अंतरराष्ट्रीय

-इक़बाल अहमद
यह तस्वीर 2003 की है. बेनज़ीर भुट्टो भारत के तत्कालीन उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी के नई दिल्ली स्थित आवास पर मिलने गई थीं
पाकिस्तान के विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो का एक बयान इन दिनों सुर्ख़ियों में है.
उन्होंने 15 दिसंबर, 2022 (गुरुवार) को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की एक बैठक के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को 'गुजरात का क़साई' कहा था.
इससे पहले भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर ने पाकिस्तान को 'आतंकवाद का केंद्र' क़रार दिया था. जयशंकर के बयान के जवाब में बिलावल ने मोदी के ख़िलाफ़ ऐसे शब्दों का इस्तेमाल किया था.
भारत ने बिलावाल भुट्टो के बयान पर कड़ा एतराज़ जताया था और इसे असभ्य क़रार दिया था.
भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर से सोमवार (19 दिसंबर) को बिलावल की टिप्पणी पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा था कि पाकिस्तान ने जो कहा, उससे यही उम्मीद की जा सकती है.
बिलावल भुट्टो की मां बेनज़ीर भुट्टो पाकिस्तान की दो बार प्रधानमंत्री रह चुकी हैं. उनके नाना ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो भी पाकिस्तान के विदेश मंत्री, राष्ट्रपति (1971-73) और प्रधानमंत्री (1974-1977) रह चुके हैं.
लेकिन यह भी सच है कि उनके भारत से बहुत अच्छे संबंध भी रहे हैं और चाहे ज़ुल्फ़िक़ार भुट्टो हों या बेनज़ीर भुट्टो उनके कई क़रीबी और पारिवारिक मित्र भारतीय रहे हैं.
इसका एक कारण यह हो सकता है कि पाकिस्तान की सत्ता पर बैठकर वो भारत के ख़िलाफ़ चाहे जो भी नीति अपनाते थे, लेकिन इस सच्चाई को भी नकारा नहीं जा सकता था कि भुट्टो परिवार का भारत से संबंध चार पुश्त पुराना है.
शाहनवाज़ भुट्टो लड़काना (सिंध) के बड़े ज़मींदार थे और कहा जाता है कि उनके पास क़रीब ढाई लाख एकड़ ज़मीन थी.
सिंध उस समय बॉम्बे प्रेसिडेंसी का हिस्सा था, इसलिए शाहनवाज़ भुट्टो का रिश्ता मौजूदा भारत से भी ख़ूब रहा है.
शाहनवाज़ भुट्टो ने एक हिंदू राजपूत महिला लाखी बाई से शादी की थी जिन्होंने इस्लाम धर्म अपना लिया था और उन्हें ख़ुर्शीद बेगम कहा जाने लगा. शाहनवाज़ और ख़ुर्शीद बेगम के चार बेटे ओर एक बेटी थीं.
ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो शाहनवाज़ और ख़ुर्शीद बेगम के तीसरे बेटे थे.
शाहनवाज़ भुट्टो की ढेर सारी जायदाद बॉम्बे में भी थी, इसीलिए उन्होंने ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो को शुरुआती पढ़ाई के लिए बॉम्बे के कैथेडरल स्कूल भेजा था.
भारत की आज़ादी के समय शाहनवाज़ भुट्टो भारत की जूनागढ़ रियासत के दीवान (प्रधानमंत्री) थे. 15 अगस्त, 1947 को भारत आज़ाद हुआ और इसके साथ ही पाकिस्तान का जन्म हुआ तो जूनागढ़ रियासत के आख़िरी नवाब मोहम्मद महाबत ख़ान तृतीय ने पाकिस्तान में विलय का फ़ैसला कर लिया.
पाकिस्तान ने सितंबर में इसे स्वीकार भी कर लिया लेकिन जूनागढ़ की हिंदू बहुल जनता ने इसका विरोध किया और फिर जूनागढ़ भारत का हिस्सा बन गया.
