संपादकीय

पिछले दो बरस में छत्तीसगढ़ में तीन रिकॉर्ड कायम हो गए। पिछले बरस हाईकोर्ट वाले शहर बिलासपुर, हाईकोर्ट के हुक्म के खिलाफ अंधाधुंध डीजे बजाते विसर्जन जुलूस के कानफाड़ू शोर में एक बच्चे की मौत हो गई थी। इस बरस सरगुजा में डीजे के शोर में एक आदमी के दिमाग की नस फट गई, और ब्रेन हेमरेज से वह मर गया। इस पर भी जिस प्रदेश की नींद नहीं खुली है, उसके लिए कल की ताजा खबर है कि भिलाई में एक गणेश पंडाल के अंधाधुंध तेज लाउडस्पीकर से थककर दिल के मरीज एक बुजुर्ग ने उसकी आवाज कम करने को कहा, लेकिन उसे धीमा नहीं किया गया। पुलिस भी आकर कुछ नहीं करवा पाई। और गणेश कमेटी के अध्यक्ष ने आकर एसडीएम की मंजूरी का लेटर दिखाकर धमकी दी। आधी रात बाद गणेश पंडाल से फिर से लाउडस्पीकर का हंगामा शुरू हुआ, और इस वजह से खुदकुशी करने की चिट्ठी लिखकर इस आदमी ने फांसी लगा ली। यह छत्तीसगढ़ की पहली ध्वनि प्रदूषण आत्महत्या है, और इन दिनों जिस तरह भारत की कोई एक औने-पौने रिकॉर्ड दर्ज करने वाली किताब छत्तीसगढ़ में घूम-घूमकर अफसरों की मुसाहिबी के रिकॉर्ड दर्ज कर रही है, उसे प्रदेश की पहली ध्वनि प्रदूषण आत्महत्या भी दर्ज करनी चाहिए। अभी सुबह-सुबह खबर मिली है कि राजनांदगांव के करीब छुरिया में गणेश के लाउडस्पीकर के शोर को लेकर झगड़ा हुआ, और चाकूबाजी में कुछ लोग जख्मी हुए, और यह सब तब हो रहा है जब हाईकोर्ट छत्तीसगढ़ में ध्वनि प्रदूषण को इतनी गंभीरता से ले रहा है कि उसने कहा है कि अब डीजे बजाने पर कोलाहल अधिनियम के तहत मामला दर्ज न करके अदालत की अवमानना का मामला बनाया जाए। अभी तक अफसर दो-चार हजार का जुर्माना करके लोगों का जीना हराम करने का सामान छोड़ देते हैं।
इस मुद्दे पर लिखने का हमारा दिल जरा भी नहीं है क्योंकि हमारे पास दर्जनों बार पहले लिखी जा चुकी बातों के अलावा लिखने को नया कुछ नहीं है। लेकिन फिर भी जब छत्तीसगढ़ के लाउडस्पीकर एक बुजुर्ग इंसान को खुदकुशी करने पर मजबूर कर चुके हैं, तो ऐसे लाउडस्पीकरों के सम्मान में कुछ लिखना तो बनता है। न लिखने का मतलब ऐसे जानलेवा और हत्यारे लाउडस्पीकरों का सम्मान न करना हो जाएगा। और लाशें तो हमेशा ही गिनती की रहेंगी, किसी भी धर्म या जाति, या शादी-ब्याह के लाउडस्पीकरों से जो जीना हराम होता है, उसे लाशों की तरह गिना नहीं जा सकता। और जब तक किसी बात से लोग मर नहीं जाते हैं, उसे गंभीरता से नहीं लिया जाता। छोटे-छोटे बच्चों के सुनने की ताकत घट जाए, बिस्तर पर पड़े हुए बूढ़े लेटे-लेटे मर जाएं, तो उन्हें कौन लाउडस्पीकरों से जोडक़र देखेंगे। ऐसा लगता है कि एक वक्त का कृषि प्रधान देश भारत अब धर्मप्रधान हो गया है, और जब धर्म का कोई कर्म नहीं बचता, तो थोड़े वक्त के लिए लोग खेती कर लेते हैं, या बेरोजगार न हुए तो कोई और काम कर लेते हैं। धर्म जिसे कि निजी आस्था की बात रहना था, वह अब एक आक्रामक सार्वजनिक हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। और सरकारें इस आक्रामक जीवनशैली का सम्मान कर रही हैं। यह सिलसिला जाएगा कहां तक?
