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पिछले एक हफ्ते में कश्मीर से शुरू हुई खबरें राजस्थान, उत्तरप्रदेश, और हरियाणा तक बिखर गई हैं, और तरह-तरह के हथियार, विस्फोटक, आतंकी हमलों की साजिशों की खबरें छाई हुई हैं। कल की खबर है कि तीन राज्यों में एक दिन में 507 जगहों पर पुलिस और दूसरी जांच एजेंसियों के छापे पड़े हैं। इनमें कई तो मुस्लिम डॉक्टर हैं जो कि जम्मू-कश्मीर से निकले हुए हैं और दूसरे राज्यों में काम कर रहे हैं। दिल्ली के लाल किले के पास अभी जो धमाका हुआ उसके पीछे भी इन्हीं डॉक्टरों में से कुछ का हाथ बताया जा रहा है। जांच एजेंसियों का काम अभी किसी किनारे पहुंचा नहीं है, लेकिन किसी भी दूसरे जुर्म या हादसे की तरह इस धमाके की जानकारी भी जनता के सामने रखी जा रही है। मोदी सरकार के विरोधी इसे बिहार के मतदान को प्रभावित करने की एक कोशिश कह सकते हैं, लेकिन यह भी देखने की जरूरत है कि जितने राज्यों तक बिखरा हुआ यह मामला जितने किस्म के साइबर और डिजिटल सुबूतों वाला है, जितने तरह के विस्फोटक और हथियार मिल रहे हैं, उन सबको गढ़कर सिर्फ जनधारणा प्रबंधन के लिए ऐसी साजिश करना किसी सरकार के बस का नहीं दिखता है। जब तक सरकार की किसी बदनीयत को साबित करने के सुबूत न हों, तब तक हम पहली नजर में सरकार के हाथ लगे इतने सारे सुबूतों को किसी गढ़ी हुई साजिश का हिस्सा नहीं मान सकते। इसलिए हम पहली नजर में ऐसी किसी आशंका को खारिज करते हुए ही इस मुद्दे पर आगे बात कर रहे हैं।
अभी तक की जानकारी के मुताबिक कुछ दर्जन मुस्लिम, डॉक्टरों और दीगर लोगों के नाम सामने आए हैं कि वे कुछ हमलों की तैयारी कर रहे थे। अगर ऐसे कुछ लोग ऐसा कर रहे थे, तो उसमें हमें कोई हैरानी नहीं होती क्योंकि भारत में मुस्लिमों के मन में अगर एक बड़ा रंज चल रहा है, उनके साथ एक बड़ा भेदभाव हो रहा है, उन्हें अपने आपको लेकर एक हीनभावना हो रही है, तो यह स्वाभाविक ही है कि उनमें से कुछ गिने-चुने लोग लोकतंत्र पर भरोसा छोड़कर हथियार उठा लें। भारत में धर्म से परे भी बहुत से मुद्दों को लेकर लोगों ने हथियार उठाए हैं। उत्तर-पूर्व के जितने राज्यों के आंदोलन चले, उनका धर्म से कोई लेना-देना नहीं था, कश्मीर के अलगाववादी आंदोलन का धर्म से लेना-देना नहीं था, और पंजाब का खालिस्तानी आंदोलन भी किसी धर्म के खिलाफ न होकर एक स्वतंत्र खालिस्तान के लिए था। इसलिए भारत में सांप्रदायिकता या धर्मांधता से परे भी हथियारबंद आंदोलनों का लंबा इतिहास रहा है। छत्तीसगढ़ के बस्तर में जो नक्सल आंदोलन पिछले 25 बरस में पांच हजार से अधिक जिंदगियां ले चुका है, उसका किसी धर्म से लेना-देना नहीं था। इसलिए आज अगर मुस्लिम समाज के कुछ दर्जन या कुछ सौ लोग भारतीय लोकतंत्र पर भरोसा खोकर हथियार उठाकर आत्मघाती हमले करने की सोचते हैं, तो यह नाजायज चाहे जितना हो, अस्वाभाविक जरा भी नहीं है। जब किसी तबके की कोई आशा नहीं रह जाती, उन्हें जब कोई संभावना नहीं दिखती, उन्हें जब सोते-जागते गद्दारी की तोहमत ही झेलनी है, तो फिर वे अपनी एक अलग राह तय कर लेते हैं। ऐसा दुनिया के बहुत से देशों में होता है। पाकिस्तान, और दर्जनभर ऐसे दूसरे मुस्लिम देश हैं जिनमें मुस्लिम ही मुस्लिमों पर हमले कर रहे हैं। फिर यह बात समझने की जरूरत है कि पिछले एक हफ्ते में हथियारों और आतंकी साजिशों की कश्मीर से उतरी हुई जितनी खबरें सामने आई हैं, वे किसी धर्म के खिलाफ नहीं हैं, वे सिर्फ देश की सरकार के खिलाफ हैं, या सार्वजनिक जीवन में एक हिंसक और हथियारबंद विरोध प्रदर्शन करने की हैं। लाल किले के पास जो विस्फोट दो दिन पहले हुआ है उसमें मरने वालों में मुस्लिम भी हैं जो कि देश में उनकी आबादी के मुकाबले मरने वालों में अधिक ही हैं। यह विस्फोट किसी धार्मिक जगह पर नहीं हुआ, किसी एक धर्म के जमावड़े पर नहीं हुआ, बल्कि सड़क पर हुआ, और लाल किले के आसपास के इलाके में सड़कों पर भी खासे मुस्लिम रहते हैं।