इसके बाद जूनागढ़ के नवाब और शाहनवाज़ भुट्टो दोनों पाकिस्तान चले गए.
ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो पाकिस्तान के विदेश मंत्री बन गए और 1963 में तत्कालीन भारतीय विदेश मंत्री स्वर्ण सिंह से बातचीत की थी.
इस बातचीत का कोई आधिकारिक ब्यौरा नहीं है लेकिन अमेरिकी विदेश मंत्रालय के एक मेमो (27 जनवरी, 1964) से पता चलता है कि भुट्टो भारत प्रशासित कश्मीर में जनमत संग्रह की मांग को वापस लेने के लिए तैयार हो गए थे और जनमंत संग्रह के बजाय कोई और रास्ता अपनाने के लिए तैयार थे.
दूसरी तरफ़ भारत भी इस बात को स्वीकार करने को तैयार था कि कश्मीर का मुद्दा विवादित है.
लेकिन यह बातचीत नाकाम हो गई और फिर पाकिस्तान ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में कश्मीर का मुद्दा उठाया.
इसी दौरान भुट्टो पर ऑपरेशन जिबरॉल्टर चलाने का आरोप लगा, जिसका मक़सद भारत प्रशासित कश्मीर में प्रशिक्षित लड़ाकों को भेजना था.
1965 में भारत-पाकिस्तान के बीच युद्ध हुआ और फिर संयुक्त राष्ट्र की निगरानी में सीज़फ़ायर हुई.
1966 में भारत के प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री और पाकिस्तान के राष्ट्रपति अय्यूब ख़ान के बीच ताशकंद में समझौता हुआ.
भुट्टो ने विदेश मंत्री रहते हुए इस समझौते का विरोध किया था.
भुट्टो परिवार को बहुत क़रीब से जानने वाले और ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो की बायोग्राफ़ी (मेरा लहू) लिखने वाले वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक फ़र्रुख़ सुहैल गोइंदी कहते हैं कि भुट्टो की लोकप्रिय राजनीति की शुरुआत ही ताशकंद समझौते के विरोध से होती है.
इसी दौरान भुट्टो का एक बयान बहुत ही मशहूर हुआ था, जब उन्होंने 1967 में एक राजनीतिक रैली में कहा था कि हम भारत से एक हज़ार साल तक जंग लड़ेंगे.
फ़र्रुख़ सुहैल गोइंदी के अनुसार 60 के दशक में पाकिस्तान में भारत विरोधी राजनीतिक लहर थी और भुट्टो ने अपनी सियासत को आगे बढ़ाने के लिए इसका पूरा फ़ायदा उठाया.
15 दिसंबर, 1971 में जिस दिन ढाका (पूर्वी पाकिस्तान की राजधानी, जो बाद में बांग्लादेश की राजधानी बनी) पर भारतीय सेना ने जीत हासिल की थी उस दिन भुट्टो अमेरिका में थे.
उन्होंने समझौते का संयुक्त राष्ट्र में विरोध किया और उस समझौते के काग़ज़ात को फाड़कर फेंक दिया था और संयुक्त राष्ट्र की बैठक से बाहर निकल आए थे.
लेकिन फिर वही भुट्टो 1972 में भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के साथ शिमला समझौता करते हैं, जिसमें पाकिस्तान ने पहली बार इस बात को स्वीकार किया कि कश्मीर का मसला दोनों देश (भारत और पाकिस्तान) आपस में बातचीत के ज़रिए हल करेंगे और इसमें किसी तीसरे पक्ष की कोई ज़रूरत नहीं.
शिमला समझौते के बाद फ़्रांस के एक अख़बार को उन्होंने इंटरव्यू दिया था. पत्रकार ने जब उनसे एक हज़ार साल तक युद्ध की बात और फिर शिमला समझौता की बात की तो भुट्टो ने अपने बयान से पलटते हुए कह दिया कि भारतीय उप-महाद्वीप में मुसलमानों का इतिहास एक हज़ार साल पुराना है और वो दरअसल इसके बारे में बयान दिया था ना कि भारत से एक हज़ार साल तक लड़ने की बात की थी.
