संपादकीय
छत्तीसगढ़ के एक स्कूल में 10वीं के छात्रों ने एक मोबाइल ऐप से अपनी सहपाठी छात्राओं और स्कूल की शिक्षिकाओं की तस्वीरों को अश्लील बनाया, और उसे एक इंस्टाग्राम ग्रुप में अपलोड कर दिया। जब यह मामला उजागर हुआ तो ऐसा करने वाले सात छात्र पकड़े गए, उन्हें बाल न्यायालय में पेश किया गया, और इस जुर्म की सजा सात बरस कम होने से उन्हें तुरंत जमानत मिल गई, और अब स्कूल इन छात्रों को वहां से निकालने की सोच रहा है। इससे बिल्कुल ही अलग एक दूसरी खबर यह है कि बहुत कम उम्र के कुछ बच्चों को गाडिय़ां चलाते पकडऩे पर पुलिस ने उन पर बड़ा जुर्माना लगाकर छोड़ दिया है जबकि ऐसे मामलों में गाड़ी के मालिक या ऐसे नाबालिग बच्चों के मां-बाप को भी सजा का प्रावधान है। देश भर में जगह-जगह कहीं कत्ल, तो कहीं बलात्कार के मामलों में नाबालिग पकड़ा रहे हैं। कानून अब तक नाबालिगों को सजा देने के खिलाफ है, और उन्हें अधिक से अधिक कुछ अरसे के लिए बाल सुधारगृह भेजा जाता है, और वहां से वे छूटकर घर चले जाते हैं। लोगों को याद होगा कि देश के सबसे चर्चित निर्भया बलात्कार कांड के गैंगरेप के आरोपियों में एक नाबालिग भी था, और कहा जाता है कि उसी ने बलात्कार के अलावा सबसे अधिक हिंसा की थी। अभी सुप्रीम कोर्ट तक यह मामला चल ही रहा है कि क्या रेप और मर्डर जैसे जुर्म में शामिल होने वाले नाबालिगों के लिए उम्र सीमा घटाकर उन्हें सजा दी जाए?
अभी हम उम्र सीमा घटाने के बारे में तो अधिक बोलना नहीं चाहते क्योंकि अदालत में हर तरह की सोच रखने वाले जानकार लोगों के बीच इस पर बहस बाकी ही है, और बहुत सी विशेषज्ञ राय अभी सामने आ सकती हैं। लेकिन जो दूसरी चीज हमें सूझ रही है वह मां-बाप, परिवार, और पारिवारिक संपत्ति को सजा देने की है। पहले भी हम यह बात लिखते आए हैं कि जब ऊंचे ओहदों पर बैठे हुए, या पैसों की ताकत रखने वाले, या किसी और वजह से अधिक ताकतवर लोग जब किसी भी तरह से कमजोर लोगों पर कोई जुल्म करते हैं, तो उस पर अलग सजा का प्रावधान होना चाहिए। सामाजिक रूप से जो जातियां कमजोर मानी जाती हैं, या किसी धर्म के लोगों की हालत कमजोर रहती है, तो उनके खिलाफ जुर्म करने वाले ताकतवर लोगों को अतिरिक्त सजा मिलनी चाहिए। इसके साथ-साथ हम यह बात भी सुझाते आए हैं कि संपन्न मुजरिमों पर ऐसे आर्थिक दंड भी लगने चाहिए जिससे उनके जुर्म के शिकार लोगों को सीधे आर्थिक मदद मिल सके, और अगर वे जरूरतमंद न हो, तो भी ऐसा जुर्माना लगाकर उसका इस्तेमाल समाज के व्यापक हित में किया जाना चाहिए। कानून की नजर में कैद तो एक बराबर होनी चाहिए, लेकिन जुर्माना मुजरिम की आर्थिक क्षमता के हिसाब से अतिरिक्त लगना चाहिए। बलात्कार के मामलों में तो हमने दो कदम आगे जाकर यह भी सुझाया था कि जुर्म साबित हो जाने पर अगर बलात्कारी संपन्न है, और बलात्कार की शिकार लडक़ी या महिला अगर गरीब है, तो बलात्कारी की संपत्ति का एक हिस्सा उसे मिलना चाहिए, ठीक उतना ही जितना कि बलात्कारी के वारिसों को मिलने वाला है। ऐसी सजा ताकतवर मुजरिमों को जुर्म से परे रहने की बात सुझा सकती है क्योंकि पारिवारिक संपत्ति का एक हिस्सा अगर अदालत के रास्ते जुर्म की शिकार को देना होगा, तो मुजरिम का परिवार उसे कभी माफ नहीं कर पाएगा, और यह जेल की सजा के अलावा जिंदगी भर की पारिवारिक सजा भी होगी।
