विचार / लेख
-गॉर्डन कोरेरा
उत्तरी ध्रुव में हाल के दिनों में तनाव बढ़ता जा रहा है। एक तरफ अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ग्रीनलैंड को हासिल करना चाहते हैं, तो दूसरी तरफ रूस आर्कटिक में अपने सैन्य ठिकानों का आधुनिकीकरण कर रहा है।
वहीं चीन के बर्फ तोडऩे वाले जहाज आर्कटिक के इलाके में नए समुद्री मार्ग खोल रहे हैं और जासूसों की पहचान उजागर हो रही है। लेकिन जैसे-जैसे दुनिया के सबसे ठंडे इलाक़ों में से एक में संघर्ष तेज हो रहा है, एक नाजुक सुरक्षा संतुलन के टूटने का जोखिम भी दिखाई दे रहा है। इन हालातों ने हथियारों की एक नई होड़ शुरू कर दी है।
एक दूसरे को डराने की रणनीति
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने कई बार ग्रीनलैंड पर कब्ज़े की मंशा जाहिर की है। उन्होंने कहा, ‘हमें अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए ग्रीनलैंड की ज़रूरत है। मुझे काफी पहले ये बात बताई गई थी।’
आखिर सिर्फ 56,000 लोगों की आबादी वाला ये इलाका इतना अहम क्यों है?
इस सवाल का जवाब इसके भूगोल में छिपा है।
अमेरिका और सोवियत संघ के बीच शीत युद्ध के शुरुआती दौर में परमाणु हथियार, युद्ध के सबसे घातक हथियार थे।
ये हथियार दोनों पक्षों के बीच ‘डर के संतुलन’ को बनाए रखे हुए हैं और इन हथियारों को अपने लक्ष्य तक पहुंचाने का सबसे तेज़ रास्ता-उत्तरी ध्रुव के ऊपर से जाता था।
शीत युद्ध की शुरुआत में, अमेरिका ने ग्रीनलैंड के सुदूर उत्तरी हिस्से में एक अहम सैन्य ठिकाना बनाया- जिसे पहले थुले कहा जाता था। हाल ही में ही इसका नाम बदलकर पिटुफिक स्पेस बेस रखा गया है।
मैं 2008 में वहां गया था। इस बेस पर एक विशाल रडार बिल्कुल किसी विशालकाय संतरी की तरह खड़ा था जो अंतरिक्ष की ओर देखता रहता है ताकि उत्तर की दिशा से आने वाली किसी भी चीज़ को ट्रैक कर सके।
जब मैं वहां पहुंचा तो कार का इंजन अजीब तरह से शोर करने लगा और डैशबोर्ड कंट्रोल तेजी से हिलने लगे। दरअसल ऐसा उत्सर्जन की वजह से हो रहा था।
सैन्य बेस के अंदर अमेरिकी सैन्य अधिकारियों ने मुझे बताया कि इस रडार के ज़रिये वो अंतरिक्ष में सक्रिय टेनिस बॉल जितनी छोटी चीज़ों को भी देख सकते हैं।
शीत युद्ध भले ही ख़त्म हो गया हो लेकिन इस जगह की अहमियत आज भी कम नहीं हुई है। यह अब भी बीएमईडब्ल्यूएस (अमेरिका का बैलिस्टिक मिसाइल अर्ली वॉर्निंग सिस्टम) का अहम हिस्सा है।
ट्रंप ने अमेरिका की सुरक्षा के लिए एक ‘गोल्डन डोम’ बनाने का इरादा जताया है।
ये इसराइल के उस आयरन डोम की तरह हो सकता है, जो उसे मिसाइल हमलों से बचाने की कोशिश करता है। ऐसे किसी भी सिस्टम के लिए अर्ली वॉर्निंग सिस्टम साइटें अहम होंगीं। ग्रीनलैंड इस दिशा में एक मज़बूत अग्रिम सैन्य अड्डे के तौर पर रक्षा और आक्रमण दोनों के लिए बेहद कारगर हो सकता है।
