संपादकीय
छत्तीसगढ़ के बेमेतरा के एक गांव में परसों शाम एक सतनामी नौजवान की चाकू मारकर हत्या कर दी गई। इस युवक ने सतनामी समाज के खिलाफ दूसरी जाति के एक युवक की सोशल मीडिया पोस्ट हटाने को लिखा था, और हिन्दू धर्म के किसी नारे को लेकर स्कूल से किसी शिक्षक को हटाने का मामला था जिस पर सोशल मीडिया पर हुई असहमति कत्ल तक पहुंच गई। अब सतनामी समाज में समाज के एक लडक़े के कत्ल को लेकर बड़ा आक्रोश है, और शव को चौक पर रखकर चक्काजाम किया गया है। पीडि़त परिवार को एक करोड़ का मुआवजा, और परिवार के एक सदस्य को नौकरी देने की मांग भी की जा रही है। अभी हम सोशल मीडिया पोस्ट के बाद पैदा हुए, और बढ़े जातिवादी तनाव की बारीकियों पर जाना नहीं चाहते, लेकिन समाज की हवा में धर्म और जाति को लेकर जो तनातनी फैली हुई है, उसके बारे में हर जिम्मेदार तबके को फिक्र करने की जरूरत है। अभी दो-तीन दिन पहले ही इस जिले से लगे हुए कवर्धा में एक आदिवासी युवती के साथ तीन नौजवानों ने सामूहिक बलात्कार किया, और गृहमंत्री का अपना जिला, अपना चुनाव क्षेत्र होने से पुलिस ने तेजी से उन्हें गिरफ्तार भी किया है। अब वहां पर आदिवासी समाज आंदोलन कर रहा है, और 50 लाख मुआवजा मांग रहा है। लोगों को याद होगा कि पिछले बरस बलौदाबाजार जिले में सतनामी समाज के एक आंदोलन के बाद वहां तनाव इतना खड़ा हुआ कि कलेक्टर और एसपी के दफ्तर जला दिए गए थे। सरकार, और राजनीति, न तो मिलकर, और न ही अलग-अलग इस तनाव को निपटा पाए हैं।
छत्तीसगढ़ आज अलग-अलग धर्मों के बीच तनाव भी झेल रहा है, और हिन्दू धर्म के भीतर की अलग-अलग जातियां भी समय-समय पर एक-दूसरे से टकरा रही हैं। ओबीसी के भीतर भी अलग-अलग जातियों के बीच राजनीतिक खींचतान, और तनातनी बड़ी आम बात है। ऐसे में हिन्दू समाज जैसी कोई चीज नहीं है, और हिन्दुओं के बीच कई तरह की जातियां, और उनके भीतर की उपजातियों में टकराव की नौबत कई जगह आती है। आदिवासी से ईसाई बनने का बवाल खासकर बस्तर में अधिक चल रहा है, लेकिन अब तो पूरे प्रदेश के शहरी इलाकों में भी हर इतवार किसी न किसी जगह ईसाई परिवार में चल रही प्रार्थना को लेकर धर्मांतरण के आरोप लगाकर बजरंग दल जैसे संगठन वहां पहुंचकर कानून अपने हाथ में ले रहे हैं, और फिर पुलिस मानो उनकी मदद के लिए वहां पहुंच रही हैं। इससे परे एक नया घटनाक्रम अगर लोगों के ध्यान में नहीं आया है, तो उसे भी देखने की जरूरत है। भीम आर्मी नाम का संगठन जो कि हिन्दुत्ववादी संगठनों से परे मोटेतौर पर दलितों के बीच काम करता है, उसने अभी सामने आकर कुछ जगहों पर ईसाईयों पर हमलों का विरोध किया है, और ईसाईयों के साथ एकजुटता दिखाई है। पिछले ही इतवार को एक जगह भीम आर्मी के लोग लाठियां लेकर ईसाई परिवार के घर के बाहर और छत पर हिफाजत देने के लिए खुद तैनात हो गए थे कि ईसाई प्रार्थना का विरोध करने आने वाले लोगों से वे निपटेंगे। इस नौबत को समझने की जरूरत है कि धर्मांतरण के आरोप लगाते हुए कुछ संगठन कानून अपने हाथ में ले रहे हैं, और पुलिस की मौजूदगी में भी ईसाई