संपादकीय

कर्नाटक हाईकोर्ट ने अभी एक ऐसी महिला पर नजर रखने के लिए पूरे राज्य की पुलिस को कहा है जिसने पिछले दस बरस में दस अलग-अलग मर्दों के खिलाफ मामले दर्ज करवाए जिनमें पांच पर बलात्कार, दो पर क्रूरता, और तीन पर देह-शोषण के आरोप लगाए। हाईकोर्ट ने इनमें से एक मामले को खारिज किया है, और इस महिला को सीरियल-शिकायतकर्ता करार दिया है। हाईकोर्ट जज ने लिखा है कि यह महिला आगे कानूनी प्रक्रिया का बेजा इस्तेमाल न कर सके इसके लिए पुलिस को सावधान रहना चाहिए। अभी जो मामला हाईकोर्ट ने खारिज किया है वह 498ए का है जो कि पति या ससुराल के लोगों द्वारा किसी महिला पर क्रूरता करने पर लगने वाली धारा है। अदालत ने पाया कि इस महिला की दसों शिकायतें एक ही किस्म से किसी मर्द या उसके परिवार के लोगों को परेशान करने के लिए लिखाई गई दिखती हैं। खारिज किए गए मामले में अदालत ने यह पाया कि जिसके खिलाफ शिकायत लिखाई गई थी उसके परिवार के बाकी सदस्यों को इसमें जबर्दस्ती घसीटा गया है। यह महिला बस रिपोर्ट लिखा देती है, और उसके बाद अदालती बुलावे पर भी नहीं आती। नतीजा यह होता है कि आरोपियों को हिरासत में पड़े-पड़े लंबा वक्त हो जाता है, और जमानत नहीं मिलती।
अब हम इससे परे सुप्रीम कोर्ट चलते हैं जहां पर तीन जजों की एक बेंच ने शादीशुदा जिंदगी के एक मामले की सुनवाई करते हुए अपनी तकलीफ जाहिर की है कि देश में आज बहुत से मामलों में महिलाएं उन कानूनों का बेजा इस्तेमाल करके पति और ससुराल के लोगों को फंसा रही हैं जिन्हें कि महिलाओं को विशेष सुरक्षा देने के लिए बनाया गया था। अदालत ने कहा कि आईपीसी की धारा 498ए के साथ-साथ घरेलू हिंसा के कुछ दूसरे कानूनों का सबसे ज्यादा बेजा इस्तेमाल हो रहा है। पिछले महीने ही एक मामले में बाम्बे हाईकोर्ट ने 498ए के दुरूपयोग पर फिक्र जाहिर की थी, और कहा था कि परिवार में दादा-दादी, या बिस्तर पर पड़े लाचार लोगों को भी इन कानूनों में फंसाया जा रहा है। अदालत ने यह हैरानी जाहिर की कि शादी के बाद किसी महिला को ससुराल के जुल्म से बचाने के लिए जो कानून बना उसका इस्तेमाल करके बहुत सी महिलाएं ससुराल के लोगों पर ही जुल्म ढाने लगी हैं।
इन दो अलग-अलग मामलों को एक ही दिन में अपने सामने देखने के बाद हमें यह भी याद पड़ रहा है कि किस तरह बलात्कार के मामलों में महिला की शिकायत को अदालत अनिवार्य रूप से सच और सही मानकर कार्रवाई शुरू करता है, और बहुत से ऐसे मामलों में लगातार गिरफ्तारियां हो रही हैं जिनमें लंबी पहचान, लंबे संबंध, और लंबे देह-संबंधों के बाद शादी न होने या करने पर कोई लडक़ी या महिला रिपोर्ट लिखाती हैं, और उसमें आनन-फानन गिरफ्तारी हो जाती है। बलात्कार के कानून को लेकर भी बहुत से लोगों का यह मानना है कि सहमति के प्रेम-संबंधों के बाद शादी न होने पर उसे बलात्कार करार देना नाजायज है, और अब देश की कई अदालतें भी इस तरह सोचने लगी हैं। हमने भी कई बार इस बात को लिखा है कि बालिग लड़कियों और महिलाओं को किसी से देह-संबंध बनाते हुए हमेशा यह याद रखना चाहिए कि शादी के वायदे हर बार पूरे नहीं हो सकते, और जिंदगी में कोई भी वायदा ऐसा नहीं होता जो हमेशा पूरा हो सके। इसलिए पुलिस रिपोर्ट और अदालत की नौबत आने के पहले महिलाओं को यह मानकर चलना चाहिए कि देह-संबंध अनिवार्य रूप से शादी में तब्दील नहीं हो जाते।
जब कभी किसी कमजोर तबके को हिफाजत देने के लिए अलग से कड़े कानून बनाए जाते हैं, तो उनके साथ ऐसे खतरे जुड़े ही रहते हैं। ऐसे कानून महिलाओं को बचाने के लिए, दलित और आदिवासी तबकों को बचाने के लिए, और नाबालिग आरोपियों को खास रियायत देने के लिए बनाए गए हैं, और इन सबका भरपूर बेजा इस्तेमाल होता है। ऐसे नाबालिग जो कि रात-दिन नशे के आदी रहते हैं, हर तरह के जुर्म में शामिल रहते हैं, कहीं कत्ल करते हैं, तो कहीं सामूहिक बलात्कार करते हैं, और उसके बाद पुलिस से लेकर अदालत तक नाबालिग होने की रियायत पाते हैं, और जेल की जगह सुधारगृह में कुछ वक्त गुजारकर निकल जाते हैं। यह सिलसिला भी आज देश में सुप्रीम कोर्ट में भी बहस का सामान बना हुआ है कि नाबालिग आरोपियों को भयानक हिंसक अपराधों के मामलों में शामिल रहने पर क्या बालिग की तरह सजा दी जाए? इस पर समाज के अलग-अलग जानकार और विशेषज्ञ तबकों में गंभीर मतभेद है, और हम भी यहां पर अपनी कोई राय नहीं रखते हैं।
अब पल भर के लिए हम कर्नाटक की उस महिला के मामले पर लौटते हैं जिसे हाईकोर्ट ने सीरियल-शिकायतकर्ता करार दिया है। हाईकोर्ट इस नतीजे पर दस अलग-अलग लोगों के खिलाफ उसकी लिखाई गई रिपोर्ट का विश्लेषण करने के बाद यह बोल पा रहा है। लेकिन पिछले दस-ग्यारह बरस में जो लोग अकेले या परिवार सहित गिरफ्तार हुए, और जेल में फंसे रहे, उन पर क्या गुजरी? उसके शुरू के दो-तीन मामलों में तो किसी अदालत को ऐसी सिलसिलेवार और योजनाबद्ध साजिश का अंदाज भी नहीं लगा होगा। अभी हमें ठीक से नहीं मालूम है कि शिकायत झूठी निकलने पर ऐसी शिकायतकर्ता पर कार्रवाई कितनी होती है, और कितने मामलों में नहीं होती। लेकिन न्याय तो यही होगा कि अगर कहीं झूठी शिकायत की साजिश साबित होती है, तो उसकी सजा मिलनी चाहिए। देश का जो कानून दूसरों के अधिकारों में कटौती करते हुए भी, दलित-आदिवासी, महिला-नाबालिग जैसे तबकों को खास रियायत और खास हिफाजत देता है, उसके बेजा इस्तेमाल को रोकने के लिए भी पुख्ता इंतजाम रहना चाहिए, वरना बेकसूरों की जिंदगी खराब करना इन कानूनों के साथ बड़ा आसान काम है।