विचार / लेख

उन्नीसवीं सदी के नवजागरण की शुरुआत का श्रेय राजा राममोहन राय (1772-1833) को दिया जाता है। उसके बाद ईश्वरचंद्र विद्यासागर (1820-1891) और रामकृष्ण परमहंस (1836-1886) आदि कहे जाते हैं। नवजागरण का लेकिन वाचाल पहला विद्रोह मौलिकता और देशभक्ति का अक्स समेटे बाईस वर्ष के एक कवि-शिक्षक में फूटा है। 26 दिसंबर 1931 को मौत की आगोश में सोने वाले डेरोजि़ओ (1809-1831) के जन्म वर्ष में ही टेनिसन, ग्लैड्स्टन, डार्विन, एडगर एलन पो, अब्राहम लिंकन, ऑलिवर होम्स, फिट्जराल्ड जैसे विष्वविख्यात व्यक्तित्व भी पैदा हुए। अंग्रेजी रूमानी काव्य के विलियम वर्डसवर्थ, कॉलरिज़, लॉर्ड बायरन, षेले और कीट्स जैसे दिग्गज हस्ताक्षरों के समानांतर एक भारतीय नौजवान कविता की पूरी ताजगी, चुनौती और ऊर्जा के साथ मौजूूद रहा है। निखालिस अंग्रेज नहीं होने से ईस्ट इंडियन समुदाय उस कसैले नस्लीय बर्तानवी व्यवहार से अछूता नहीं था जो सौतेली संतानों को मिलता है।
नवजागरण के मुख्य घटनाक्रमों में 1784 में एशियाटिक सोसाइटी, 1800 में फोर्ट विलियम कॉलेज, 1817 में हिन्दू कॉलेज, 1824 में संस्कृत कॉलेज तथा वारेन हेस्टिंग्स द्वारा 1782 में कलकत्ता मदरसा की स्थापनाओं का बुनियादी महत्व है। अचरज है समकालीन राजा राममोहन रॉय के लेखन तथा ईष्वरचंद्र विद्यासागर रचित जीवनियों के ‘जीवन चरित्र’ में डेरोजिओ का उल्लेख तक नहीं है। थॉमस एडवडर््स की डेरोजिओ की जीवन गाथा कलकत्ता में 1884 में ही प्रकाशित हो पाई। कई समान सामाजिक चुनौतियों से जूझते विवेकानन्द ने भी डेरोजि़ओ का उल्लेख नहीं किया। दुखद है उसके समकालीनों ने उसके कार्यों और लेखन का पूरा ब्यौरा भविष्य की पीढिय़ों के लिए सुरक्षित नहीं किया। चौदह वर्ष में ही डेरोजिओ की जेम्स स्कॉट एंड कंपनी की व्यापारी फर्म में क्लर्क की नौकरी में नियुक्ति हुई। फिर तबादला भागलपुर हो गया। वहां कुदरत में उसमें कवि जी उठा। छुटपुट काव्य रचनाओं के प्रकाशन के अलावा उसने मशहूर जर्मन दार्शनिक काण्ट पर गवेशणात्मक शोध लेख सवाल उठाते प्रकाशित किया। एक तरुण के लिए वह नायाब उपलब्धि थी। उसकी कविताओं से प्रभावित साहित्य-मर्मज्ञ शिक्षाशास्त्री डा. जान ग्रान्ट ने केवल अठारह वर्ष में हिन्दू कॉलेज (स्कूल) में अध्यापक पद पर उसकी नियुक्ति करवाई।
डेरोजि़ओ ने इतिहास बोध की दुर्लभ मेधा का परिचय देते अपने छात्रों को नैतिक सांस्कृतिक ऊंचाई पर ला खड़ा किया। कलकत्ता के अन्य दिग्गजों ने ऐसी संभावनाओं को नहीं तलाशा था। उसने सती प्रथा, दहेज प्रथा और बाल विवाह की कुरीतियों और मूर्तिपूजा के खिलाफ और विधवा विवाह के समर्थन में समाज सुधार का राममोहन राय की तरह लगभग पहला बिगुल फूंका। छात्रों में अध्ययनप्रियता और अध्यवसाय के बीज रोपे। कहा तर्क के बिना किसी भी सत्य को स्वीकार करना ज्ञान का अपमान करना है। डेरोजिओ बुुनियादी तौर पर कवि था। हालांकि उसके बहुविध गद्य में ऊर्जा की चिनगारियों के स्फुलिंग रहे। उसे नवजागरण के ज्ञान का पहला विस्फोट माना गया है। घर घर में मषहूर था हिन्दू कॉलेज का डेरोजिओ का कोई विद्यार्थी झूठ नहीं बोल सकता। समाज की कुरीतियों को दूर करने के उसके विद्रोही रोल के खिलाफ कॉलेज के प्रबंध न्यासियों को उकसाया गया। उन्होंने माना वह अद्भुत प्रतिभाषाली षिक्षक था। फिर भी उसे स्कूल की नौकरी से निकाल दिया। कारण बताओ नोटिस का जवाब तपेदिक से ग्रस्त डेरोजिओ ने दिया। वह एक नवयुवक का नायाब तार्किक स्फुरण है।