ऑस्ट्रेलिया की पूर्व रक्षा अधिकारी और इस क्षेत्र पर किताब लिखने वाली डॉ। एलिज़ाबेथ बुचानन कहती हैं, ‘ग्रीनलैंड अमेरिका के लिए एक बेहद आकर्षक ज़मीन का टुकड़ा है। यह अमेरिकी होमलैंड के लिए एक भौगोलिक बीमा पॉलिसी है।’ ‘इसलिए ये आश्चर्य की बात नहीं है कि इसे हमेशा से किसी को रोकने के ज़रिये के तौर पर देखा जाता रहा है।’
रूस को इस बात से चिंता हो सकती है क्योंकि वो लंबे समय से इस बात को लेकर असहज रहा है कि अमेरिका की मिसाइल रक्षा प्रणाली कहीं उसकी ‘न्यूक्लियर डेटरेंस’ यानी परमाणु सुरक्षा को कमजोर न कर दे। लेकिन ट्रंप के बयानों का एक और असर यह हो रहा है कि ये अमेरिका के सहयोगियों को उससे दूर कर रहा है।
ग्रीनलैंड अभी भी डेनमार्क का हिस्सा है। इस साल की शुरुआत में जब ट्रंप ने इसे खरीदने की बात की थी तो इसे लेकर वहां काफी गुस्सा देखा गया। इसके साथ ही कनाडा में कई लोग इस बात से हैरान थे कि ट्रंप उनके देश को अमेरिका का 51वां राज्य बनाने की बात कर रहे हैं।
ग्रीनलैंड पर नियंत्रण हासिल करना अमेरिका की महत्वाकांक्षा हो सकती है। लेकिन यूरोपीय देश इस बात को लेकर चिंतित हैं कि रूस के खिलाफ बनाया गया सैन्य गठबंधन नेटो उस स्थिति से कैसे निपटेगा जब इसका ताकतवर सदस्य यानी अमेरिका, ग्रीनलैंड की जमीन पर दावा करेगा।
समुद्र में तनाव बढऩे की आशंका
रूस इस क्षेत्र का बेहद अहम खिलाड़ी है। उसके क्षेत्र का पांचवां हिस्सा आर्कटिक का इलाक़ा है। आर्कटिक समुद्री तट की आधे से ज़्यादा लंबाई अकेले रूस के हिस्से में आती है।
जब बात आर्कटिक के मिलिट्राइज़ेशन यानी सैन्यकरण की होती है तो सबसे ज़्यादा चिंता रूस को होती है। रूस ही वो देश है जिसे यहां होने वाले विकास का सबसे ज़्यादा नुकसान हो सकता है।
जहां पश्चिमी ताकतें इस क्षेत्र में काफी हद तक पीछे हटती रही हैं, वहीं रूस ने पिछले कई सालों के दौरान इस इलाके में अपनी मौजूदगी को मज़बूत करने में भारी निवेश किया है।
इनमें नागुरस्कोये जैसे एयरबेस को अपग्रेड करने का काम शामिल है जो शीत युद्ध के समय से संचालित हो रहा है। और अब ये एयरबेस बेहद ठंड की स्थिति में बड़े विमानों का ऑपरेशन संभाल सकता है।
कोला प्रायद्वीप वह जगह है जहां रूस के परमाणु पनडुब्बी बेड़े का बड़ा हिस्सा तैनात है।
रूसी पनडुब्बियां यहीं अपने ठिकानों से निकलकर आर्कटिक की बर्फ के नीचे छिप जाती हैं। जैसे ही उन्हें दुश्मन पर हमले का आदेश मिलता है वो टारगेट पर टूट पड़ती हैं।
रूस इसे अपने ‘न्यूक्लियर डेटरेंट’ और मिलिट्री पावर की क्षमता के परीक्षण के लिए बेहद अहम मानता है। नॉर्वे की खुफिया एजेंसी के प्रमुख, वाइस एडमिरल निल्स आंद्रेयास स्टेन्सोनेस कहते हैं, ‘स्वीडन और फिऩलैंड के नेटो में शामिल होने के बाद, बाल्टिक सागर रूसी सैन्य अभियानों के लिए कम पहुंच वाला इलाक़ा बन गया है। इसका मतलब यह है कि अब रूस के लिए उसका उत्तरी बेड़ा पहले से ज़्यादा अहम हो गया है।’
