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जनगणना में मुस्लिम जातियों की गिनती
06-May-2025 8:31 PM
जनगणना में मुस्लिम जातियों की गिनती

- प्रमोद भार्गव

2021 की जनगणना में पहली बार मुस्लिमों की जातिवार गिनती होगी। अभी तक मुस्लिमों की गणना एक धार्मिक समूह के रूप में की जाती रही है। इस गणना से मुस्लिम समाज में मौजूद अनेक जातियों और उनके सामाजिक-आर्थिक और षैक्षिणक स्थिति के ठोस आंकड़े सामने आएंगे। गणना की इस ऐतिहासिक पहल के दूरगामी परिणाम देखने में आ सकते हैं। भविष्य में एकजुट मुस्लिम वोट बैंक खंडित हो सकता है। मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति को झटका लग सकता है। पसमांदा और अन्य पिछड़े मुसलमानों को राजनीति में प्रतिनिधित्व के मार्ग खुल सकते हैं। ऐसा अनुमान है कि सकल मुस्लिम समाज में 85 प्रतिशत जनसंख्या पसमांदा मुसलमानों की है, जो अत्यंत पिछड़े हुए हैं। इसलिए उन्हें मुस्लिमों से जुड़ी धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक संस्थाओं में प्रतिनिधित्व से वंचित रखा जाता है। देश के सभी मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करने का दावा करने वाली संस्था ‘ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल बोर्ड‘ में भी एक भी पसमांदा मुसलमान सदस्य नहीं है। नरेंद्र मोदी सरकार ने वक्फ बोर्ड संशोधन कानून में दो पसमांदा मुसलमानों के सदस्य होने का प्रविधान किया है। वर्तमान में देष में कुल 32 वक्फ बोर्ड हैं, जिनमें एक भी पसमांदा मुस्लिम सदस्य नहीं है। इन्हें अनुसूचित जनजाति (एसटी) के अंतर्गत मिलने वाली सुविधाओं का भी लाभ मिलेगा।

एक बार नरेंद्र मोदी ने कहा था  कि  ‘मुसलमानों में जाति की बात आने पर कांग्रेस के मुंह पर  ताला पड़ जाता है, लेकिन हिन्दू समाज की बात आते ही वह चर्चा जाति से करती है। क्योंकि वह जानती है कि जितना हिन्दू समाज बंटेगा ,उतना ही उसे राजनीतिक लाभ होगा।‘ मोदी के इस बयान को हिंदुओं की तरह मुसलमानों में भी जातियों की जनगणना कराए जाने के संकेत के रूप में देख गया था। अब मुस्लिमों के साथ ईसाईयों की भी जातिवार गिनती कराने का फैसला केंद्र सरकार ने ले लिया है। अतएव विपक्ष का यह मुद्दा हमेषा के लिए खत्म हो जाएगा। क्योंकि जातीयता का सियासी खेल खेलते हुए कांग्रेस तथा अन्य विपक्षी दल अपनी जीत के लिए जातीय विभाजन और गठजोड़ के बेमेल समीकरण बिठाते रहे हैं। मायावती,लालू,मुलायम और नीतीश कुमार ने यही किया। अब कांग्रेस अपनी जीत का आधार इसी फार्मूले को बना रही है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सरकार के कार्यकाल 2011 की जनगणना के साथ-साथ सामाजिक, आर्थिक और जातिवार आंकड़े जुटाए गए थे, इस गणना में जातियों की कुल संख्या 46.80 लाख के करीब थी। लेकिन 1931 में अंग्रेजी षासनकाल में हुई जातिवार जनगणना में कुल 4,147 जातियां थीं। 2011 के इन जातीय आंकड़ों को व्यावहारिक नहीं माना गया। इस कारण मनमोहन सिंह और फिर मोदी सरकार ने इसके आंकड़ों को जारी नहीं किया।

मुस्लिम धर्म के पैरोकार यह दुहाई देते हैं कि इस्लाम में जाति प्रथा की कोई गुंजाइश नहीं है। जबकि मुसलमान भी चार श्रेणियों में विभाजित हैं। उच्च वर्ग में सैयद, शेख, पठान, अब्दुल्ला, मिर्जा, मुगल, अशरफ जातियां शुमार हैं। पिछड़े वर्ग में कुंजड़ा, जुलाहा, धुनिया, दर्जी, रंगरेज, डफाली, नाई, पमारिया आदि शामिल हैं। पठारी क्षेत्रों में रहने वाले मुस्लिम आदिवासी जनजातियों की श्रेणी में आते हैं। अनुसूचित जातियों के समतुल्य धोबी, नट, बंजारा, बक्खो, हलालखोर, कलंदर, मदारी, डोम, मेहतर, मोची, पासी, खटीक, जोगी, फकीर आदि हैं।

