संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : नक्सल मोर्चे पर एक के बाद एक कामयाबी भी पूरी कामयाबी नहीं!
सुनील कुमार ने लिखा है
22-May-2025 6:10 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : नक्सल मोर्चे पर एक के बाद एक कामयाबी भी पूरी कामयाबी नहीं!

तस्वीर / सोशल मीडिया


छत्तीसगढ़ के बस्तर में पिछले दो-तीन दिनों से चल रही मुठभेड़ के बाद कल पुलिस ने नक्सलियों के एक सबसे बड़े नेता सहित 27 नक्सलियों को मारने की घोषणा की है, और उनकी लाशें भी बरामद की हैं। अभी दस दिन पहले भी छत्तीसगढ़ पुलिस ने बस्तर में एक पहाड़ी पर चल रही लंबी मुहिम के बाद 32 नक्सलियों को मारने की घोषणा की थी, जिनमें से 22 एक साथ मारे गए थे। अपने एक सबसे बड़े नेता, जिस पर पुलिस ने डेढ़ करोड़ का ईनाम रखा हुआ था, उसे खोकर नक्सली जाहिर तौर पर कमजोर हो गए दिखते हैं। राज्य में भाजपा सरकार आने के बाद से लगातार जिस तरह बस्तर के इलाके में नक्सली मारे जा रहे हैं, वह हैरान करने वाला सिलसिला है। दूसरी तरफ यह बरसों में पहला मौका है जब ऐसी अधिकतर मौतों को नक्सलियों ने अपने लोगों की माना है, और एक-दो मामलों में ही उन्होंने दो-चार लोगों के बारे में कहा है कि वे नक्सली नहीं थे, आम ग्रामीण थे। नक्सल-मुठभेड़ में नक्सलियों की मौतें भाजपा के इस शासन काल में पांच सौ के करीब पहुंच रही हैं, और इसके पहले कांग्रेस के पूरे पांच बरस में भी नक्सलियों को ऐसी टक्कर कभी नहीं मिली थी। राज्य बनने के बाद पहले तीन साल की कांग्रेस सरकार विरासत में मिली हुई नक्सल समस्या पर कुछ भी नहीं कर पाई थी, बाद की पन्द्रह बरस की रमन सिंह सरकार का मिलाजुला रिकॉर्ड रहा, और उसने मानवाधिकार हनन के आरोप झेलते हुए भी मुहिम जारी रखी थी। कुल पन्द्रह बरसों में दस बरस केन्द्र में यूपीए सरकार थी, लेकिन भाजपा के रमन सिंह ने कभी कोई अवांछित टकराव मनमोहन-सरकार से नहीं लिया था, और दोनों के तालमेल से नक्सल विरोधी अभियान चल रहा था। यह एक अलग बात है कि छत्तीसगढ़ के इतिहास का नेताओं पर सबसे बड़ा नक्सल हमला, झीरम, भी रमन सिंह के कार्यकाल में हुआ था, जिसमें कांग्रेस के बहुत से बड़े-बड़े नेता छांट-छांटकर मार दिए गए थे।

अब छत्तीसगढ़ में भाजपा सरकार बनने के साथ ही 2024 की शुरूआत से ही सरकार ने बहुत खुले अंदाज में नक्सलियों को बातचीत के लिए आमंत्रित किया। करीब साल भर उस पर नक्सलियों की कोई प्रतिक्रिया नहीं आई। दूसरी तरफ राज्य की पुलिस की अगुवाई में केन्द्रीय सुरक्षा बल थोड़े से बढ़े, क्योंकि केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने मार्च 2026 तक देश से नक्सल हिंसा खत्म करने की घोषणा की थी, और उनकी पार्टी की सरकार ने इसे चुनौती की तरह लेकर नक्सलियों को कमजोर करने का असाधारण, और अभूतपूर्व अभियान चलाया। बीते बरसों में जिस तरह छत्तीसगढ़ में सुरक्षाबलों पर अंधाधुंध हिंसा के आरोप लगते थे, गांव जला देने, और बलात्कार के आरोप लगते थे, वह पूरा सिलसिला इस बार शुरू ही नहीं हुआ। पहले डेढ़-डेढ़ दर्जन लोगों को एक-एक फर्जी मुठभेड़ में मार डालने की बात न्यायिक जांच में ही सामने आई, लेकिन अब तो उस तरह के कोई आरोप भी नहीं लगे। समाज के एक मुखर तबके ने हमेशा की तरह यह घिसा-पिटा नारा लगाना जारी रखा कि बेकसूर आदिवासी मारे जा रहे हैं, लेकिन पांच सौ के करीब नक्सलियों के मारे जाने पर भी ऐसे आरोप पांच-दस लोगों के लिए भी नक्सलियों ने नहीं लगाए, और तकरीबन तमाम लोगों को अपना मानकर बयान जारी किए, और लिस्ट जारी की। यह नौबत सुप्रीम कोर्ट और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग तक पहुंचे हुए मामलों के लंबे इतिहास से बिल्कुल अलग रही।

