संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : किसी हीरे के फलक जितने किस्म की हिंसा होती है हिन्दुस्तानी लडक़ी-महिला से
29-Dec-2024 4:50 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : किसी हीरे के फलक जितने किस्म की हिंसा होती है हिन्दुस्तानी लडक़ी-महिला से

महाराष्ट्र की परभनी जिले की खबर है, एक आदमी ने तीसरी बेटी का जन्म होने पर पत्नी को पेट्रोल डालकर जिंदा जला डाला। यह हिंसा सीसीटीवी कैमरे पर कैद भी हुई है, और लोग इसके गवाह भी हैं। कुंडलिक उत्तम काले नाम के व्यक्ति ने अपनी मैना नाम की 34 बरस की पत्नी से लगातार हिंसा का सिलसिला चला रखा था, और एक के बाद एक बेटियां पैदा होने पर उसकी हिंसा बढ़ती जा रही थी जो कि अब इस तरह के भयानक कत्ल में तब्दील हुई।

यह मामला हिन्दुस्तान के बहुसंख्यक तबके में लडक़ों की चाह का एक बड़ा सुबूत है। अजन्मी बच्चियों की भ्रूण-हत्या रोकने के लिए भ्रूण की मेडिकल जांच से लडक़े-लडक़ी का पता लगाना गैरकानूनी कर दिया गया है, लेकिन फिर भी वह लुके-छिपे चलते रहता है, और उससे अजन्मी बच्चियों को मारना भी जारी है। गिनती में जरूर कम होंगे, लेकिन अधिक संपन्न तबकों के लोग ऐसी जांच के लिए दुनिया के उन देशों में चले जाते हैं जहां पर कि भ्रूण-लिंग परीक्षण गैरकानूनी नहीं है, क्योंकि उन देशों में किसी को ऐसा अंदाज भी नहीं होगा कि हिन्दुस्तानी अजन्मी लड़कियों को छांट-छांटकर मारते हैं। हमने यहां पर बहुसंख्यक हिन्दू तबके का खास जिक्र इसलिए किया है कि इसकी कई धार्मिक मान्यताओं के साथ-साथ इसके सामाजिक रिवाजों में भी बेटे का होना एक किस्म से जरूरी मान लिया जाता है क्योंकि उसके बिना न अंतिम संस्कार हो सकता, और न ही स्वर्ग प्राप्त हो सकता, जिसका कि कोई सुबूत भी नहीं है। दूसरी तरफ लडक़ी है जिसे जन्म से शादी तक ‘पराए घर की अमानत’ माना जाता है, और फिर शादी से लेकर मरने तक ‘पराए घर से आई हुई’। हिन्दू लडक़ी एक किस्म से फिलीस्तीन होती है, जो बेघर रहती है, जिसका अपना कोई घर होता ही नहीं, शायद वृंदावन का विधवाश्रम उनका पहला और आखिरी घर होता है।

हमें मालूम है कि कई लोग हमारे इस विश्लेषण और निष्कर्ष को अन्यायपूर्ण मानेंगे, और इस तस्वीर को हिन्दू समाज की अधिक बड़ी हकीकत नहीं मानेंगे, लेकिन हिन्दुओं में लड़कियों और महिलाओं की हालत ऐसी ही है। इस धर्म से जुड़े कुछ पुराने मार्गदर्शक ग्रंथ इस बात की वकालत करते हैं कि लडक़ी को पहले पिता के नियंत्रण में रहना चाहिए, फिर पति के नियंत्रण में, और पति के जाने के बाद पुत्र के नियंत्रण में। ऐसे में यही लगता है कि वृंदावन के विधवाश्रम में पहुंचने के बाद ही वह इन तीनों किस्मों के नियंत्रण से जिंदगी में पहली बार बाहर हो पाती है। लोगों को याद होगा कि हर बरस हिन्दुस्तान में दर्जनों या सैकड़ों ऑनरकिलिंग होती हैं, जो कि मोटेतौर पर लडक़ी के परिवार द्वारा लडक़ी की की गई हत्या रहती है क्योंकि उसने अपनी मर्जी से शादी की है। बालिग लडक़ी की शादी को भी परिवार अपने फैसले का सामान मानता है, और यह सोच हिन्दू विवाह की एक रस्म से उपजी और मजबूत हुई है कि शादी के लिए लडक़ी का कन्यादान किया जाता है। यह तो जाहिर है कि दान किसी सामान का होता है, या किसी जानवर का। ऐसे में जब इसे समारोहपूर्वक की जाने वाली एक रस्म बनाकर रखा गया है, तो जाहिर है कि कन्या को सामान मान लेने की हिन्दुस्तानी सोच में कुछ भी अटपटा नहीं है।

