विचार / लेख

-सतीश जायसवाल
इन दिनों विनोद कुमार शुक्ल कुछ कुछ लिख रहे हैं ..
यह, सरल सा कुछ कुछ तब कुछ विशेष महत्व का हो जाता है, जब विनोद कुमार शुक्ल का संक्षिप्त सा उत्तर होता है। उनके इस संक्षिप्त से उत्तर ने मेरे लिए उनके साथ बात करने को एक छोटा सा रास्ता बना दिया। अन्यथा, मैं उनसे क्या बात कर सकता ?
मैं तो, वैसे ही संकोचग्रस्त था। यह उनके आराम का समय था और मैं पहुंच गया। उन्हें उठकर आना पड़ा।
मैंने उनसे पूछा, इन दिनों क्या लिख रहे हैं ?
यह एक रस्मी किस्म का सवाल था। लेकिन मैं सचमुच समझना चाहता था कि अब, ज्ञानपीठ पुरस्कार के बाद उनका क्या लक्ष्य हो सकता है?
अपने अ_ासी पर पहुंचने के बाद भी विनोद कुमार शुक्ल लिख रहे हैं। अनथक। उनका सहज सा उत्तर था, कुछ कुछ लिख रहा हूं।
इधर वह बच्चों के लिए लिख रहे थे।अभी भी लिख रहे हैं। बहुधा बड़े साहित्यकार कहते हैं, बच्चों के लिए लिखना चाहिए। लेकिन विनोद कुमार शुक्ल बच्चों के लिए लिख रहे हैं।
भारतीय भाषाओं के साहित्य का सबसे बड़ा, ज्ञानपीठ पुरस्कार दिल्ली से चलकर उनके दरवाजे आ रहा है ? छत्तीसगढ़ के लिए यह एक ऐतिहासिक अवसर होगा। मैं भी अपनी बधाई के साथ उनके घर पहुंचा था। पर उनका घर ढूंढने में मुझे काफी समय लगा।
मुझे भरोसा था कि यहां, शैलेन्द्र नगर, रायपुर में हर कोई उनका घर जानता होगा। मुझे बता देगा।लेकिन वहां के लोग अपने साहित्यकार का घर नहीं जान रहे थे। वह तो, उनके पुत्र शाश्वत ने अपने घर से बाहर निकलकर मुझे बुला लिया। अन्यथा मैं भटकता ही रह जाता।
विनोद कुमार शुक्ल छत्तीसगढ़ के हैं। संकोची स्वभाव के हैं। मिलने जुलने में संकोची। फिर भी हम लोगों के लिए सहज।
मैंने उन्हें उनके शुरुआती दिनों से देखा है। मौकों मौकों पर उनसे मिलने और एक दूसरे के हाल चाल पूछने के रस्मी मौके भी मिलते रहे हैं। मैंने एक तरह से, उन्हें क्रमश: बड़े होते हुए देखा है। स्वयं से बड़े होते हुए देखा है। पुरस्कार दर पुरस्कार बड़े होते हुए।
कनक तिवारी ने एक बार अपने किसी व्याख्यान में अपने से प्रश्न किया था, अब और कौन सा भारतीय पुरस्कार विनोद कुमार शुक्ल के लिए बच रहा है? ज्ञानपीठ के अतिरिक्त।’ अब वह भी उनके नाम हो चुका।
लेकिन इस ज्ञानपीठ ने उन्हें सहसा इतना बड़ा बना दिया कि वह कुछ दूर लगने लगे। अपनी पहुंच से कुछ बाहर। लेकिन यह दूरी उनकी तरफ से नहीं, मेरे अपने भीतर से उपजी थी।
मेरा अपना रचना समय उनके समय के ठीक पीछे पीछे चला है। मध्यप्रदेश में पहली बार, रचनाकारों के लिए कोई फेलोशिप शुरू हुई थी गजानन माधव मुक्तिबोध फेलोशिप।’ यह मेरे समय की बात है। स समय छत्तीसगढ़ अलग नहीं हुआ था।
वह फेलोशिप विनोद जी को मिली थी। उस फेलोशिप के लिए एक आवेदक मैं भी था। तब तक ज्ञानोदय, धर्मयुग, सारिका, साप्ताहिक हिन्दुस्तान वगैरह में प्रकाशित अपनी कहानियों को ही मैंने अपना आधार माना था।लेकिन मुक्तिबोध फेलोशिप के लिए मानक कुछ और थे।
अलबत्ता उस आधार पर विनोदजी के साथ मैं एक किस्म की समकक्ष करीबी महसूस करता रहा।कुछ कुछ रनर अप की तरह।अब उसका उल्लेख स्वयं मुझे एक ओछी बात लगने लगी है।
विनोद जी मुझे और भी दूर लग सकते थे। लेकिन मुझे उनके पास सहज आत्मीयता मिली। उन्होंने मुझसे मेरे स्वास्थ्य की बात की। उन्हें मेरे कैंसर के बारे में पता था।
रमेश अनुपम ने मेरे इलाज के लिए शासकीय स्तर पर सहायता के लिए एक पहल की थी। राज्य के प्रतिष्ठित साहित्यकारों, बुद्धिजीवियों ने उस पर हस्ताक्षर किए थे।उसमें विनोद जी के हस्ताक्षर भी थे।
मैं उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित कर सकता था। लेकिन यह विनोद जी को कुछ संकोचग्रस्त कर सकता था।
मैं उनसे उनकी कहानियों के बारे में, उपन्यास और कविताओं के बारे में बात करता। तो, यह बात भी उनसे कितनी बार, कितने लोगों से की जा चुकी बात होती?
मैंने उनकी रचनाओं से अलग, उनकी दिनचर्या के बारे में बात की। हालांकि उन पर केंद्रित एक लघु फिल्म में वह इसका भी उत्तर दे चुके थे। तो..?
शाश्वत ने मेरी मदद की। शाश्वत की मदद से ही विनोद जी के साथ मेरी कुछ बात हो सकी।इन दिनों भी वह बच्चों के लिए लिख रहे हैं। बच्चों के लिए कुछ बड़ा लिख रहे हैं।इसे ही उन्होंने ‘कुछ कुछ’ कहा।
कोई एक बड़ा साहित्यकार अपने किसी बड़े काम को कितनी सहजता से ‘कुछ कुछ’ बता सकता है। विनोद कुमार शुक्ल ऐसा कर सकते हैं।