मुस्लिमों में ये ऐसी प्रमुख जातियां हैं जो पूरे देश में लगभग इन्हीं नामों से जानी जाती हैं। इसके अलावा देश के राज्यों में ऐसी कई जातियां हंै जो क्षेत्रीयता के दायरे में हंैं। जैसे बंगाल में मंडल, विश्वास, चैधरी, राएन, हालदार, सिकदर आदि। यही जातीयां बंगाल में मुस्लिमों में बहुसंख्यक हैं। इसी तरह दक्षिण भारत में मरक्का, राऊथर, लब्बई, मालाबारी, पुस्लर, बोरेवाल, गारदीय, बहना, छप्परबंद आदि। उत्तर-पूर्वी भारत के असम, नागालैंड, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर आदि में विभिन्न उपजातियों के क्षेत्रीय मुसलमान हंैं। राजस्थान में सरहदी, फीलबान, बक्सेवाले आदि हैं। गुजरात में संगतराश, छीपा जैसी अनेक नामों से जानी जाने वाली बिरादरियां हैं। जम्मू-कश्मीर में गुज्जर, बट, ढोलकवाल, गुडवाल, बकरवाल, गोरखन, वेदा (मून) मरासी, डुबडुबा, हैंगी आदि जातियां हैं। इसी प्रकार पंजाब में राइनों और खटीकों की भरमार है। इसके आलावा मुसलमानों में सिया, सुन्नी, अहमदिया, उईगर और रोहिंग्या जैसे बड़े समुदाय भी हैं। कुछ भिन्नताओं के चलते इनमें आपस में खूनी संघर्श भी छिड़ा रहता है।

इतनी प्रत्यक्ष जातियां होने के बावजूद मुसलमानों को लेकर यह भ्रम की स्थिति बनी हुई है कि ये जातीय दुष्चक्र की गुंजलक में नहीं जकड़े हैं। दरअसल जाति-विच्छेद पर आवरण कुलीन मुस्लिमों की कुटिल चालाकी है। इनका मकसद विभिन्न मुस्लिम जातियों को एक सूत्र में बांधना कतई नहीं है। गोया, ये इस छद्म आवरण की ओट में सरकार द्वारा दी जाने वाली सुविधाओं पर एकाधिकार रखना चाहते हैं। जिससे इनका और इनकी पीढिय़ों को लाभ मिलता रहे। 1931 में हुई जनगणना में बिहार और ओड़ीसा में मुसलमानों की तीन बिरादरियों का जिक्र है, मुस्लिम डोम, मुस्लिम हलालखोर और मुस्लिम जुलाहे। बाकी जातियों को किस राजनीतिक जालसाजी के तहत हटाया गया, इसकी पड़ताल होनी चाहिए ? यदि ऐसा होता है तो वास्तविक रूप से मुसलमानों में आर्थिक बद्हाली झेल रही जातियों को सरकारी लाभकारी योजनाओं और संवैधानिक प्रविधानों से जोड़ा जा सकेगा ?

वृहत्तर मुस्लिम समाज सामान्य तौर से यह जताता है कि इस्लाम में जाति व्यवस्था नहीं है। इस भ्रम के जरिए मुसलमानों में जातीय कुचक्र को अब तक छिपाया जाता रहा है। बॉम्बे हाईकोर्ट ने भी  इसे कानूनी कसौटी पर परखने का फैसला लिया है। दरअसल मुसलमानों में जातियां तो हैं, लेकिन दस्तावेजों में उनके लिखने का प्रचलन नहीं है। मुसलमानों में यह उदारता कुटिल चतुराई का पर्याय है। यह जांच नौकरियों में आरक्षण का लाभ लेने के सिलसिले में की जाएगी। अदालत का कहना है कि जब सरकारी रिकॉर्ड में जाति के आधार पर प्रमाणीकरण ही न किया गया हो तो फिर आरक्षण का लाभ कैसे मिल रहा है ? जब कोई व्यक्ति सरकारी दस्तावेजों में जाति या उपजाति का उल्लेख ही नहीं कर रहा है, तो उसे पिछड़ा वर्ग या अनुसूचित जाति अथवा जनजाति के कोटे में आरक्षण का लाभ कैसे मिल सकता है ? आरक्षण की व्यवस्था में वही व्यक्ति आरक्षण का लाभ उठाने का पात्र हैै, जिसे निर्धारित व्यवस्था के तहत आरक्षण पाने के लिए सक्षम अधिकारी द्वारा जाति प्रमाण-पत्र जारी किया गया हो।

