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‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : भ्रष्ट नेता-कुनबों के खिलाफ नेपाली युवा पीढ़ी की बगावत, सोशल मीडिया रोक आत्मघाती!
सुनील कुमार ने लिखा है
09-Sep-2025 6:54 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : भ्रष्ट नेता-कुनबों के खिलाफ नेपाली युवा पीढ़ी की बगावत, सोशल मीडिया रोक आत्मघाती!

तस्वीर / सोशल मीडिया


कल सोमवार का दिन नेपाल में एक अलग किस्म की क्रांति का रहा, जेन-जी कही जाने वाली नौजवान पीढ़ी के 25 बरस तक उम्र के लोग सरकार के खिलाफ न सिर्फ सडक़ों पर थे, बल्कि उन्होंने संसद-परिसर में भी भीतर जाकर प्रदर्शन किया, और सरकार में भ्रष्टाचार का विरोध किया, सोशल मीडिया पर लगाए गए प्रतिबंध के खिलाफ नेपाल के इतिहास का सबसे बड़ा आनन-फानन हुआ जनप्रदर्शन दर्ज किया। नौजवान पीढ़ी वहां बेरोजगारी से त्रस्त है, वह रात-दिन यह देखती-सुनती है कि सत्तारूढ़ तबका किस तरह और किस हद तक भ्रष्ट है, और उसके आल-औलाद अपनी रईसी के फोटो-वीडियो सोशल मीडिया पर पोस्ट करते रहते हैं। ‘टैक्स हमारा, रईसी तुम्हारी’ के नारे के साथ नौजवानों ने वहां ऐसा भयानक प्रदर्शन किया कि उसे रोकने की कोशिश में सरकारी कार्रवाई ने 19 लोगों की मौत हो चुकी है, और नौजवानों का भयानक आक्रोश देखते हुए तीन मंत्रियों के इस्तीफे हो चुकी है। और आज की नौबत सरकार की गिरने सरीखी है। वहां के दो भूतपूर्व प्रधानमंत्रियों सहित इस्तीफा देने वाले मंत्रियों के घरों में तोडफ़ोड़ और आगजनी की गई है। इस्तीफा देने वाले एक मंत्री ने यह कहा है कि सवाल पूछने वालों का दमन करना गलत है। दो शब्दों में कहें तो नौजवान पीढ़ी का यह आंदोलन पिछले ही हफ्ते हर किस्म के सोशल मीडिया पर सरकार की लगाई गई रोक से विस्फोट की तरह शुरू हुआ, वरना उसके पहले भी वह लंबे समय से सोशल मीडिया पर भ्रष्ट सत्ता और सत्ता की भ्रष्ट औलादों की रईसी की आलोचना करते हुए जारी था।

एक दिलचस्प बात यह है कि नेपाल बीते कुछ बरसों से वहां 2008 में खत्म हुई राजशाही की बहाली का आंदोलन भी देख रहा है। वह एक अलग आंदोलन है, और कल के जेन-जी पीढ़ी के इस ताजा आंदोलन से उसका कुछ लेना-देना नहीं है, लेकिन दोनों ही आंदोलन सरकार के खिलाफ जनता की भारी बेचैनी के हैं। एक विश्लेषण में इन दोनों आंदोलनों को अलग-अलग पटरियों पर साथ-साथ एक ही दिशा में दौड़ती हुई दो रेलगाडिय़ों की तरह माना गया है जो कि एक ही तरफ जा रही है। राजतंत्र समर्थक आंदोलन इस बरस मार्च के महीने में फिर जोर पकड़ चुका है, और उसमें राजा की बहाली, और नेपाल को फिर से हिन्दू राष्ट्र बनाने की मांग हो रही है। राजतंत्र खत्म होने के दो दशकों के भीतर नेपाल ने माओवादी कम्युनिस्ट पार्टी का शासन भी देख लिया है, और उससे जनता अब थक चुकी है, उसके खिलाफ उठ खड़ी हुई है। एक तरफ राजतंत्र का दमन का बहुत पुराना और बड़ा लंबा इतिहास रहा है, और दूसरी तरफ माओवादी सरकार के प्रधानमंत्री भी लगातार तानाशाह होते चले जा रहे थे, और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के खिलाफ तरह-तरह की कार्रवाई कर रहे थे। 4 सितंबर को उनकी सरकार ने 26 अलग-अलग सोशल मीडिया पर प्रतिबंध लगा दिया था, और नौजवान पीढ़ी को लगा कि अब उसके पास अपनी आवाज उठाने का कोई जरिया नहीं रह गया है। नेपाल की एक अदालत ने सोशल मीडिया पर नियंत्रण के लिए नियम-कानून बनाने का सुझाव दिया था, लेकिन उसका गलत मतलब निकालकर सरकार ने उस पर पूरी रोक ही लगा दी, और कल के आंदोलन के बाद वह रोक हटा भी दी गई है। कल की पुलिस कार्रवाई के लिए जिम्मेदार गृहमंत्री को इस्तीफा देना पड़ा है, और कल की मौतों और घटनाओं की जांच के लिए एक कमेटी बनाई गई है।