वाणिज्य का अध्यापक डेरोजिओ अंग्रेजी साहित्य के प्रारंभिक षिक्षकों में भी था। उसके द्वारा स्थापित स्टडी सर्किल में सामाजिक कुरीतियों, धर्म, दर्शन, साहित्य, राजनीति से संबंध जलते सवालों पर बहस मुबाहिसा होता। वह विद्यार्थियों को स्वतंत्र, निर्भीक और स्पष्ट विचारों के लिए उत्साहित करता था। उसके तर्क तलवार की धार की तरह पैने होते। वह समाज सुधारक तथा बुद्धिजीवी चिंतक के रूप में मशहूर था। एक अर्थ में उसे नास्तिक भी कहा गया। हिन्दू कॉलेज के लिपिक हरमोहन चटर्जी का संस्मरण मार्मिक है कि डेरोजिओ ने अपने विद्यार्थियों के जेहन पर इतना अधिकार कर लिया था कि वे अपने निजी मामलों में भी उसकी सलाह के बिना अपनी राय नहीं रखते थे। अटूट विश्वास था उसे भी अपने विद्यार्थियों में! कितनी उम्मीदें संजोई थीं समवयस्क अध्यापक ने! विद्यार्थियों ने भी उसके विश्वास की मर्यादा निभाई। दक्षिण मुकर्जी, ताराचन्द चक्रवर्ती, के.एम. बनर्जी, रामतनु लाहिरी, रामगोपाल घोष, रामनाथ सिकदार जैसे विद्यार्थियों ने उस मशाल की ज्योति से बंगाल को ही नहीं सारे भारत को आलोकित किया है जो डेरोजिओ ने ‘यंग बंगाल मूवमेंट‘ स्थापित कर उनके हाथों में दी थी।
कॉलेज के जीवन मेंं ही डेरोजिओ ने ‘पार्थेनॉन‘ नाम की पत्रिका प्रकाशित की। उसकी लेखनी ब्रिटिश हुकूमत, सामाजिक कुरीतियों और शैक्षणिक दुव्र्यवस्थाओं के खिलाफ आग उगलती। रूढि़वादियों के एक वर्ग ने पत्रिका के दूसरे संस्करण की सारी प्रतियां इस डर से खरीद लीं कि विद्यार्थियों के हाथों में न पड़ जायें। कॉलेज की प्राध्यापकी छूट जाने के बाद डेरोजि़ओ ने गेस पेपर्स नहीं छपवाए। ट्यूशनें नहीं की और लडक़ों को परीक्षोपयोगी नोट्स नहीं लिखवाए। उसने साहस नहीं खोया और संघर्षशील बना रहा। उसके घर पर विद्यार्थियों की भीड़ जमा रहती। उससे उसे और हिम्मत मिलती। उसने ‘ईस्ट इंडियन‘ नाम का समाचार पत्र निकालना भी शुरू किया। पत्रकारिता के इतिहास का यह महत्वपूर्ण पत्र बहुत लोकप्रिय हुआ। डेविड हेयर, डॉ. एडम आदि शिक्षाशास्त्रियों के साथ उसने हिन्दू फ्री स्कूल तथा धरमतल्ला अकादमी में भी काम किया। मौत का साया उस पर मंडराने लगा था। 26 दिसंबर 1831 को तेईसवें वर्ष हैजा की बीमारी से अचानक वह चल बसा। इतना शोक उन दिनों अन्य किसी की मृत्यु का नहीं मनाया गया। डेरोजि़ओ ने कलकत्ता का पहला वादविवाद क्लब ‘एकेडेमिक एसोसिएषन‘ अपनी अध्यक्षता में स्थापित किया। मानिकतल्ला मकान के बागीचे में होने वाली इसकी बैठकों में बंगाल के डिप्टी गवर्नर डबल्यू. डबल्यू. बर्ड, चीफ जस्टिस सर एडवर्ड रायन, वाइसरॉय लॉर्ड बैंटिंक के निजी सचिव कर्नल बेन्सन तथा डेविड हेयर जैसे बुद्धिजीवी भी आते थे।