लेकिन सिर्फ़ दो साल के बाद 1974 में भारत ने जब पहला परमाणु परीक्षण किया तो भुट्टो (उस समय प्रधानमंत्री बन गए थे) ने फ़ौरन एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस की और कहा कि भारतीय उप-महाद्वीप अब असुरक्षित हो गया है और इसलिए अब पाकिस्तान भी परमाणु शक्ति बनेगा.
उनका एक और बयान बहुत मशहूर हुआ जब उन्होंने कहा था कि हम घास खा लेंगे लेकिन परमाणु बम ज़रूर बनाएंगे.
फ़र्रुख़ सुहैल गोइंदी के अनुसार, भुट्टो की इस बदलती विचारधारा का मुख्य कारण पाकिस्तान की अंदुरूनी सियासत थी.
उनके अनुसार पाकिस्तान का पंजाब प्रांत भारत के क़रीब होने के कारण भारत की राजनीति से प्रभावित होता है और पाकिस्तान का कोई नेता जब तक पंजाब में लोकप्रिय नहीं होता है उसे पूरे पाकिस्तान का नेता नहीं माना जाता है.
पीपीपी चूंकि सिंध की पार्टी मानी जाती है, इसलिए पंजाब में लोकप्रिय होने के लिए किसी भी राजनेता को भारत विरोधी स्टैंड लेना ज़रूरी है.
लाहौर स्थित पाकिस्तान के वरिष्ठ पत्रकार सैय्यद मुमताज़ अहमद कहते हैं कि ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो ने ताशकंद समझौते का इस्तेमाल करके अय्यूब ख़ान के ख़िलाफ़ एक आंदोलन की शुरुआत की और पाकिस्तान की जनता के सामने ख़ुद को कश्मीर के हीरो के तौर पर पेश किया.
लेकिन पहले ताशकंद, फिर यूएन में भारत-पाकिस्तान सीज़फ़ायर (1971) के काग़ज़ात फाड़ना और फिर शिमला समझौता, भुट्टो की राजनीतिक सोच में इस बदलाव का क्या कारण था?
फ़र्रुख़ सुहैल गोइंदी कहते हैं कि पंजाबी इस्टैबलिशमेंट को वो पैग़ाम देना चाहते थे कि वो पाकिस्तान विरोधी नहीं हैं.
उनके अनुसार, पाकिस्तानी सत्ता, दक्षिणपंथी धार्मिक गुट और ख़ासकर सेना में भुट्टो परिवार को शक की निगाह से देखा जाता है, कम से कम उस तरह से नहीं देखा जाता है जिस तरह से मुस्लिम लीग को देखा जाता है.
लेकिन भुट्टो को शक की निगाह से क्यों देखा जाता था इसकी एक वजह फ़र्रुख़ गोइंदी कहते हैं कि भुट्टो ने 1967 में जो आंदोलन चलाया था वो बहुत ही क्रांतिकारी आंदोलन था जो पूरी तरह से वामपंथी विचारधारा से प्रभावित थी और जो धार्मिक समूहों और सेना के विरोध में थी. उनके अनुसार इस आंदोलन में सबसे ज़्यादा आम नौजवान और कामगार शामिल थे.
हालांकि मुमताज़ अहमद कहते हैं कि 1971 की जंग में भारत से हार के बाद पाकिस्तानी सेना कमज़ोर हो गई थी, इसलिए भुट्टो पर वो ज़्यादा दबाव नहीं डाल सकती थी.
उनके अनुसार इसीलिए भुट्टो ने भारत के साथ शिमला समझौता किया और सेना ने कुछ नहीं किया, लेकिन यह भी सच है कि शिमला से लाहौर पहुंचने के बाद भुट्टो ने सबसे पहले यही बयान दिया कि कश्मीर के मामले में पाकिस्तान ने अपनी नीति में कोई बदलाव या समझौता नहीं किया है.