एक बात पर गौर करना जरूरी है कि इस भाजपा सरकार के तहत बस्तर में नक्सल विरोधी मुहिम चलाने वाली पुलिस की राजनीतिक लीडरशिप होते नहीं दिखी। पुलिस को उसका काम दे दिया गया, उसमें न राजनीतिक दखल दिखी, और न ही राजनेता बैठकर नक्सल विरोधी रणनीति बनाते रहे, किसी अभियान या मुहिम का श्रेय पाते रहे। नेताओं ने अपने आपको इस मुहिम से अलग रखा, और पुलिस को उसका काम करने दिया। आज पिछले सवा साल में पुलिस की असाधारण कामयाबी के पीछे शायद यह भी एक वजह रही कि सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी ने पुलिस और केन्द्रीय सुरक्षा बलों के काम में दखल नहीं दी, और उन्होंने पेशेवर अंदाज में नक्सलियों के खात्मे का काम तेजी से जारी रखा। यहां यह बात भी चर्चा के लायक है कि मारे गए नक्सलियों के अनुपात में ग्रामीणों और सुरक्षाबलों की मौतें बहुत ही कम हुईं, जो कि अपने आपमें एक नया इतिहास है।

अभी इसी महीने बस्तर की एक बड़ी पहाड़ी पर नक्सलियों के एक इतने बड़े अड्डे पर पुलिस ने कब्जा किया जो कि किसी ने सोचा भी नहीं था। कहीं खंदक, कहीं गुफाएं, और कहीं हथियार बनाने के वर्कशॉप! एक पहाड़ी पर उन्होंने अपनी दुनिया ही बसा रखी थी, और अगर पहाड़ी के दूसरी तरफ तेलंगाना निकल भागने का मौका नक्सलियों को नहीं मिला होता, तो उनकी मौतों की गिनती और अधिक रहती। हम देश के भीतर के लोगों को, चाहे वे हथियारबंद आंदोलन ही क्यों न चला रहे हों, उन्हें मारने को सरकार की पहली प्राथमिकता नहीं मानते। हमारा मानना है कि पहली प्राथमिकता बातचीत होनी चाहिए, क्योंकि पड़ोस के नेपाल से लेकर दुनिया के कई दूसरे देशों तक हथियारबंद आंदोलन बातचीत से ही खत्म हुए हैं, और ऐसे आंदोलनकारी लोकतांत्रिक राजनीति की मूलधारा में लाए गए हैं। नक्सली पूरी तरह से भारतीय हैं, और उनके साथ भी बातचीत की एक संभावना निकाली जा सकती थी, निकाली जानी चाहिए। सरकार ने अपनी तरफ से बहुत पहल की, लेकिन उस वक्त नक्सलियों ने सरकार को अनसुना किया, और अब जब वे बहुत कमजोर पड़ चुके हैं, तो वे बार-बार बातचीत की सार्वजनिक अपील कर रहे हैं, लेकिन अब सरकार अपने आपको ऐसे किसी दबाव में आने से परे रख रही है। फिर भी हमारा मानना है कि और मौतों के बजाय जिनमें नक्सलियों के साथ-साथ ग्रामीणों और सुरक्षाबलों की मौतें भी शामिल हैं, सरकार को बातचीत जरूर करनी चाहिए क्योंकि नक्सलवाद सिर्फ बंदूकों से खत्म हो जाएगा, ऐसी संभावना कम है, और एक विचारधारा के रूप में भी उसे खत्म करने के लिए बातचीत से नक्सलियों को लोकतंत्र की मूलधारा में लाना बेहतर होगा।  (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)


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