स्टेन्सोनेस से मेरी ये बात जून में हुई थी। उन्होंने बताया, ‘अब रूस न्यूक्लियर डेटरेंस पर ज़्यादा निर्भर हो गया है। उसके परमाणु हथियारों का एक बड़ा हिस्सा आर्कटिक के कोला प्रायद्वीप में मौजूद है।’
वाइस एडमिरल स्टेन्सोनेस के मुताबिक, रूस खुद ये मानता है कि आर्कटिक क्षेत्र में तनाव कम रखना उसके हित में है ताकि इस इलाके़ का मिलिट्राइजेशन न हो जाए। रूस यहां अपनी सैन्य मौजूदगी बढ़ा रहा है। वो अपना शक्ति प्रदर्शन भी कर रहा है। लेकिन वो कह रहा है कि पश्चिमी देश आर्कटिक का सैन्यीकरण कर रहे हैं।
ये अब चिंता की वजह बनते जा रहा है। स्टेन्सोनेस कहते हैं, यहां तनाव और बढ़ सकता है।
नॉर्वे तनाव को कम करने पर जोर देता रहा है, लेकिन दूसरे देश खतरा जता रहे हैं।
डेनमार्क के हालिया इंटेलिजेंस आउटलुक में कहा गया है कि रूस अब ‘आक्रामक और धमकी भरे अंदाज के जरिये अपनी ताकत दिखाने की कोशिश कर सकता है।’ इससे आर्कटिक में पहले से ज़्यादा तनाव और टकराव का खतरा बढऩे का खतरा है।
स्वालबार्ड द्वीपसमूह एक और संवेदनशील जगह है, जिस पर खास ध्यान देना होगा। एक अंतरराष्ट्रीय संधि के तहत, नॉर्वे को इन द्वीपों का प्रशासनिक नियंत्रण मिला हुआ है।
लेकिन रूस समेत कई अन्य देशों को वहां गतिविधियां चलाने की इजाजत है। अब ये द्वीप एक ऐसी जगह बन गया है जहां रूस से टकराव की स्थिति आ सकती है। क्योंकि रूस ने ये दावा किया है कि वो इसे अपने उन प्रतिद्वंद्वियों के खिलाफ सैन्य बेस के तौर पर तैयार कर रहा है जिनसे उसे ख़तरा हो सकता है।
ब्रिटेन क्या कर रहा है
ब्रिटेन औपचारिक तौर पर आर्कटिक पावर नहीं है। लेकिन इस क्षेत्र में उसकी गतिविधियां लगातार बढ़ रही हैं। रूस के असर का मुकाबला करना इसकी एक अहम वजह हो सकती है।
इसमें एक ऐतिहासिक वजह भी शामिल हैं, जिसे जीआईयूके गैप कहा जाता है। इसके बारे में कम जानकारी है लेकिन ये रणनीतिक तौर पर बेहद अहम है।
अगर रूस का उत्तरी बेड़ा अटलांटिक महासागर तक आसानी से पहुंचना चाहे तो उसे ग्रीनलैंड, आइसलैंड और ब्रिटेन के बीच स्थित इस संकरे जलमार्ग यानी जीआईयूके गैप से गुजऱना पड़ेगा।
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान इस इलाके़ की अहमियत इस बात से भी थी कि अमेरिका ने ग्रीनलैंड में एक सैन्य अड्डा बना लिया था ताकि नाज़ी जर्मनी की पनडुब्बियों का सामना किया जा सके।
शीत युद्ध के समय से लेकर आज तक यह ‘चोक पॉइंट’ पनडुब्बियों को खोजने के लिए अहम जगह बना हुआ है। नेटो इस इलाके में पानी के नीचे सेंसर लगा देता है ताकि पनडुब्बियों का पता किया जा सके।
ब्रिटेन के विदेश मंत्री डेविड लैमी ने इस साल मई के अंत में आर्कटिक का दौरा किया और आइसलैंड के साथ मिलकर एक नई संयुक्त योजना का एलान किया।
