संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : नारायणमूर्ति एक बार फिर देश के अलालों को खफा कर रहे...
15-Mar-2025 4:39 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : नारायणमूर्ति एक बार फिर देश के अलालों को खफा कर रहे...

इन्फोसिस के एक संस्थापक नारायण मूर्ति ने हाल ही में कुछ दूसरी अलोकप्रिय बातें भी कहीं जब उन्होंने हफ्ते में 50-60 घंटे काम करने की नसीहत दी। जैसा कि हिंदुस्तानियों के आम मिजाज में होता है, उनकी बात का सही मतलब निकालकर उससे प्रेरणा लेने के बजाय, हर किस्म के लोग यह कहते हुए उन पर टूट पड़े कि वे कामगारों का शोषण करना चाहते हैं। जबकि उन्होंने कुल यही कहा था कि जिन्हें आगे बढ़ना है उन्हें अतिरिक्त मेहनत करनी चाहिए। उनके उस मासूम बयान के खिलाफ देश के बेरोजगारों ने सोशल मीडिया पर ओवरटाइम करते हुए उनकी खूब लानत-मलानत की थी। लेकिन ऐसा करने वालों ने यह नहीं सोचा कि अभी तो वे हफ्ते में दस घंटे भी काम नहीं कर रहे हैं तो चालीस की जगह पचास या पचास की जगह साठ घंटे काम करने को लेकर उन्हें क्यों शिकायत होनी चाहिए? मानो अब नारायण मूर्ति की आलोचना कुछ ठंडी पड़ रही हो, उन्होंने अब देश में राजनीतिक दलों के चुनावी वायदों को लेकर यह बात कही है कि फ्रीबीज से दुनिया का कोई भी देश गरीबी नहीं मिटा सका है। एक बड़े सफल कारोबारी होने के नाते नारायण मूर्ति को विश्व की अर्थव्यवस्था की भी कुछ समझ तो है ही, यह एक अलग बात है कि उन्हें एक पूंजीपति मानते हुए लोग यह कह सकते हैं कि गरीबों को फायदा देने के लिए बनायी जाने वाली जनकल्याणकारी योजनाओं को लेकर उनकी समझ सिर्फ अपमानजक फ्रीबीज शब्द तक सीमित हो सकती है। नारायण मूर्ति ने अभी यह कहा है कि अगर गरीबी मिटानी हो तो लाखों नौकरियां पैदा करनी होंगी, जाहिर है कि वे सरकारी नौकरियों की बात नहीं कर रहे हैं। और इस देश के बेरोजगार हैं जो कि अपने आपको निजी नौकरियों के लायक, या किसी स्वरोजगार के लायक तैयार करने के बजाय सरकारी नौकरियों के इंतजार में उम्मीदवारी की उम्र खो बैठते हैं।

 
नारायण मूर्ति ने फ्रीबीज की आलोचना का खुलासा करते हुए कहा कि सरकार और समाज को यह आकलन करना चाहिए कि क्या फ्रीबीज देने का लोगों की जिंदगी पर कोई असर हो रहा है? उन्होंने कहा कि मुफ्त बिजली दी जाती है तो क्या उसका इस्तेमाल बच्चों की पढ़ाई के लिए किया गया है? उनकी इस बात से लोगों को याद रखने की जरूरत है कि सुप्रीम कोर्ट में इस तथाकथित फ्रीबीज के खिलाफ एक सुनवाई चल ही रही है। भाजपा से जुड़े एक वरिष्ठ वकील ने दूसरी बहुत सी जनहित याचिकाओं के साथ-साथ यह जनहित याचिका भी दायर की है कि फ्रीबीज बंद की जाएं। राजनीतिक दल चुनावी घोषणा की शक्ल में बहुत सी चीजें और सहूलियत मुफ्त देने का वायदा करते हैं और उसके बाद उन पर यह नैतिक दबाव भी रहता है कि सत्ता में आने पर वे उन्हें पूरा करें। लेकिन एक-एक कर बहुत से राज्यों की अर्थव्यवस्था यह बतला रही है कि राज्य चुनावी वायदों को पूरा करते हुए ही चुक जाते हैं, और ढांचागत विकास या दूसरे विकास कार्यक्रमों के लिए उनके पास रकम ही नहीं बचती है। कई राज्यों में तो हालत पहले से यह थी कि उनके पास तनख्वाह देने को भी पैसा नहीं था, लेकिन चौराहे पर चल रही नीलामी में बोली बोलने के अंदाज में जब राजनीतिक दल दूसरी पार्टी के घोषणा पत्र की सफेदी की चमकार से अधिक सफेद पेश करने की हड़बड़ी में रहते हैं, तो फिर वे इस बात की परवाह नहीं करते कि ऐसे वायदों के लिए पांच बरस तक रकम कहां से आएगी। उन्हें लगता है कि किसी भी तिकड़म से एक बार सत्ता पर आ जाए, तो उसके बाद या तो इंतजाम हो जाएगा या कुछ वायदों को छोड़ दिया जाएगा। देश में ऐसे माहौल में इस गलाकाट मुकाबले पर रोक कैसे लगाई जाए इसमें सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग दोनों दखल देना नहीं चाहते, क्योंकि यह सरकारों की अपनी नीतियों पर निर्भर करता है कि वे किस चीज पर कितना खर्च करें। लेकिन हमारा मानना है कि सरकार बनने के पहले तक राजनीतिक दलों के लिए लागू की गई आचार संहिता का विस्तार किया जा सकता है, और जिस तरह पिछले कुछ चुनावों में उनमें अपराधियों पर रोक लगायी गई है, सरकारी कर्ज खा जाने वालों पर रोक लगायी गई है, उसी तरह बेहिसाब वायदे करने वाले राजनीतिक दलों पर भी रोक लगाई जा सकती है। अब इस हिसाब का आंकड़ा कहां पर आकर रुके यह तय करना बड़ा मुश्किल काम है, और सुप्रीम कोर्ट ने राजनीतिक दलों और चुनाव आयोग को जो नोटिस दिए हैं उनका कम से कम एक मकसद तो यह है कि चुनावी वायदों पर एक नकेल कसी जा सके।

