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तस्वीर / सोशल मीडिया
भारत के मुख्य न्यायाधीश बी.आर.गवई ने कल अपने इस विचार को दुहराया कि अनुसूचित जाति के आरक्षण से उस वर्ग के मलाईदार तबके को बाहर करना चाहिए। वे एक सार्वजनिक कार्यक्रम में बोल रहे थे, और उन्होंने कहा कि जब रिजर्वेशन की बात आती है तो एक गरीब खेतिहर मजदूर के बच्चे का मुकाबला एक आईएएस अफसर के बच्चे से भला कैसे हो सकता है? उन्होंने कहा कि जो ओबीसी आरक्षण में लागू होता है, वही अनुसूचित जाति के आरक्षण में भी लागू होना चाहिए। उन्होंने खुद ही यह भी कहा कि जब उन्होंने इस बारे में फैसला लिखा था, तो उसकी व्यापक आलोचना हुई थी। उल्लेखनीय है कि 2024 में उन्होंने दविन्दर सिंह प्रकरण में अपनी यही सोच फैसले में लिखी थी।
हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हम बीते दशकों से लगातार यह बात लिखते आ रहे हैं कि दलित और आदिवासी दोनों ही तबकों में आरक्षण का फायदा पाने वाले लोगों पर क्रीमीलेयर की सीमा लागू करनी चाहिए ताकि एक बार इसका फायदा पाकर सामाजिक रूप से सक्षम हो चुके परिवारों को उनकी संपन्नता या परिवार के लोगों के ओहदों की ताकत से पीढ़ी-दर-पीढ़ी वह फायदा न मिलता रहे। एक बार जो परिवार आरक्षण के फायदे से ताकतवर हो जाते हैं, वे अपने ही तबके के कमजोर लोगों को कभी बराबरी तक नहीं आने दे सकते। इसलिए एक बार कमाई जा चुकी ताकत की ऐसी विरासत को जारी रखने का मतलब सामाजिक अन्याय को जारी रखना है। पहले तो दूसरे वर्गों के मुकाबले इस अन्याय को खत्म करने के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई थी, अब इन तबकों के भीतर असमानता को देखते हुए क्रीमीलेयर की धारणा लागू करना बहुत जरूरी है क्योंकि उसके बिना सबसे कमजोर तबके कभी भी फायदा पाने लायक नहीं बन पाएंगे, और ताकतवर हो चुके लोग ही आरक्षण का सारा फायदा पीढ़ी-दर-पीढ़ी पाते रह जाएंगे।
मुख्य न्यायाधीश गवई खुद दलित तबके के हैं, और उनका परिवार क्रीमीलेयर में गिनाएगा, लेकिन अपने निजी नुकसान की कीमत पर भी उन्होंने यह सोच सामने रखी है। हमारा भी तर्क यही रहते आया है कि जिस संसद या विधानसभा को आरक्षण की व्यवस्थाओं में किसी भी तरह का फेरबदल करने का अधिकार हो सकता है, उसके सारे ही सांसद और विधायक सदस्य क्रीमीलेयर के गिनाएंगे, और क्रीमीलेयर लागू करने उनके लिए ठीक वैसे ही निजी नुकसान का होगा जिस तरह सरकार के बड़े अफसरों, या अदालत के बड़े जजों के लिए होगा। हितों के ऐसे टकराव के चलते हुए दलित और आदिवासी तबकों के आरक्षण पर क्रीमीलेयर लागू नहीं हो पाई है। इसका नुकसान यह है कि इन तबकों के भीतर एक बार ताकतवर हो चुके लोग अपने बच्चों को आगे के सभी फायदों पर काबिज होने के लिए मजबूत बनाते चलते हैं, और एक काल्पनिक क्रीमीलेयर के ठीक नीचे के लोग भी उनका मुकाबला नहीं कर पाते। सामाजिक न्याय के आरक्षण के भीतर यह एक बड़ा सामाजिक अन्याय धड़ल्ले से चल रहा है।
