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पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट ने अभी वहां सडक़ हादसों पर अदालत की तरफ से ही 2017 में शुरू की गई, और अभी तक जारी सुनवाई के दौरान कल यह साफ किया कि पगड़ी पहनने वाले सिक्खों के अलावा दुपहियों पर चलने वाले किसी और को हेलमेट से छूट नहीं है। सिक्ख परिवारों की महिलाओं को भी हेलमेट लगाना जरूरी है, अगर वे पगड़ी नहीं पहनती हैं। और दुपहियों पर चार बरस से अधिक उम्र के बच्चों के लिए भी हेलमेट जरूरी है। अदालत ने सरकार से पूछा है कि बिना हेलमेट दुपहियों पर बैठीं, या उन्हें चला रहीं महिलाओं के कितने चालान किए गए, ये आंकड़े बताए जाएं। इस सिलसिले में अदालत ने इस बात पर केन्द्र सरकार और चंडीगढ़ प्रशासन की जमकर खिंचाई भी की कि ट्रैफिक नियमों के बारे में जब चंडीगढ़ ने केन्द्र से सिक्ख महिलाओं के बारे में अलग से मार्गदर्शन मांगा तो केन्द्र सरकार ने सिक्ख महिलाओं को भी हेलमेट से छूट देने की बात सुझाई। हाईकोर्ट ने केन्द्र के इस जवाब पर हैरानी जाहिर की कि जब कोई महिला पगड़ी नहीं लगा रही है तो उसे सिर्फ सिक्ख धर्म की होने के कारण हेलमेट से छूट क्यों दी गई?
हमारे अखबार में, वेबसाइट पर, और यूट्यूब चैनल पर हम लगातार हेलमेट को बढ़ावा देने का अभियान चलाते रहते हैं। सडक़ सुरक्षा के नियमों में हेलमेट अनिवार्य होने के बावजूद जब हमारे प्रदेश की सरकार इसे लागू नहीं करती, तो हम बड़ी कड़ी जुबान में आलोचना करते आए हैं। हमारी बुनियादी सोच और कानून की बहुत मामूली समझ यह सुझाती है कि राज्य सरकार किसी सोचे-समझे फैसले की तरह जनता को हेलमेट की अनिवार्यता से रियायत नहीं दे सकती। सरकार को जनकल्याणकारी होना चाहिए, और वह कानून को लागू न करने का फैसला नहीं ले सकती। खासकर ऐसे वक्त जब इस प्रदेश में ऐसा एक भी दिन नहीं गुजरता जब दुपहिया सवार लोग सडक़ हादसों में मारे न जाते हों। जिस तरह पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट सडक़ सुरक्षा को लेकर 2017 से लगातार सुनवाई कर रहा है, और हर पहलू पर राज्य सरकारों, केन्द्र प्रशासित चंडीगढ़, और केन्द्र सरकार से जवाब-तलब कर रहा है, उसी तरह बाकी प्रदेशों में भी जहां सरकारें सडक़ सुरक्षा के नियम लागू नहीं कर रही हैं, वहां हाईकोर्ट को दखल देना चाहिए। अदालत की भूमिका सिर्फ कानून टूटने के बाद सामने नहीं आती, बल्कि कानून को अगर सोच-समझकर किनारे धर दिया गया है, तो भी अदालत का दखल बनता है। हम छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट को देखते हैं, तो वह प्रदेश में पहले से मौजूद कोलाहल अधिनियम पर अमल न होने पर लगातार सरकार को कटघरे में रखे हुए हैं क्योंकि धार्मिक डीजे लोगों का जीना हराम किए हुए हैं। सडक़ सुरक्षा के मामले में भी इस हाईकोर्ट ने सरकार को कटघरे में खड़ा कर रखा है क्योंकि पूरे प्रदेश में जानवरों का सडक़ों पर कब्जा है, और इस वजह से जो सडक़ हादसे होते हैं उसमें जानवर बड़ी संख्या में मरते हैं, और कई मामलों में इंसान भी। इन दो मामलों के अलावा छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने कभी किसी सरकारी अस्पताल की बदहाली पर सरकार को हुक्म देकर वहां एक बड़े आईएएस अफसर को इंचार्ज बनवाया है, तो कभी सरकारी स्कूलों में शिक्षक न होने और दूसरी दिक्कतों को लेकर सरकार को अदालत में खड़ा किया है। जब हम हाईकोर्ट के इस रूख से सहमति जताते हुए लिखते या बोलते हैं, तो सरकार में पूरी जिंदगी नौकरी करने वाले कुछ लोग याद दिलाते हैं कि यह अदालत का अपने दायरे से बाहर जाकर काम करना है।
