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यूपी चुनाव: क्या ये ‘हिंदुत्व’ को ‘सामाजिक न्याय’ की चुनौती है?
15-Jan-2022 11:20 AM
यूपी चुनाव: क्या ये ‘हिंदुत्व’ को ‘सामाजिक न्याय’ की चुनौती है?

 

-सरोज सिंह

बात 1990 की है. 25 सितंबर को लाल कृष्ण आडवाणी ने गुजरात के सोमनाथ मंदिर से रथ यात्रा की शुरुआत की थी. उससे ठीक एक महीने पहले अगस्त में तब के प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने अन्य पिछड़े वर्गों को आरक्षण देने की मंडल आयोग की सिफ़ारिशों को लागू करने का ऐलान किया था. वीपी सिंह की घोषणा ने बीजेपी को सकते में डाल दिया था.

बीजेपी के नेता देश की राजनीति में जाति की पेचीदगियों को समझते हैं, और तब भी समझते थे. मंडल आयोग की सिफ़ारिशों के दूरगामी राजनीतिक असर की काट के लिए बीजेपी ने उस वक़्त 'हिंदू एकता' का नारा देते हुए राम मंदिर का आंदोलन तेज़ कर दिया था.

अब बात 2022 की.

शुक्रवार को उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से जो तस्वीरें सामने आई उसने एक बार फिर 1990 की यादें ताज़ा कर दी है.

पिछले तीन दिन से बीजेपी से बगावत कर जाने वाले मंत्रियों और विधायकों की झड़ी से लग गई है. आज उनमें से कई नेताओं ने समाजवादी पार्टी ज्वाइन कर ली है. रही सही कसर उन अटकलों ने पूरी कर दी जिसमें कहा जा रहा है योगी आदित्यनाथ अयोध्या से चुनाव लड़ सकते हैं. हालांकि इस बात पर आधिकारिक मुहर नहीं लगी है.

'मंदिर' बनाम 'मंडल'
चुनाव से पहले एक फ्रेम में इतने सारे पिछड़े वर्ग के नेताओं का मिलन को कुछ जानकार 'मेला होबे' करार दे रहे हैं, तो कुछ बंगाल चुनाव की तर्ज़ पर 'खेला होबे' की बात कह रहे हैं.

वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी कहती हैं, "मुझे उत्तर प्रदेश की लड़ाई इस बार 'मंडल" बनाम 'मंदिर' लग रही है. 30 साल पहले जो कुछ मैंने देखा वही आज हो रहा है. इन तीस सालों में मंदिर और मंडल कहीं गए नहीं. वो वही हैं. अब अति पिछड़े, अन्य पिछड़ा वर्ग, महादलित सब अपना अपना शेयर माँग रहे हैं. अब पिछड़ों में जो 'डॉमिनेंट' जाति होती थी वही केवल अपना शेयर नहीं माँग रही. मुश्किल उन लोगों ने और बढ़ा दी है, जो पिछड़ी जाति अभी नहीं कहलाती लेकिन ऐसा करने की माँग रख रही है, जिसमें जाट भी है. इसलिए मंडल अभी ख़त्म नहीं हुआ है."

वो आगे कहती हैं, " जो कार्ड अखिलेश खेल रहे है, वो पुराना मुलायम सिंह वाला कार्ड ही है. मुलयाम सिंह कहा करते थे, यादव और मुस्लिम एक साथ हो जाएं तो कोई उन्हें हरा नहीं सकता. अब MY केवल MY नहीं रहा है. वो MY+ हो गया है. भले ही सपा मुद्दे बेरोज़गारी, कोविड में खराब प्रबंधन और महँगाई के उठाए लेकिन लोगों को एकजुट जाति के आधार पर ही कर रहे हैं."

अखिलेश यादव के इस कार्ड की काट ढूंढने के लिए दो दिन तक बीजेपी में मैराथन बैठकें भी चली. हालांकि माना जा रहा है कि उन बैठकों में चर्चा टिकट बंटवारे को लेकर हुई.

