विचार / लेख
अपूर्व गर्ग
अरबों की हेरोइन पकड़ी गई, कोई हंगामा नहीं, चुटकी भर ड्रग्स पर चौबीस घंटे छापामारी की खबरें क्यों?
देश लूटकर कई कॉर्पोरेट विदेश भाग गए, ये सोते रहे, पर आये दिन बॉलीवुड के कलाकारों, प्रोड्यूसरों पर छापे क्यों?
बातों-बातों पर फिल्मों के प्रदर्शन रुकवाए जाते हैं, दूसरी तरफ एक वर्ग लगातार नफरत फैलाता है, पर हमले बॉलीवुड पर ही होते हैं क्यों?
जाहिर है इन दिनों बॉलीवुड पर सबसे गंभीर हमले लगातार हो रहे, आलम ये है जो टीवी में दिख रहा है एनसीबी की कार्यवाही में बीजेपी का नेता अफसर की तरह एक्शन में दिख रहा ...आखिर ऐसे संगीन, खुले हमले क्यों?
अगर हम समझते हैं कि बॉलीवुड पर पिछले कुछ समय से चौतरफे हमले सिर्फ इसलिए हो रहे क्योंकि सरकार बॉलीवुड को लखनऊ शिफ्ट करना चाहती है, तो ये कथन अपूर्ण है। नोएडा में ही अब तक बहुत हाथ-पैर मारकर भी क्या स्थापित कर लिया?
अगर हम ये समझते हैं बॉलीवुड पर हमले इसलिए हो रहे ताकि कुछ और अनुपम-अजय-अक्षय मिलें जो ये इंटरव्यू लेें कि आम चूस के खाते हैं या काट के खाते हैं?...सिर्फ ये भी कारण नहीं है ।
बॉलीवुड के रूप में नोट छापने वाली मशीन मिल जाएगी, ये भी मुख्य कारण नहीं है ।
दरअसल, बड़ी आबादी तक सबसे आसान तरीके से पहुँचने का सशक्त माध्यम टीवी और सिनेमा है। नब्बे फीसद आबादी को कुछ भी पढ़ाइये उतना असर न होगा जितना किसी फिल्म से होगा। ये कड़वा सच है ।
टीवी पर काबिज होने के बाद इस सरकार की पूरी कोशिश है हिन्दुस्तान का ये सबसे तगड़ा माध्यम उनकी मु_ी में हो। इस सरकार की कोशिश है कि ऐसे लोग जिनका आजादी के आंदोलन में कोई योगदान न रहा उन पर फिल्में बनें और वो जनता के सामने हीरो के तौर पर उभर सकें।
आज के सेक्युलर, कभी प्रगतिशील रहे हिन्दुस्तान के बनने में सिनेमा का भी बड़ा योगदान रहा। पृथ्वी राज कपूर, बलराज साहनी, कैफी आजमी ख्वाजा अहमद अब्बास, गुरु दत्त, दिलीप कुमार राजकपूर, सलिल चौधरी, साहिर, उत्पल दत्त सत्यजीत रे, ऋत्विक घटक, बासु भट्टाचार्य, मृणाल सेन, राही मासूम रजा, शबाना आजमी, स्मिता पाटिल, नसीर, ओम पुरी अदूर गोपालकृष्णन गोविन्द निहलानी गिरीश कर्नाड , जावेद अख्तर जैसी लंबी सूची है ।
इसी तरह गायकों अन्य अभिनेताओं, सिने वर्कर्स कि भी लम्बी सूचि है, जिन्होंने देश को सुंदर, प्रेरक, देशभक्ति की, सांप्रदायिक सदभाव बनाए रखने की लगातार फिल्में देश को दीं ।
फिल्मी लेखन का इतिहास देखिये गुलजार तो अब भी हैं कभी कमलेश्वर, नीरज, गीतकार शैलेन्द्र, अमृत लाल नागर, भगवतीचरण वर्मा, अश्क सुदर्शन, नरेंद्र शर्मा और प्रेमचंदजी भी जुड़े थे। समझिये आज सरकार को दो बीघा जमीन, गर्म हवा, काबुलीवाला, नया दौर, शहीद, आक्रोश, अर्धसत्य, मिर्च मसाला, बाजार, तमस, मंडी, पार, दामुल, फायर, वॉटर, माचिस, मुल्क जैसी फिल्में नहीं बल्कि अंधविश्वास, कट्टरता अपने नेताओं पर बायोपिक और अपनी विचार धारा पर आधारित फिल्में चाहिये। इसलिए सिर्फ शिक्षा, इतिहास से छेड़छाड़ से काम नहीं चलेगा जब तक सूचना और मनोरंजन के पूरे साधनों पर कब्जा न हो जाये तब तक इनका अभियान चलेगा ताकि आसानी से मध्ययुग-बर्बर युग में वापिसी हो सके। इस रास्ते पर वापिस जाने के लिए जरूरी है लोगों की वैज्ञानिक चेतना का नाश हो ।
न्यू इंडिया के निर्माण के लिए जरूरी है लोगों को अंधराष्ट्रवादी और अलोकतांत्रिक बनाना। ये जहर सिर्फ मीडिया नहीं फैला सकता सिनेमा इसके लिए बहुत जरूरी है। सती प्रथा को जब फिल्मों से महिमामंडित किया जायेगा तो रूप कंवर जैसों की चीखें किसी को क्यों विचलित करेंगी?
पड़ोसियों को सिर्फ दुश्मन के तौर पर पेश किया जायेगा तो युद्ध उन्माद छाया रहेगा, हथियार बिकते रहेंगे भले ही गरीबी भूखमरी बढ़ती रहे ।
कश्मीर सिर्फ आतंकवाद की घाटी है और सेना ही इसकी सर्जरी कर सकती है, ये यकीन भला सिनेमा से बेहतर कौन दिला सकता है ?
आतंकवाद , युद्ध , दंगों पर अपने विचार जनता के दिमाग में डालने और उन्हें विश्वास दिलाने कि ये सरकारी लाइन सही है, फिल्म उद्योग पर नियंत्रण जरूरी है। बॉलीवुड के गले से इनकी ही आवाज निकले कॉलर पकडक़र गला इसलिए तो दबाया जा रहा।