लेकिन इस बात को समझने की जरूरत है कि इस देश में 20 करोड़ से अधिक मुस्लिम आबादी का अनुमान है, और यह कुल आबादी का 14-15 फीसदी है। आबादी के इतने बड़े हिस्से को लगातार हीन भावना में रखना किसी देश के लिए अच्छी बात नहीं है। इस हिस्से को उसके धार्मिक रीति-रिवाजों के लिए, सामाजिक कानूनों के लिए लगातार आहत करने के अपने अलग खतरे रहते हैं। देशभर में जगह-जगह मुस्लिमों पर जिस तरह की कानूनी कार्रवाई हो रही है, उन पर जिस तरह बुलडोजर चल रहे हैं, जिस तरह उनके खिलाफ असम के मुख्यमंत्री की तरह कई नेता भड़काने और उकसाने वाली बातें कर रहे हैं, उन सबका अच्छा नतीजा नहीं हो रहा है। हमने साल दो साल पहले भी इस बारे में लिखा था कि अगर इस देश में कमजोर होते लोकतांत्रिक वातावरण से निराश होकर अगर कुछ मुस्लिम कट्टरपंथी धर्मांधता में फंस जाते हैं, और देसी-परदेसी किसी तरह की आत्मघाती हिंसा में शामिल हो जाते हैं, तो गिने-चुने लोग भी बड़ा नुकसान पहुंचा सकते हैं। यह बात देश के किसी तबके की तरफ से देश के किसी दूसरे तबके को धमकी नहीं है, लेकिन यह लोकतंत्र के कमजोर होने को लेकर एक चेतावनी जरूर है, सबके लिए सावधान होने की जरूरत है कि कोई भी देश-प्रदेश इस तरह की पूरी तरह गैरजरूरी और अवांछित तनातनी को झेल नहीं सकते। लोकतंत्र में सबको साथ लेकर चलने की जो समझ रहती है, वही पूरे देश की तरक्की की गारंटी भी हो सकती है। 15 फीसदी आबादी की उपेक्षा से इस देश के आगे बढ़ने की संभावनाएं भी 15 फीसदी घट सकती हैं।
लोकतंत्र में किसी एक बहुसंख्यक तबके में पनपाई गई धर्मांधता का पेट भरने के लिए उसे, अल्पसंख्यकों को दी जा रही तकलीफें दिखाते चलना कोई समझदारी की बात नहीं है। इससे कोई चुनाव जीता जा सकता है, लेकिन इससे देश आगे नहीं बढ़ सकता। आज जिस तरह बहुसंख्यक हिंदू धर्म से जुड़े हुए अनगिनत सत्तारूढ़ लोग और धर्मप्रचारक, सनातन का झंडा लेकर चल रहे हैं, उसका हमला सिर्फ अल्पसंख्यक मुस्लिमों और ईसाईयों पर नहीं हो रहा, उसका हमला तो हिंदू धर्म के भीतर गिने जाने वाले दलितों और आदिवासियों पर भी हो रहा है। छत्तीसगढ़ जैसे प्रदेश में जहां पर कि सारे के सारे अल्पसंख्यक लोग चार फीसदी से भी कम हैं, वहां पर अल्पसंख्यकों पर इतने अधिक हमलों की जरूरत भी नहीं है, जो कि हर इतवार कहीं न कहीं किसी घर-परिवार में हो रही ईसाई प्रार्थना सभा पर हमलों की शक्ल में दिख रहे हैं। फिर मानो वह भी काफी न हो तो कल इसी प्रदेश में किसी हिंदू कथावाचक ने सनातन की वकालत करते हुए अनुसूचित जाति के सतनामी समाज के खिलाफ घोर अपमानजक और आपत्तिजनक बातें कहीं। मतलब यह कि हिंदुओं के भीतर भी एक अधिक शुद्ध हिंदू के दुराग्रह के साथ जो सनातनी पैमाने लागू किए जा रहे हैं, वे तो हिंदू समाज के ही कुछ हिस्सों पर हमले हैं, कहीं दलितों पर, तो कहीं आदिवासियों पर।
जब तेवर अलोकतांत्रिक हो जाते हैं, जब संविधान पर आस्था घट जाती है, तो कुछ ऐसा ही होने लगता है। शुरू में हमले के लिए दूसरे धर्म के लोग लगते हैं, फिर धीरे-धीरे उस धर्म को दबाने-कुचलने के बाद अपने धर्म के लोगों की बारी आने लगती है, अपने धर्म के भीतर नीची समझी, और कही जाने वाली जातियों पर जुल्म होने लगते हैं। इनको भी कुचलने में अगर कामयाबी मिल जाएगी, तो फिर ऊंची कही जाने वाली जातियों में केंद्रित तथाकथित सनातनी लीडरशिप ऊंची जातियों के भीतर विभाजन करने लगेगी। एक बार तथाकथित और काल्पनिक दुश्मन का लहू चखने की आदत हो जाए, तो फिर बात दूसरे धर्म वालों से निकलकर अपने धर्म की दूसरी जातियों तक पहुंचने लगती है। लोकतंत्र एक बहुत जटिल और लचीली व्यवस्था है, इसमें छोटे-छोटे नारों का पेट भरने के लिए नाजायज इस्तेमाल करने का सिलसिला शुरू आसानी से हो सकता है, लेकिन उतनी आसानी से खत्म नहीं हो सकता। बाहें फड़कना जब आदत बन जाता है, तो फिर बाहें अपना कोई भी निशाना ढूंढने लगती हैं। भारत के लोकतंत्र को दीर्घकालीन खतरों को भी देखते हुए देश के ताने-बाने को बनाए रखना चाहिए, वरना देश के भीतर और बाहर की जो खतरनाक ताकतें हैं, वे हालात का बेजा इस्तेमाल करने के लिए तैयार तो बैठी ही हुई हैं। भारत इस्लामिक कट्टरता के बीच सैंडविच बना हुआ है।