नेपाल की घटनाओं का और अधिक विश्लेषण हमसे अधिक जानकार विशेषज्ञ करते रहेंगे, और उन्हें हम इसी संपादकीय पेज पर देते भी रहेंगे। लेकिन यहां दो चीजें देखने-समझने लायक हैं। लंबे राजतंत्र को उखाड़ फेंकने वाले नेपाल ने वामपंथी और मध्यमार्गीय, मिलेजुले शासन को देखने के बाद अब एक बार फिर राजतंत्र और हिन्दू राष्ट्र की बहाली का आंदोलन देखा है। यह एक जटिल नौबत है जिसे सिर्फ राजनीतिक विचारधारा, और व्यवस्था खारिज करने की भाषा में हम देखना नहीं चाहते। ऐसे अतिसरलीकरण से बचते हुए हम अभी सिर्फ यही कहेंगे कि माओवादियों की खुद की, और गठबंधन सरकार शासन व्यवस्था में इतनी असफल रही है कि आबादी के एक हिस्से को ताजा-ताजा खोए हुए राजतंत्र की हसरत फिर से हो रही है। फिर नेपाल में अगर हिन्दू राष्ट्र का दर्जा फिर से कायम करने की मांग हो रही है, तो इसे दुनिया के कुछ बिल्कुल ही अलग हिस्सों में, बिल्कुल ही अलग वजहों से देखे जा रहे दक्षिणपंथी और कट्टरपंथी धार्मिक उभार से जोडक़र देखने की जरूरत है। चाहे भ्रष्टाचार और कमजोर शासन की वजह से हो, या किसी और वजह से, नेपाल आज राजा और धर्म की तरफ वापिस जाना चाहता है, और जिस नौजवान पीढ़ी ने न राष्ट्रीय धर्म देखा, न राजतंत्र देखा, वह बिल्कुल ही अलग मुद्दों को लेकर इस सरकार को उखाड़ फेंकना चाहती है। दो अलग-अलग, लेकिन मजबूत, आंदोलनों से गुजरते हुए नेपाल से भारत के हित गहराई से जुड़े हुए हैं क्योंकि भारत और चीन दोनों ही नेपाल को अपने पाले में बनाए रखना चाहते हैं, और हाल के बरसों में नेपाल के भारत से रिश्ते खराब ही हुए हैं। रिश्ते खराब होने के बावजूद नेपाल में लाखों भारतीय बसे हैं, और हजारों भारतीय कारोबारी वहां की अर्थव्यवस्था से जुड़े हुए हैं। दूसरी तरफ नेपाल के लोग बिना किसी नागरिकता के भी भारत में रहने, और कामकाज करने, नौकरी करने का हक रखते हैं, इस तरह दोनों देशों में एक-दूसरे के नागरिकों की बड़ी मौजूदगी, और अर्थव्यवस्था में उनकी हिस्सेदारी की वजह से मामला बड़ा जटिल है। नेपाल में तो भारत की करेंसी भी चलती है, और जब भारत में नोटबंदी हुई थी तो नेपाल में लोग खासी मुश्किल में भी आ गए थे। इसलिए नेपाल की आज की स्थिति को देखना, और अपने हित में काम करना भारत के लिए भी जरूरी है क्योंकि वह हाल के बरसों में पाकिस्तान, श्रीलंका, बांग्लादेश, और म्यांमार से रिश्ते बिगाड़ चुका है। यह महज संयोग की बात नहीं है कि चीन ने इन तमाम देशों से तरह-तरह के गहरे रिश्ते बनाए हैं, और भारत के इर्द-गिर्द यह चीनी मोतियों की एक माला सरीखी बन गई है।

फिलहाल नेपाल की नौजवान पीढ़ी वहां के भ्रष्ट नेताओं, उनके कुनबों के रईसी के अश्लील और हिंसक प्रदर्शन के खिलाफ उठ खड़ी हुई है, जो कि एक नए किस्म की जनचेतना है, और दुनिया के बाकी देशों को भी अपने-अपने देशों में इस मुद्दे की फिक्र करनी चाहिए। दूसरी बात यह कि अब तक दुनिया में भूखे लोगों में बगावत आटे को लेकर होती थी, और अभी नेपाल की यह ताजा युवा क्रांति डाटा को लेकर हो रही है, सोशल मीडिया पर रोक के खिलाफ हो रही है। इस फर्क को समझने की जरूरत है। दुनिया के इतिहास में कहा जाता था कि लोग जब तक भूखे न हो जाएं, वे बगावत के लिए उठ खड़े नहीं होते। आज वे आटा की जगह डाटा को लेकर अगर बगावती आंदोलन पर डटे हुए हैं, तो यह जिंदगी में अभिव्यक्ति के अधिकार, और उसकी जरूरत का एक नए किस्म का विस्फोट है, और दुनिया की समझदार सरकारों को इसे भी अनदेखा नहीं करना चाहिए। फिलहाल हम हाथों की उंगलियां बांधे हुए नेपाल के आने वाले दिनों को देख रहे हैं।

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