विचार / लेख

-रमेश अनुपम
बस्तर से मेरे रिश्ते को अर्धशती होने जा रहा है। वर्ष 1980 से मेरा बस्तर से प्रगाढ़ रिश्ता रहा है। वर्ष 1980 से लेकर वर्ष 1992 तक मैं बस्तर के बैलाडीला ,दंतेवाड़ा ,जगदलपुर और कांकेर जैसी जगहों पर डाक विभाग और बाद में शासकीय महाविद्यालयों में पदस्थ रहा ।
कामरेड लक्ष्मण झाड़ी , कामरेड रामनाथ सर्फे, पत्रकार मित्र किरीट दोषी, भरत अग्रवाल ,धनुज साहू से मित्रता के चलते मुझे बस्तर के दुर्गम इलाकों में घूमने फिरने और भटकने का अनेक बार अवसर मिला । संभवत: इन्हीं सब आत्मीय मित्रों के कारण मैं बस्तर को थोड़ा बहुत जान पाया।
याद करता हूं मैने अबूझमाड़ की पहली दुर्गम यात्रा वर्ष 1983 में की थी , जब अबूझमाड़ में प्रवेश करने से पूर्व गृह मंत्रालय मध्य प्रदेश से अनुमति लेने की जरूरत पड़ती थी ।
लेकिन हम लोगों ने इस तरह की कोई अनुमति नहीं ली थी और एक जोखिम भरी यात्रा को अंजाम दिया था। हमें मालूम था कि मध्य प्रदेश सरकार हमें अबूझमाड़ जाने की अनुमति कभी देगी ही नहीं ।
’देशबंधु’ के बस्तर ब्यूरो भरत अग्रवाल तब तक मेरे मित्र और उससे बढक़र मेरे अग्रज हो चुके थे । एक दिन वे कांकेर आए तब तक मैं शासकीय महाविद्यालय कांकेर में सहायक प्राध्यापक के पद पर आ चुका था उन्होंने मेरे सामने अबूझमाड़ चलने का प्रस्ताव रखा । तब तक मैं नारायणपुर भी नहीं देख पाया था । मुझे भरत भाई का यह प्रस्ताव अच्छा लगा। हम दोनों बिना देर किए बस में बैठकर नारायणपुर की ओर रवाना हो गए । रात हम दोनों ने नारायणपुर के सरकारी डाक बंगला में गुजारी ।
दूसरे दिन भरत अग्रवाल के साथ हम पी .डब्लू. डी. विभाग की शासकीय जीप में जो भरत अग्रवाल ने अपने नारायणपुर में पदस्थ पी डब्ल्यू डी के एस डी ओ मित्र कुमरावत से नारायणपुर में जुगाड़ कर ली थी , हम जैसे _तैसे अबूझमाड़ की ओर रवाना हुए । हमें अबूझमाड़ के विकास खंड या कहें प्रवेश द्वार ओरछा पहुंचना था।
नारायणपुर के ओरछा के रास्ते में मैंने पहली बार बस्तर की शानदार बीयर कही जाने वाली सल्फी पी थी और उसके अपूर्व स्वाद को मैं जान पाया था । सल्फी , लांदा और महुआ से बनने वाली शराब बस्तर के आदिवासियों की जीवन संस्कृति का एक महत्वपूर्ण अंग है।
सल्फी से पहले 1980 के दिनों में बचेली के मेरे मित्र पत्रकार धनुज साहू के साथ कभी बैलाडीला के किसी दुर्गम गांवों में तो कभी बचेली में ही लक्ष्मी के देशी दारू के अड्डे पर बस्तर के महुआ का स्वाद मैं चख ही चुका था ।
धनुज साहू के साथ बैलाडीला के आदिवासी गांवों में न जाने मेरी कितनी रातें पिकी लोगों के साथ अलाव के सामने महुआ पीते हुए बीती थी। तब मैं फ़ख्त अठ्ठाईस वर्ष का एक नवयुवक था, जो माना कैंप के समुद्र से भटकते हुए न जाने कैसे बैलाडीला के बंदरगाह पहुंच गया था।
फिलहाल मैं अपने पत्रकार मित्र भरत अग्रवाल के साथ अबूझमाड़ के प्रवेश द्वार ओरछा की दुर्गम यात्रा पर था । जीप अपनी गति से आगे बढ़ रही थी, दूर दूर तक किसी भी तरहके वाहन को देखने के लिए तरस गए थे । कुछ आदिवासी पैदल चलते हुए जरूर दिख जाते थे ।
ओरछा अभी दूर था । रास्ते भर सागौन और तरह _ तरह के वृक्ष जैसे अपने बाहे पसार कर हमारा स्वागत कर रहें थे । मन रोमांचित हो रहा था एक दुर्गम अंचल को देखने के लिए, जो अबूझ है और माड़ भी। अबूझ को भला कौन बूझ सकता है मैं तो केवल अबूझ से इस माड़ से मिलने चला आया था ।
