संपादकीय

देश में अब तक सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश बने 52 लोगों में से जस्टिस भूषण रामकृष्ण गवई दूसरे दलित हैं। वे अंबेडकरवादी बौद्ध हैं, और भारत के आम दलितों की तरह वे भी बहुत ही वंचित समाज से निकलकर आए हैं, और इस जगह तक पहुंचने का उनका सफर भारतीय लोकतंत्र की एक मजबूत संस्कृति भी बताता है जिसके तहत यह मुमकिन हो पाया। वे महाराष्ट्र के विदर्भ में अमरावती में पैदा हुए, म्युनिसिपल स्कूल में पढ़े, और वकालत में आए। देश के मुख्य न्यायाधीश बनने के बाद वे अभी अपने गृह प्रदेश महाराष्ट्र के पहले दौरे पर पहुंचे, और वे मुम्बई में बौद्ध समुदाय के तीर्थ, चैत्यभूमि जाकर डॉ.अंबेडकर को श्रद्धांजलि देकर उनका आशीर्वाद लेने वाले थे, लेकिन विमानतल पर कुछ ऐसा हुआ कि उन्होंने सार्वजनिक रूप से उस पर निराशाभरी प्रतिक्रिया जाहिर की। उन्होंने कहा कि देश में मुख्य न्यायाधीश के लिए सरकार की तरफ से जो शिष्टाचार नियम लागू हैं, उनकी अनदेखी करते हुए उनके लिए एयरपोर्ट पर मुख्य सचिव, डीजीपी, और मुम्बई पुलिस कमिश्नर में से कोई भी नहीं पहुंचे। उन्होंने कहा कि लोकतंत्र के तीनों स्तंभों के बीच आपस में सम्मान रहना चाहिए। उन्होंने कहा कि महाराष्ट्र का कोई व्यक्ति देश का मुख्य न्यायाधीश बनता है, और पहली बार महाराष्ट्र आता है, तो भी अगर ये तीनों अफसर मौजूद रहना नहीं चाहते, तो उन्हें इस पर सोचना चाहिए। उन्होंने कहा कि यह शिष्टाचार कोई साधारण औपचारिकता नहीं है, और इसलिए वे सार्वजनिक रूप से इस बारे में कह रहे हैं, वरना वे इस तरह की छोटी बातों में उलझना नहीं चाहते।
यह एक शर्मनाक स्थिति है कि देश के मुख्य न्यायाधीश को अपने ही प्रदेश में, और पहले ही प्रवास पर इस तरह की उपेक्षा देखने मिली। मुख्य सचिव सुजाता सौनिक, डीजीपी रश्मि शुक्ला, और मुम्बई पुलिस कमिश्नर देवेन भारती सीजेआई की सार्वजनिक प्रतिक्रिया की खबरें आने के बाद चैत्यभूमि के उनके कार्यक्रम में हड़बड़ाए हुए पहुंचे। यह भी एक संयोग है कि इन तीन अफसरों में दो तो महिलाएं ही हैं, और मुख्य सचिव के रूप में सुजाता सौनिक महाराष्ट्र की पहली महिला मुख्य सचिव भी है। देश के मुख्य न्यायाधीश का महाराष्ट्र की राजधानी पहुंचना, और पद संभालने के बाद पहली बार पहुंचना, मौजूदा शिष्टाचार-नियमों से परे भी राज्य के लिए उत्साह की एक बात होनी चाहिए थी, और शायद यह एक समझदारी की बात होती, अगर मुख्यमंत्री भी उनसे मिलने पहुंचते, क्योंकि सीएम और सीजेआई दोनों ही नागपुर शहर के भी रहे। लेकिन ऐसा कोई उत्साह देखने मिला नहीं। उत्साह और शिष्टाचार के नियमों से परे, हमें तो सामाजिक रूप से यह बात भी महत्वपूर्ण लगती है कि एक दलित सीजेआई, एक दलित तीर्थ के लिए आ रहे हैं, और प्रोटोकाल के मुताबिक जिन अफसरों को वहां जाना चाहिए था, उनमें से एक या अधिक नाम सवर्ण तबके के दिख रहे हैं। हम बात-बात पर जात पर जाना तो नहीं चाहते, लेकिन इस सामाजिक हकीकत को कैसे अनदेखा किया जाए?