भुट्टो ने अपनी मां के लिए खुलेआम गाली दी
ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो की मां एक हिंदू राजपूत महिला थीं, जिन्होंने बाद में इस्लाम धर्म अपनाया था. क्या इसके कारण भुट्टो किसी दबाव में रहते थे और ख़ुद को ज़्यादा भारत विरोधी दिखाना चाहते थे?
फ़र्रुख़ गोइंदी के अनुसार भुट्टो को हमेशा इस बात का एहसास था कि उनकी मां एक साधारण परिवार से आती थीं और वो कहते थे कि मैं एक ग़रीब मां का बेटा हूं और मैंने देखा है कि ग़रीबों के साथ समाज कैसा सलूक करता है.
लाहौर स्थित पाकिस्तान के वरिष्ठ पत्रकार सैय्यद मुमताज़ अहमद कहते हैं कि जमात-ए-इस्लामी पार्टी के लोग और उनके अख़बार भुट्टो की हिंदू मां के कारण उनको हमेशा निशाना बनाते थे.
वो एक वाक़्या सुनाते हुए कहते हैं कि 1977 के चुनाव प्रचार के दौरान भुट्टो ने एक रैली में कहा कि मेरे राजनीतिक विरोधी मेरी मां को रोज़ाना गाली देते रहते हैं इसलिए मेरा भी आज उनलोगों को गाली देने का दिल कर रहा है.
मुमताज़ अहमद के अनुसार, उन्होंने रैली में मौजूद महिलाओं से कहा कि अब शाम हो चुकी है इसलिए आप घर चली जाएं क्योंकि मैं नहीं चाहता कि आपलोग गाली सुनें.
वो कहते हैं कि भुट्टो ने सचमुच में उस रैली के दौरान अपने राजनीतिक विरोधियों को एक पंजाबी गाली दी. हालांकि दोनों ही राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि भुट्टो के राजनीतिक फ़ैसले में उनकी मां के हिंदू होने का कोई दख़ल नहीं था.
बेनज़ीर भुट्टो
बेनज़ीर भुट्टो दो बार पाकिस्तान की प्रधानमंत्री रहीं. पहली बार 1988 से 1990 तक और फिर 1993 से 1996 तक. इस दौरान उन्होंने राष्ट्रीय टेलीविज़न पर कश्मीर का मुद्दा उठाते हुए आज़ादी, आज़ादी, आज़ादी का नारा लगाया. लेकिन फिर उनकी सोच में भी बदलाव आया.
बेनज़ीर हमेशा कहती थीं कि उनके तीन रोल मॉडल हैं, उनके पिता ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो, जोन ऑफ़ आर्क और इंदिरा गांधी.
राजनीति में आने से पहले वरिष्ठ कांग्रेसी नेता मणिशंकर अय्यर पाकिस्तान में विदेश सेवा के अधिकारी के तौर पर 1978-82 के बीच काम कर चुके हैं.
अय्यर कहते हैं कि 1971 के पहले पाकिस्तान जैसे सोचता था, वो बांग्लादेश बन जाने के बाद बिल्कुल बदल गया था.
अय्यर कहते हैं, "1971 के पहले पाकिस्तान सोचता था कि एक मुसलमान (कभी चार, चालीस, कभी 400 कहते थे), हिंदुओं का मुक़ाबला कर सकता है. कल शाम तक लाल क़िले पर इस्लाम का झंडा लहराएगा."
मणिशंकर अय्यर कहते हैं कि जब वो पाकिस्तान में थे तो पाकिस्तान में फिर कोई वैसी बात नहीं करता था और जनरल ज़िया-उल-हक़ भी चाहते थे कि भारत से संबंध बेहतर हो.
राजीव गांधी ने दिसंबर, 1988 और फिर जुलाई 1989 में पाकिस्तान का दौरा किया था तब बेनज़ीर भुट्टो पाकिस्तान की प्रधानमंत्री थीं.
इससे पहले 1960 में जवाहरलाल नेहरू ने पाकिस्तान का दौरा किया था.
