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भारत में अभी कोई यह बात करे तो उसे बाल मजदूरी बढ़ाने वाला करार दिया जाएगा, लेकिन ब्रिटेन में अभी एक वरिष्ठ पत्रकार ने एक लेख लिखा है जिसमें सुझाया है कि 16 बरस के हर बच्चे को स्कूल में रखने के लिए दबाव डालना ठीक नहीं है, बल्कि उनकी इच्छा पढऩे के बजाय कुछ और काम करने की हो, तो उन्हें किसी उत्पादक काम में लगाकर सरकार को चाहिए कि उनका मेहनताना दे। किसी की मेहनत के दाम सरकार दे, इस सुझाव के पीछे यही सोच है कि किसी का मजदूर की तरह शोषण न हो। भारत में भी बच्चों को काम पर रखने के खिलाफ कानून की सोच यह भी है कि उन्हें लोग पूरी मजदूरी तो देते नहीं हैं, औने-पौने मेहनताने पर रख लेते हैं। लेकिन पश्चिम के एक सबसे विकसित और संपन्न देश यूके से अगर ऐसी बात निकलकर सामने आ रही है कि 16-17 बरस के लोगों को उनके चाहने पर किसी किस्म का हुनर सिखाकर उन्हें काम देना चाहिए, तो वहां पर यह व्यवस्था 1988 से चली आ रही है, और इस योजना में पांच लाख से ज्यादा लोग काम कर रहे हैं।
भारत में बाल मजदूरी पर पूरी तरह रोक इसलिए है कि लोग यहां पर बच्चों को एक मजदूर जितना हक देते नहीं, न वैसी मजदूरी देते, और कई तरह से उनका शोषण भी होता है। नतीजा यह निकलता है कि जो बच्चे स्कूल की पढ़ाई में दिलचस्पी नहीं लेते हैं, या कि जिनको किताबी ज्ञान में कोई दिलचस्पी है ही नहीं, उन लोगों को भी किसी काम पर नहीं रखा जा सकता। अब बालिग होने के बाद पूरी तरह मजदूरी या काम मिलना, और उसके एक दिन पहले तक कोई काम न मिलना, स्कूल छोड़ देने वाले बच्चों के लिए जिंदगी में एक बड़ा शून्य पैदा कर देता है। ब्रिटेन के इस लेख को पढक़र हमने भारत और छत्तीसगढ़ के कुछ आंकड़ों को देखने की कोशिश की तो छत्तीसगढ़ में करीब एक तिहाई बच्चे 12वीं तक नहीं पढ़ पाते हैं। प्रायमरी से मिडिल, और हाईस्कूल होते हुए 12वीं तक पहुंचते हुए लगातार हर बरस कुछ बच्चे स्कूल छोड़ते रहते हैं, और 70 फीसदी से कम बच्चे ही स्कूली पढ़ाई पूरी करते हैं। इसके अलावा पूरे देश के आंकड़ों को अगर देखें, तो केरल का झंडा सबसे ऊपर है जहां 98-99 फीसदी बच्चे 12वीं पढक़र ही निकलते हैं। इसके तुरंत बाद चंडीगढ़, हिमाचल, तमिलनाडु, पंजाब, उत्तराखंड, महाराष्ट्र हैं जहां 90 से 97 फीसदी बच्चे 12वीं करके निकलते हैं। सबसे खराब हालत बिहार की है जहां 50 से 60 फीसदी बच्चे 12वीं के पहले-पहले स्कूल छोड़ चुके रहते हैं। छत्तीसगढ़ ऐसे में देश में सबसे नीचे के ठीक ऊपर आता है।
अब हम अगर यह सोचें कि क्लासरूम की पढ़ाई में जिनकी दिलचस्पी नहीं है, और जो एक तिहाई बच्चे अलग-अलग क्लास में पढ़ाई छोड़ चुके हैं, उन्हें कौन सा हुनर या काम सिखाया जा सकता है जिससे कि वे कोई काम पा सकें? दुनिया के बहुत से विकसित देशों में 15-16 बरस के बच्चों को कई तरह के काम सिखाकर रोजगार से जोड़ा जाता है, और उन्हें प्रशिक्षण-भत्ता मिलता है। जर्मनी में इस तरह से काम पर लगे किशोर-किशोरियों में से 95 फीसदी आगे चलकर काम पा जाते हैं। दुनिया के एक सबसे विकसित देश स्विटजरलैंड में 15 साल उम्र से बच्चे प्रशिक्षण पाने लगते हैं, और कमाने लगते हैं, वहां पर सरकार, उद्योग, और स्कूल मिलकर कोर्स तय करते हैं। योरप के एक और संपन्न देश ऑस्ट्रिया में हर साल 40 फीसदी छात्र सामान्य स्कूल छोडक़र व्यावसायिक प्रशिक्षण से जुड़ते हैं, और बिना डिग्री के भी वे अपने सीखे हुए हुनर से अच्छी नौकरियां पाते हैं। फिनलैंड में भी 15 बरस की उम्र के बाद बच्चे यह तय करते हैं कि वे क्लासरूम की पढ़ाई करेंगे, या रोजगार की कोशिश करेंगे। भारत में बहुत कम पैमाने पर 8वीं-10वीं के बाद आईटीआई का इंतजाम है, लेकिन स्कूल छोड़ चुके करोड़ों बच्चों में से कुछ लाख ही इससे जुड़ पाते हैं।
