विचार / लेख
-अरविंद दास
पिछले साल जब वहीदा रहमान को दादा साहब फाल्के पुरस्कार दिया गया तब मैंने उनसे लंबी बातचीत की थी। मैंने उनसे पूछा था कि ‘आप गुरुदत्त को कैसे याद करती हैं?’ उनका कहना था कि ‘मैं न्यूकमर थी उस वक्त। मुझे कुछ समझ नहीं थी। उन्होंने एक के बाद एक ऐसी क्लासिक पिक्चर बनाई, जिसका मैं हिस्सा बनी। पूरा क्रेडिट गुरुदत्त जी का है।’ प्रसंगवश, वर्ष 1955 में तेलुगु फिल्म ‘रोजुलू माराई’ के एक गाने में पहली बार वह नजर आई जो बेहद चर्चित हुई। उस गाने पर गुरुदत्त की नजर पड़ी और वे उन्हें मायानगरी (मुंबई) खींच लाए।
वहीदा रहमान की फिल्में, जिसे गुरुदत्त (1925-1964) ने निर्माण-निर्देशित किया, मसलन ‘प्यासा’, ‘साहब बीवी और गुलाम’, ‘कागज के फूल’ विश्व सिनेमा के इतिहास में क्लासिक का दर्जा रखती है। महज 39 वर्ष का जीवन ही गुरुदत्त को मिला। लेकिन करीब पंद्रह वर्ष के फिल्मी करियर में गुरुदत्त ने परदे पर एक कलाकार और निर्देशक के रूप में जो कुछ भी रचा उसने हिंदी सिनेमा के मुहावरे को बदल दिया। उनकी अधिकांश फिल्में कलात्मक और व्यावसायिक दोनों ही रूपों में सफल रही थी।
साथ ही उनकी बनाई फिल्मों में एक उत्तरोत्तर उठान दिखाई देता है। शुरुआत की फिल्म ‘बाजी’ (1951), जिसे उन्होंने बलराज साहनी के साथ मिल कर लिखा था, से लेकर ‘जाल’, ‘बाज’, ‘आर-पार’, ‘मिस्टेर मिसेज 55’ और ‘साहब बीवी और गुलाम’ तक के सफर में यह दिखाई देता है। उनकी आखिरी फिल्में एक कुशल रचनाकार के ‘स्व’ की खोज की तरफ जाती दिखाई देती है। एक कश्मकश है यहाँ, जो उनकी निजी जीवन का भी प्रतिबिंब है। उनका जीवन एक अधूरे अफसाने की तरह रहा, जो हूक पैदा करता है।
गुरुदत्त के जन्मशती वर्ष में एक बार फिर से उनके योगदान की चर्चा अपेक्षित है। गुरुदत्त की फिल्में जितनी मेलोड्रामा के लिए याद रखने योग्य है, उतनी है बिंब के इस्तेमाल को लेकर। उनकी फिल्मों में विभिन्न शॉट्स का संयोजन एक लय की सृष्टि करता है। ‘कागज के फूल’ फिल्म में जिस तरह से कैमरा ने प्रकाश और छाया को कैद किया है, वह अविस्मरणीय है।
उनकी फिल्मों में गीत-संगीत का प्रयोग अलग से रेखांकित किया जाता रहा है। नसरीन मुन्नी कबीर ने ‘गुरुदत्त: ए लाइफ इन सिनेमा’ में ठीक ही लिखा है कि गानों को परदे पर उतारने में उन्हें महारत हासिल थी, जिससे उनके सहयोगी हमेशा प्रभावित होते थे। अपनी सभी फिल्मों में गुरुदत्त गीतों का इस्तेमाल संवाद के विस्तार के रूप में करते थे। ‘मिस्टर एंड मिसेज 55’ जैसी कॉमेडी हो या ‘प्यासा जैसी ट्रेजडी फिल्म, इनके गाने साठ-सत्तर साल बाद भी लोगों की जबान पर हैं।
कर्नाटक के मंगलौर में जन्मे गुरुदत्त का बचपन कोलकाता में बीता था। सत्तरह वर्ष की उम्र में वे प्रसिद्ध नृत्यकार उदय शंकर की संस्था ‘इंडिया कल्चर सेंटर’(अल्मोड़ा) से जुड़े थे। वर्ष 1944 में, दो वर्ष बाद, वे पूना पहुँचे जहाँ वे विश्राम बेडेकर निर्देशित फिल्म ‘लाखारानी (1945)’ में सहायक निर्देशक और एक किरदार की छोटी सी भूमिका में दिखे। यहीं से उनके फिल्मी सफर की शुरुआत हुई, जो मंजिल तक पहुँचे बिना खत्म हुई।


