संपादकीय

गणेशोत्सव से त्यौहारों का मौसम शुरू हो रहा है, और आगे जाकर कुछ और देवी-देवताओं की प्रतिमा स्थापना का वक्त आएगा, और हर प्रतिमा की आवाजाही पर सडक़ों पर भयानक अराजकता का नजारा देखने मिलता है। देश के बहुत से हाईकोर्ट, सुप्रीम कोर्ट कई बार ऐसे मौकों पर सडक़ों पर धार्मिक जुलूसों के खिलाफ और लाउडस्पीकरों के जानलेवा शोर के खिलाफ बहुत सी चेतावनियां सरकारों को, और अफसरों को दे चुके हैं, लेकिन उनका कोई असर कम से कम हमें छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में तो देखने नहीं मिलता। यहां का हाईकोर्ट बहुत सक्रिय होकर प्रदेश के सबसे बड़े अफसरों से बड़े-बड़े हलफनामे लेते रहा है, और जिलों के अफसरों के खिलाफ बहुत कड़ी टिप्पणियां करते रहा है, लेकिन ऐसा लगता है कि राजनीतिक ताकतें समाज के सबसे उन्मादी, धार्मिक तबकों पर काबू करना चाहती ही नहीं है। यह बात सिर्फ सत्ता पर लागू नहीं होती है, विपक्षी राजनीतिक दलों पर भी उतनी ही लागू होती हैं, और कई बार तो यह लगता है कि अपने बड़े कड़े फैसलों और आदेशों की ऐसी बुरी अनदेखी देखकर हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और दूसरे जज रात में सोते कैसे होंगे?
इस बात को समझने की जरूरत है कि जब अराजकता बढ़ती है, तो वह जरूरी नहीं है कि सरकार या सत्तारूढ़ पार्टी को पसंद आने वाले जुर्म पर जाकर रूक जाए। वह जंगल की आग की तरह बढ़ती है, और जिस तरह कुछ जंगली जानवरों के बारे में कहा जाता है कि उनके मुंह इंसानी लहू लगने के बाद वे किसी भी इंसान को मार सकते हैं, कुछ वैसा ही किसी भी धर्म के उन्माद को लेकर होता है। आज हालत यह है कि अफगानिस्तान में तालिबान किसी दूसरे मजहब के लोगों को नहीं मार रहे, वे सिर्फ अपनी औरतों और लड़कियों को कुचल रहे हैं। उनका धर्म आत्मघाती हो गया है, न वे उसका कोई विस्तार कर पा रहे, न ही अपने धर्म का कोई सम्मान बढ़ा पा रहे, बल्कि अपनी बिरादरी की लड़कियों और महिलाओं की क्षमताओं को कुचलकर वे अपने ही समाज को, अपने ही धर्म के लोगों को एक गहरे गड्ढे में गिराते जा रहे हैं। धर्म को लेकर जब धर्मान्धता, कट्टरता, और बढ़ते-बढ़ते साम्प्रदायिकता जब हावी होती हैं, तो फिर वे जरूरी नहीं है कि दूसरे धर्म के लोगों की जान लेती हों। एक बार हिंसा की उन्मादी ताकत का लहू मुंह लग जाए, तो लोग फिर कब परायों को मारते-मारते अपनों को मारने लगते हैं, यह पता ही नहीं लगता। अभी देश की राजधानी दिल्ली से लगे हुए हरियाणा के फरीदाबाद की एक रिपोर्ट हमारे सामने है। 23-24 अगस्त की मध्य रात्रि को 19 साल के एक नौजवान, आर्यन मिश्रा की हत्या कर दी गई थी, और पुलिस ने इसमें पांच स्वघोषित गौरक्षकों को गिरफ्तार किया है। बेटे का अंतिम संस्कार करके जब सियानंद मिश्रा लौटकर पुलिस थाने पहुंचे, तो उनके सामने लाए गए अनिल कौशिक ने माफी मांगते हुए कहा कि उसने उनके बेटे को गौ-तस्कर समझकर गोली चलाई थी जो उनके बेटे को लगी। उसने माफी मांगते हुए कहा कि उसने मुसलमान समझकर गोली मारी थी, मुसलमान मारा जाता तो कोई गम नहीं होता, लेकिन उससे ब्राम्हण मारा गया है, इसलिए अब फांसी भी हो जाए, तो कोई गम नहीं रहेगा।
पिता के मुताबिक उनका मारा गया बेटा 12वीं की तैयारी कर रहा था, और हाल में उसने कई हिन्दू धर्मस्थलों की तीर्थयात्रा भी की थी। उनके मुताबिक वह पिछले दो साल से डाक कांवर भी लेकर जाता था। बेटे को खोने वाले सिर मुंडाए पिता ने कहा कि क्या हिन्दू-मुसलमान भाई नहीं है, क्या मुसलमान का खून काला है? उनका भी लाल है, फिर इस दुनिया में ये भेदभाव क्यों है? मृत लडक़े की मां उमा मिश्रा ने सवाल किया कि खुद को गौरक्षक कहने वाले इन लोगों को गोली चलाने का हक किसने दिया? अगर कोई गाय लेकर भी जा रहा है तो ये गोली कैसे मार सकते हैं?