छत्तीसगढ़ के एक और आंकड़े को हमने ढंूढने की कोशिश की, तो पता लगा कि यहां के जिन जिलों में स्कूल छोडऩे वालों की संख्या सबसे अधिक है, वहां पर उन बच्चों के पास किसी रोजगार लायक हुनर सीखने की संभावना सबसे कम है, और किसी तरह का उद्योग-व्यापार की संभावना भी उतनी ही कम है। रायपुर, दुर्ग, बिलासपुर, कोरबा, रायगढ़ जैसे जिन औद्योगिक जिलों में रोजगार की संभावनाएं किशोर-किशोरियों के लिए अधिक है, वहां पर स्कूल-ड्रॉपआऊट भी कम है। मतलब यह कि जरूरतें मुंह फाड़े खड़ी हैं, और उनके मुंह में डालने के लिए बहुत से जिलों में जीरा भी नहीं है। यह बात समझने की जरूरत है कि स्कूल में दाखिला लेने वालों में से एक तिहाई से अधिक बच्चे कभी स्कूली पढ़ाई पूरी नहीं कर पाते, और अलग-अलग उम्र में पढ़ाई छोड़ देने के बाद उन्हें किसी काम पर भी नहीं रखा जा सकता क्योंकि वह गैरकानूनी होगा। क्या स्कूल-कॉलेज उम्र की नाबालिग आबादी के एक तिहाई हिस्से को इस तरह छोड़ दिया जा सकता है? इसके खतरे समझना भी जरूरी है, इनके पास न पढऩे का उत्साह है, और न ही काम पाने की कानूनी गुंजाइश है, इसका मतलब यही निकलता है कि हर पीढ़ी के एक तिहाई बच्चों को आवारागर्दी के लिए छोड़ दिया जाता है, या फिर उनमें से कुछ गिने-चुने लोग कोई गैरकानूनी बाल मजदूरी पा लेते हैं। इस खतरे को कम नहीं आंकना चाहिए, आज जितने किस्म के जुर्म में नाबालिग पकड़ा रहे हैं, चोरी, डकैती, बलात्कार, कत्ल जैसा कोई भी जुर्म अब नहीं बचा है जिसमें नाबालिग न पकड़ाते हों। आबादी के इस पर्याप्त बड़े हिस्से को बिना किसी दिशा के जिंदगी के रेगिस्तान के बीच छोड़ देने का यही नतीजा हो सकता था।
आंकड़ों पर आधारित निष्कर्ष हमेशा बहुत सही नहीं रहते हैं, लेकिन इन आंकड़ों को बारीकी से देखने के बाद जब हम अपनी सामान्य समझबूझ का भी इस्तेमाल कर रहे हैं, पढ़ाई के आंकड़ों से परे जुर्म के आंकड़ों को देख रहे हैं, सडक़ों पर आवारागर्दी, और गुंडागर्दी देख रहे हैं, तो यही समझ पड़ रहा है कि जिस प्रदेश में जितना फीसदी स्कूल-ड्रॉपआऊट है, उस प्रदेश में उतना फीसदी ही आवारागर्दी, और अराजकता हैं। सरकार को अपने ही आंकड़ों को लेकर गंभीरता से बैठना चाहिए। अगर जरूरत हो तो कुछ फीसदी नाबालिग लोगों को कुछ चुनिंदा कामों में कानूनी हिफाजत के साथ लगाने के बारे में भी विचार करना चाहिए। दुनिया के सबसे विकसित देशों में भी संपन्न परिवारों के बच्चे भी काम के तजुर्बे के लिए, और स्कूल-कॉलेज का जेब खर्च निकालने के लिए पार्टटाईम काम करते हैं। भारत में यह पूरी तरह गैरकानूनी हो जाएगा, और काम देने वाले का जुर्म गिनाएगा। तरह-तरह के प्रशिक्षण पर आधारित हुनर और रोजगार के बारे में सोचना होगा कि सरकार शोषण रोकने के इंतजाम के साथ किस तरह टीनएजर्स की इतनी बड़ी आबादी को किसी सकारात्मकता में लगा सकती है, और उत्पादकता में लगाकर आगे के लिए उनका एक भविष्य भी बना सकती है।
यह सुझाने के लिए कोई बाल मजदूरी का जुर्म तो हमारे ऊपर नहीं लगा देगा?