सरकार और अदालत के बीच के रिश्तों की बुनियाद को समझते हुए भी हमारा साथ-साथ यह भी मानना है कि जहां कहीं सरकार अपनी बुनियादी जिम्मेदारी पूरी नहीं करती है, वहां अदालत पर दखल देने की जिम्मेदारी बन जाती है। सीट बेल्ट, या हेलमेट लगाने को अनिवार्य करना सरकार की बुनियादी जिम्मेदारी है, ठीक उसी तरह जिस तरह कि कोई भी गाड़ी चलाने वाले अगर मोबाइल पर बात करते हैं, तो उसे रोकना, या नशे में गाड़ी चलाने वालों को रोकना, ओवरलोड गाडिय़ों को रोकना, या मालवाहक गाडिय़ों में इंसानों का ढोना रोकना। ये तमाम चीजें किसी भी जिम्मेदार और जनकल्याण सरकार की बुनियादी जिम्मेदारी इसलिए भी है कि ऐसे ही नियमों को तोड़ते हुए लोगों का मिजाज अराजकता का बनता है, और फिर वे आगे जाकर अधिक नियमों को तोड़ते हैं, गंभीर किस्म के जुर्म करते हैं। समाज में जुर्म की शुरूआत बहुत सारे मामलों में ट्रैफिक-जुर्म से चालू होती है, और फिर वह अधिक संगीन जुर्म की तरफ बढ़ जाती है।
ट्रैफिक को लेकर किसी भी सरकार को यह बात अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि सडक़ें लोगों के घर के भीतर की जगह नहीं है जहां पर कि नियम तोडऩे से सिर्फ उनके घर का नुकसान होगा। सडक़ों पर नियम तोडऩे से बाकी जिंदगियां भी खतरे में पड़ती हैं, इसलिए भी जब सरकारें वोटरों की नाराजगी से बचने के लिए लोगों को अराजकता की छूट देती हैं, तो अदालत की जिम्मेदारी शुरू हो जाती है। अगर सरकार ही नियम लागू करने से मुंह चुराती है, तो फिर हाईकोर्ट ही सरकार को आईना दिखा सकते हैं, और मजबूर कर सकते हैं कि वे जनहित के कानूनों को लागू न करने की अपनी खुद की मनमानी और अराजकता को खत्म करें।
किसी भी राज्य सरकार को हमारी यही सलाह है कि सडक़ हादसों में मरने वाले लोगों के आंकड़ों को ही सब कुछ न मानें। हर मौत के पीछे बहुत से ऐसे जख्मी लोग रहते हैं जो पूरी जिंदगी अपने परिवार पर बोझ बन जाते हैं, और सरकारी इलाज-खर्च में भी बढ़ोत्तरी करते हैं। ऐसे लोगों की उत्पादकता भी समाज से चली जाती है। अभी कुछ महीने पहले ही प्रदेश के गृहमंत्री के अपने ही इलाके कबीरधाम जिले में मजदूरों से ओवरलोड एक मालवाहक गाड़ी पलटी थी जिसमें डेढ़ दर्जन से अधिक गरीब आदिवासी मारे गए थे। लेकिन उसके बाद भी पूरे प्रदेश में ऐसे हादसे जारी हैं, मुसाफिर गाडिय़ों की कमी बताते हुए मालवाहक गाडिय़ों में गरीब मजदूरों, या तीर्थयात्रियों को थोक में ढोना जारी है, और ऐसी गाडिय़ां पलटने पर इंसानों की जानवरों से भी बुरी मौत होती हैं। यह नौबत बदलनी चाहिए। अगर सरकार कुछ, या कई वजहों से सडक़ सुरक्षा लागू करना नहीं चाहती हैं, तो हमारा ख्याल है कि उसे इसकी आजादी नहीं दी जा सकती। ऐसे हर राज्य के हाईकोर्ट को चाहिए कि वह खुद होकर ऐसी सुनवाई शुरू करे, और कानून की सरकारी अनदेखी के मामलों को दर्ज करने के लिए जरूरत पडऩे पर वह कोर्ट-कमिश्नर भी नियुक्त करे, जरूरत रहे तो अपनी मदद के लिए अच्छी साख वाले किसी वकील को न्यायमित्र भी बनाए, और जनता की जिंदगी बचाने के लिए ऐसे मामलों पर लगातार सुनवाई करे, और सरकार को ट्रैफिक नियम, और सडक़ सुरक्षा के बाकी इंतजामों के लिए मजबूर करे। छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट में सडक़ों पर से जानवरों को हटाने के लिए एक मामला लगातार चल रहा है, मोटर व्हीकल एक्ट को लागू करवाने वाला पहलू उसी मामले में जोड़ा जा सकता है। जहां लोगों की जिंदगियां शामिल हों, वहां पर कार्रवाई न करने का हक सरकार को नहीं दिया जा सकता।