प्रार्थना सभा के लोगों को मार रहे हैं। इसके साथ-साथ पुलिस उस ईसाई परिवार के, और उस घर में मौजूद लोगों के खिलाफ हिन्दू धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के जुर्म दर्ज कर रही है, और धर्मांतरण के भी। अगर आमतौर पर अनुसूचित जाति समाज के लोगों के बीच से आने वाले भीम आर्मी के लोग अगर ईसाई लोगों के साथ खुद होकर इस तरह खड़े हो रहे हैं, तो ऐसे सामाजिक नवध्रुवीकरण के खतरों को भी राज्य की राजनीतिक ताकतों को समझना चाहिए। एक-एक जानवर और लाउडस्पीकर पर खुद होकर संज्ञान लेने वाला छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट पता नहीं हर इतवार अब नियमित हो चली इस हिंसा को क्यों नहीं देख पा रहा है। आज जब प्रदेश में कुछ संगठन कानून को हाथ में लेने के अधिकारप्राप्त हैं, कुछ दूसरे संगठन इसके खिलाफ लाठियां लेकर मौके पर तैनात हो रहे हैं, तो ऐसे में अगर सरकार और राज्य की पुलिस अपनी न्यूनतम संवैधानिक जिम्मेदारी पूरी नहीं करेंगी, तो कानून व्यवस्था की रस्सी जब हाथ से फिसलना तेज हो जाती है, तो फिर उसे थामना किसी के बस में नहीं रहता।
राज्य को अपनी इस बुनियादी जिम्मेदारी को नहीं भूलना चाहिए कि वह कानून लागू करने के अधिकार को आउटसोर्स नहीं कर सकता। सरकार भला किसी धार्मिक, धर्मांध, या साम्प्रदायिक संगठन को रेलवे स्टेशन पर ईसाई ननों के साथ हिंसा करने की जिम्मेदारी कैसे दे सकती है, और कुछ हफ्ते पहले दुर्ग में यही हुआ है, और इसके खिलाफ केरल भाजपा के अध्यक्ष, भूतपूर्व केन्द्रीय मंत्री राजीव चंद्रशेखर ने वहां से छत्तीसगढ़ आकर इसका विरोध किया, और ननों की जमानत का इंतजाम किया। लेकिन ईसाईयों के जिन मामलों में केरल की ननें शामिल नहीं हैं, उन छत्तीसगढ़ी ईसाईयों को हिंसा और हमलों से कौन बचाएगा? आज तो छत्तीसगढ़ में पुलिस ऐसी घटनाओं के वक्त बजरंग दल के एक प्रकोष्ठ की तरह कार्रवाई करते दिख रही है, और यह नौबत न सिर्फ ईसाईयों से जुड़े मामलों के बेकाबू करेगी, बल्कि इससे पैदा अराजकता कदम-कदम पर राज्य की कानून व्यवस्था के लिए खतरा बनेगी। अराजकता की आग को सुलगने की छूट दी जा सकती है, उसे सुलगाया जा सकता है, लेकिन फिर वह जंगल की आग की तरह फैलती है, और उसे काबू करना किसी के बस में नहीं रहता। इतवार की प्रार्थना सभाओं पर होने वाले हमलों को अगर सरकार की मौन स्वीकृति मिली है, तो इस अराजकता का विस्तार कवर्धा में आदिवासी प्रदर्शन तक, और बेमेतरा में सतनामी प्रदर्शन तक हो रहा है। भारत जैसे जटिल सामाजिक ताने-बाने में ऐसा नहीं हो सकता कि किसी जात या धरम के खिलाफ चुनिंदा तनाव किया जाए, और बाकी समाज उससे कुछ भी न सीखे। आज सोशल मीडिया की मेहरबानी से किसी चिंगारी को कहीं से भी चारों तरफ फैलाया जा सकता है। आज हर दिन किसी जात या धरम के खिलाफ लिखा जा रहा है। ऐसे में अगर पुलिस अपने चुनिंदा रूख को जारी रखेगी, तो इससे राज्य में कानून व्यवस्था चौपट होगी, इस खतरे को शायद कई लोग समझ नहीं पा रहे हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)