वैश्वीकरण की विकृतियां भोगते भारत मेंं कोई कल्पना कर सकता है कि लगभग दो सौ वर्ष पहले एक नवयुवक यह कह रहा हो ‘कुछ लोगों का विचार है कि औपनिवेशीकरण से हमारे देश की कई बुराइयों को प्रभावी तरीके से खत्म करने में मदद मिलेगी। लेकिन देखना है कि ऐसी कोई हालत कब होती है। मुझे इस पर यकीन नहीं है, और इस धारणा में कि सभी कोशिशों की बनिस्बत औपनिवेषीकरण में ही भारत का फायदा है। यह सत्य के मुकाबिले लफ्फाज़ी ज्यादा है। हालांकि कुछ आशावादी चिंतकों का उलट विचार है। लेकिन अगर सचमुच ऐसा होने की संभावना हो तो भी मेरे विचार में इसमें सबसे बड़ी बाधा औपनिवेशीकरण पर अमल करने मेंं है।‘ भारत के यूरोपीय औपनिवेशीकरण की मुखालफत करते डेरोजिओ ने कहा था गोरे अंग्रेज बदहाली तो हिन्दुओं और मुसलमानों की कर रहे हैं। वही हाल भारत के एंग्लोइंडियन या अन्य यूरोपीय परिवारों का होगा। डेरोजिओ का पूर्वाभास सच हुआ। वह इतिहास को जांचने के लिए भूगोल जैसे सामाजिक विज्ञान के स्फुलिंग को अपनी नायाब मेधा के जरिए पहचानता था।
महात्मा गांधी ने चंपारण में नील की खेती के अन्याय को लेकर ऐतिहासिक आंदोलन किया। गांधी न केवल राष्ट्र नेता बल्कि परिव्राजक भी थे। उनसे 23 वर्ष के नवयुवक की तुलना नहीं हो सकती। लेकिन डेरोजिओ ने ही नील की खेती के किसानों पर हो रहे जुल्म का आगाज़ किया था। गांधी की चम्पारण चेतना एक ईस्ट इंडियन किशोर में कोई सौ बरस पहले जागृत हुई थी। इस तर्क का लेखा-जोखा न इतिहास में दर्ज है और न ही गांधी साहित्य में।
डेरोजि़ओ को अंग्रेजों से हमदर्दी नहीं थी। हालांकि वह राजनीतिक कार्यकर्ता नहीं था। उसने साहित्य, संस्कृति, सामाजिक विज्ञान और जातीय समीकरणों की ब्रिटिश अवधारणाओं को झिंझोड़ते भारत की बेहतरी को लेकर वैचारिक अरुणोदय की तरह गुमनाम लेकिन उज्जवल जीवन जिया और असमय चला गया। यूरोपीय नवोदय को भारत में लाये जाने का वह विरोधी नहीं था। उसका नजरिया विज्ञान सम्मत था। उसने इस बात की बेबाक वकालत की कि अंग्रेज हुक्मरान भारत में रूढिय़ों, वर्जनाओं, अफवाहों और अंधविश्वासों के बरक्स यूरोपीय नवोदय की फितरत की शिक्षा, संस्कृति और कला के उच्चतर और व्यापक शिक्षण का इंतजाम करें। यह सरकार का पहला कर्तव्य हो, जिससे आधुनिक षिक्षा कस्बों तक फैले।
उसने यह मांग की कि भारत के भाग्य को ईस्ट इंडिया कंपनी जैसी तिजारती संस्था के भरोसे छोडऩे के बदले ब्रिटिश संसद को हस्तक्षेप करना चाहिए। उससे भारतीयों और इंडो-ब्रिटन प्रकृति के देशवासियों को यथासंभव यूरोपियों के बराबर अधिकार मिलें। उसकी भविष्यवाणी सच 1857 में हुई कि ऐसा नहीं होगा तो जनविद्रोह रोकना मुष्किल होगा। उसने कहा था शासक और षासित के रिष्तों को जोडऩे का काम कलाओं और विज्ञान को सौंपना चाहिए। जेरेमी बेन्थम को उद्धृत करते हुए डेरोजिओ ने कहा था कि आदर्ष शासन वही होता है जो ज्यादा से ज्यादा लोगों की ज्यादा से ज्यादा भलाई कर सके।