संपादकीय
तस्वीर / सोशल मीडिया
सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई.चन्द्रचूड़ कई लोगों को चौंका रहे हैं, और कई लोग उनके ताजा बयानों, और कुछ हरकतों को देखकर मंद-मंद मुस्कुरा रहे हैं। सिलसिले की शुरूआत शायद गणेश पूजा के वक्त से हुई जब चन्द्रचूड़ के सरकारी घर पर उनके अपने गृहप्रवेश की परंपरा के मुताबिक गणेश स्थापित थे, और ऐसे में घर पर आने वाले संबंधियों और मित्रों के बीच प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी महाराष्ट्रीयन गांधी टोपी लगाकर पूजा करने पहुंचे थे, और उनकी चन्द्रचूड़ दम्पत्ति के बीच खड़े होकर गणेशजी की आरती करने के वीडियो चारों तरफ फैले थे। महाराष्ट्र चुनाव की हवा चलने के ठीक पहले का यह प्रधानमंत्री-प्रवास खूब चर्चा में रहा क्योंकि यह पिछले एक प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की इफ्तार-दावत सरीखा नहीं था जिसमें आमंत्रित बहुत से लोगों के बीच उस वक्त के सीजेआई भी पहुंचे थे। हमने उस वक्त भी इसी जगह पर लिखा था कि ऊंचे ओहदों पर बैठे लोगों को संदेह से परे रहना चाहिए। भारत में कार्यपालिका, यानी सरकार, और न्यायपालिका, यानी अदालत के बीच एक सुरक्षित फासला रहना चाहिए। सुरक्षित इस हिसाब से भी कि दूर से देखती जनता को भी यह भरोसा हो कि ये दोनों एक-दूसरे के किसी असर में काम नहीं कर रहे हैं, और यह भरोसा भी हो कि ये गिरोहबंदी करके काम नहीं कर रहे हैं। लोकतंत्र की तिपाई में अगर उसके तीन पायों में से दो पाये एक-दूसरे से गलबहियां करने लगें, तो उसका संतुलन ही खत्म हो जाएगा। तिपाई के तीनों पायों का एक-दूसरे से भी अलग रहना जरूरी रहता है, और अपने टॉप को ढोने के लिए तीनों को अपने-अपने हिस्से का जिम्मा निभाना पड़ता है, बिना गलबहियों के।
जस्टिस चन्द्रचूड़ ने गणेशोत्सव के दौरान देश, और भारतीय न्यायपालिका को देखने वाली बाकी दुनिया को भी चौंकाया, और अब उन्होंने एक अनोखी बात कही। वे अपने पैतृक गांव में एक सम्मान समारोह में गए थे, वहां उन्होंने गांव के लोगों से बात करते हुए बताया कि जब रामजन्म भूमि-बाबरी मस्जिद विवाद पर केस चल रहा था, और महीनों तक चला, वह बेहद नाजुक मामला था, उन्होंने कहा कि वे भगवान के सामने बैठे, और उनसे प्रार्थना की कि वे इस विवाद का कोई समाधान खोजे, उन्होंने कहा कि यदि आपमें आस्था है तो भगवान हमेशा कोई रास्ता निकालेंगे। लोगों को याद होगा कि रामजन्म भूमि मामले में गिराई गई मस्जिद वाले जगह हिन्दू समाज को मंदिर के लिए फैसला देने वाले पांच जजों के मुखिया, उस वक्त के सीजेआई रंजन गोगोई रिटायर होते ही तुरंत भाजपा की तरफ से राज्यसभा भेजे गए थे, दो और जज अपनी बारी आने पर मुख्य न्यायाधीश बने, और एक जज को गवर्नर बनाया गया, और एक को एनसीएलटी का मुखिया।
अब सवाल यह उठता है कि सीजेआई हो, या कोई और, उनकी निजी आस्था अपनी जगह बड़ी अच्छी बात है, लेकिन रामजन्म भूमि-बाबरी मस्जिद का तो पूरा मामला ही निजी आस्था के विवाद का था। यह मामला हिन्दू और मुस्लिम तबकों के बीच का विवाद था, और इसमें अगर इस बेंच के जज अपने ईश्वर (चन्द्रचूड़ के मामले में जैसा कि उन्होंने गांव में कहा, भगवान) के सामने बैठकर समाधान देने, या सही रास्ता सुझाने की प्रार्थना करें, तो क्या भारत का संविधान निजी आस्था पर आधारित प्रार्थना से मिले समाधान की वकालत करता है? या फिर किसी भी निजी आस्था, और किसी भी धार्मिक प्रतिबद्धता से परे पूरी तरह से कानूनी और संवैधानिक