शाम होने में अभी काफी देर थी ।
एक जगह एक छोटा सा जलाशय देख जीप रुकवा देते हैं । वहां तीन चार आदिवासी नवयुवतियां नहा रहीं थीं । यह जीप के रुक जाने पर ही हम देख पाए थे। हमें जीप से उतरते देख कर वे वहां से भागने लगी थीं। वे कमर के नीचे एक छोटा सा वस्त्र भर लपेटी हुई थी। यह दृश्य मेरे लिए बहुत भयानक और हृदय विदारक था । शायद हमारे जैसे शहरी लोगों को देख कर भागना उनका सही फैसला था ।
जीप पर सवार जंगल विभाग के अफसरान , ठेकेदार के चरित्र से वे पहले से ही भली भांति वाकिफ थीं कि किस तरह ये सभ्य कहे जाने वाले शहरी बाबू आदमी के भेष में छिपे हुए भेडि़ए से कम नहीं होते हैं ।
हम शाम होने के पहले ही ओरछा पहुंच गए थे। तब तक ओरछा एकदम छोटा सा गांव भर था । भरत अग्रवाल नारायणपुर मेंं हीं पता कर चुके थे कि ओरछा में दो कमरों का एक नया रेस्ट हाउस बन गया है। हम सीधे रेस्ट हाउस पहुंचते हैं। रेस्ट हाउस एकदम नया है । दरवाजे खिड़कियां नए हैं , दीवारों में पेंट होना अभी बाकी है।
हम शायद इस रेस्ट हाउस में रुकने वाले पहले लोग थे । पता नहीं तब तक न जाने कैसे बी डी ओ साहब को हमारे आने की खबर मिल चुकी थी । वे अपनी मोटरसाइकिल में रेस्ट हाउस पहुंच गए थे। भरत अग्रवाल ने उन्हें अपना परिचय दिया । उन्हें बताया कि हम दो दिनों तक यहां रुककर विभिन्न गांवों का सर्वे कर यहां हुए विकास कार्यों को देखेंगे ।
बी डी ओ साहब हमें रेस्ट हाउस के ठीक सामने एक छोटे से और ओरछा के एक मात्र होटल में ले जाकर चाय पिलाते हैं। होटल में बाहर कडक़नाथ मुर्गा बंधा हुआ है । बी डी ओ साहब होटल वाले से रात के भोजन में कडक़नाथ बनवाने के लिए कहते हैं । तब तक मैं कडक़नाथ के लोभ में गिरफ्त हो चुका था । बी डी ओ के इस अनोखे प्रस्ताव से मैं मन ही मन खुश भी हो रहा था यह जानते हुए भी कि भरत भाई विशुद्ध शाकाहारी प्राणी हैं।
लेकिन भरत अग्रवाल तो एक अलग ही तरह के खाटी इंसान है । वे होटल वाले से कहते हैं कि रात के खाने में खाली दाल और चावल बनाना यह भी कि खाने का पेमेंट हम करेंगे । यह सुनकर बी डी ओ साहब के चेहरे पर मायूसी तैर आई थी । भरत भाई उन्हें जल्दी विदा कर देते हैं।
शाम ढल चुकी है। अंधेरा गहराने लगा है । भरत भाई किसी का इंतजार कर रहे हैं । थोड़ी देर में एक स्थानीय आदिवासी नवयुवक उसेंडी रेस्ट हाउस में भरत अग्रवाल से मिलने आ पहुंचा है । भरत अग्रवाल ने ही अपने संपर्क सूत्रों से उसे ढूंढकर बुलवाया है।
भरत भाई उसआदिवासी नवयुवक उसेंडी से मेरा परिचय करवाते हैं कि ये दो दिनों तक हमारे साथ रहेंगे और दुभाषिया का काम करेंगे , ये आसपास के गांवों से भी अच्छी तरह से परिचित हैं इसलिए इनका साथ रहना हमारे लिए अच्छा रहेगा। तय होता है कि कल तीन सायकिल का इंतजाम किया जाएगा और अबूझमाड़ की यात्रा पर हम सुबह _सुबह निकल पड़ेंगे ।
अभी उस टपरे नुमा होटल में खाना बनने में देर है ,अभी अंधेरा पूरी तरह से घिरा नहीं है । सात भी नहीं बजे होंगे ।
