संपादकीय
सुप्रीम कोर्ट जब लीक से हटकर कोई काम करती है, तो उससे कई बार एक नया कानून बनता है। वह कानून तब तक लागू रहता है जब तक संसद उसे पलटने का कोई नया कानून न बना दे। अब जैसे शाहबानो के केस में सुप्रीम कोर्ट ने उसे गुजारा भत्ता का हकदार माना था, लेकिन राजीव गांधी की सरकार ने संसद में कानून बनाकर सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले को पलट दिया था। अगर संसद में वह काम नहीं किया गया रहता तो सुप्रीम कोर्ट का वह फैसला ही देश में लागू रहता। अभी सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले में बड़ा ही दिलचस्प आदेश दिया है, लेकिन साथ-साथ यह भी कह दिया है कि इसे नजीर के तौर पर ऐसे दूसरे मामलों में लागू नहीं किया जा सकेगा, बल्कि वैसे हर मामले को गुण-दोष के आधार पर अलग-अलग तय किया जाएगा।
यह मामला पुदुचेरी की एक दलित महिला का है जो अपनी बच्ची के लिए दलित वर्ग का आरक्षण सर्टिफिकेट चाहती थी। बच्ची का पिता दलित तबके का नहीं था। मां का तर्क था कि वह उस प्रदेश के आदि द्रविड़ दलित समुदाय की है, और उसके माता-पिता की पिछली दो पीढिय़ां भी इसी समुदाय की थीं। शादी के बाद पति इसी महिला के घर पर रहता था। अब बच्ची की पढ़ाई के लिए उसने आरक्षण प्रमाणपत्र मांगा लेकिन सरकार ने उससे मना कर दिया। बाद में मामला मद्रास हाईकोर्ट पहुंचा तो अदालत ने मां की जाति के आधार पर प्रमाणपत्र देने के लिए कह दिया। सरकार इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुंची क्योंकि राष्ट्रपति की जारी की गई अधिसूचनाएं, और गृह मंत्रालय के दिशा-निर्देश 1964 से लेकर 2002 तक आमतौर पर बच्चों की जाति को पिता के जाति के आधार पर तय करते हैं, और पिता के मूल निवासी दर्जे के आधार पर बच्चों का निवास प्रमाणपत्र बनता है।
सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश सूर्यकांत और जस्टिस जयमाला बागची की बेंच ने मद्रास हाईकोर्ट के आदेश में दखल देने से मना कर दिया। इस बेंच ने कहा कि यह फैसला इस बच्ची की पढ़ाई-लिखाई को लेकर जारी रखा जा रहा है, और इसे व्यापक संदर्भ में उपयोग नहीं किया जाए। लेकिन जजों ने कहा कि बच्ची की पढ़ाई और भलाई को कठोर व्याख्या का कैदी नहीं बनाया जा सकता। यह रूख सुप्रीम कोर्ट में थोड़ा सा नया है क्योंकि 2003 के एक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण के लिए पिता की जाति को ही आधार बनाना जरूरी माना था। इसके बाद 2012 में गुजरात के एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पिता की जाति का आधार अटल नहीं माना जा सकता। अंतरजातीय या आदिवासी-गैरआदिवासी शादियों में बच्चे मां की जाति ले सकते हैं, बशर्ते वह ये साबित कर सकें कि वे मां के समुदाय में ही पले और बढ़े है, और उन्होंने मां की जाति का ही सामाजिक और आर्थिक पिछड़ापन झेला है। अदालत ने यह भी कहा था कि इन सारी बातों को साबित करने का जिम्मा ऐसे बच्चों के परिवारों का ही रहेगा। 2025 में एक अलग मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह सवाल खड़ा किया था कि अगर किसी बच्चे की मां ही उसकी अकेली पालक है, तो उसके पिता की जाति का प्रमाणपत्र क्यों जरूरी, महत्वपूर्ण, और मान्य होना चाहिए?
