संपादकीय

भारत के कश्मीर में पहलगाम पर सैलानियों पर हुए आतंकी हमले के बाद भारतीय वायुसेना ने पाकिस्तान पर 9 जगह हमला किया जिसके बारे में भारत सरकार का कहना था कि वह आतंकी ठिकानों पर हमला था। इसके बाद पाकिस्तान की तरफ से भी मामूली जवाबी कार्रवाई की गई, और अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने दोनों देशों में युद्धविराम की घोषणा खुद होकर कर दी। अब इस युद्धविराम के पीछे ट्रंप का क्या दबाव था, इसे लेकर विवाद चल ही रहा है, दूसरी तरफ कश्मीर एक बार फिर अंतरराष्ट्रीय खबरों में आ गया है क्योंकि ट्रंप ने कहा है कि भारत और पाकिस्तान के बीच हजार बरस से जो कश्मीर विवाद चल रहा है, वे उसे निपटाने के लिए मध्यस्थता कर सकते हैं। ट्रंप शायद अपना कार्यकाल पूरा होने के पहले दुनिया में अधिक से अधिक युद्ध बंद करवाने का श्रेय पाकर नोबल शांति पुरस्कार पाने के लिए कोशिश कर रहे हैं। इस बीच भारत ने यह तय किया है कि उसके चुनिंदा सांसद दुनिया भर के देशों में जाएंगे, और वहां भारत-पाकिस्तान तनाव को लेकर भारत का पक्ष रखेंगे। देश के सभी राजनीतिक दलों ने पाकिस्तान पर हमले के पहले ही मोदी सरकार को सर्वसम्मति से समर्थन दिया था कि सरकार जो भी करेगी, सभी पार्टियां साथ रहेंगी, और सभी प्रमुख विपक्षी नेताओं ने यह भी साफ किया था कि यह मौका आपस की राजनीति का नहीं है। दरअसल, केन्द्र पर सत्तारूढ़ गठबंधन की मुखिया भाजपा ने ही यह सोच सामने रखी थी, और किसी भी नेता के छोटे से बयान पर भी उसने यही अपील की थी। यह एक अलग बात है कि पाकिस्तान पर हमले के बाद भाजपा ने एक पार्टी के रूप में औपचारिक रूप से सोशल मीडिया पर यह अभियान छेड़ा कि यह मोदी की सरकार है जिसने ऐसी कार्रवाई की है, और अब देश पर यूपीए की वैसी सरकार का राज नहीं है। देश ने पड़ोसी दुश्मन कहे जाने वाले देश पर हमला किया, और उसे कामयाबी बताते हुए सत्तारूढ़ पार्टी ने विपक्षी गठबंधन पर हमला कर दिया। भाजपा के इन तेवरों की आलोचना भी हुई, लेकिन ट्रंप जिस तरह दस दिन में सात बार, या सात दिन में दस बार भारत-पाकिस्तान पर अपने दबाव के बयान देते रहे, उसकी वजह से भारत की घरेलू राजनीति में उबाल नहीं आ पाया। अब ऐसे उबाल का एक दूसरा मौका आया है, और अब चूंकि युद्धविराम चल रहा है, देश युद्ध की हालत में नहीं है, इसलिए कांग्रेस मोदी सरकार से कुछ असुविधाजनक सवाल पूछ रही है। पाकिस्तान पर कार्रवाई के लिए दस्तखत करके ब्लैंक चेक दे देने का मतलब यह तो था नहीं कि उस हमले को लेकर कांग्रेस बाद में भी कोई सवाल नहीं करेगी। कांग्रेस ने हमले के फैसले पर कुछ नहीं कहा है, लेकिन यह जरूर पूछा है कि भारतीय वायुसेना को इस हमले में क्या नुकसान पहुंचा है, सरकार बताए। यह बात इसलिए भी उठी कि पाकिस्तान ने भारत के पांच लड़ाकू विमान गिराने का दावा किया था, और भारत ने इसे गलत करार दिया था। फौज की तरफ से हुई प्रेस कांफ्रेंस में भी यह बात पूछी गई थी, और फौजी अफसरों ने इसका जवाब देने के बजाय मुद्दे को टाल दिया था, यह कहते हुए कि लड़ाई में नुकसान होता ही है।
