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तस्वीर / सोशल मीडिया
इन दिनों इंसानों की जिंदगी में सोशल मीडिया की बहार आई हुई है। वहां पर पहुंचते ही लोग अपने दिल-दिमाग के तौलिए तुरंत निकाल फेंकते हैं, और मोहब्बत से लेकर नफरत तक की नुमाइश शुरू कर देते हैं। कुछ बरस पहले हम लोग फिलीस्तीन की यात्रा पर थे, और रास्ते में एक किसी ने फेसबुक को लेकर यह किस्सा सुनाया कि अब अमरीकी सरकार ने सीआईए का बजट आधा कर दिया है कि जब पूरी दुनिया अपने दिल-दिमाग की बातें खुद होकर फेसबुक पर लिख रही है, तो फिर जासूसी करने के लिए इतने काम की क्या जरूरत है। वह बात थी तो मजाक, लेकिन बहुत हद तक वह सही भी है। आज कोई मामूली सी कंपनी भी किसी को काम पर रखने के पहले उसके सोशल मीडिया अकाऊंट खंगाल डालती है कि वहां कौन-कौन से कुकर्म फख्र के साथ पोस्ट किए गए हैं। हमें अपने अखबार में कुछ महीनों के लिए प्रशिक्षण पर पत्रकारिता के छात्रों को रखने के अनुरोध मिलते रहते हैं, और उनके एप्लीकेशन आते ही पहला काम हम यही करते हैं कि उनके सोशल मीडिया अकाऊंट देखते हैं कि वे ट्रेनिंग देने लायक हैं या नहीं।
कुछ तो सोशल मीडिया में, और कुछ कम्प्यूटर टेक्नॉलॉजी ने, ऐसी सहूलियत मुहैया करा दी है कि लोग कॉपी-पेस्ट कर सकते हैं, या कट-पेस्ट कर सकते हैं। मौलिक होना अब कोई अनिवार्यता नहीं रह गई है। मेरे ही सोशल मीडिया पेज पर एक से अधिक लोग ठीक एक ही टिप्पणी को पोस्ट कर देते हैं, और मैं पढक़र हैरान रहता हूं कि इन सबको किस बोधिवृक्ष की ये पत्तियां मिली हैं?
जब किसी पर हमला करना होता है, तो फेसबुक और एक्स जैसी जगहों पर एक ही पोस्ट को सैकड़ों लोग अपने-अपने नाम से डालने लगते हैं जो कि उनके अपने लिए लिखी गई रहती है। अब अलग-अलग जात-धरम, राष्ट्रीयता, और पेशे वाले लोग एक ही वक्त दुबई, लाहौर, बलूचिस्तान, और सुल्तानपुर के गल्ला मंडी के पांडेय भोजनालय में एक ही किस्म की थाली, और साथ में कोकाकोला की वही बोतल, और खाली गिलास। 50 रूपए में 6 चपाती, पनीर, लबाबदार दाल के साथ पा सकते हैं! दुबई के होटल से लेकर गल्ला मंडी के पांडेय भोजनालय तक एक ही रेट, एक ही तस्वीर, और अलग-अलग लोग इन जगहों पर ठहरे हुए हैं। अब इन तस्वीरों से न तो मोहब्बत साबित हो रही है, और न ही नफरत। लेकिन लोगों में कुछ भी पोस्ट कर देने की हड़बड़ी ऐसी भयानक है कि वे चाहे जिंदगी में दुबई न गए हों, और बलूचिस्तान को तो नक्शे पर भी न पहचान पाएं, लेकिन वहां की हिन्दुस्तानी-पाकिस्तानी थाली पोस्ट करने की हड़बड़ी उन्हें बहुत है।
यहां तक तो बात ठीक थी, लेकिन हिन्दुस्तान के बड़े-बड़े मशहूर तथाकथित पत्रकार, नेता, पार्टियों के आईटी मुखिया, और सांसद-विधायक, प्रवक्ता भी जिस हड़बड़ी में गढ़ी हुई झूठी बातों को पोस्ट करते हैं, वह तो भयानक ही है। गढ़ी हुई तस्वीरें, संदर्भ से परे चिपका दिए गए वीडियो पोस्ट करके लोग अपने आपको बेवकूफ, और/या बदनीयत साबित करने का नुकसान झेलते हुए भी हड़बड़ी में रहते हैं कि कहीं सनसनी फैलाने में वे पीछे न रह जाएं। अंग्रेजी में इसके लिए एक बड़ा अच्छा सा छोटा शब्द इस्तेमाल होता है, फोमो, जिसका मतलब है फियर ऑफ मिसिंग आऊट, यानी कहीं पीछे न रह जाएं, यह डर।
