विचार / लेख

नौजवानी बड़ी तकलीफदेह
29-Jul-2024 2:41 PM
नौजवानी बड़ी तकलीफदेह

-दिलीप कुमार पाठक

आदमी का सम्पूर्ण जीवन विषम परिस्थितियों में ही बीत जाता है। कभी कोई समस्या कभी कोई परेशानी मतलब इन्हीं उलझनों में जूझते हुए आदमी अपनी सांसे पूरी कर लेता है। आमतौर पर भारत की जीवनशैली ही ऐसी है। हर व्यक्ति की अपनी समस्याएं हैं। हम सभी के अपने - अपने संघर्ष हैं, हम सभी अपने तरीके से निपटने की कला सीख ही लेते हैं, लेकिन युवाओं की घोर समस्याएं हमारे देश की विकराल त्रासदी बनती जा रही है। हम सभी को अपना मूल्यांकन करना चाहिए कहीं हम बच्चों के प्रति क्रूर तो नहीं है? कहीं हम बच्चों के नाजुक कँधों पर ज्य़ादा बोझ तो नहीं डाल रहे! इस बेहद संवेदनशील विषय पर सामाजिक मूल्यांकन की दरकार है।

महान दार्शनिक अरस्तू कह गए हैं-‘किसी भी देश की सबसे बड़ी पूंजी युवाशक्ति होती है। एक मुल्क की आशाएं अपने युवाओं पर टिकी होती हैं। स्वस्थ समाज के युवा देश की दशा-दिशा दोनों बदल देते हैं। वहीँ जिस देश के युवाओं का मानसिक विकास सुदृढ़ नहीं होता वो समाज कभी भी तरक्की नहीं कर सकता। आज के बदलते हुए युग में युवाओं की बदलती हुई समस्याएं विकराल रूप धारण कर चुकी हैं। सच है कहते हैं बड़ी त्रासद होती है यह उम्र।।। हम सब यह उम्र जीने के बाद भी नहीं समझ पाते। दुनिया भर के मुकाबले भारतीय पैरेंट्स थोड़ा सख्त होते हैं, वो बच्चों के मन को पढऩे से चूक जाते हैं।। अच्छा जिन आचरणों को सुधारना चाहिए उनमे ही गर्व तलाशते हैं। वैसे हमारे देश में पालकों को भी नैतिक शिक्षा की सबसे ज्यादा जरूरत है।

अब तक के अधिकांश विचारकों ने यह अध्ययन करके बताया है कि हर उम्र की चुनौतियां कठिन ही होती हैं, लेकिन युवावस्था सबसे ज्यादा कठिन होती है। जबकि चाणक्य कहते हैं कि दुनिया में तीन कष्ट ही प्रमुखतम हैं। पहला किसी मूर्ख से दोस्ती कर लेना, दूसरा किसी रिश्तेदार के घर में रहते हुए उसके ताने सुनते गुजर बसर करना।।। तीसरा युवावस्था।।। कोई भी व्यक्ति जो परिपक्व हो, वो एक घण्टे भी युवावस्था की पेचीदगियों को झेल नहीं सकता। युवाओं की मनोदशा वाकई बहुत पेचीदा होती है। ख़ासकर युवाओं की 15-30 की यह उम्र बड़ी कष्टकर होती है। मानसिक उलझनें, होती हैं, संयम, धैर्य की कमी होती है, गुस्सा जल्दी आना आम बात होती है। भारतीय समाज में गहरी जड़ें जमाए बैठी रूढि़वादी सोच संकीर्ण मानसिकता युवाओं के विकास में बाधा बनती है।