अब जब हाईकोर्ट कह रहा है कि कोलाहल अधिनियम की जगह अदालत की अवमानना दर्ज की जाए, और पूरे प्रदेश में अफसर हर गली-मोहल्ले में ऐसी अवमानना का साथ दे रहे हैं, तो न्यायपालिका का हाल पेनिसिलिन सरीखा हो गया है जो कि दशकों पहले बेअसर साबित होकर चलन से बाहर हो चुकी इतिहास की दवाई है। हमने पहले भी लिखा है कि जिस तरह संपत्ति बच्चों के नाम कर चुके बूढ़े मां-बाप की बात घर में अनसुनी की जाती है, कुछ वैसी ही हालत छत्तीसगढ़ में हाईकोर्ट की है। बरसों हो गए हाईकोर्ट लाउडस्पीकरों की हैवानियत पर हैरान है, परेशान है, और सरकार के पीछे उसी तरह लगा हुआ है जिस तरह भिलाई का वह बुजुर्ग अपने मोहल्ले के गणेश पंडाल के पीछे लगा था, और आखिर में कल उसे खुदकुशी करनी पड़ी क्योंकि पुलिस की कोई भी ताकत शोरगुल की इस गुंडागर्दी को रोक नहीं पाई। थाने तक जाने, और पुलिस के आने के बाद भी जहां गुंडागर्दी जारी है, वहां हाईकोर्ट अवमानना के जुर्म में गणेश पंडाल के आयोजकों को जेल भेजेगा, या इस बुजुर्ग की खुदकुशी में बराबरी की जिम्मेदार पुलिस को भी साथ-साथ उसी कोठरी में रखेगा? ऐसा लगता है कि हाईकोर्ट को अपने पेनिसिलिन बन जाने की हकीकत को मान लेना चाहिए, और किसी नए एंटीबॉयोटिक के बारे में नए मेडिकल-लीगल जर्नल में कुछ पढऩा चाहिए। छत्तीसगढ़ सरीखे राज्य में सार्वजनिक जीवन की अराजकता सिर चढक़र बोल रही है, अमन-पसंद लोगों का जीना हराम है, और शासन-प्रशासन मानो इस खौफ में हैं कि धर्म के नाम पर किए जा रहे ऐसे हिंसक शोरगुल को रोकने से खुद ईश्वर ही खफा हो जाएंगे। जबकि हमारा मानना यह है कि ऐसे कानफाड़ू शोरगुल को बर्दाश्त करना ईश्वर के बस में भी नहीं होगा, और वह चाहे कहीं भी चले जाए, ऐसे लाउडस्पीकरों की पहुंच से तो बहुत दूर रहेगा।
अभी हम ठीक से याद नहीं कर पा रहे हैं कि धार्मिक और दीगर किस्म के नियमित, संगठित, हिंसक, और अराजक लाउडस्पीकरों के खिलाफ छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने अधिक बार कहा है, या हमने उससे अधिक बार इसी जगह संपादकीय लिखे हैं! लेकिन ऐसा लगता है कि हम दोनों के बीच मुकाबला कड़ा है, और हम दोनों को यह आदत हो गई है कि सरकार और धार्मिक संगठन हमारी बात को कूड़े की टोकरी में डालते रहेंगे, और हम इसके खिलाफ बोलते और लिखते रहेंगे। परिवार के गैरकमाऊ बूढ़े के बड़बड़ाने की तरह हम यह काम किए जा रहे हैं, और सत्ता और समाज मदमस्त जानवर की तरह सब कुछ अनसुना करके लोगों को खुदकुशी का सामान जुटाकर दे रहे हैं।
ऐसा लगता है कि इस देश में डॉक्टरों की राय, वैज्ञानिकों की राय की अब कोई जरूरत नहीं रह गई है। लोगों के कान बचे रहें, यह भी जरूरी नहीं है। लोग सुनने लायक नहीं रह जाएंगे, तो इशारों की जुबान बोलने वाले लोगों को कुछ काम मिल जाएगा। या फिर मोबाइल फोन के साथ ऐसे ईयरपीस आने लगेंगे जो तकरीबन खत्म हो चुके कानों को भी कुछ तो सुना ही सकेंगे। जिस तरह जमीन के नीचे पानी की सतह सैकड़ों फीट नीचे गिरती जा रही है, और अधिक ताकतवर पंप लगाकर पानी खींचना फिर भी जारी है, उसी तरह और अधिक ताकतवर ईयरफोन लगाकर लोगों के खराब कानों को भी कामचलाऊ बना दिया जाएगा, और इसके लिए सरकारी स्वास्थ्य बीमा में अलग से इंतजाम कर दिया जाएगा। कानों की परवाह करते हुए धार्मिक शोरगुल की हिंसा को रोकना ठीक नहीं है, यह आस्था का मामला है। इस देश-प्रदेश में डॉक्टर-वैज्ञानिक, और जज की भी जरूरत क्या है? जज गणेश पूजा का आयोजन कर लें, वही उनका सबसे असरदार काम हो सकता है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)