संपादकीय

मौसम बहुत से लोगों को अगर राहत देने वाला लगे, तो उन्हें लगता है कि सब कुछ बहुत अच्छा हो गया। लेकिन सच तो यह है कि धरती पर जलवायु और मौसम, इनका जो चक्र बना हुआ है, उसमें अगर अधिक फेरबदल होता है, तो उससे धरती की जिंदगी तबाही की तरफ बढ़ जाती है। धरती पर तापमान लगातार बढ़ते चल रहा है, कभी भी कहीं पर बारिश इतनी हो जाती है कि बाढ़ आ जाती है, और योरप के जिन शहरों ने कभी बाढ़ देखी नहीं थी, वहां सडक़ों पर सैलाब में कारें बहते हुई दिखीं, तमाम बसाहट की ग्राउंड फ्लोर की पूरी तबाही हो गई। इसी तरह अफ्रीका के कई देश ऐसे भयानक सूखे के शिकार हो गए कि दसियों लाख इंसान और उतने ही जानवर अपनी बसाहट छोडक़र सैकड़ों और हजारों मील दूर जाने को मजबूर हो गए। लेकिन मौसम की मार की ऐसी पराकाष्ठा से परे भी कई चीजें धीमी रफ्तार से हो रही हैं, जैसे भारत में इस बार मानसून एक पखवाड़े पहले खिसक गया है।
अब शहरी लोगों को तो मानसून का मतलब पानी, कारोबारियों को इसका मतलब छाते और रेनकोट बेचना, इतना ही है। मानसून की तारीखें एक पखवाड़े पहले आ जाने से खेती पर क्या असर पड़ेगा, और आगे जाकर फसल को जिन दिनों में अधिक पानी की जरूरत रहेगी, उन दिनों पानी उतना बरसेगा या बादलों में ही उतना नहीं रह जाएगा, ऐसी कई बातें हैं जो कि शहरी सडक़ों पर नहीं दिखती हैं। और ये बातें जब फसल की कमजोरी हो चुकी रहती है, तब सामने आती हैं। अभी कुछ बरस पहले उत्तर भारत में गर्मी में अंधाधुंध लू चली, तापमान इतना बढ़ गया कि गेहूं की फसल में बालियों में दूध ठीक से नहीं पड़ पाया, और उत्पादन घट गया। ऐसी नौबत पूरी दुनिया में जगह-जगह आ रही है, खासकर उन जगहों पर जहां एक निश्चित तापमान पर, एक औसत बारिश से लोगों का रोजगार चलता था, फसल होती थी, उन तमाम जगहों पर अब एक अनिश्चितता ऐसी भर गई है कि मानो ट्रम्प दुनिया के बादलों पर काबू करके बैठा है, और जब जहां जैसा चाहता है उस तरह हिलाता है।
दरअसल ट्रम्प की चर्चा के बिना जलवायु परिवर्तन की बात इसलिए नहीं हो सकती क्योंकि दुनिया का यह सबसे ताकतवर निर्वाचित तानाशाह अंधाधुंध हद तक बेदिमाग भी है। उसने राष्ट्रपति बनते ही पेरिस जलवायु समझौते से अमरीका को बाहर कर लिया, और पर्यावरण को बचाने की, जलवायु परिवर्तन को धीमे करने की तमाम कोशिशों को वह ग्रीन फ्रॉड कहता है। उसकी नजर एक बहुत घटिया दर्जे के कारोबारी की है जिसके लिए आज शाम तक का मुनाफा ही सबसे अधिक मायने रखता है, फिर चाहे उसकी वजह से अगले हफ्ते बहुत बड़ी बर्बादी ही क्यों न आ जाए। पर्यावरण से परे की एक बात यहां पर करना जरूरी है कि आज सुबह की खबर है कि अमरीकी अदालत में ट्रम्प के अधिकतर टैरिफ-फैसलों को रोक दिया है, अदालत ने कहा है कि ये ट्रम्प के अधिकार क्षेत्र से बाहर के फैसले हैं। लेकिन पिछले सवा सौ से अधिक दिनों के अपने कार्यकाल में ट्रम्प दुनिया में तरह-तरह की तबाही तो लाते ही जा रहा है, और उसकी मनमानी से दुनिया के पर्यावरण में जो बर्बादी हो रही है, वह तो बरसों तक नहीं सुधर पाएगी।
