डॉ. आर.के. पालीवाल
ग्राम स्वराज और आदर्श ग्राम पंचायत के स्वरूप और कार्यशैली को समझने के लिए महात्मा गांधी का यह कथन याद रखना चाहिए कि ‘भारत में ज्यों-ज्यों ग्राम पंचायतें नष्ट होती गई, त्यों त्यों लोगों के हाथ से स्वराज्य की कुंजी निकलती गई। ग्राम पंचायतों का उद्धार पुस्तकें लिखने से न होगा। यदि गांव के लोग समझ जाएं कि वे अपने अपने गांव की व्यवस्था कैसे कर सकते हैं, तभी यह कहा जा सकेगा कि स्वराज्य की सच्ची कुंजी मिल गई।’ इस कथन में गांधी सबसे ज्यादा जोर गांव के लोगों के यह समझने पर देते हैं कि वे अपने गांव की व्यवस्था कैसे करें। महात्मा गांधी ने जिस ग्राम स्वराज की परिकल्पना की थी उसे अब युटोपिया माना जाने लगा है ताकि उसे असंभव कहकर आसानी से दरकिनार किया जा सके। महात्मा गांधी राजनीति में संत थे और संत भी शत-प्रतिशत।सत्य और अहिंसा सहित एकादश व्रतधारी आदर्श व्यक्ति। इसलिए उनकी परिकल्पना चाहे ग्राम स्वराज को लेकर हो या आजादी के आंदोलन के स्वरूप अथवा संपत्तियों के ट्रस्टीशिप को लेकर हो वह आदर्श के सर्वोच्च संस्कारों पर ही आधारित होती थी। इन परिकल्पनाओं को तभी साकार किया जा सकता है जब देश के अधिकांश नागारिक भी कमोवेश वैसी ही उच्च कोटि के संस्कारी नागरिक हों जैसे गांधी खुद थे और जैसा वे तमाम नागरिकों को बनाना चाहते थे।
गांधी चाहते थे कि भारत के गांव में इतनी एकता हो कि वे उसी तरह एक यूनिट की तरह व्यवहार करें जैसे एक संयुक्त परिवार होता है और जैसे एक आश्रम होता है। वे ग्राम स्वराज में सरकार और अपने सहयोगियों की भूमिका उत्प्रेरक और सहायक के रुप में देखते थे जो ग्रामवासियों को जागरूक करके उन्हें ग्राम स्वराज स्थापित करने में सहायता करें।जमीनी हकीकत यह है कि आजादी के बाद किसी सरकार और गांधी के बाद विनोबा और उनके चंद सहयोगियों एवं अनुयायियों को अपवाद स्वरूप छोडक़र अधिकांश गांधीवादियों ने इस दिशा में कोई ठोस जमीनी कार्य नहीं किया। उल्टे आजादी के बाद पिछ्ले पचहत्तर सालों में गांव ग्राम स्वराज की परिकल्पना से लगातार दूर होते चले गए और उस सीमा तक दूर हो गए जहां गांधी के ग्राम स्वराज की परिकल्पना को हकीकत में देखना लगभग असंभव हो गया है। आदिवासी गांवों के अलावा लगभग सभी गांवों में नेताओं ने धर्म और जातियों की इतनी खाई बना दी हैं कि गांव वाले एक यूनिट के रुप में एक साथ उठते बैठते तक नहीं।
ग्राम पंचायत और ग्राम स्वराज किताबों, लेखों और भाषणों में ही सिमट कर रह गए।इस मुद्दे पर गांधीवादी संस्थाएं बुरी तरह फेल हुई हैं। इन संस्थाओं और उनके पदाधिकारियों के महानगर और शहरों में केंद्रित होने से उनका गांवों से कोई जुड़ाव ही नहीं बचा। जिस तरह की ग्राम पंचायतों की कल्पना गांधी ने की थी उसकी हल्की सी झलक भी गांवों में दिखाई नहीं देती। इसकी सबसे बड़ी बाधा तो सरकार और विधायिका एवं कार्यपालिका में बैठे उसके प्रतिनिधि और नौकरशाही हैं जो ग्राम पंचायतों को अपने इशारों पर नचाने के लिए तमाम आर्थिक और प्रशासनिक अधिकारों पर अजगर की तरह कुंडली मारकर बैठे गए और अपनी पकड़ को और मजबूत करते जा रहे हैं। दूसरी बाधा ग्राम समाज की सामाजिक, आर्थिक और बौद्धिक विपन्नता और विषमता है। गांव के जो परिवार सामाजिक, आर्थिक,राजनैतिक और बौद्धिक रूप से समृद्ध हैं वे भी खुद को नेताओं और अफसरों की तरह छोटे मोटे देवता से कम नहीं समझते और सरकार के नुमाइंदों के साथ सांठ-गांठ कर ऐसा चक्रव्यूह रचते है जिसे भेदना अधिसंख्य ग्रामीण आबादी के लिए असंभव है। जब तक कोई बड़ा जन जागरण अभियान शुरु नहीं होगा तब तक ग्राम स्वराज का सूर्योदय मुश्किल होता जा रहा है।