अय्यर कहते हैं कि पहली बार तो राजीव गांधी सार्क सम्मेलन में शामिल होने के लिए गए थे लेकिन जुलाई 1989 में राजीव गांधी, बेनज़ीर भुट्टो की गुज़ारिश पर गए थे.
सार्क सम्मेलन के दौरान बेनज़ीर ने राजीव गांधी और सोनिया गांधी को अपने आवास पर रात के खाने पर बुलाया था.
इंग्लैंड में यूनिवर्सिटी के दिनों में बेनज़ीर भुट्टो के क़रीबी दोस्त रहे भारत के जाने माने पत्रकार करण थापर उस डिनर का ज़िक्र करते हैं.
बेनज़ीर की मौत के बाद अंग्रेज़ी अख़बार हिंदुस्तान टाइम्स में छपे एक लेख में थापर लिखते हैं, "उस ज़माने में एक मज़ाक़ चलता था कि राजीव गांधी और बेनज़ीर को शादी कर लेनी चाहिए और दोनों देशों की समस्या का समाधान कर लेना चाहिए. बेनज़ीर ने मुझे बाद में बताया कि डिनर के दौरान इस बात को लेकर हम लोग बहुत हँसे. बेनज़ीर ने मुझसे कहा कि राजीव (गांधी) कितने हैंडसम हैं लेकिन उतने ही टफ़ भी हैं."
करण थापर के अनुसार, बेनज़ीर भुट्टो ने लालकृष्ण आडवाणी के परिवार से भी अच्छी दोस्ती कर ली थी. थापर के अनुसार एक बार साल 2002 में उनकी मुलाक़ात अमेरिका में बेनज़ीर से हुई और उन्होंने उनके हाथों आडवाणी के लिए एक किताब (अमेरिकी लेखक रॉबर्ट कपलान की किताब) तोहफ़े में भेजी. थापर के अनुसार, बेनज़ीर ने बाद में भी आडवाणी के लिए उनके हाथों कई तोहफ़े भेजे.
करण थापर ने साल 2018 में लिखी अपनी किताब में पूरा एक चैप्टर बेनज़ीर भुट्टो पर लिखा है.
करण थापर का मानना है कि साल 2001 के बाद से ही फ़्री ट्रेड, सॉफ़्ट बॉर्डर और कश्मीर के दोनों हिस्सों के लिए एक संयुक्त संसद की बात करने लगीं थीं.
फ़र्रुख़ सुहैल गोइंदी भी कहते हैं कि बेनज़ीर चाहती थीं कि भारत और पाकिस्तान यूरोपीय यूनियन की तरह हो सकते हैं.
मणिशंकर अय्यर कहते हैं कि राजीव गांधी की मौत के बाद वो एक बार पाकिस्तान गए थे. उनके जाने का मुख्य उद्देश्य राजीव गांधी फ़ाउंडेशन के एक कार्यक्रम में बेनज़ीर भुट्टो को दावत देनी थी.
अय्यर कहते हैं कि उन्होंने दावत तो स्वीकार कर ली थी लेकिन किसी कारण भारत नहीं आ सकीं थीं.
अय्यर के मुताबिक़ इसी दौरान बेनज़ीर ने उनसे कहा था, "मैं समझती हूँ कि मैंने जो सबसे बड़ी ग़लती की थी वो कश्मीर के बारे में मैंने जो बयान दिया था."
तो क्या भुट्टो परिवार को भारत विरोधी कहा जा सकता है ?
भारत की जानी मानी सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक और योजना आयोग की सदस्य रह चुकी और ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो पर किताब लिख चुकी सैय्यदा सैय्यदैन हमीद कहती हैं कि ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो को अगर भारत से नफ़रत नहीं थी तो इस बात के भी सबूत नहीं हैं कि उन्हें भारत से प्यार या कोई ख़ास लगाव था.
वो कहती हैं कि कैसे उन्होंने संयुक्त राष्ट्र में अपने भाषण के दौरान अपने 11 साले के बेटे मुर्तुज़ा भुट्टो का नाम लेकर कहा कि उसने उन्हें कहा है कि वो भारत-पाकिस्तान सीज़फ़ायर (सरेंडर डॉकूमेंट) काग़ज़ात को लेकर पाकिस्तान वापस नहीं आएं.