लोग सोशल मीडिया पर औरों से आगे बढऩे की हड़बड़ी में भी तरह-तरह के सनसनीखेज झूठ पोस्ट करते रहते हैं, या एकदम मौलिक बनने के चक्कर में भी। यह सिलसिला खतरनाक इतना रहता है कि जब तक किसी पोस्ट के नीचे कमेंट में कोई एक जिम्मेदार व्यक्ति झूठ का पर्दाफाश करे, तब तक वह झूठ हजारों दूसरे लोग शेयर कर चुके रहते हैं। और दिलचस्प बात यह है कि उनमें से अधिकतर लोग ऐसे झूठ में से अपने तजुर्बे वाले पहले झूठ को अपना भी तजुर्बा बताते हुए पोस्ट करते चलते हैं। वे थाली को 50 का 60 रूपए भी नहीं करते, चिकन को पनीर भी नहीं करते, या कोफ्ता को दालमाखनी भी नहीं बताते।
एक वक्त था जब टीवी को इडियट बॉक्स कहा जाता था, यानी बुद्धू-बक्सा। अब वक्त बदल गया है, अब सोशल मीडिया ने लोगों को झूठा, मक्कार, बेवकूफ, बदनीयत, और नफरतजीवी-हिंसक सब कुछ बना दिया है। इन दिनों सोशल मीडिया पर जिम्मेदार बने रहना खासा मुश्किल हो गया है। फिर यह भी है कि सोशल मीडिया पर आपको नफरत की कुश्ती में घसीटने के लिए भी लोग लगे रहते हैं, और उस कीचड़ से बचकर चलना भी थोड़ा मुश्किल होता है। टीवी नाम के बुद्धू बक्से के साथ इकतरफा बातचीत रहती थी, और वह आपको बातचीत में नहीं उलझाता था। सोशल मीडिया तो किसी टैक्सी या ऑटो स्टैंड के ड्राइवरों की तरह आपको बांह पकडक़र अपनी गाड़ी की तरफ खींचते चलता है, और किसकी गाड़ी अच्छी है, वह कितनी और सवारियां बिठाएगी, कब तक मंजिल पर पहुंचाएगी, इसका कोई ठिकाना नहीं रहता है।
फिर भी मेरा यह मानना रहता है कि जिम्मेदार लोगों को उनकी नजरों में आए, उनके परिचित लोगों के झूठ पर उन्हें सच याद दिला देना चाहिए। मैंने महिलाओं के खिलाफ, या कि जिंदगी की दूसरी कुछ बातों के खिलाफ बदनीयत से लिखे गए पोस्ट पर सच्चाई बता-बताकर बहुत से अच्छे दोस्त खोए हैं, जो कि मेरे लिए तो अच्छे थे, लेकिन जिनकी सोच घटिया थी। एक वक्त था जब मैं उनके पेज पर जाकर भी उनकी गलत बातों को सुधारने की कोशिश करता था, लेकिन अब समझ पड़ा कि बरगद की एक-एक पत्ती को पोंछने की तरह का यह अंतहीन काम किसी काम का नहीं है, इसलिए मैंने दूसरों के पेज देखना बंद कर दिया, और सुधारने का काम सिर्फ अपने पेज तक सीमित रख लिया। फिर भी सोशल मीडिया की बेवकूफ बना देने की क्षमता टीवी के मुकाबले लाखों गुना अधिक है, और आज उन्हीं घरों में बैठे हुए टीवी हँसता होगा कि सोशल मीडिया जैसी इडियट दुनिया को देखने के बाद भी लोग उसे इडियट बॉक्स कहते हैं। लोग अपनी जिंदगी के खाली समय में से इतना अधिक समय सोशल मीडिया पर गुजारते या गंवाते हैं कि जितना वे अपनी वास्तविक जिंदगी पर भी नहीं खर्चते। इसलिए सोशल मीडिया की आपकी संगत भी आज की असली संगत रह गई है, और उसे बर्बादी का सामान न बनने दें, अपना दायरा सीमित रखें, क्योंकि आपका दायरा भी आज आपकी पहचान है।