अब इस मुद्दे पर बात करते हुए हमारा यह साफ मानना है कि जिन एसटी-एससी परिवारों की आय 10 लाख रूपए से ऊपर है, जिनके परिवारों में कोई भी सांसद या विधायक हैं, या किसी भी सरकार संस्थान में प्रथम या द्वितीय वर्ग के अधिकारी हैं, उनके बच्चों को आरक्षण की पात्रता से बाहर करना चाहिए। इसके अलावा जिन लोगों को एक या दो पीढ़ी आरक्षण मिल चुका है, उनकी तीसरी पीढ़ी को आरक्षण के फायदे से बाहर करना चाहिए। यह बात स्कूल-कॉलेज के दाखिलों और नौकरियों पर सीधे-सीधे लागू हो सकती है, होनी चाहिए, लेकिन दूसरी तरफ इन तबकों के लिए आरक्षित चुनावी सीटों पर क्रीमीलेयर लागू करना शायद व्यवहारिक और सही नहीं होगा, इसलिए हम उस पर अभी कोई विचार नहीं रख रहे हैं। इस बात को समझना जरूरी है कि पढ़ाई और नौकरी के अवसर गिने-चुने रहते हैं, और एसटी-एससी तबकों के क्रीमीलेयर में वे सारे ही खत्म हो जाते हैं। इनको हटा देने पर भी इन तबकों के शायद 90 फीसदी लोग मुकाबलों में फिर भी बचे रहेंगे। और वे ही लोग सामाजिक अन्याय के इतिहास की रौशनी में आज आरक्षण के असली हकदार हैं।
कल के कार्यक्रम में मुख्य न्यायाधीश गवई ने बी.आर.अंबेडकर की कही यह बात याद दिलाई कि भारत का संविधान कोई स्थिर दस्तावेज नहीं है, बल्कि उसे वक्त और जरूरत के मुताबिक बदलना और ढलना होगा, इसीलिए संविधान में संशोधन की व्यवस्था की गई है। जस्टिस गवई ने कहा कि उनके विचार से क्रीमीलेयर पर ऐसी रोक, और सिर्फ यही रोक संविधान में बताई गई समानता तक पहुंचा सकती है। उनका यह भी कहना है कि ओबीसी क्रीमीलेयर के पैमानों से परे, एसटी-एससी क्रीमीलेयर के अलग पैमाने तय हो सकते हैं। उन्होंने कहा कि जो लोग एसटी-एससी तबकों के आरक्षण से ताकत पा चुके हैं, उन्हें खुद ही आगे के फायदे से दूर रहना चाहिए, और जरूरतमंद लोगों के लिए रास्ता खोलना चाहिए। 2024 के दविन्दर सिंह केस में जस्टिस गवई ने बाकी लोगों से परे अपना एक अलग फैसला लिखा था जिसमें इस बात को उन्होंने साफ-साफ कहा था। उन्होंने सरकार द्वारा एसटी-एससी में भी क्रीमीलेयर की पहचान करके उसे आरक्षण के फायदों से बाहर करने की बात कही थी। इसी फैसले में बाकी जजों ने आरक्षण के भीतर कुछ जातियों के लिए आरक्षण की बात लिखी थी, लेकिन हम यहां उस चर्चा को नहीं छेड़ रहे हैं क्योंकि उससे मूल बात भटक जाएगी।
हमें अपने अखबार में लिखी गई बातों को पांच, दस, या बीस बरस बाद किसी अदालती फैसले में पढक़र अच्छा लगता है। यह लगता है कि हमने वक्त के पहले इस बात को उठाया था। एसटी-एससी तबकों पर क्रीमीलेयर लागू करने की हमारी वकालत पर बहुत से लोगों ने बीते बरसों में हमारी आलोचना की, मानो हमने उन तबकों के लिए आरक्षण घटाने की कोई मुहिम छेड़ी है। हम तो सिर्फ इन तबकों के सबसे कमजोर लोगों तक अवसरों को जाने देने का एक रास्ता बनाना चाहते थे जो कि आज मोटी और मजबूत मलाई ने रोक रखा है। पता नहीं देश के नेताओं में इतनी राजनीतिक इच्छा शक्ति रहेगी या नहीं कि वे ऐसा साहसी फैसला ले सकें। लेकिन एसटी-एससी तबकों के आम लोगों को, या आम लोगों के हक की वकालत करने वाले लोगों को इसे मुद्दा बनाना चाहिए। देखते हैं अदालत, संसद, या विधानसभाएं, इस बारे में अपने अधिकार क्षेत्र में क्या-क्या कर सकती हैं?