उन बैठकों का जिक्र करते हुए नीरजा चौधरी कहती हैं, "कहां तो उम्मीद थी कि बीजेपी इन बैठकों के बाद वो फॉर्मूला ढूंढ निकालेगी कि कैसे इस चुनौती से निपटा जाए. लेकिन खबरें निकल कर आई कि योगी आदित्यनाथ अयोध्या से चुनाव लड़ेंगे. बीजेपी की राजनीति में अयोध्या का अपना मतलब है."

हालांकि बीजेपी की तरफ़ से योगी अयोध्या से चुनाव लड़ेंगे या नहीं इसकी घोषणा नहीं हुई है.

नीरजा अयोध्या को हिंदुत्व से नहीं जोड़ती. वो उसको मंदिर मुद्दा ही कहती है. चुनाव की तारीखों के एलान से पहले प्रधानमंत्री मोदी ने ख़ुद काशी कॉरिडोर का उद्घाटन किया था. यूपी के उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य ने मथुरा में मंदिर का मुद्दा उठाया. इसलिए नीरजा को लगता है कि इस बार चुनाव मंदिर बनाम मंडल का होगा.

हालांकि वो ये भी कहती हैं कि 1992 के बाद मंदिर मुद्दे का बीजेपी को बहुत फ़ायदा नहीं हुआ है.

'सवर्ण' बनाम 'पिछड़ा'
लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार नागेंद्र प्रताप, नीरजा चौधरी की इस बात से सहमत हैं कि बीजेपी का अयोध्या कार्ड इस बार नहीं चलेगा.

लेकिन उनकी राय में इस बार का चुनाव 'मंदिर' बनाम 'मंडल' नहीं बल्कि 'सवर्ण' बनाम 'पिछड़ा' होने की संभावना ज़्यादा है.

बीबीसी से बातचीत में वो कहते हैं, " बीजेपी की कोशिश ज़रूर है हिंदुत्व कार्ड खेलने की, उनके पास विकल्प भी कम हैं, लेकिन अगर मामला 'सवर्ण' बनाम 'पिछड़ा' हुआ तो बीजेपी के सामने चुनौती नई होगी."

वो आगे कहते हैं, " पिछड़े अभी तक एक मंच पर एक साथ नहीं खड़े थे. 2014, 2019 के लोकसभा चुनाव हो या 2017 का विधानसभा चुनाव हर बार कहानी अलग थी.

2014 में गुजरात मॉडल पर चुनाव लड़ा गया. 2017 और 2019 में पिछड़े भी हिंदू हो गए थे, जाटव भी हिंदू हो गए और यादव भी हिंदू हो गए थे. लेकिन इस बार वो चीज़ टूटी है. पिछड़ा हो, दलित हो या अति पिछड़ा हो अब सबको लगने लगा है कि अंत में बीजेपी हमेशा हिंदुत्व के मुद्दे पर लौट कर आती है. इस वजह से इस बार हिंदुत्व कार्ड उस तरह नहीं चलने वाला जैसा 2019 में चला था और जैसा बीजेपी फिर से चाह रही है. एक बड़ी जमात जो पहले बीजेपी ओर गई थी वह भी अब मोहभंग की स्थिति में हैं. तमाम पुराने संघ/भाजपा समर्थक भी योगी-मोदी के उग्र हिंदुत्व से ऊब चुके हैं."

शुक्रवार को समाजवादी पार्टी ज्वाइन करते हुए स्वामी प्रसाद मौर्य ने कहा, "सरकार बनाए दलित और पिछड़े. मलाई खाएं वो अगड़े. पांच फ़ीसदी लोग."

"आप कहते हो... नारा दे रहे हैं 80 और 20 का. मैं कहता हूं 80-20 नहीं. अब तो होगा 15 और 85. 85 तो हमारा है 15 में भी बंटवारा है."

नागेंद्र आगे आगाह करते हुए जोड़ते हैं, "जब मैं ये कह रहा हूं कि लड़ाई उत्तर प्रदेश में सवर्ण बनाम पिछड़ा होती दिख रही है, तो ये स्पष्ट कर दूं की कोई पार्टी जानबूझकर ऐसा करने नहीं जा रही. ये स्वत: हो जाएगी. राजनीतिक दल ऐसा करने का जोखिम नहीं उठा सकेंगे. इसके अपने ख़तरे हैं. कोई पार्टी इस लाइन पर चलेगी तो प्रशासन चला नहीं पाएगी. बीजेपी भी धर्म के ध्रुवीकरण करने का ख़तरा मोल ले सकती है, जाति के नाम पर नहीं. भाजपा सवर्णों की पार्टी शुरू से मानी जाती रही है. लेकिन उन्हें ग़ैर यादव ओबीसी वोट भी चाहिए. जो पिछले चुनाव में उन्हें मिले भी."