सैय्यदा हमीद कहती हैं कि भुट्टो ने फांसी से पहले जो आख़िरी बयान दिया उसमें भी भारत का कहीं कोई ज़िक्र नहीं था.
लेकिन मुमताज़ अहमद कहते हैं कि भुट्टो जवाहरलाल नेहरू को बहुत पंसद करते थे और एक तरह से यह कहना ग़लत नहीं होगा कि वो नेहरू को अपना आइडियल राजनेता मानते थे.
जब भुट्टो को जनरल ज़िया ने फांसी देने का फ़ैसला किया तो इंदिरा गांधी ने भी एक बयान देकर उसका विरोध किया. इंदिरा गांधी उस समय विपक्ष में थीं लेकिन भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने जनरल ज़िया का साथ देते हुए भुट्टो की फांसी के ख़िलाफ़ कोई बयान नहीं दिया था.
भारतीय राजनेता पीलू मोदी ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो के बचपन के दोस्त थे और एक तरह से कहा जाए तो वो बॉम्बे में उनको शहरी तौर-तरीक़ा सिखाने वाले उनके उस्ताद थे.
उनकी दोस्ती बरसों बरस रही और पीलू मोदी ने एक किताब भी लिखी, 'ज़ुल्फ़ी, माई फ़्रेंड.' सिर्फ़ पीलू मोदी ही ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो को ज़ुल्फ़ी बुला सकते थे.
फ़र्रुख़ गोइंदी कहते हैं कि पीलू मोदी का उन्होंने उनकी मौत से एक दिन पहले इंटरव्यू किया था. इस दौरान पीलू मोदी ने उन्हें बताया कि भुट्टो जवानी के दिनों में बॉम्बे में कपड़े की दुकान खोलना चाहते थे.
फ़र्रुख़ गोइंदी कहते हैं, "मुमकिन है अगर ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो ज़्यादा पढ़े नहीं होते तो आज बॉम्बे में उनका परिवार होता और कपड़े की उनकी दुकान होती."
बिलावल का हालिया बयान
बिलावल भुट्टो के हालिया बयान के बारे में मुमताज़ अहमद कहते हैं कि भारत के विदेश मंत्री ने पाकिस्तान के बारे में जो बयान दिया था उसके बाद बिलावल के पास कोई गुंजाइश नहीं थी, उसका जवाब ऐसा ही कुछ होना था.
वो कहते हैं, "बिलावल भुट्टो को मौक़ा मिला है कि वो ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो की 1965 की विरासत को दोबारा ज़िंदा कर सकें. भारत में बिलावल के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन होंगे तो उसका राजनीतिक करियर बढ़ेगा."
मणिशंकर अय्यर भी कहते हैं, "भारत को समझना चाहिए था कि अगर हम कठोर शब्दों का इस्तेमाल करेंगे तो पाकिस्तान की तरफ़ से भी कड़ा जवाब मिलेगा."
आगे का रास्ता
मणिशंकर कहते हैं कि उन्हें डर है कि पाकिस्तान फिर कहीं 1971 से पहले वाली सोच की तरफ़ ना लौट जाए और इसका एक ही इलाज है कि भारत और पाकिस्तान की बातचीत दोबारा शुरू की जाए.
वो कहते हैं कि हमें निजी व्यक्ति के बयान और उसकी सोच के बजाए इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि भारत के हित में क्या है.
पाकिस्तान के पत्रकार सैय्यद मुमताज़ अहमद भी कहते हैं कि पाकिस्तान का हर राजनेता भारत से अच्छे रिश्ते चाहता है लेकिन वहां की इस्टैबलिश्मेंट यानी सेना ऐसा नहीं चाहती और जब तक उसकी सोच में बदलाव नहीं होगा, भारत-पाकिस्तान के रिश्ते नहीं सुधर सकते हैं. (bbc.com/hindi)