संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : बेटे-बहू के कत्ल का तो अफसोस नहीं, मां को अफसोस पकड़ाने का!
03-Nov-2024 3:23 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : बेटे-बहू के कत्ल का तो अफसोस नहीं, मां को अफसोस पकड़ाने का!

कहानी कुछ फिल्मी है, और भारतीय समाज के कई अलग-अलग पहलुओं को बताती है। उत्तरप्रदेश में एक परिवार में बेटे का किसी से प्रेमसंबंध था, जो कि मां को पसंद नहीं था। मां ने बेटे की कहीं और शादी करवा दी ताकि सुंदर बहू के आने से बेटा पटरी पर आ जाएगा, लेकिन बहू आई तो पता लगा कि उसका भी किसी और से संबंध है। शादी के बाद भी बेटा-बहू दोनों बाहर दीगर लोगों से अपने रिश्ते बनाए चल रहे थे। मां के दिमाग में यह बात बैठी हुई थी कि यह बात समाज में फैलेगी तो वह कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रह जाएगी। उसने अपने भाई को यह जिम्मा दिया कि वह बेटा-बहू दोनों को खत्म करवा दे ताकि सामाजिक बदनामी का खतरा ही खत्म हो जाए। भाई ने एक भाड़े के हत्यारे का जुगाड़ किया, और फिर कई किस्म के मौके तलाशे, आखिर में एक तीर्थयात्रा से लौटते हुए राजस्थान में अपनी कार में उसने इस भाड़े के मददगार की मौजूदगी में खुद भांजे और उसकी बीवी को गोलियां मार दी। पुलिस ने सीसीटीवी कैमरों की रिकॉर्डिंग से इन दोनों की मौजूदगी की रिकॉर्डिंग हासिल कर ली, और गिरफ्तारी के बाद जब पूरी बात खुली, मां, मामा, और भाड़े का मददगार जब गिरफ्तार हुए, तब भी मां को मलाल सिर्फ यही था कि यह भांडाफोड़ हो गया, वरना उसे बेटे-बहू का कत्ल करवाने का कोई मलाल नहीं था।

हिन्दुस्तान का एक बड़ा हिस्सा स्थाई रूप से एक मानसिक तनाव में जीता है। सबसे बड़ा रोग, क्या कहेंगे लोग। इस कत्ल से परे बहुत से ऐसे कत्ल होते हैं जिनमें ऑनरकिलिंग के नाम पर अपने परिवार के ऑनर (सम्मान) की रक्षा के लिए लोग मर्जी से शादी करने वाले अपने बच्चों का कत्ल करवा देते हैं। आमतौर पर पारिवारिक सम्मान की यह फिक्र बेटी को लेकर होती है जिसे परिवार अपनी संपत्ति मानकर चलता है, और इस संपत्ति को कन्यादान के रास्ते ठीक से ठिकाने न लगा पाने की नाकामयाबी की वजह से नाराज परिवार समाज के यह सामने यह साबित करना चाहता है कि बेटी ने परिवार की ‘इज्जत’ का ख्याल नहीं रखा, तो उन्होंने बेटी को उसके प्रेमी या पति के साथ मरवा डाला। लोगों को अपनी आल-औलाद की जिंदगी की फिक्र नहीं रहती, उनकी मर्जी, खुशी, और उनकी सुखी जिंदगी की परवाह नहीं रहती, लोग महज यह सोचते हैं कि समाज में अपनी इज्जत कैसे बनाए रखी जाए, फिर चाहे इसके लिए उन्हें पूरी जिंदगी जेल में ही क्यों न काटनी पड़े। यह बड़ी अजीब बात है कि बच्चे मर्जी से शादी कर लें तो यह परिवार का अपमान है, और अगर वे मार दिए जाएं, तो उसमें परिवार का सम्मान है। यह बात सिर्फ हिन्दुस्तान के हिन्दुओं तक सीमित नहीं है, ब्रिटेन में बसे हुए पाकिस्तानी मां-बाप भी वहां पर अपनी ऐसी बेकाबू समझी जाने वाली संतानों की ऑनरकिलिंग के मामलों में सजा पाए हुए हैं।