जिस अनिल कौशिक ने हत्यारी गोली चलाना कुबूल किया है, उसकी गाय से लिपटी हुई तस्वीरें उसके फेसबुक पेज पर हैं, और वह गौसेवक होने का दावा करता है। हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हम कानून को हाथ में लेने वालों, हिंसा करने वालों, और नफरत फैलाने वालों को लेकर सरकार और समाज को लगातार आगाह करते हैं कि साम्प्रदायिक हिंसा को बढ़ावा देकर, उसे बचाकर समाज ऐसे हत्यारे तैयार कर रहा है जो आगे-पीछे दूसरे धर्म और दूसरी जातियों के बाद अपने धर्म और अपनी जाति के लोगों को भी मारेंगे। हरियाणा के इस मामले में ठीक यही हुआ है, और कई दूसरी जगहों पर भी ऐसा हो रहा है। जिनके सिर पर हत्या का उन्माद इस हद तक हावी रहता है कि वे गाय बचाने के नाम पर बिना किसी गाय की मौजूदगी के मुस्लिमों को मार डालना जायज कह रहे हैं, तो उनसे हिन्दू सुरक्षित रह जाएंगे, यह उम्मीद करना परले दर्जे की बेवकूफी होगी। यह सिलसिला देश को एक बहुत खतरनाक मंजिल की तरफ ले जा रहा है। आगे चलकर अगर दूसरे तबकों के लोग भी ऐसी हिंसा के जवाब में हिंसा करने लगेंगे, तो क्या यह देश सुरक्षित रह सकेगा? पूरी राजनीतिक बदनीयत से कुछ बड़े-बड़े नेता हाल में यह कहते सुनाई पड़े हैं कि अगले 25-30 बरस में यह देश गृहयुद्ध देखेगा। हमारा ख्याल है कि ऐसे नेताओं को देश की आबादी के उस वक्त के अनुपात का अंदाज शायद न हो, लेकिन अपनी खुद की लगातार बढ़ाई जा रही साम्प्रदायिक नफरत, और साम्प्रदायिक हिंसा का अंदाज शायद उन्हें जरूर होगा, इसीलिए वे ऐसी भविष्यवाणी कर पा रहे हैं।
हमने बात शुरू की थी धार्मिक त्यौहारों पर सडक़ों को घेरने की, ट्रैफिक बर्बाद करने की, और लाउडस्पीकरों को जानलेवा स्तर तक तेज बजाने की। यह बात समझने की जरूरत है कि जिस धर्म के त्यौहार होते हैं, उनके अधिकतर आयोजन उन्हीं धर्मों की बहुतायत वाले इलाकों में होते हैं, और जब हिन्दू इलाकों में दस-दस दिन तक गणेश के लाउडस्पीकर, और नौ-नौ दिनों तक नवरात्रि के लाउडस्पीकर जानलेवा शोरगुल करते हैं, तो उसका सबसे बड़ा नुकसान हिन्दू-बहुल आबादी पर ही होता है। मौतें तो अधिक नहीं होती हैं, लेकिन लोगों का सुख-चैन छिन जाता है, उनकी सेहत बर्बाद होती है, पढ़ाई और कामकाज बर्बाद होते हैं। और ऐसे शोरगुल से किसी को मिलता क्या है? कौन सा ऐसा धर्म है जो अपनी पैदाइश के वक्त लाउडस्पीकरों को देख रहा था? ये लाउडस्पीकर तो 1876 में एलेक्जेंडर ग्राह्म बेल ने टेलीफोन बनाते-बनाते बनाए थे, और इन्हें इस्तेमाल के लायक बनाने में कुछ दशक और लगे थे। लेकिन वह वक्त कम आबादी का था, कम प्रदूषण का था, और लाउडस्पीकर भी गिने-चुने रहते थे। आज जब हर इंसान की जिंदगी मोबाइल फोन से जुड़ी हुई है, लोगों को अधिक पढऩा-लिखना पड़ता है, अपनी जरूरत की खबरें देखनी-पढऩी पड़ती हैं, वीडियो कांफ्रेंस होती है, तब धर्म लाउडस्पीकरों की हिंसा का इस्तेमाल करके किसी का भला नहीं करता।
हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट को इस बारे में सोचना चाहिए कि सडक़ों से, और धार्मिक आयोजनों से लाउडस्पीकरों को पूरी तरह खत्म क्यों नहीं किया जाए? ऐसे छोटे-छोटे स्पीकर बनाने चाहिए जिनसे दस फीट से अधिक दूर आवाज जाए ही नहीं, और तमाम बड़े स्पीकरों, और डीजे को पूरी तरह खत्म कर देना चाहिए। लाउडस्पीकर अब लोकतंत्र का प्रतीक नहीं रह गए हैं, अब वे धर्मान्ध और साम्प्रदायिक हिंसा का एक धारदार हथियार हैं। हम उम्मीद करते हैं कि न सिर्फ छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट, बल्कि देश की तमाम बड़ी अदालतें इस हिंसा को मिलने वाली राजनीतिक मंजूरी का सिलसिला खत्म करें, और अधिकतम कड़ी कार्रवाई करके बेबस और बेसहारा जनता को इस जुल्म से बचाएं।