जहां तक प्रोटोकाल नियमों की बात है, तो इन्हें बदलने की जरूरत है। अगर प्रदेश के तीन सबसे बड़े अफसर सीजेआई या प्रधानमंत्री-राष्ट्रपति के स्वागत के लिए एयरपोर्ट पर जाने-आने, और वहां खड़े रहने में दो घंटे का समय जाया करेंगे, तो वह वक्त जनता के कामकाज को छोडक़र ही होगा। ऐसा भी भला क्या शिष्टाचार हो सकता है जिसमें किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति के स्वागत में, बिना किसी काम के बड़े-बड़े लोगों को झोंक दिया जाए? हमारे हिसाब से तो आने वाले ऐसे मेहमानों के लिए मुनासिब सुरक्षा व्यवस्था रहना चाहिए, ताकि उन्हें कोई खतरा न हो। इसके अलावा वे जिस कार्यक्रम के लिए आ रहे हैं, उससे संबंधित लोग वहां पहुंचें ताकि वे रास्ते में अतिथि को कार्यक्रम की जानकारी दे सकें। इससे परे किसी शिष्टाचार की जरूरत क्यों होनी चाहिए? मुख्यमंत्री या राज्यपाल का जहां जाना हो, वे शिष्टाचार के हिसाब से जाएं, क्योंकि उनके जिम्मे सरकारी दफ्तर में पूरे वक्त बैठने का कोई काम भी नहीं रहता, लेकिन अफसरों को शिष्टाचार और स्वागत में झोंकने के सामंती नियमों को क्यों जारी रखा जाए? हमें अधिक खुशी होती अगर सीजेआई कल के इस अनुभव के बाद मुख्य न्यायाधीश के पद को शिष्टाचार-सूची से बाहर करने की सिफारिश केन्द्र सरकार से करते, या कम से कम निजी स्तर पर यह लिखते उनके इस पद पर रहते हुए कोई शिष्टाचार व्यवस्था न की जाए। सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के आने पर हो सकता है कि राज्य के हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस, या वहां के रजिस्ट्रार को उनसे काम की कोई बात करनी हो, वैसे होने पर उनका चले जाना जायज होता, लेकिन शिष्टाचार के लिए वह भी क्यों होना चाहिए? उन्हें काम से काम रखना चाहिए।
हिन्दुस्तान में शिष्टाचार का आतंक इतना है कि राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के आने पर खुले एयरपोर्ट या हैलीपैड पर 45-46 डिग्री की गर्मी में भी कलेक्टर, और भी कुछ अफसरों को बंद गले का कोट, या सूट-टाई पहनकर खड़ा होना पड़ता है। यह पूरी सामंती और राजसी व्यवस्था है, और इस पाखंड का खात्मा देश के आजाद होते ही हो जाना चाहिए था। यह सब कुछ जनता के पैसे बर्बाद करने पर होता है, और यह मान लिया जाता है कि तथाकथित वीवीआईपी अतिथि के सम्मान में जनता का काम छोडक़र लोग अपने वक्त की बर्बादी करें, और यातना भी झेलें।
पता नहीं शिष्टाचार का ऐसा आनंद लेने वाले बड़े जजों के सामने, अगर कोई जनहित याचिका जाए, और यह अपील करे कि वक्त की ऐसी बर्बादी खत्म की जाए, ताकि अफसर अपना काम कर सकें, तो जजों को यह बात जनहित की लगेगी या नहीं? लेकिन हम इस सिलसिले को अलोकतांत्रिक और अमानवीय मानते हैं। हमारा यह भी मानना है कि जहां जिसकी जरूरत न हों, वहां उसे एक सामंती शिष्टाचार के तहत पुतले की तरह खड़ा न किया जाए, यह कामकाजी अफसरों या कर्मचारियों की हेठी भी है, और जनता के पैसों की बर्बादी भी है। सीजेआई जस्टिस गवई ने इस मुद्दे को उठाया है, हमारा मानना है कि उन्हें इसे तर्कसंगत अंत तक भी ले जाना चाहिए, और इस पाखंडी प्रोटोकाल को खत्म करवाना चाहिए।