संपादकीय
गुजरात की एक खबर है कि वहां अमरेली में एक नौजवान दुकान पर कुछ सामान खरीदने गया, और दुकानदार के बेटे को बेटा कहकर बात कर ली, तो वहां मौजूद दर्जन भर लोगों ने उसे इतना मारा कि गंभीर चोटों से उसकी मौत हो गई। तेरह लोगों में से नौ को गिरफ्तार कर लिया गया है, और बाकी की तलाश जारी है। दुकानदार ओबीसी तबके का था, और यह ग्राहक नौजवान दलित तबके का। इसलिए दुकानदार के बच्चे को बेटा कहने पर जाति की गालियां देते हुए लाठी-कुल्हाडिय़ों से इस दलित नौजवान को मारा गया, अस्पताल में उसकी मौत हो गई।
अब हिन्दुस्तान में जिन लोगों को लगता है कि जाति व्यवस्था खत्म हो चुकी है, उन लोगों को यह सोचना चाहिए कि बोलचाल में अपने से ऊंची समझी जाने वाली जाति के किसी छोटे बच्चे को बेटा कह देना जानलेवा हो सकता है। सोशल मीडिया अभी ऐसे वीडियो से उबल रहा है जिन्हें मध्यप्रदेश का बताया जा रहा है, और वहां एक गांव में दलित दूल्हा घोड़ी पर चढक़र निकल रहा है, और शायद किसी ऊंची समझी जाने वाली जाति की महिला गालियां बकते हुए दूल्हे को घोड़ी से उतारने की कोशिश करती है, और उसके बाद इस महिला का परिवार भी लाठियां लेकर जुट जाता है। देश में जगह-जगह दलितों के साथ इस तरह का बर्ताव चलता ही रहता है। दिलचस्प बात यह है कि देश में जाति व्यवस्था खत्म करने के, या खत्म हो जाने के तमाम फतवे ऊंची कही जाने वाली जातियों से ही आते हैं, जिन्हें कभी जाति-प्रताडऩा झेलनी नहीं पड़ी। जिन लोगों ने पूरी जिंदगी से जाति के आधार पर भेदभाव, हिंसा, और प्रताडऩा झेली है, वे जानते हैं कि क्रूर और हिंसक जाति व्यवस्था एक ऐसी हकीकत है जो कि कड़े कानूनों के बावजूद खत्म नहीं हुई है, और अक्सर ही जाति-हिंसा से बचने के लिए, या उसके हो जाने के बाद सजा दिलवाने के लिए ऐसी जाति के लोगों को एक होना पड़ता है, सडक़ों पर आना पड़ता है, तब कहीं जाकर उनकी बात सुनी जाती है, रिपोर्ट लिखी जाती है। इसके बाद भी पुलिस जांच, अदालती कार्रवाई के दौरान ऊंची कही जाने वाली जातियों का दबदबा, और उनकी संपन्नता की ताकत इतनी रहती है कि दलित घायल, या दलित लाश को इंसाफ मिल पाना आसान नहीं रहता है।
देश में जगह-जगह कुछ चुनिंदा तबके भी यह बात उठाते रहते हैं कि हिन्दू धर्म के सारे लोगों को एक साथ रहना चाहिए, मंदिर से लेकर मरघट तक सबके लिए एक जैसे रहना चाहिए। लेकिन असल जिंदगी में क्या कोई यह कल्पना कर सकते हैं कि मंदिरों पर दलितों का उतना ही हक रहेगा, जितना कि ब्राम्हणों का रहता है? क्या कोई दलित धर्म की पढ़ाई करने के बाद किसी मंदिर में पुजारी नियुक्त हो सकेगा? पूरे देश में जो एक राज्य, तमिलनाडु संगठित दलित आंदोलन से उपजी राजनीति पर चलता है, वहां पर 2011 में तत्कालीन मुख्यमंत्री जयललिता ने गैरब्राम्हणों को पुजारी बनाने की इजाजत देने का आदेश दिया था। दस बरस बाद मुख्यमंत्री एम.