इसके तहत दुश्मन की किसी भी गतिविधि पर नजर रखने के लिए ‘आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस’ का इस्तेमाल किया जाएगा। यानी इसका मतलब रूसी पनडुब्बियों और जहाजों पर नजऱ रखना है।
ब्रिटेन आर्कटिक क्षेत्र में अपनी भूमिका बढ़ाना चाहता है लेकिन हाल ही में आई एक संसदीय रिपोर्ट में यह चिंता जताई गई कि उसके पास इसके लिए पर्याप्त सैन्य संसाधन नहीं हैं।
मसलन उसके पास पनडुब्बियों, समुद्री गश्ती विमान या एयरबोर्न अर्ली वॉर्निंग एयरक्राफ्ट नहीं हैं जो कि आर्कटिक में उसकी बढ़ती सक्रियता को आधार दे सकें।
ब्रिटेन की हालिया ‘स्ट्रैटेजिक डिफ़ेंस रिव्यू’ में वादा किया गया है कि पनडुब्बियों की संख्या बढ़ाई जाएगी। लेकिन कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि अभी और काफी कुछ किया जाना चाहिए।
ब्रिटेन के रक्षा मंत्रालय में वरिष्ठ अधिकारी रहे पीटर वॉटकिंस कहते हैं, ‘आर्कटिक वह क्षेत्र है जहां अमेरिका, कनाडा और यूरोप के सुरक्षा हित साफ़ तौर पर लगातार एक-दूसरे के नज़दीक आ रहे हैं। एक प्रमुख यूरो-अटलांटिक शक्ति के तौर पर ब्रिटेन को आर्कटिक पर और अधिक ध्यान और संसाधन खर्च करने की जरूरत है।’
वहीं डेनमार्क की एक हालिया खुफिया रिपोर्ट में कहा गया है, ‘रूस अन्य देशों को आर्कटिक में अपनी स्थिति को चुनौती देने से रोकने की कोशिश करेगा। इसलिए इस बात की काफी संभावना है कि रूस पश्चिमी सैन्य गतिविधियों पर आक्रामक ढंग से प्रतिक्रिया दे, खासकर आर्कटिक में अपने आसपास के क्षेत्र में।’
पोलर ‘सिल्क रोड’ को लेकर संघर्ष
आर्कटिक महासागर में जलवायु परिवर्तन के कारण एक नया सुरक्षा संकट उभर रहा है।
ब्रिटेन के इस साल के ‘स्ट्रैटेजिक डिफेंस रिव्यू’ में कहा गया है कि 2040 तक हर गर्मी में आर्कटिक का ऊपरी हिस्सा बर्फ से मुक्त हो सकता है।
लेकिन कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि यह अनुमान इस बदलाव की रफ्तार को कम करके आंक रहा है।
रूस की अर्थव्यवस्था का लगभग दसवां हिस्सा आर्कटिक के प्राकृतिक संसाधनों के दोहन से आता है।
अब जैसे-जैसे बर्फ पिघलेगी, रूस को आर्कटिक के इलाकों की और अधिक हिफाजत करनी होगी। इससे उसकी सुरक्षा चिंता भी बढ़ेगी। यही वजह है कि आर्कटिक में मिलिट्राइजेशन और तेज हो सकता है।
अब इस गेम में चीन भी उतर रहा है। चीन ने खु़द को ‘नियर-आर्कटिक स्टेट’ कहा है, जबकि वह न तो इस क्षेत्र के पास स्थित है और न ही उसका कोई आर्कटिक समुद्री तट है। फिर भी वह अब इस क्षेत्र में पहले से कहीं ज़्यादा सक्रिय होता जा रहा है।
इस सक्रियता का एक बड़ा कारण ये है कि यहां बर्फ के पिघलने से उत्तरी समुद्री मार्ग खुल रहे हैं जो स्वेज नहर की तुलना में व्यापार के लिए नया, तेज और संभवत: अधिक सुरक्षित मार्ग बन सकता है।
चीन के लिए यह नया मार्ग ‘पोलर सिल्क रोड’ यानी ध्रुवीय सिल्क रोड है। इसके ज़रिये वो न केवल तेज़ी से व्यापार कर सकता है बल्कि अपनी वैश्विक शक्ति का प्रदर्शन भी कर सकता है।
