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नयी दिल्ली, 28 नवंबर। उच्चतम न्यायालय ने शुक्रवार को विधि आयोग से एक बौद्ध समूह की उस याचिका पर विचार करने को कहा है, जिसमें कहा गया है कि बौद्धों पर भी लागू होने वाले ‘हिंदू पर्सनल लॉ’ के कुछ प्रावधान धर्म की स्वतंत्रता समेत उनके मौलिक अधिकारों के खिलाफ हैं।
भारत के प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) सूर्यकांत और न्यायमूर्ति जॉयमाल्या बागची की पीठ ने ‘बौद्ध पर्सनल लॉ एक्शन कमेटी’ की याचिका पर सुनवाई करते हुए विधि आयोग से इसे एक प्रतिवेदन के रूप में मानने को कहा कि कुछ मौजूदा कानूनी प्रावधान बौद्ध समुदाय के मौलिक अधिकारों और सांस्कृतिक प्रथाओं के विपरीत हैं, जिसके मद्देनजर इसमें संवैधानिक और वैधानिक बदलावों की आवश्यकता है।
बौद्ध भी हिंदुओं के लिए बने कानूनों के दायरे में आते हैं, जैसे कि हिंदू विवाह अधिनियम, 1955, हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956, हिंदू अल्पसंख्यक और संरक्षकता अधिनियम, 1956 और हिंदू दत्तक ग्रहण और देखभाल अधिनियम, 1956 द्वारा निर्दिष्ट है।
संविधान के अनुच्छेद 25 में बौद्धों, जैनियों और सिखों को इन कानूनों के प्रयोजनों के लिए ‘‘हिंदू’’ की परिभाषा में शामिल किया गया है।
मामले की सुनवाई शुरू होने पर सीजेआई ने याचिका में मांगी गई राहत की प्रकृति पर सवाल उठाया।
न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने पूछा, ‘‘आप संविधान और व्यक्तिगत कानूनों में संशोधन के लिए एक आदेश चाहते हैं? आपने सरकारी प्राधिकरण से कहां संपर्क किया है? आप चाहते हैं कि हम अब केशवानंद भारती पर विचार करें और बुनियादी ढांचे में भी संशोधन करें।’’
याचिकाकर्ता के वकील ने कहा कि बौद्ध एक अलग समुदाय है और यह मुद्दा कई बार उठाया गया है।
पीठ ने कहा कि विधि आयोग देश में एकमात्र विशेषज्ञ निकाय है और आमतौर पर इसका नेतृत्व उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश या उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश करते हैं।
उन्होंने कहा, ‘‘वे आप जैसे व्यक्ति का स्वागत करेंगे और सहायता प्राप्त करेंगे। विधि आयोग ऐसे संवैधानिक संशोधनों के लिए सिफारिशें कर सकता है।’’
पीठ ने कानून और न्याय मंत्रालय के दिसंबर 2024 के एक पत्र पर गौर किया जिसमें कहा गया था कि 21वां विधि आयोग समान नागरिक संहिता पर अपने विचार-विमर्श में इस मुद्दे पर भी ध्यान दे रहा है और विभिन्न हितधारकों के विचार मांगे गए हैं। (भाषा)