बी डी ओ साहब अपनी मोटर साइकिल में फिर आ गए हैं और आसपास के गांवों में जाने से हमें मना कर रहें हैं। वे हमें सचेत करते हुए कहते हैं कि साइकिल से भी आस पास के गांवों में पहुंचना दुरूह और एक तरह से जोखिम भरा काम है ,रास्ते में नदी _नाले हैं, उसे पार करना मुश्किल है । भरत अग्रवाल कहते हैं कि कल की कल देखेंगे । वे किसी तरह बी डी ओ साहब को फिर विदा करते हैं ।
हमारा दुभाषिया उसेंडी एक तेज मुरिया नवयुवक है। उसकी आंखों में चीते जैसी चमक है । थोड़ा पढ़ा लिखा होने के कारण वह हिंदी समझता और बोल लेता है । अभी खाना बनने में देर है और ठीक सामने ही होटल है ,सो इत्मीनान है कि किसी तरह की कोई हड़बड़ी की जरूरत नहीं है ।
हम उस दुभाषिए नवयुवक उसेंडी के साथ गपशप में लग जाते हैं।
उसके परिवार के बारे में पूछते हैं । वह कुछ देर के लिए जैसे किसी और दुनिया में खो जाता है , फिर हम दोनों के चेहरे पर गहरी दृष्टि डालते हुए कुछ देर के लिए चुप हो जाता है । शायद वह तय नहीं कर पा रहा है कि वह क्या कहे । थोड़ी देर बाद उसके गले से बमुश्किल आवाज निकलती है।
वह बताना शुरू करता है। अभी दो _ तीन महीने पहले उसकी छोटी बहन ने आत्म हत्या कर ली है । वह बताता है कि मेरी छोटी बहन इस वर्ष आठवीं कक्षा पास करके नवमी में पहुंची थी। वह पूरे अबूझमाड़ में पहली लडक़ी थी जो नवमी कक्षा तक पहुंच सकी थी। उसका गला रूंध आया है आवाज में एक अजीब सी बेबसी उभर आई है।
वह बताता है कि आत्महत्या से एक दिन पहले वह जंगल गई थी जहां वह बाघ का शिकार होते _होते किसी तरह से बच गई थी। वह बाघ के ठीक सामने थी पर जैसे तैसे किसी गिरती भागती हुई घर पहुंची थी ।
घर आकर उसने घर में सभी को बाघ वाला अपना किस्सा सुनाया । सबने चैन की सांसें ली और आगे से उसे अकेले जंगल जाने मन मना भी किया।
ओरछा उन्हीं दिनों एक नई_ नई चौकी खुली थी । चार सिपाहियों की वहां पोस्टिंग हुईं थी। उन चारों सिपाहियों ने उसी शाम उसकी नाबालिग बहन को रास्ते से उठा लिया था और चारों ने मिलकर उसके साथ ,देर रात तक बलात्कार किया था। सुबह सुबह मुंह अंधेरे वह उन नर पिशाचों के चंगुल से निकल भागी थी । घर आकर उस बच्ची ने बिना किसी को कुछ बताए फांसी लगा ली थी ।
रेस्ट हाउस में निस्तब्धता छा गई थी । हम कुछ बोलने की स्थिति में नहीं थे । कमरे में एक चुप्पी पसर चुकी थी । होटल वाला खाना बन जाने की सूचना देने और हमें खाने के बुला रहा है पर दिन भर की थकान और भूख जैसे गायब हो चुकी है।
उसेंडी की बहन का एक अरूप चेहरा मेरी आंखों में जल बुझ रहा था। अबूझमाड़ में आदिवासियों के साथ क्या कुछ नहीं होता है यह उसकी विरल दास्तान थी । बस्तर के अंदरूनी इलाकों में पुलिस चौकी शायद आदिवासी बच्चियों से बलात्कार के लिए खोला जाता है ।
सारी रात करवटें बदलते हुए बीत जाती है। सारी रात वह नवमी कक्षा तक पहुंचने वाली आदिवासी किशोरी मेरी आंखों में आंखों डालकर पूछ रही थी कि मेरी इस मौत के लिए जिम्मेदार कौन है ?
क्या हम आदिवासी लड़कियां पुलिस और सरकारी कर्मचारियों की हवस की भूख मिटाने के लिए ही बस्तर मेंं जन्म लेती हैं ?
मेरा सिर फटा जा रहा था । मुझे लग रह था कि सुबह होने से पहले ही ओरछा से भाग निकलूं और इस दारुण कथा को हमेशा_ हमेशा के लिए एक दु: स्वप्न की तरह भूल जाऊं ।
पर उस रात मैं ओरछा से नहीं भाग सका था। भागता भी तो भाग कर कहां जाता ?
आज भी, 48 वर्षों के बाद भी मैं इस दारुण कथा को कहां भूल पाया हूं।