लेकिन आर्कटिक में चीन की दिलचस्पी अमेरिका को चिंता में डाल रहा है क्योंकि दोनों के बीच प्रतिस्पर्द्धा अब आर्कटिक तक पहुंच गई है। यहां संसाधनों और प्रभाव को लेकर दोनों में टकराव बढऩे का ख़तरा हो सकता है।
डॉ.एलिज़ाबेथ बुचानन कहती हैं, ‘चीन ने मिलीजुली रणनीति अपनाई है। वह उच्च शिक्षा, वैज्ञानिक मिशन, पर्यावरण सहयोग, मछली पकडऩे के अंतरराष्ट्रीय समझौतों और रणनीतिक साझेदारियों के जरिये आर्कटिक के आसपास अपने संबंधों को मज़बूत कर रहा है।’
वो कहती हैं, ‘इन गतिविधियों के ज़रिये उसने अपनी मौजूदगी को यहां सामान्य बना दिया है और अब कई आर्कटिक देश उसके साथ सहयोग करने के लिए इच्छुक दिख रहे हैं।’
चीन ने बर्फ तोडऩे वाले विशाल जहाजों की संख्या भी बढ़ाई है और रूस के साथ मिलकर अलास्का के पास बेरिंग सागर में संयुक्त गश्त भी की है।
लेकिन खुद रूस भी चीन के असर को लेकर चिंतित है क्योंकि वो आर्कटिक को अपना पड़ोसी इलाका मानता है।
न्यूयॉर्क टाइम्स ने हाल में रूसी सिक्योरिटी सर्विस के लीक दस्तावेज छापे थे। इसमें बताया गया है कि रूस को शक है कि चीनी जासूस खनन कंपनियों और अकादमिक शोध के नाम पर आर्कटिक में जासूसी कर रहे हैं।
जासूसी का गढ़ बनता आर्कटिक
आर्कटिक हमेशा से खुफिया जानकारी जुटाने का प्रमुख इलाका रहा है, खासतौर पर सिग्नल इंटेलिजेंस से जुड़े जासूसी के मामले। लेकिन अब अन्य तरह की जासूसी भी यहां तेज हो रही है।
2022 में, नॉर्वे में एक संदिग्ध रूसी जासूस को गिरफ्तार किया गया था। ये व्यक्ति ब्राजील के प्रोफेसर के रूप में खुद को पेश कर रहे थे और आर्कटिक मामलों का विशेषज्ञ होने का दावा करते थे। वहीं नॉर्वे में रूसी ड्रोन देखे जाने की घटनाएं भी बढ़ रही हैं।
एक और चिंता यह है कि रूसी खुफिया एजेंसियां आर्कटिक इलाकों में स्थानीय राजनीति में दखल दे रही हैं ताकि वहां विभाजन और अस्थिरता पैदा की जा सके। लेकिन अब केवल रूस ही चिंता का कारण नहीं है। हाल के कुछ महीनों में अमेरिका ने भी ग्रीनलैंड में खुफिया गतिविधियां बढ़ा दी हैं।
शायद अमेरिका ये पता करना चाह रहा हो कि रूस और चीन कहीं चुपचाप ग्रीनलैंड में अपना प्रभाव तो नहीं बढ़ा रहे हैं। हालांकि अमेरिकी सक्रियता ने डेनमार्क में नाराजगी बढ़ा दी है क्योंकि ग्रीनलैंड उसका हिस्सा है।
यूरोपीय देशों के सामने अब दोहरी चिंता है। एक तो रूस के साथ बढ़ते तनाव से उन्हें निपटना है, दूसरी चिंता ये कि अमेरिका पर कितना भरोसा किया जाए।
स्वीडन के रक्षा अनुसंधान एजेंसी के उप निदेशक निकोलस ग्रैनहैम कहते हैं, ‘चीन, रूस और अमेरिका यानी तीनों वैश्विक ताकतें आर्कटिक में टकरा रही हैं। अब हम देख रहे हैं कि यहां काफी तेज प्रतियोगिता शुरू हो चुकी है और बाकी देशों को भी अब अपनी रणनीति बदलनी होगी।’ (bbc.com/hindi)