हालांकि इस पर नीरजा कहती हैं कि समाजवादी पार्टी में कुछ ग़ैर यादव ओबीसी चेहरे गए हैं तो इसका मतलब ये नहीं वो सारे ग़ैर यादव ओबीसी बीजेपी छोड़ देंगे.

2017 में बीजेपी को 61 फ़ीसद़ी ग़ैर यादव ओबीसी वोट मिला था, जो किसी भी विधानसभा चुनाव में बड़ी तादाद है.

नीरजा कहती हैं, जिस तरह की रणनीति के साथ ग़ैर यादव ओबीसी बीजेपी का साथ छोड़ रहे हैं और सपा में जा रहे हैं, वो एक माहौल बना रहे हैं. सब मंत्री और विधायक एक साथ भी बीजेपी छोड़ सकते थे, लेकिन एक एक करके छोड़ना ये बताता है कि सब रणनीति का हिस्सा है. माहौल बनाने की कवायद है. इस वजह से पिछले कुछ दिनों से बीजेपी 'डिफेंसिव' यानी बचाव के मुद्रा में दिख रही है. जो वोटर ख़ुद अपना रूख तय नहीं कर पाते, उनके लिए ये माहौल बहुत मायने रखता है."

अनिल यादव लगभग तीन दशकों से उत्तर प्रदेश की राजनीति को कवर करते रहे है.

बीबीसी से बातचीत में उन्होंने कहा, "मंडल, मंदिर और हिंदुत्व के बीच ब्राह्मणों की नाराज़गी ने बीजेपी की चिंताएं ज़्यादा बढ़ा दी है.

हालांकि ये भी सच है कि बीजेपी में मची भगदड़ में बहुत ज़्यादा ब्राह्मण नेताओं ने साथ नहीं छोड़ा है.

लेकिन अनिल यादव कहते हैं कि ब्राह्मण भी बीजेपी से काफ़ी नाराज़. उनकी नाराज़गी को सपा भुनाने में जुट गई है.

अनिल यादव के मुताबिक़, "निषाद पार्टी को बीजेपी ने अपने साथ कर लिया है. ऐसे में समाजवादी पार्टी को लग रहा है कि निषाद वोट बैंक उनके खेमे में नहीं आएगा, तो पूर्वांचल में ब्राह्मणों को अपने साथ किया जाए."

वो आगे कहते हैं, " बीजेपी के ख़िलाफ़ पाँच साल की सत्ता विरोधी लहर तो है ही. लेकिन जो नेता बीजेपी छोड़ कर जा रहे हैं, वो इस सत्ता विरोधी लहर को और हवा देने का काम कर रहे है. अवध और पूर्वांचल में टीचर भर्ती में पिछड़ी जातियों को आरक्षण नहीं मिलने की वजह से उनमें ग़ुस्सा काफ़ी समय से था, जो धीरे धीरे आंदोलन की शक्ल ले रहा था. ऐसे में स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे नेताओं के पास बीजेपी छोड़ने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं थी. योगी सरकार ने उस नाराज़गी को दूर करने का आश्वासन भी दिया, लेकिन तब तक 'पिछड़ों की बात नहीं सुनने वाली सरकार' का तमगा उन्हें मिल चुका था.

हालांकि सभी जानकार ये भी कहते हैं कि हमें इन सबके बीच ये नहीं भूलना चाहिए कि बीजेपी की चुनावी मशीनरी फिलहाल बहुत ताक़तवर है. चुनाव के दिन बूथ तक लोगों को ले जाना, लोगों को घरो से निकालना, पैसा खर्च करना - इन बातों से भी चुनाव प्रभावित होते हैं. माहौल और विचारधारा के अलावा चुनावी राजनीति में इनके अपने मायने हैं. (bbc.com)


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