ऐसा लगता है कि सुप्रीम कोर्ट 21वीं सदी के बदले हुए परिदृश्य में महिलाओं के अधिकारों की एक अलग तरीके से अधिक उदार और अधिक प्रगतिशील व्याख्या कर रहा है। एक दिलचस्प वैज्ञानिक तथ्य यह है कि किसी बच्चे के मां-बाप में से, जब तक कोई वैज्ञानिक जांच न हो, तब तक मां होने की तो गारंटी रहती है, और पिता होने का तो महज अनुमान रहता है। ऐसे में अगर मां का समुदाय अधिक पिछड़ा हुआ है, भेदभाव का शिकार है, तो बच्चों को अपनी मां के हिस्से का आरक्षण का हक मिलना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने अभी यह ताजा आदेश देते हुए यह सावधानी बरती है कि यह मामला नजीर के तौर पर दूसरे ऐसे तमाम मामलों पर अपने-आप लागू नहीं हो जाएगा। यह सावधानी इसलिए जरूरी है कि भारत की सामाजिक व्यवस्था बहुत अधिक जटिल है, और उसके भीतर जातिगत आरक्षण तब और भी जटिल हो जाता है जब मां-बाप में से कोई एक आरक्षित वर्ग के हों, और दूसरे अनारक्षित वर्ग के। सुप्रीम कोर्ट की यह सावधानी एकदम सही है कि बच्चों को जिस समुदाय के परिवार में बड़ा होना पड़ा है, उन्हें उस समुदाय का मानने पर विचार करना चाहिए। चूंकि ऐसे मामले आरक्षण का एक बड़ा फायदा देने वाले रहते हैं, और उन्हें साबित करना बड़ा आसान नहीं रहता है, इसलिए अदालत ने ऐसे हर मामले को अलग-अलग तय करने की बात कही है।
देश में महिला अधिकारों के हक में यह एक अच्छा फैसला है जो नजीर बने बिना भी एक मिसाल की तरह तो दूसरे मामलों में सामने रखा जाएगा। अब इसके बाद देश में जहां-जहां इस तरह के मामले चल रहे होंगे, उन सबमें वकील सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का हवाला दे सकेंगे, और वह नजीर चाहे न रहे, उसका एक असर तो न्यायपालिका पर पड़ेगा ही। अब दूसरी बात यह भी है कि जब सुप्रीम कोर्ट ने एक बच्ची को ऐसा आरक्षण-प्रमाणपत्र देना सही माना है, तो वर्गहित की एक ऐसी याचिका सुप्रीम कोर्ट में लगानी चाहिए जो कि माता के आधार पर आरक्षण का फायदा देने की मौजूदा व्यवस्था पर एक बार फिर विचार करने का अनुरोध करे। अधिकतर परिवारों में यह देखा जाता है कि बच्चे मां के अधिक संपर्क में रहते हैं, वे माता के संस्कारों से प्रभावित होते हैं, और कई मामलों में तो मां ही असली पालक रहती है। कहने के लिए इसके खिलाफ यह तर्क भी दिया जा सकता है कि भारत की वर्तमान विवाह व्यवस्था के मुताबिक आमतौर पर शादी के बाद महिला पति के घर जाकर रहती है, और पति की सामाजिक व्यवस्था के सुख-दुख ही पाती है। इसीलिए आमतौर पर बच्चों का आरक्षित दर्जा पिता की जाति के आधार पर तय होता है। लेकिन जिन मामलों में बच्चे मां के साथ रहते हैं, मां के समुदाय में रहते हैं, और उन्हें सरकारी और स्कूली दस्तावेजों से साबित भी किया जा सकता है, तो उन्हें मां के आरक्षित दर्जे का फायदा मिलना चाहिए। अदालत के ये शब्द बहुत ही महत्वपूर्ण है कि बदलते जमाने में मां की जाति से प्रमाणपत्र क्यों नहीं दिया जाए? अदालत ने यह भी कहा है कि बच्चों की पढ़ाई और भलाई को कठोर व्याख्या का कैदी नहीं बनाया जा सकता। ये दोनों ही लाईनें आज के वक्त के मुताबिक हैं, महिला अधिकारों के पक्ष में हैं, और ये आगे एक याचिका लगाने की एक नई संभावना भी खड़ी करती हैं। कुछ जनसंगठनों को सुप्रीम कोर्ट के इस ताजा नजरिए को देखते हुए अदालत में मां के हक की और अधिक व्यापक व्याख्या के लिए जाना चाहिए। इस पूरे मामले में अनारक्षित वर्ग के लोगों को दहशत में आने की जरूरत नहीं है, क्योंकि यह सब आरक्षित वर्ग के कोटे के भीतर की ही बात है, इससे अनारक्षित लोगों के हक प्रभावित नहीं होते।


