संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : शतरंज, कैरम, कॉमिक्स से लेकर चेहरे के रंग तक बिखरी सामाजिक राजनीति
20-Jan-2025 6:40 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय :  शतरंज, कैरम, कॉमिक्स से लेकर चेहरे के रंग तक बिखरी सामाजिक राजनीति

केरल हाईकोर्ट ने अभी एक मामले में कहा ही था कि किसी व्यक्ति के शरीर को लेकर मोटा, पतला, ठिंगना, ऊंचा, सांवला, बहुत काला ऐसा कुछ भी कहने से परहेज करना चाहिए क्योंकि यह लोगों में शर्मिंदगी पैदा होने का काम होता है। जिस दिन हाईकोर्ट ने यह टिप्पणी की उसी दिन केरल के मलप्पुरम में एक 19 बरस की लडक़ी ने खुदकुशी कर ली जो कि अपने पति और उसके परिवार द्वारा रंग को लेकर लगातार की जा रही आलोचना से थक चुकी थी। इन दिनों अंग्रेजी बोलचाल में जिसे बॉडी-शेमिंग कहते हैं, बदन को लेकर शर्मिंदगी पैदा करने का यह काम हिन्दुस्तान में सबसे अधिक रंग को लेकर होता है। शादी के इश्तहार देखें तो हर किसी को गोरी लडक़ी चाहिए। जाति के साथ-साथ गोरे रंग की बराबरी की मांग रहती है। और गोरेपन से लेकर सांवलेपन के बीच कई शेड रहते हैं, जिन्हें लोग स्टूडियो की कलाकारी से बदलते हैं, या शब्दों में काले को सांवला, सांवले को गेहुंआ, गेहुंए को गोरा लिखने की भी कोशिश की जाती है। दुल्हन ढूंढते हुए तो काले लडक़ों के लिए भी मां-बाप गोरी दुल्हन तलाशते हैं ताकि अगली पीढ़ी का रंग कुछ ‘सुधर जाए’।

लेकिन रंगभेद महज हिन्दुस्तान में नहीं है, और कोई नई बात भी नहीं है। पूरी दुनिया में रंगभेद का भयानक इतिहास रहा है। इंसानों के बीच रंगभेद का नतीजा यह हुआ है कि लोग दुनिया भर के दूसरे कामों में भी रंगभेद करने लगे हैं, और लंबे समय से करते आए हैं। इस चर्चा को कहां से शुरू करें, और कहां खत्म करें, यह तय करना बड़ा मुश्किल है। अभी हिन्दुस्तान के दो-तीन बिल्कुल ही नौजवान खिलाडिय़ों ने शतरंज में बड़ी कामयाबी पाई है। अब शतरंज काली और सफेद गोटियों से खेला जाने वाला खेल है। यह पूरी तरह बिसात पर चली जाने वाली चालों का खेल है, लेकिन लोगों के दिमाग में काले और सफेद का फर्क ऐसा है कि काली गोटियों से खेलने वाले कुछ दबाव में रहते हैं, कि उनकी जीत की संभावना कम रहेगी। किसी जानकार ने 1851 से लेकर अब तक काली और सफेद गोटियों से खेलने वाले लोगों और उनमें से जीत पाने वाले लोगों का हिसाब लगाया है तो सफेद गोटियां काली के मुकाबले अधिक जीतती हैं। इसके साथ-साथ यह बात भी है कि खेल जैसे-जैसे ऊपर दिग्गज दर्जे पर पहुंचने लगता है, वैसे-वैसे सफेद की संभावना और बढ़ती जाती है। जिस किसी धारणा से भी सफेद गोटी वाले खिलाड़ी को अधिक आत्मविश्वास मिलता होगा, और काली गोटी वाले खिलाड़ी निराश होते होंगे, दिलचस्प बात यह है कि हिन्दुस्तान के दक्षिण भारत के सबसे सांवले या काले लोग भी शतरंज में सबसे कामयाब रहे हैं। इसी तरह एक दूसरे खेल को देखें जो कि हिन्दुस्तान में सडक़ किनारे भी खेला जाता है। कैरम की काली और सफेद गोटियों का मूल्य देखें तो काली गोटियों का मूल्य दस-दस रहता है, और सफेद गोटियों का बीस-बीस। अब रंगों को लेकर खिलाडिय़ों पर फर्क पड़ता है, या किसी रंग को नीचा दिखाने के लिए उसका दाम इस तरह रखा गया है, यह सोचने की बात है।