वोटरों को सीधा फायदा पहुंचाने वाले बहुत से कार्यक्रमों को लेकर हमारा अपना तजुर्बा यह है कि वे अपात्र लोगों से भरे हुए हैं, जहां महिलाओं को सीधे रकम भेजना भारत के लोकतांत्रिक इतिहास का सबसे बड़ा चुनावी मुद्दा बना हुआ है वहां यह भी धड़ल्ले से देखने मिल रहा है कि गैरगरीब महिलाएं ऐसा फायदा पाने में बड़ी संख्या में बड़े उत्साह से आगे हैं। जनकल्याण की जो भी योजनाएं बहुत बड़े तबके के लिए लागू होती हैं उन पर यह खतरा रहता ही है कि अपात्र लोग उनका खून तक चूस डालते हैं। हमने छत्तीसगढ़ के सबसे सफल पीडीएस कार्यक्रम को भी देखा था, उसमें भी जब अपात्र लोगों के नाम काटे गए थे तो वे शायद दस-पंद्रह फीसदी तक पहुंच गए थे। इसलिए जब कभी कोई पार्टी चुनावी घोषणा पत्र तैयार करती है, तो उसे गैर जिम्मेदारी से बढ़ावा देने के बजाय यह भी साफ करना चाहिए कि कौन लोग उसके अपात्र रहेंगे। चुनावी प्रचार के बीच इस तरह का अनुशासन किसी को नहीं सुहाता, और जैसा कि बाजार में झांसा देने वाले शेयर फॉर्म पर नियम और शर्तों को अपठनीय छोटे अक्षरों में छापा जाता है, वैसी ही राजनीतिक दल चुनावी घोषणाएं करते हुए करते हैं।

हम नारायण मूर्ति की इस बात से सहमत हैं कि जनता को सरकारी खजाने से जो पैसा मिलता है उसकी उपयोगिता और उत्पादकता आंकी जानी चाहिए, ऐसा न करने पर हम, बिना काम किए बड़ी सहूलियत से सब कुछ पाने वाले अलाल लोगों की एक ऐसी पीढ़ी खड़ी करते हैं जो देश की अर्थव्यवस्था का दिवाला निकालकर भी कुछ और सहूलियतों की हसरत बाकी रखेगी। करोड़पतियों को स्वास्थ्य बीमा का फायदा क्यों दिया जाए? उन्हें दौ सौ यूनिट तक की बिजली मुफ्त क्यों दी जाए? उन्हें ऑटो एक्सपो नाम का मेला लगाकर एक-एक करोड़ रुपए की कार में 50 फीसदी की टैक्स छूट क्यों दी जाए? जब किसी भी तरह की रियायत जनता के खून-पसीने से बने खजाने से दी जाती है तो उसका फैसला बहुत जिम्मेदारी के साथ होना चाहिए, वह किसी तबके की जरूरत और समाज के तमाम तबकों के बीच उसकी प्राथमिकता के आधार पर तय होना चाहिए। हम सबसे जरूरतमंद तबके को बाकी समाज के साथ-साथ चलने लायक मदद करने के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन मेहनत करने के बजाय अगर जनता अपने को सरकार की बारात में आए बाराती की तरह जनवासे में ठहरा हुआ मान ले, तो यह उस जनता के लिए खुद भी आत्मघाती है और देश के भी खिलाफ है। रियायती चावल देना, और धान के भरपूर दाम देना, इसका मतलब अगर जनता का जमकर दारु पीने का रिकॉर्ड बनाना है, तो ऐसी रियायतों पर सरकारों को सोचना चाहिए। 

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