वर्मा को कार्यकारिणी गठन आसान नहीं होगा। उन्हें 60/40 के अनुपात में सेवारत, सेवानिवृत्त को लेकर संतुष्ट करना होगा।
अवैध शराब बेची तो घर टूटेगा
छत्तीसगढ़ आबकारी अधिनियम की धारा 34(2) अवैध शराब के निर्माण और बिक्री पर सख्त सजा का प्रावधान करती है। इसके तहत पहली बार अपराध करने पर एक से तीन वर्ष तक की सजा और 25,000 रुपये तक का जुर्माना तथा दूसरी बार अपराध सिद्ध होने पर पांच से दस वर्ष तक की सजा और 2 लाख तक का जुर्माना हो सकता है। यह प्रावधान तभी लागू होता है जब जब्त की गई शराब की मात्रा 50 लीटर से अधिक हो। इससे कम मात्रा की बरामदगी पर धारा 34(1)(एफ) के तहत कार्रवाई होती है, जिसमें तीन महीने की सजा निर्धारित है। इससे यह स्पष्ट है कि दो-चार लीटर शराब की बरामदगी को व्यावसायिक गतिविधि नहीं माना जाता, फिर भी सजा का प्रावधान है।
व्यावहारिक स्तर पर देखा जाए तो पुलिस और आबकारी विभाग की रुचि सजा दिलाने में कम और जब्ती तथा मुकदमों की संख्या बढ़ाने में अधिक होती है। कई बार यदि अधिक मात्रा में शराब बरामद होती है, तो आरोपियों की संख्या जानबूझकर बढ़ा दी जाती है ताकि प्रति व्यक्ति जब्त शराब की मात्रा 50 लीटर से कम दिखे और सख्त धाराएं लागू न हो सकें। दूसरी बार की गिरफ्तारी में सजा बढ़ जाती है, इसलिए आरोपी का नाम बदल दिया जाता है ताकि दोबारा अपराध का मामला न बने।
जनमानस में यह धारणा गहरी है कि पुलिस और आबकारी विभाग की मिलीभगत से ही यह धंधा फल-फूल रहा है। फरवरी 2025 में बिलासपुर जिले के लोफंदी गांव में अवैध महुआ शराब के सेवन से नौ लोगों की मृत्यु हो गई थी। घटना के बाद पुलिस ने अभियान तो चलाया, लेकिन जिन अधिकारियों की शह पर यह कारोबार चल रहा था, उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई।
इन दिनों राज्यभर में ‘सुशासन अभियान’ चल रहा है, और बिलासपुर में भी सैकड़ों शिकायतें अवैध शराब निर्माण और बिक्री को लेकर आई हैं। लोफंदी की घटना के बावजूद इतनी शिकायतों का आना यह दर्शाता है कि प्रशासन की छत्रछाया में यह कारोबार जारी है। शिकायतों की बड़ी संख्या से नाराज कलेक्टर ने तहसीलदारों को चेतावनी दी है। आबकारी या पुलिस की जगह तहसीलदारों को आदेश देने का मतलब अलग है।
अब सवाल यह है कि अवैध शराब बेचते पकड़े गए लोगों का घर गिरा देना समस्या का समाधान है? उत्तर प्रदेश में योगी सरकार ऐसा करती रही है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस पर नाराजगी जताई है और कुछ मामलों में पीडि़तों को मुआवजा देने के निर्देश भी दिए हैं। इसके बावजूद बिलासपुर के कलेक्टर ने ऐसे ही आदेश दे दिए हैं। यह स्पष्ट नहीं है कि उन्होंने किस कानून के तहत उनके घरों को तोडऩे आदेश दिया है। आबकारी अधिनियम में पहले से ही सजा के पर्याप्त प्रावधान मौजूद हैं। यदि प्रशासन इन्हें साफ नीयत और पारदर्शिता के साथ लागू करे, तो ऐसे बेतुके और असंवैधानिक आदेश की जरूरत ही नहीं पड़ेगी।
कभी जिरहुल के फूलों का स्वाद चखा?
छत्तीसगढ़ में आदिवासी समाज के लिए यह सिर्फ एक फूल नहीं, बल्कि स्वाद, परंपरा और औषधीय गुणों से भरपूर एक अनमोल विरासत है। सतपुड़ा बेल्ट में ‘जारोल’ या ‘जिरोला’ झारखंड में ‘जिरहुल’ और कुछ इलाकों में ‘खिलबीरी’ के नाम से पहचाने जाने वाले इस फूल का वानस्पतिक नाम इंडिगोफेरा पलचेल्ला है।
इन फूलों को आदिवासी महिलाएं जंगलों से बड़े जतन से बटोर लाती हैं। कच्चा चबाने पर इसका स्वाद कसैला होता है, लेकिन पानी में उबालकर, उसे छानकर और फिर तडक़ा देने पर इसका स्वाद बेहद खास हो जाता है। पारंपरिक रूप से इसे मक्के की रोटी या भात के साथ बड़े चाव से खाया जाता है। दमा के मरीजों के लिए इसकी भाजी लाभकारी मानी जाती है। इसमें मौजूद एंटीऑक्सीडेंट्स और पोषक तत्व इसे कुपोषण से लडऩे वाला प्राकृतिक उपाय बनाते हैं। आदिवासी और ग्रामीण खानपान की ये पारंपरिक धरोहरें अब धीरे-धीरे विलुप्त होती जा रही हैं। इनके साथ-साथ वो प्राचीन ज्ञान भी गुम हो रहा है, जो पीढिय़ों से प्राकृतिक इलाज का माध्यम रहा है।