हमारा सामाजिक ढांचा ही ऐसा है कि बच्चा जैसे ही थोड़ा बड़ा होता है शारीरिक परिवर्तन आता है। माता-पिता की उम्मीदें बढ़ जाती हैं कि अब ये बच्चा परिपक्व आचरण करे। मुहल्ले में किसी का बच्चा ज्य़ादा अंक लाया है, फैलाने जी का बेटा /बेटी फलां कम्पनी में इतने बड़े पैकेज के साथ जॉब कर रहा /रही है। तरह-तरह की तुलना की जाती हैं। दरअसल किसी भी माता-पिता के द्वारा बोली गईं ऐसी बातें हमारे ही बच्चों का आत्मविश्वास डिगाने के लिए काफी होती हैं। ऐसी ये सब बातें कानों पर पड़ती हैं, तो बच्चे कई बार खुद एहसास ए कमतरी के शिकार हो जाते हैं। कई बार खुद को औरों से कमतर पाते हैं। कई बच्चे ऐसी बातें स्कूलों, कॉलेजों में भी सुनते हैं तो उनके दिमाग में वो बात घर कर जाती है कि यार मैं सचमुच कमतर हूं। यह भावना बच्चों को क्या किसी भी उम्र के व्यक्ति को खोखला कर सकती है। जबकि बच्चा इस उम्र में सबसे ज्यादा भविष्य को लेकर ही चिंतित रहता है। मन का कॉलेज मिलना, इच्छानुसार इंटर्नशिप लग जाए, और जॉब, बिजऩेस तो ऐसी की जि़न्दगी सैटल हो जाए।।। कई बच्चे इस पसोपेश में होते हैं कि न तो ढंग का कॉलेज मिला और न ही जॉब मेरी जि़न्दगी अज़ीब सी संकुचित रही।। युवावस्था इन्हीं प्रश्नों के उत्तर तलाशते हुए बोझिल रहती है। बदलते हुए दौर में 15-30 के युवाओं में अब नींद की समस्याएं आम बातें हो गईं हैं, युवाओं में नशे की लत, देर रात जागना, आदि सब कुछ बहुत नॉर्मल हो गया है। ये सब केवल उनकी उम्र का दोष नहीं है, कुछ घर, परिवार, कुछ समाज का प्रेशर बच्चों की हँसी छीन रहा है। नौकरी/बिजनेस /पढ़ाई का बढ़ता प्रेशर वाकई बहुत बढ़ गया है। केवल पैसा, बड़ा बिजनेस, आर्थिक सफलता सुखी जीवन का सार नहीं है। आज भी बहुत से बड़े बिजनेसमैन, बड़े बड़े पदों पर बैठे व्यक्ति आत्महत्या कर लेते हैं। आज भी बच्चों को बिजऩेस, जॉब, के प्रेशर में हम धकेलते हैं, जबकि सबसे ज्यादा नैतिक मूल्यों, बेसिक शिक्षा की जरूरत है। वैसे भी हर कोई अपनी जि़न्दगी में रोटी, कपड़ा, मकान बना ही लेता है।

गऱ आप विश्वविद्यालयों में बच्चों को गौर से देखें, गार्डन में, खेल ग्राउण्ड में, लाइब्रेरी में वो लटके हुए चेहरे खूब दिखते हैं। सच बताऊँ तो वो चेहरे मुझे अंदर तक झकझोरते हैं, कभी - कभार किसी भी बच्चे का उदास चेहरा मेरे सामने झूलने लगता है, जो कई प्रश्न करता है मैं जिनके उत्तर नहीं दे पाता। यूं तो कॉलेजों, विश्वविद्यालयों में प्रोफ़ेसर रिसर्चर, बौद्धिक लोग होते हैं, कुछ वाकई इन सब संवेदनशील विषयों पर नर्म होते हैं तो कुछ सख्त होते हैं। हालाँकि अब प्रत्येक शैक्षणिक संस्थान में प्रशिक्षित काउंसलर की नियुक्ति की जानी चाहिए। टेली-काउंसलिंग सेवाओं को बढ़ावा देकर दूरदराज के क्षेत्रों में भी मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं पहुंचाई जा सकती हैं। साथ ही, समाज में मानसिक स्वास्थ्य के प्रति दृष्टिकोण बदलने के लिए मीडिया और सेलिब्रिटी एंडोर्समेंट का उपयोग किया जा सकता है।।हालाँकि कुछ बदलाव दिखते भी लेकिन इसके लिए क्रान्तिकारी बदलाव चाहिए।

एक बेसिक बात समझना चाहिए, कि बच्चों में हार्मोंस चेंज हो रहे हैं। बच्चे खुद को वयस्क मानने लगते हैं, वो चाहते हैं कि उन्हें अब कोई डांट कर न समझाए। डांटने का अधिकार माता - पिता को होता है लेकिन ध्यान रखना चाहिए। युवा वर्ग को धन से अधिक सम्मान और विजय प्रिय होती है। महान दार्शनिक *अरस्तू* ने भी यही कहा था।। इस उम्र में आत्मसम्मान को जल्दी ही धक्का लगता है अत: उन्हें कभी किसी के सामने न डाँटा जाए। घर के बड़े लोग एवं माता-पिता मित्रवत आचरण करें।।। उनके साथ बातें करें उनकी समस्याओं के बारे में जाने, उन्हें समय देने की दरकार होती है, कभी - कभार हंसी-मज़ाक करना चाहिए, कि उनका मन हल्का रहे।