के.स्टालिन ने इस काम को आगे बढ़ाया, और सरकार-संचालित मंदिरों में 24 गैरब्राम्हण पुजारी नियुक्त किए गए, जिनमें कुछ दलित भी थे। इन सभी को सरकारी मान्यता प्राप्त प्रशिक्षण संस्थाओं से प्रशिक्षण के बाद नियुक्त किया गया था। सामाजिक समानता आंदोलनकारियों ने इस पहल का समर्थन किया था, लेकिन परंपरागत ब्राम्हण संगठनों ने इसका विरोध किया। अब भी तमिलनाडु के कुछ मंदिरों में दलित पुजारी नियमित रूप से पूजा करवा रहे हैं। लेकिन बाकी देश में क्या हाल है, यह लोग अपने-अपने इलाके में पता लगा सकते हैं कि उनके राज्य में समाज और सरकार इस बारे में क्या कर रहे हैं। तमिलनाडु के कम से कम पांच जिलों में दलित पुजारी चर्चित और प्रमुख मंदिरों में पूजा-पाठ से लेकर दूसरे तमाम धार्मिक संस्कार करवा रहे हैं।
देश में सिर्फ कानून से अगर कुछ होना रहता, तो संविधान लागू होने के अगले ही दिन दलितों से भेदभाव बंद हो जाना चाहिए था, लेकिन दलित प्रताडऩा धड़ल्ले से जारी है। इन दिनों एक सबसे अधिक चर्चित धार्मिक नौजवान को एक दलित के आकर पैर छूने की कोशिश करने पर अपने आपको पीछे घसीट लेने का वीडियो चारों तरफ चल रहा है, और इसके फर्जी होने की गुंजाइश हमें कम लगती है क्योंकि हिन्दू धर्म के अधिकतर बाबा इसी तरह जात-पात पर भरोसा रखने वाले हैं। अभी-अभी ज्ञानपीठ से सम्मानित एक नेत्रहीन बाबा तो ऐसे हैं जो कि ब्राम्हणों में भी नीच और अधम ब्राम्हणों की जातियां धारा प्रवाह गिनाते हैं। जब ब्राम्हणों के भीतर इतना भेदभाव है, तो दलितों के बारे में उनकी क्या सोच होगी, इसका अंदाज लगाना अधिक मुश्किल नहीं है।
देश में बात-बात पर दलितों के खिलाफ, और सरकारी आरक्षण की वजह से बाकी आरक्षित तबकों के भी खिलाफ एक बहुत मजबूत पूर्वाग्रह चले आ रहा है जो कि कम होने का नाम नहीं लेता। कभी-कभी दूसरे धर्म से टक्कर लेने, उसे टक्कर देने के चक्कर में लोग कुछ देर के लिए अपने धर्म के भीतर की जाति व्यवस्था को स्थगित रखते हैं, और दूसरे धर्म से हिसाब चुकता होते ही फिर हंटर निकाल लेते हैं। आज अगर आरक्षण की मदद से दलित कुछ जगहों पर पहुंचे नहीं रहते, तो उनका पूरा का पूरा समाज कमजोर ही रहता, और अधिकतर लोग अछूत कहे जाने वाले कामकाज में ही उलझे रहते। आरक्षण ने सामाजिक न्याय दिलवाने में मदद की है, उसके महत्व को कम नहीं आंका जाना चाहिए। आज जरूरत इस बात की अधिक है कि शोषक तबकों के लोगों में से सुधारवादी लोग सामने आएं, और आकर अपनी जात के अहंकारी लोगों को सुधारने का काम करें। समाज सुधार का यह सिलसिला बड़ा लंबा चलेगा, क्योंकि मीडिया से लेकर न्यायपालिका तक शोषक तबके के लोगों का खूब बोलबाला है, और उनके जाति पूर्वाग्रह जल्द खत्म नहीं होने वाले हैं।