संपादकीय

छत्तीसगढ़ के सरगुजा में अभी एक गांव में पति-पत्नी में झगड़ा चल रहा था। और आम मामलों की तरह इसमें भी पति पत्नी को पीट रहा था। पड़ोस के एक बुजुर्ग ने बीच-बचाव करके महिला को पिटने से बचाने की कोशिश की। इससे भडक़ा पति डंडा लेकर इस बुजुर्ग पर टूट पड़ा, और उसे दौड़ाकर खेत में पीट-पीटकर मार डाला। इस बुरी तरह किसी इंसान को पीटते हुए इस आदमी को यह अंदाज जरूर रहा होगा कि इससे उसकी मौत भी हो सकती है, और मौत न भी हो, तो भी बुरी तरह पीटने पर मारने वाले को कैद होना तो तय है। छत्तीसगढ़ की ही एक दूसरी घटना कल की ही है, एक पति को पत्नी पर कुछ शक था, और वह हँसिया लेकर उसे मारने दौड़ा, पत्नी जान बचाकर किसी तरह भागी, लेकिन छोटी सी बेटी वहीं बैठी रह गई थी। नतीजा यह निकला कि बाप ने बेटी को ही मार डाला। अब इस मामले में अभी यह साफ नहीं है कि आसपास बीच-बचाव करके उस बच्ची को बचाने वाले कोई थे या नहीं। छत्तीसगढ़ की ही दो और अलग-अलग खबरें हैं, एक जगह पति ने पत्नी को मार डाला, और दूसरी जगह पत्नी की हत्या करके पति ने खुदकुशी कर ली। एक और खबर इसी प्रदेश की कल की ही है कि शादी होकर आई महिला ने पति के सामने अपने प्रेमी की तारीफ की, तो पति ने फांसी लगाकर जान दे दी। परिवार के भीतर होने वाली ऐसी भयानक हिंसा से कई तरह के सवाल उठते हैं, और ऐसे में छत्तीसगढ़ की एक अदालत का किया गया यह इंतजाम अटपटा लगता है कि अलग हो रहे पति-पत्नी अपने ही मकान में दो अलग-अलग मंजिलों पर रहेंगे। क्या सचमुच ही इस तरह का अलगाव कामयाब हो सकता है, या फिर यह आगे-पीछे किसी पारिवारिक हिंसा का सामान बन सकता है?
ऐसे हत्या-आत्महत्या के मामले हर दिन आते हैं, कोई भी सूरज इनके बिना नहीं डूबता। इस दर्जे की पारिवारिक हिंसा इतनी आम कैसे होते जा रही है, यह एक बड़ी सामाजिक समस्या है, और आज समाज और सरकार की किसी व्यवस्था में किसी सामाजिक समस्या पर सोच-विचार का कोई तरीका प्रचलन में नहीं है। जब हत्या-आत्महत्या हो जाती है, तो पुलिस मामले की जांच करके, जिम्मेदार लोगों को गिरफ्तार करके, अदालत में पेश करती है, और फिर उन्हें जेल भेज दिया जाता है। बरसों बाद जाकर उनके मामलों पर फैसले होते हैं, तब तक वे आधी-चौथाई सजा तो सुनवाई में ही काट चुके रहते हैं। इतनी बड़ी हिंसा पर उतारू लोगों की दिमागी हालत ऐसी हो कैसे जाती है, उसके पीछे की वजहें क्या हैं, इस पर सामाजिक अध्ययन होना चाहिए। अब आज आम सरकारी विश्वविद्यालय इस तरह किताबी हो चुके हैं कि उनसे पीली पड़ चुकी किताबों से परे और कुछ पढऩे-सीखने की उम्मीद नहीं की जा सकती। और क्लासरूम से बाहर निकलकर असल जिंदगी पर कोई शोधकार्य करने का काम कम से कम छत्तीसगढ़ जैसे प्रदेशों में शायद ही होता हो। इसलिए सरकार में बैठे लोगों को कुछ अच्छे विश्वविद्यालयों से संपर्क करके अपने राज्य के कई तरह के सामाजिक खतरों का विश्लेषण करवाना चाहिए, और समस्याओं का समाधान भी।
सामाजिक अध्ययन जैसा ज्ञान अगर शोधकर्ताओं और समाज की समझ के साथ मिलकर जमीनी जरूरत को पूरा न कर सके, तो फिर उसे पढऩे से क्या हासिल होना है? आज हम छत्तीसगढ़ जैसे प्रदेश में बहुत सारे ऐसे शोधकार्य देखते हैं जो पीएचडी हासिल करने की नीयत से किए जाते हैं, फिर चाहे उनका समाज के लिए कोई इस्तेमाल न हो। दूसरी तरफ देश के जो सबसे अच्छे विश्वविद्यालय हैं जहां पर समाजशास्त्र या उससे जुड़े हुए दूसरे विषयों पर अच्छे शोधकार्य होते हैं, वे लोग जाकर जमीनी काम करते हैं, और उनके शोधकार्य का महत्व भी रहता है। हम इसके पहले भी छत्तीसगढ़ में कई तरह की सामाजिक दिक्कतों को लेकर ऐसी ही राय दे चुके हैं। नाबालिग बच्चों से बलात्कार पर भी हर मामले का अध्ययन करके कुछ निष्कर्ष निकालने की जरूरत है कि कैसी सामाजिक स्थितियों में ऐसा भयानक जुर्म अधिक होता है, और बच्चों को कैसे बचाया जा सकता है। दूसरी तरफ असफल प्रेम की वजह से होने वाली भयानक हिंसा, या प्रेम के बाद शादी न कर पाने से निराशा में प्रेमीजोड़ों की खुदकुशी, एक-दूसरे को ब्लैकमेल करना, प्रेमत्रिकोणों में होने वाले हर किस्म के कत्ल को अभी सरकार और समाज सिर्फ जुर्म का दर्जा देते हैं। यह एक सामाजिक समस्या है जो कि गंभीर होती जा रही है, ऐसे नजरिए से इन्हें नहीं देखा जा रहा।
हमारा मानना है कि सरकार को अपने रोजमर्रा के काम के अलावा भी कुछ संवेदनशील काम करने चाहिए, और आज यहां हम जिस किस्म के मामलों की चर्चा कर रहे हैं, उन पर जानकार विशेषज्ञों से अध्ययन करवाना चाहिए, और पारिवारिक परामर्शदाताओं को तैयार करके तनावग्रस्त परिवारों में काउंसिलिंग भी करवानी चाहिए। जुर्म को होने के पहले रोका जा सके तो ही समाज का फायदा हो सकता है, वरना सजा दिलवाने से मर चुके लोगों की वापिसी तो होती नहीं है। इन तमाम मामलों पर राज्य सरकार क्या-क्या कर सकती है, कम से कम उस पर देश के अच्छे मनोवैज्ञानिकों, समाजशास्त्रियों, और सामाजिक कार्यकर्ताओं, कुछ जानकार वकीलों का एक सम्मेलन तो करवाया ही जाना चाहिए ताकि हमने जो सोच यहां सामने रखी है, उस पर जानकार लोग अधिक दूर तक की राह दिखा सकें। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)