वो चाहते हैं कि आप रिश्तेदारों के साथ उनकी बातें शेयर न करें भले ही वो बात कोई भी हो, क्योंकि अपनी कमियों पर वही विजय पाएगा, जबकि रिश्तेदार हो या कोई और मजा ही लेते हैं।

एक बात जो सबसे ज़्यादा क्रूर है कि हम सब हँसकर मज़ाक उड़ाते है कि देखो दूध के दांत नहीं आए और ये बच्चा इश्क़ कर रहा है! अभी तेरी उम्र ही क्या है? भला प्रेम उम्र देखती है, और कच्ची उम्र में जो आकर्षण होता है, भला मैच्योर आदमी वो कर सकता है?? वो मासूमियत एक उम्र में ही अच्छी लगती है। एक युवा जो घर परिवार, माता-पिता से समाज से छिपकर इश्क़ करे या दोस्तों के साथ घूमने निकल जाए या देर रात सिनेमा देखने निकल जाए या सब उसके आने वाले वक़्त की पूंजी हैं जिसे वो ताउम्र याद करते हुए अपने कमसिन उम्र को संजो लेना चाहता है। हमें सिर्फ एहसास करने की दरकार होती है। जबकि हम भूल जाते हैं कि यह उम्र हमने भी जिया है। हमने भी इन चुनौतियों का सामना किया है। हमारा समाज आज भी सहज नहीं है जबकि सहज होना बड़ा कठिन होता जा रहा है। बच्चों को सही-गलत का फर्क बताइए हर बात को अपने तरीके से करवाना छोड़ दीजिए, गऱ आप उनके दिमाग को फ्री रखते हुए सही गलत समझाएंगे लिबर्टी देंगे बच्चा कभी भी गलत डायरेक्शन में नहीं जा सकता। कुछ अनैतिक कर रहा हो तो ज़रूर रोकते हुए सही मार्ग दिखाएं। गऱ बच्चा अनैतिक मार्ग में न हो तो अनावश्यक दख़ल नहीं देना चाहिए।  बच्चों की जिन्दगी में एक स्पेस रखना चाहिए। ज्य़ादा कुछ करने की कोशिश मत कीजिए, बच्चों के साथ सहज रहिए। बस कांधे पर हाथ रखिए उन्हें एहसास दिलाएं कि कोई भी कठिन परिस्थिति क्यों न हो हम आपके साथ हैं। उनकी जिज्ञासा को शांत करें। उनके दिमाग में हजारों प्रश्न उठते हैं। उन्हें अपनी समझ पर समझाएं, इससे पहले बच्चा किसी और से अपना मंतव्य प्रकट करे, उसके अंतर्मन में अपनी जगह बनाएं। गऱ आप यह सब कर पाते हैं तो आप बच्चों को अवसाद से बचा सकते हैं। थ्री इडियट, तारे जमीन जैसी फि़ल्में स्कूल, यूनिवर्सिटी आदि में बच्चों के साथ माता-पिता को दिखाई जाएं।  कई बार माता-पिता का ईगो आड़े आता है कि तुम मुझे सिखाओगे? हमने दुनिया देखी है! जबकि समझने की दरकार होती है, कि इस दुनिया की कोई भी शै कुछ भी सिखा समझा सकती है, बच्चा तो फिर भी संवेदनाओं से भरा एक इंसान है। जिस दिन देश भर में माता-पिता बच्चों की तुलना पड़ोसियों से करना, उन्हें सभी के सामने डांटना, मेरिट के आधार पर नीचा दिखाना, जॉब, बिजऩेस की उपयोगिता समझाने के पहले ही उस अंधी दौर में शामिल करते रहेंगे तब तक हमारे मुल्क में युवावस्था एक त्रासदी बनी रहेगी। इस त्रासदी पर विजय आपको खुद पाना है, सरकार के भरोसे मत बैठिए अपने बच्चों के मित्र बन जाइए आपके बच्चों की जि़न्दगी हसीन हो जाएगी।

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