फैसले की बात सुझाता है? जब देश की सबसे बड़ी अदालत की संविधानपीठ देश का एक सबसे नाजुक फैसला सुना रही है, तब क्या जजों का अपनी आस्था के मुताबिक अपने ईश्वर से प्रार्थना करना, और समाधान मांगना जायज है? होना तो यह चाहिए था कि इस फैसले के लिख दिए जाने तक लोग, कम से कम हिन्दू और मुस्लिम जज, अपनी आस्था को अलग रखते। और अगर अलग रखना मुमकिन नहीं होता, तो उसे अपने मन के भीतर रखते। लोगों के बीच इस बात की नुमाइश करना, और खासकर रिटायरमेंट के कुछ दिन पहले इस खास चर्चा को छेडऩा जो कि कई लोगों को ठकुरसुहाती लग सकती है, बड़ी ही अटपटी बात है। अब बाकी वक्त में तो जस्टिस चन्द्रचूड़ पता नहीं केन्द्र सरकार को प्रभावित करने वाले और कोई फैसले देने की हालत में है या नहीं, कम से कम अपने गांव का उनका यह ताजा भाषण ठीक उसी तरह टालने लायक था, जिस तरह प्रधानमंत्री को अपने घर की गणपति पूजा में बुलाना टालने लायक था। लोकतंत्र में जनता के सामने उसकी भावनाओं की संतुष्टि के लिए भी निष्पक्षता का एक मुखौटा बनाए रखना जरूरी होता है, लेकिन जस्टिस चन्द्रचूड़ ने उसकी परवाह नहीं की।
लोकतंत्र एक बहुत ही लचीली व्यवस्था है। इसमें हर बात का इलाज कानून में नहीं है। कार्यपालिका और न्यायपालिका के एक-दूसरे से संबंध कैसे रहे, इस पर हजार पेज की किताब भी लिखी जा सकती है, और उससे बच निकलने की दो हजार पेज की कुंजी भी लिखी जा सकती है। लोकतंत्र नियमों से परे की भी गौरवशाली परंपराओं से चलता है। प्रधानमंत्री और सीजेआई का सार्वजनिक समारोहों में जहां पर उनके ओहदों के हिसाब से साथ रहना जरूरी होता है, वहां तो साथ रहना होता ही है, लेकिन इससे परे इन दोनों के बीच इतना सुरक्षित फासला भी होना चाहिए कि ये शिष्टाचार में न उलझें, एक-दूसरे के प्रभाव में न आएं। इसी तरह किसी एक धर्म को अधिक पसंद आने वाला दो धर्मों के बीच का मुकदमा जब तय हो चुका है, तो जीतने वाले धर्म के ईश्वर को इस समाधान का श्रेय देना निष्पक्षता से परे जाने की बात है। हम जिस आदर्श की बात कर रहे हैं, वह बिल्कुल असंभव भी नहीं है। भारत की किसी भी संवैधानिक कुर्सी पर बैठे हुए व्यक्ति से आस्थाहीन होने की उम्मीद कोई नहीं करते, उनमें से कुछ लोग आस्था का प्रदर्शन भी करते रहे हैं, जैसे कि मुख्य चुनाव आयुक्त रहे टी.एन.शेषन सार्वजनिक रूप से मंदिरों में आते-जाते रहे। लेकिन अपने विवेक के किसी फैसले को अपने ईश्वर के सहयोग से सुलझाने की बात कहना उनके संवैधानिक विवेक के इस्तेमाल से परे की बात है। हमारा ख्याल है कि जस्टिस चन्द्रचूड़ इतने समझदार हैं कि वे अपनी निजी आस्था के ऐसे अदालती इस्तेमाल की नुमाइश से बचने की बात सोच सकते थे, और अगर उन्होंने यह प्रदर्शन किया ही है, तो हमारा मानना है कि उन्होंने सोच-समझकर यह कहा होगा। वे रिटायर होने के बाद प्रवचन के पेशे में आए हुए व्यक्ति नहीं है जो कि इस तरह की बात कहें। यह सिलसिला कुछ बदमजा रहा, यह जाते-जाते लोगों के मुंह का स्वाद खराब करके जाने जैसा रहा। उन्होंने अपने निजी जीवन के सार्वजनिक तथ्यों की वजह से कुछ बातों के लिए समाज की वाहवाही भी पाई है, लेकिन अब आखिरी वक्त में उनकी बातें, और उनके काम उनके अदालती इतिहास पर हावी हो रहे हैं। गणेशोत्सव से शुरू सिलसिला गांव में भगवान से समाधान तक पहुंचा, जस्टिस चन्द्रचूड़ को नौकरी के बकाया गिने-चुने दिनों चुप रहने की सलाह उनके कोई दोस्त दे सकते हैं? (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)