पहले भी कुछ मौकों पर हम इस मिसाल को लिख चुके हैं कि किस तरह देश के सबसे बड़े कैंसर अस्पताल, मुम्बई के टाटा मेमोरियल कैंसर हॉस्पिटल ने वहां पहुंचने वाले मरीजों का एक सर्वे करने पर यह पाया था कि कैंसर की शिनाख्त होने पर लोग बेटों को तो इलाज के लिए लेकर आते हैं, लेकिन बेटियों को लाने वाले बहुत कम रहते हैं। जाहिर है कि लोग यह मान लेते हैं कि बेटी तो पराया सामान है, किसी दूसरे परिवार की अमानत है, और उस पर खर्च क्यों किया जाए? हो सकता है कि बहुत संपन्न तबकों के लिए बेटों और बेटियों दोनों के इलाज का बोझ उतना बड़ा न रहता हो, लेकिन जिन परिवारों में इलाज का खर्च मायने रखता है, खर्च से परे भी बहुत किस्म की मेहनत लगती है, वहां बेटों को इलाज के लायक माना जाता है, और बेटियों को उनके हाल पर छोड़ देने के लायक। अगली पीढ़ी के लडक़े और लड़कियों में भेदभाव से परे भी भारत के आम समाज में महिला की हालत बहुत खराब है। कहीं खाना न पकने पर, या गर्म खाना न मिलने पर पति पत्नी को मार डाल रहा है, तो कहीं मामूली से झगड़े में उसे ऊपरी मंजिल से नीचे फेंक दे रहा है। कुल्हाड़े से काटकर फेंक देने के भी कई मामले सामने आते हैं, और भूले-भटके ही ऐसी खबर आती है कि पत्नी ने पति को मार डाला। शायद ऐसे मामले पांच-दस फीसदी भी नहीं होते होंगे।

दूसरी तरफ हिन्दुस्तान में कामकाजी महिला के देह-शोषण को लेकर बने कानूनों पर अमल बहुत ही कमजोर है, और यह देश सुप्रीम कोर्ट के एक मुख्य न्यायाधीश को देख चुका है जिस पर उसकी मातहत कर्मचारी ने यौन-शोषण का आरोप लगाया था, और यह चीफ जस्टिस को शिकायत की सुनवाई के लिए खुद ही जजों की बेंच का मुखिया बनकर बैठ गया था। ऐसे रंजन गोगोई को आज यह देश राज्यसभा में भी देख रहा है। जाहिर है कि ऐसी मिसालों के चलते देश में लडक़ी और औरत की अधिक इज्जत भी मुमकिन नहीं है। जिस रंजन गोगोई के लिए हमने महाभियोग चलाने की सिफारिश इसी कॉलम में की थी, उस रंजन गोगोई को रिटायर होते ही राज्यसभा भेजा गया था। देश में लैंगिक न्याय की सोच का जैसा कत्ल इस जज ने किया था, उसकी कोई दूसरी मिसाल शायद पूरी दुनिया की किसी सुप्रीम कोर्ट में देखने नहीं मिलेगी। और ऐसी मिसाल देश के भीतर दसियों करोड़ मर्दों का हौसला तो बढ़ाती ही है जिनके लिए रंजन गोगोई एक आदर्श से कम नहीं। कोई हैरानी नहीं है कि इस देश के बड़े-बड़े नेता जब कभी किसी कैमरे पर गालियां बकते हुए कैद होते हैं, तो वे गालियां मां और बहन की ही होती हैं, बाप और भाई की नहीं। सामाजिक संस्कृति का असर इतना है कि जब इस देश की महिलाएं भी गंदी गालियां देने पर उतारू होती हैं, तो वे गालियां मां और बहन की ही होती है। इसलिए आज प्रताडि़त होने वाली बहू कल खुद सास बनने पर अपनी बहू की प्रताडऩा की हिंसक परंपरा जारी रखती है। अगर सास ही बहू के साथ होती हिंसा का विरोध करे, तो भला किस परिवार में बहू के साथ ज्यादती हो सकती है?

ऐसे बहुत से कतरा-कतरा पहलू हैं जो बताते हैं कि लडक़ी को किस तरह बोझ मान लिया जाता है, और लडक़े की चाह पूरी न होने पर किस तरह पति अपनी पत्नी को जिंदा जला डालता है। जिंदगी के अनगिनत पहलू लैंगिक-असमानता के शिकार हैं, और हर जिम्मेदार व्यक्ति को लगातार यह कोशिश करनी चाहिए कि यह बेइंसाफी खत्म हो, क्योंकि ऐसा न होने पर उनको आज अगर अपनी बेटी प्यारी भी है, तो भी वह ससुराल जाकर तीसरी बेटी को जन्म देने पर जलाकर मार डालने के लायक मान ली जाएगी। 

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