नौकरी या शिक्षण संस्थानों में प्रवेश के लिए आरक्षण प्राप्त करने के लिए आवेदक द्वारा जाति प्रमाण-पत्र लगाना अनिवार्य है। बावजूद इसके कई बार संबंधित विभाग या राज्य सरकारों की ‘जाति जांच समिति‘ परीक्षण करके ज्ञात करती है कि वास्तव में आवेदक आरक्षित वर्ग या जाति से है अथवा नहीं ? इसी प्रकृति का एक मामला बॉम्बे हाईकोर्ट में आया था। जुवेरिया रियाज अहमद शेख बनाम महाराष्ट्र सरकार नाम से पंजीबद्ध इस मामले में अदालत ने 7 अप्रैल 2022 को दिए आदेश में कहा था कि, ‘मुसलमानों के रिकॉर्ड में जाति का उल्लेख नहीं करने की प्रथा को कानूनी तौर पर परखने का निर्णय तब लिया, जब याचिकाकर्ता की ओर से दलील दी गई कि कुछ प्रासंगिक दस्तावेजों में याचिकाकर्ता के रिश्तेदारों की जाति का उल्लेख नहीं होने के कारण को जातीय जांच का आधार नहीं बनाना चाहिए था, क्योंकि बॉम्बे हाईकोर्ट के कई पूर्व फैसलों में कहा जा चुका है कि मुसलमानों में जाति का उल्लेख करने का प्रचलन नहीं है। इस दलील के समर्थन में इसी हाईकोर्ट के 4 फरवरी 2021 और 22 दिसंबर 2020 के दो पूर्व फैसलों को बतौर उदाहरण पेश किया गया था, कि मुसलमानों के संबंध में यह तय कानूनी व्यवस्था है कि उनमें जाति प्रमाण-पत्रों में जाति का उल्लेख करने का प्रचलन नहीं है। यहां सवाल उठता है कि जब जाति ही सुनिश्चित नहीं है तो जातिगत आरक्षण कैसे दिया जा सकता है ? 

आरक्षण की मौजूदा व्यवस्था में मुसलमानों को अनुसूचित जाति वर्ग में आरक्षण नहीं मिलता है। उन्हें अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) में ही आरक्षण का लाभ मिलता है। दरअसल केंद्र की ओबीसी सूची में ‘मुसलमान‘ जैसा कोई शब्द दर्ज नहीं है। लेकिन ‘बुनकर‘ शब्द उल्लेखित है। बुनकरों में हिंदू और मुसलमान दोनों ही शामिल हैं। लिहाजा बुनकर मुस्लिम हैं तो उन्हें जाति प्रमाण-पत्र मिल जाता है। हालांकि अपवादस्वरूप मुसलमान जाति का जिक्र करते हैं। इनमें मोमिन और जुलाहा जैसे जाति समुदाय षामिल है, इन्हें ओबीसी का जातीय प्रमाण-पत्र मिल जाता है। लेकिन बड़ा विषय यही है कि यदि सरकारी रिकॉर्ड में जाति का उल्लेख नहीं है, तो फिर जातीय प्रमाण-पत्र कैसे मिल सकता है ? 

जातिगत आरक्षण के संदर्भ में संविधान के अनुच्छेद 16 की जरूरतों को पूरा करने के लिए आरक्षण की व्यवस्था है। अतएव आर्थिक, शैक्षिक और सामाजिक रूप से पीछे रह गईं जातियों को आरक्षण का लाभ इसलिए दिया जाता है, जिससे वे संविधान के समानता के सिद्धांत का लाभ उठाकर अन्य जातियों के बराबर आ जाएं। बावजूद आरक्षण किसी भी जाति के समग्र उत्थान का मूल कभी नहीं बन सका ? क्योंकि आरक्षण के सामाजिक सरोकार केवल संसाधनों के बंटवारे और उपलब्ध अवसरों में भागीदारी से जुड़े हैं। इस आरक्षण की मांग शिक्षित बेरोजगारों को रोजगार और ग्रामीण अकुशल बेरोजगारों के लिए सरकारी योजनाओं में हिस्सेदारी से जुड़ गई हंै। परंतु जब तक सरकार समावेशी आर्थिक नीतियों को अमल में लाकर आर्थिक रूप से कमजोर लोगों तक नहीं पहुंचती तब तक पिछड़ी या निम्न जाति या मुसलमान अथवा आय के स्तर पर पिछले छोर पर बैठे व्यक्ति के जीवन स्तर में सुधार नहीं आ सकता ? अब मुस्लिमों की जातिवार गिनती होने के बाद पसमांदा जैसे वंचित मुस्लिमों को आरक्षण का लाभ मिल सकता है।

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