आज स्कूली छात्रों के इस ताजा जुर्म के सिलसिले में हम इस चर्चा को इसलिए छेड़ रहे हैं कि संपन्न परिवारों के बच्चों की बददिमागी उनके परिवार की आर्थिक संपन्नता से, या मां-बाप के राजनीतिक या शासकीय ओहदे की वजह से भी आती है। उन्हें जो गाडिय़ां दौड़ाने मिलती हैं, जो क्रेडिट या डेबिट कार्ड मिलते हैं, उन्हें जिस तरह की महंगी जीवन-शैली परिवार की तरफ से दी जाती है, वह सब कुछ उन्हें बददिमागी की ताकत देते हैं। ऐसी ताकत देने वाले परिवार को उस वक्त भी जुर्माने के लायक माना जाना चाहिए जब उम्र कम होने से जुर्म करने वाले को कोई सजा देना मुमकिन न हो। सामाजिक न्याय तो यही हो सकता है कि समाज में जिन लोगों को अलग-अलग कई तरह की सजा दी जा सकती है, वह दी जाए। कम उम्र के नाबालिग लोग अगर कोई गंभीर जुर्म करते हैं तो यह माना जाना चाहिए कि उसके लिए संपन्न मां-बाप भी कुछ या अधिक हक तक जिम्मेदार रहते हैं, और उन पर जुर्माना लगाकर जुर्म के शिकार, या समाज का भला किया जाना चाहिए।
इन दिनों नाबालिग किशोरों के किए हुए जुर्म न सिर्फ संख्या में लगातार बढ़ रहे हैं, बल्कि वे अधिक गंभीर किस्म के जुर्म भी होते जा रहे हैं। कम उम्र के नाबालिगों में नशे के मामले भी लगातार बढ़ रहे हैं, और उससे भी आगे-पीछे अधिक जुर्म, और और गंभीर जुर्म बढऩा तय हैं। इन सबको देखते हुए भारत में कानून में सुधार की जरूरत है, ताकि संपन्नता की सहूलियतें मुहैया कराने वाले परिवार को भी जुर्म की सजा में आर्थिक रूप से भागीदार बनाया जा सके। इंसाफ ऐसा नहीं हो सकता जो कि अंधा हो। और अब तो भारत में इंसाफ की देवी की प्रतिमा की आंखों पर बंधी पट्टी हटा भी दी गई है। इसलिए जुर्म को तौलने, और सजा को सामाजिक न्यायसंगत बनाने के लिए कानून में फेरबदल जरूरी है ताकि दौलत या ओहदे की ताकत के दम पर, उसके अहंकार में जुर्म बढ़ते न चले जाएं, और भारत की जांच व्यवस्था, और न्याय व्यवस्था तो गरीब के खिलाफ काम करने वाली है ही, इसमें ताकतवर को सजा की संभावना बिल्कुल ही कम रहती है।
जिस ताजा मामले में स्कूली छात्रों ने सहपाठी छात्राओं और शिक्षिकाओं की अश्लील तस्वीर बनाई है, इस बददिमागी के पीछे भी किसी न किसी ताकत का योगदान भी दिखता है। हमारा यह मानना है कि किसी भी जिम्मेदार सरकार को अपने राज्य में हो रहे जुर्म, या सडक़ हादसों जैसे मामलों का लगातार अध्ययन करना चाहिए ताकि उनसे कोई निष्कर्ष निकालकर अगर उनमें कमी लाने की गुंजाइश हो, तो वह किया जा सके। अभी संवैधानिक व्यवस्था की हमें ठीक से जानकारी नहीं है, लेकिन शायद यह राज्यों के अधिकार क्षेत्र की बात होगी अगर वे अपने राज्य में संपन्न परिवारों के नाबालिगों के जुर्म पर जुर्माना लगाने का कानून बनाएं। किसी न किसी राज्य को ऐसी शुरूआत भी करनी चाहिए। अभी हमने इस बारे में देश के एक प्रमुख वकील से भी राय ली, और उन्होंने भी यह माना है कि संसद के बनाए कानून के खिलाफ राज्य कानून नहीं बना सकते, लेकिन उस कानून में मुकर्रर सजा में इजाफा तो कर ही सकते हैं। हम अभी मां-बाप को किसी कैद सुनाने की बात नहीं कह रहे, लेकिन उनकी संपन्नता को एक सजा जरूर मिलनी चाहिए।