बात यहां तक तो ठीक थी, लेकिन अभी एक बिल्कुल ही महत्वहीन बात को लेकर मोदी सरकार और कांग्रेस के बीच फिर ठन गई है। सरकार ने अलग-अलग राजनीतिक दलों से अनुरोध किया था कि वे अपने कुछ सांसदों के नाम दें जिन्हें विदेश भेजे जाने वाले प्रतिनिधि मंडल में रखा जाए, ताकि वे वहां जाकर भारत का पक्ष रख सकें। यह पक्ष भारत सरकार का न होकर, देश का पक्ष रखा जाना है, और बहुत सी पार्टियों ने इसके लिए अपने सांसदों के नाम दिए भी हैं। कांग्रेस का कहना है कि उससे चार सांसदों के नाम मांगे गए थे, और पार्टी ने निर्धारित समय में ऐसे चार नाम संसदीय कार्यमंत्री को दे दिए थे। इनमें भूतपूर्व विदेश राज्यमंत्री रहे हुए, और वर्तमान में कांग्रेस सांसद शशि थरूर का नाम नहीं था, लेकिन भारत सरकार ने सांसदों के प्रतिनिध मंडलों में जो नाम दिए हैं, उनमें कांग्रेस के सुझाए चार नामों में से सिर्फ एक नाम को ही शामिल किया गया है। और पार्टी के दिए बिना मोदी सरकार ने शशि थरूर को सात में से एक प्रतिनिधि मंडल का मुखिया घोषित किया है। कांग्रेस ने इसे मोदी सरकार की गंभीरता की कमी, और राष्ट्रीय मुद्दों पर उनकी घटिया राजनीतिक रणनीति कहा है। लेकिन साथ-साथ कांग्रेस ने कहा है कि मोदी सरकार की तरफ से कांग्रेस के जो चार सांसद या नेता प्रतिनिधि मंडलों में शामिल किए गए हैं, वे जरूर जाएंगे, और अपना योगदान देंगे।
अब यहां दो मुद्दे उठ खड़े होते हैं। पहला तो यह कि जब किसी पार्टी से सरकार ने नाम पूछे हैं, तो अमूमन उन नामों में से ही लोगों को शामिल करना चाहिए था, इससे परे जाकर शशि थरूर और दूसरे कांग्रेस सांसदों या नेताओं को शामिल करना आज की राष्ट्रीय एकता की जरूरत के खिलाफ है। पाकिस्तान के मुद्दे पर जिस तरह देश का विपक्ष सरकार के साथ है, उसमें यह बात अवांछित है कि सत्तारूढ़ भाजपा पहले तो हमले की कामयाबी गिनाते हुए कांग्रेस-यूपीए सरकार को नीचा दिखाए, लेकिन भाजपा ने वह किया। दूसरी बात यह कि सभी पार्टियों को साथ लेकर चलने की आज की जरूरत को अनदेखा करते हुए कांग्रेस की पसंद के खिलाफ नाम उसी पार्टी के दूसरे नेताओं के जोड़ लिए गए, जो कि कांग्रेस के भीतर एक गुटबाजी को बढ़ाने सरीखा काम है। अगर मोदी सरकार शशि थरूर को ही इस प्रतिनिधि मंडल में भेजना चाहती थी, तो कांग्रेस को लिखे पत्र में सीधे-सीधे शशि थरूर की सेवाएं मांगी जानी चाहिए थी। नाम भी मांगना, और फिर उन नामों से बाहर के लोगों को शामिल करना, यह सर्वदलीय एकता की भावना के खिलाफ है।
भारत का पाकिस्तान के साथ युद्ध पूरी तरह शुरू भी नहीं हुआ था कि ट्रंप ने उसे रूकवा दिया है, और इसे अभी युद्धविराम ही माना जा रहा है। ऐसे विराम के बीच मोदी सरकार को चाहिए कि वह उदारता दिखाते हुए राष्ट्रीय हित की राजनीति में देश के भीतर की राजनीतिक गुटबाजी को किनारे रखे। ऐसा न होने पर देश के विपक्षी राजनीतिक दलों के सामने भी यह मजबूरी रहेगी कि वे ऐसी राजनीति का राजनीतिक जवाब दें, और ऐसी घरेलू लड़ाई में दुनिया में भारत जैसी तस्वीर दिखाना चाहता है, वह बन ही नहीं पाएगी। मोदी सरकार की हमले की कामयाबी का जिक्र करते हुए कांग्रेस-यूपीए सरकार को नीचा दिखाना पूरी तरह नाजायज और अवांछित था, और कुछ वैसा ही शशि थरूर, और बाकी कांग्रेस नामों को लेकर है। ये टाली जा सकने वाली गलतियां हैं, या गलत काम हैं। अभी पाकिस्तान के साथ तनाव लंबा चल सकता है, साथ-साथ मोदी सरकार के कार्यकाल के दौरान ही हो सकता है कि कई और किस्म के मुद्दों पर देश में सर्वदलीय एकता की जरूरत पड़ सकती है। और कुछ नहीं तो कम से कम उसे ही ध्यान में रखते हुए सरकार को थोड़ी उदारता, और थोड़ी दरियादिली, किसी और वजह से न सही आत्महित में ही दिखाना चाहिए। देश तो देश ही होता है, लेकिन रणनीतिक फैसले लेने का पहला जिम्मा तो देश की सरकार का होता है। सरकार को अपने हाथ निचले दर्जे की राजनीतिक गुटबाजी में नहीं उलझाना चाहिए, और बड़े बीड़े उठाने के लिए उन हाथों को खाली रखना चाहिए, और विपक्ष के समर्थन, उसकी सहमति का सम्मान भी करना चाहिए।