ऐसा लगता है कि समाज का ढांचा मजबूत होने के पहले जब लोग व्यक्ति के रूप में अधिक आजादी रखते थे, और वे समाज नाम की एक बड़ी मशीन का छोटा पुर्जा नहीं बने थे, तब समाज के हिंसक नियमों का सम्मान कम था, और व्यक्ति के रूप में लोगों की आजादी अधिक थी। जैसे-जैसे धर्म और जाति के आधार पर समाज व्यवस्था अधिक फौलादी होती चली गई, वैसे-वैसे व्यक्ति का महत्व घटते चले गया, और सामाजिक ढांचे के प्रति अपने को अधिक जवाबदेह मानने वाले परिवार अपने सदस्यों के खिलाफ हिंसक हो जाने की हद तक जाकर भी मोहब्बत के खिलाफ होने लगे। जैसे-जैसे शहरीकरण बढ़ा, नौजवान पीढ़ी संयुक्त परिवारों से बाहर निकलकर पढऩे के लिए, या काम करने के लिए शहरों तक जाने लगीं, लड़कियों की पढ़ाई-लिखाई भी अधिक होने लगी, वे आर्थिक आत्मनिर्भर होने लगीं, काम करने लगीं, वैसे-वैसे उनके परिवार के गांव-कस्बों की फौलादी पकड़ कुछ कमजोर होने लगी। भारत में यह रफ्तार बड़ी धीमी है, लेकिन सामाजिक बदलाव का यह सिलसिला जारी है। और जैसे-जैसे लोग अपने गांव-कस्बे से दूर होने लगे, वैसे-वैसे वे अपने समाज के रीति-रिवाजों के चंगुल से बाहर भी निकलने लगे। बदलाव की यह रफ्तार धीमी है, और नई पीढ़ी के बीच बढ़ती उनकी निजी महत्वाकांक्षाएं, और अपने अधिकारों का उनका अहसास तेज रफ्तार है। इन दोनों के बीच कोई मेल नहीं बैठ रहा है, और नतीजा इस तरह के कत्ल में भी सामने आता है, और प्रेमीजोड़ों की खुदकुशी में भी। सामाजिक दबाव में मां-बाप की हालत ऐसी हो जाती है कि बड़ी हसरतों से पाए हुए, और मेहनत से बड़े किए हुए बच्चों का कत्ल करते, या करवाते हुए उन्हें समाज के भीतर मुंह दिखाने लायक बने रहने की हसरत अधिक रहती है।

भारतीय समाज में यह हिंसक व्यवस्था कमजोर हो रही है, और कानून कहीं-कहीं इसे कमजोर करने में मददगार भी हो रहा है, लेकिन जब राजनीति, पुलिस, और अदालतों तक एक धर्म और जाति की व्यवस्था हावी रहती है, तो फिर प्रेमीजोड़ों को कहीं से हिफाजत नहीं मिल पाती। और साथ न जी पाने के मलाल में साथ मर जाने को वे आखिरी रास्ता मानकर जान दे देते हैं। तकरीबन हर दिन कहीं न कहीं से प्रेमीजोड़ों की ऐसी खुदकुशी की खबर आती है, और पता नहीं उनके परिवार अपनी शहंशाह अकबर दर्जे की जिद के साथ अपने बच्चों की लाशें सीने पर रखे हुए आगे किस तरह जी पाते होंगे। इस बात को अच्छी तरह समझने की जरूरत है कि समाज व्यवस्था हमेशा से ही एक बहुत ही पाखंडी, दकियानूसी, और विरोधाभासों या विसंगतियों से भरी हुई रहती है। वह अपने सबसे ताकतवर लोगों की हर अराजकता को मंजूर कर लेती है, और कमजोर लोगों को कुचलते चलती हैं।

छत्तीसगढ़ जैसे राज्य को यह भी समझना चाहिए कि यहां जात बाहर प्रेमविवाह करने पर समाज से निकाल दिए जाने वाले लोगों की गिनती खतरे की सीमा तक बढ़ चुकी है। इस राज्य की जिस जाति की सबसे मजबूत पंचायतों में रिकॉर्ड संख्या में सामाजिक बहिष्कार किए हैं, उसी जाति के लोगों का धर्म परिवर्तन आज सबसे अधिक हो रहा है। अभी तक यह बात इस शक्ल में दो और दो जोडक़र चार की तरह सामने नहीं रखी गई है, लेकिन हमें जो कतरा-कतरा जानकारी मिली है वह सुझाती है कि जिस जाति में जात बाहर करना जितना अधिक है, वहां पर लोगों का दूसरे धर्म में जाना उतना अधिक है। ऐसा लगता है कि लोगों को लगता होगा कि इस धर्म और जाति में रहने से जिंदगी भर अपने मां-बाप के परिवार से भी अगर रिश्ता नहीं रह जाना है, तो फिर इस धर्म में ही क्यों रहना? जातियों के नेताओं, राजनेताओं, और धार्मिक नेताओं को इस बारे में सोचना चाहिए कि क्या वे अपनी ही नई पीढ़ी को जात बाहर करने की ताकत का हिंसक इस्तेमाल करते हुए उसे धर्म से बाहर का रास्ता नहीं दिखा रहे हैं? वैसे भी जिस जाति और धर्म के लोग अपने लोगों के बहिष्कार में अधिक सक्रिय रहते हैं, वे लोग अगली पीढ़ी को खोने का खतरा भी झेलते चलते हैं। कोई भी जात, धरम, समाज, या गांव-कस्बा अपने सदस्यों के साथ हिंसा करते हुए उनका सम्मान तो बिल्कुल ही नहीं पा सकते, देश के कानून के तहत कत्ल पर उम्रकैद या फांसी जरूर पा सकते हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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