एक दूसरी मिसाल देखें जो कि रंगभेद की एक बड़ी ज्वलंत मिसाल है। दुनिया भर में सबसे मशहूर फैंटम और मैन्ड्रेक के कॉमिक्स देखें तो फैंटम एक गोरा व्यक्ति है जो कि अफ्रीका के जंगलों में बौने, काले लोगों को मुसीबतों से बचाने के लिए वहां जाता है, रहता है, और पीढ़ी-दर-पीढ़ी एक ही नकाब में जीते हुए वह पूरी काली नस्ल की रक्षा करता है। उसे काले, बौने अफ्रीकी आदिवासी ईश्वर की तरह पूजते हैं, और जो पढऩे वाले लोगों के दिमाग में यह साफ-साफ तस्वीर बना देता है कि काले लोगों को बचने के लिए एक गोरे ईश्वर की जरूरत रहती है। दूसरी कॉमिक्स मैन्ड्रेक की देखें तो यह एक गोरा जादूगर है जो दुनिया के मुजरिमों और बुरे लोगों से भिड़ता है, और उसका सहयोगी लोथार नाम का एक अफ्रीकी राजकुमार है जो अपने राजपाठ को छोडक़र एक सेवक की तरह मैन्ड्रेक के साथ साये जैसा रहता है। अब एक अफ्रीकी राजकुमार को क्यों किसी अमरीकी गोरे जादूगर के अंगरक्षक-सहायक की तरह रहना चाहिए? लेकिन रंगभेद को बच्चों के मन में शुरू से ही गहरे जमा देने की यह एक गोरी चाल के अलावा और कुछ नहीं है। गोरी पश्चिमी दुनिया में ऐसी और भी बहुत सी मिसालें फिल्मों में देखने मिलती हैं। फिल्मों में यह बात कई बार मुद्दा रही कि कब कोई काला जेम्स बॉंड बनेगा? पश्चिमी दुनिया से निकली और दुनिया भर में सबसे मशहूर गुडिय़ा बार्बी 1959 में बाजार में उतारी गई, लेकिन पहली काली बार्बी 1980 में बाजार में आ पाई, और इसे लेकर इन 21 बरसों में खूब लिखा गया था।

हम हिन्दुस्तान में बच्चों के लिए लिखे गए एक गाने की चर्चा पहले भी कर चुके हैं, नानी तेरी मोरनी को मोर ले गए, बाकी जो बचा काले चोर ले गए। अब यह बात बच्चों के मन में इस बात को बिठा देती है कि चोर काले रंग के होते हैं। इसका दूसरा असर यह होता है कि उनमें से कुछ बच्चे चार कदम आगे बढक़र यह भी सोच सकते हैं कि काले लोग चोर होते हैं। गोरी अंग्रेज दुनिया में काले लोगों के खिलाफ कई किस्म की भाषा चलती है, और सभ्यता के विकास के साथ-साथ उनमें से कई शब्दों के खिलाफ कानून भी बना है। लेकिन काले रंग को नकारात्मक, और प्रतिरोध या विरोध का प्रतीक जाने-अनजाने बना दिया गया है। काले झंडे दिखाए जाते हैं, काली रिबिन बांधी जाती है, काला बाजारी होती है, ब्लैक मार्केटिंग, सिनेमा टिकट ब्लैक में बिकती है, सीमेंट ब्लैक मार्केट में बिकता है, हम बचपन से जितना पढ़ते आए हैं काले रंग को लेकर नकारात्मक के अलावा और कुछ नहीं दिखा है। लोग यह लिखते हैं कि फलां का नाम इतिहास में काले अक्षरों में लिखा जाएगा। इस तरह की मिसालें अंतहीन हैं। ईसाई दुनिया में मौत काले लबादे में आती है, और हिन्दुओं में यमराज काले भैंसे पर सवार होकर आता है। यमदूत कभी गोरे नहीं दिखाए जाते, और मौत को लेकर बनने वाले लतीफों को ब्लैक ह्यूमर कहा जाता है। इस तरह हमारी पूरी सांस्कृतिक सोच काले रंग को नकारात्मक बनाने की चली आ रही है। इसलिए कोई हैरानी नहीं है कि भारत जैसे देश में किसी सांवली या काली लडक़ी को ताने मार-मारकर खत्म कर दिया जाता है, उसका आत्मविश्वास तोड़ दिया जाता है। रंगों की राजनीति को कुछ खुले दिल-दिमाग से समझने की जरूरत है, उसके बिना गांधी को उनके रंग के कारण गोरों के राज वाले अफ्रीका की ट्रेन से बाहर फेंक देना जारी रहेगा। ऐसी हो सोच के चलते केरल में इस नौजवान बहू को ससुराल में खुदकुशी करनी पड़ी।  (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)  

अन्य पोस्ट

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news