अब चूंकि पूरा हिन्दुस्तान मानसून पर चलने वाला देश है, इसलिए इसमें आए हुए एक पखवाड़े के फर्क की वजह से हिन्दुस्तानी आज जलवायु परिवर्तन के बारे में कुछ समझने की कोशिश कर सकते हैं। दूसरा यह कि भारत सरकार के मौसम विज्ञान विभाग से निकली हुई वैज्ञानिक जानकारी को सरल भाषा में अलग-अलग क्लास के बच्चों के लिए भी तैयार करना चाहिए ताकि वे मानसून में आए इस बड़े फेरबदल के साथ-साथ धरती पर चल रहे जलवायु परिवर्तन को भी बेहतर तरीके से समझ सकें। जब किसी देश में भूकम्प आता है, तो वहां के तमाम बच्चों को भूकम्प के बारे में समझाने का एक बेहतर वक्त रहता है। इसलिए बिना तैयारी पहुंच गए इस मानसून को लेकर आज भारत में बच्चे-बड़े, सभी कुछ अधिक ध्यान से इस मुद्दे को समझेंगे। लेकिन एक सवाल यह भी उठता है कि क्या भारत उन देशों में शामिल है जो कि दुनिया में जलवायु परिवर्तन के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार हैं? यह बात भी समझनी होगी कि संपन्न और विकसित देशों में कई देश ऐसे गैरजिम्मेदार हैं जो कि सामानों और साधनों की अंधाधुंध खपत करते हैं। वैसे तो जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार देशों की लिस्ट में भारत का नाम तीसरे नंबर पर ही है लेकिन अमरीका और चीन के बाद भारत एक देश के रूप में जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार तो है, लेकिन अगर हम आबादी के रूप में देखें, तो भारत में प्रति व्यक्ति जलवायु परिवर्तन की जिम्मेदारी बहुत कम आती है। प्रति व्यक्ति प्रदूषण फैलाने में पहले पांच देश तो खाड़ी के हैं, कतर, कुवैत, यूएई, बहरीन, सउदी अरब में हर व्यक्ति प्रदूषण फैलाने में दुनिया में सबसे आगे हैं। और इसके बाद जाकर ऑस्ट्रेलिया, अमरीका, कनाडा, दक्षिण कोरिया, और रूस की बारी है। मतलब यह कि देश की सीमाओं के आधार पर चीन दूसरे और भारत तीसरे नंबर पर जरूर है, लेकिन प्रति व्यक्ति प्रदूषण के मामले में चीन 19वें नंबर पर है, भारत 30वें नंबर पर। मतलब यह कि एक औसत नागरिक का प्रदूषण में योगदान बहुत कम है।
लेकिन यह बात राहत की नहीं है। पेरिस जलवायु समझौते जैसे कई समझौतों में भारत के भी दस्तखत हैं, और ट्रम्प के उससे निकल जाने पर भी भारत उसमें बना हुआ है। भारत तो अपनी जमीन पर प्रदूषण घटाने की कोशिशों को लगातार जारी रखना चाहिए क्योंकि कोयले से बिजली बनाने का कोई तेज रफ्तार विकल्प भारत के पास नहीं है, और अभी तो अगले कई बरस यह प्रदूषण बढ़ते ही जाना है, और उसके बाद जाकर यह स्थिर होगा। भारत को पर्यावरण के हर मोर्चे पर, हर पैमाने पर इसलिए जिम्मेदार रहना चाहिए क्योंकि आने वाला वक्त ऐसा हो सकता है जिसमें कोई अंतरराष्ट्रीय समझौता सचमुच ही अमल में आ जाए, अधिक प्रदूषण करने वाले देशों पर बड़ा जुर्माना लग जाए। आज भी ऐसी बात तो होती ही है।
कुल मिलाकर हम अपनी पहली बात पर आते हैं कि मानसून बदलने से आज देश में जलवायु चर्चा में है, और बच्चों से लेकर बड़ों तक भारत सरकार को आसान शब्दों में वैज्ञानिक तथ्य रखने चाहिए, और लोगों को जागरूक बनाने का यह एक बड़ा मौका है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)