संपादकीय

देश में जगह-जगह बीच-बीच में ऐसी खबरें आती हैं कि किसी नाबालिग लडक़ी, या बलात्कार की किसी बालिग शिकार को भी गर्भपात करवाने की जरूरत लगती हो, लेकिन गर्भ में भ्रूण की उम्र अधिक हो जाने से उसे भी जीवित माना जाता है, और इतने लंबे गर्भ के बाद गर्भपात को लडक़ी या महिला के लिए जान का खतरा भी मान लिया जाता है। ऐसे कई मामले अदालत, अस्पताल, और संबंधित लडक़ी या महिला के परिवार के बीच घूमते रहते हैं, और बलात्कार की शिकार को अनचाही संतान को जन्म देना होता है। ऐसा जन्म कोई छोटी जिम्मेदारी नहीं रहता है, वह उस बच्चे की पूरी परवरिश और उसके बालिग हो जाने के बाद तक की जिम्मेदारी रहता है, और बलात्कार की शिकार अमूमन गरीब परिवार की लडक़ी की क्षमता से परे के भी ऐसे मामले रहते हैं। छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने अभी एक नाबालिग रेप-पीडि़ता का ऐसा ही मामला तय किया गया है जिसमें अदालत ने गर्भपात की इजाजत नहीं दी, और कहा कि बच्चे के जन्म के बाद परिवार चाहे तो सरकार को उसे गोद दे सकता है, और सरकार सभी किस्म के इंतजाम करेगी।
भारत में बलात्कार की शिकार लडक़ी या महिला के लिए वैसे भी सरकार की तरफ से एक सहायता राशि का कानूनी इंतजाम है, और कुछ वक्त की देर से सही, वह रकम उन्हें मिलती है। लेकिन ऐसी कोई भी रकम एक अनचाही संतान की गुजर-बसर और उसकी जिंदगी के लिए काफी नहीं हो सकती। इसके कुछ अलग-अलग समाधान हो सकते हैं। एक तो समाधान छत्तीसगढ़ के ही एक दूसरे इलाके से आज ही सामने आया है, वहां पर सरकारी कानूनों की औपचारिकता पूरी करते हुए अमरीका से आए एक परिवार ने एक बच्चे को गोद लिया है, और उसे अच्छी जिंदगी मुहैया कराने के वायदे के साथ वे यहां से लौट रहे हैं। ऐसा समाधान नालियों और नालों में फेंके गए नवजात बच्चों की जिंदगी भी बचा सकता है, और सरकार की संस्थाएं अलग-अलग शहरों में ऐसे केन्द्र चला सकती हैं जहां पर लोग लगाए गए झूले पर बच्चे को छोडक़र और घंटी बजाकर चले जाएं ताकि वे सुरक्षित तरीके से भीतर ले जाए जा सकें। ऐसे केन्द्रों तक बच्चों को पहुंचाने वालों से उनकी शिनाख्त के सवाल भी नहीं होने चाहिए क्योंकि भारत में बच्चे गोद लेने वालों की इतनी लंबी कतार है कि बिना संतान वाले जोड़ों को बरसों तक इंतजार करना पड़ता है। और अब तो नियम कुछ अधिक सरल कर दिए गए हैं जिनमें अकेली महिलाएं भी बच्चे गोद ले सकती हैं, और इससे भी बच्चे पाने के पात्र लोगों की संख्या एकदम से बढ़ सकती है। इसलिए इतने दिलचस्प लोगों के रहते हुए किसी भी तरह से एक नवजात की जिंदगी को खत्म करना ठीक नहीं है। अब बलात्कार की शिकार लडक़ी तो एक शारीरिक और मानसिक यातना से गुजरी हुई रहती ही है, और ऐसे में उसकी संतान बिना किसी पहचान के सरकार अगर किसी सक्षम परिवार को गोद दे सके, तो इससे सभी पक्षों को मदद मिलती है।
एक दूसरा इलाज हम बरसों से सुझाते आ रहे हैं। हमारा मानना है कि बलात्कारी को सिर्फ कैद मिल जाने से इंसाफ नहीं होता। जब बलात्कार पूरी तरह से साबित हो जाता है तो बलात्कारी की संपत्ति का एक हिस्सा उसके हिंसक सेक्स-हमले की शिकार लडक़ी या महिला को मिलना चाहिए। यह हिस्सा बलात्कारी की अपनी संतानों, या उसकी पत्नी के हिस्से आने वाली संपत्ति जितना होना चाहिए। अगर बलात्कारी शादीशुदा नहीं है, तो उसे अपने परिवार से मिलने वाली संपत्ति में से एक हिस्सा अदालत में जमा करवाने की शर्त रहनी चाहिए। यह तो बलात्कार की शिकार लडक़ी का मुआवजा हुआ, अगर इससे कोई संतान होती है, तो बलात्कारी पर यह कानूनी जिम्मेदारी भी आनी चाहिए कि वह अपने खुद के हो चुके, या होने वाले बच्चों के कानूनी हक के बराबर का हक उस संतान के लिए दे। यह होने पर बलात्कारी की संपत्ति के एक हिस्से का इस्तेमाल कानूनी जरिए से बलात्कार की शिकार के लिए हो सकेगा, वरना सिर्फ कैद तो कोई सजा होती नहीं। हम इस बारे में इसी कॉलम में पहले भी कई बार कह चुके हैं कि बलात्कार की सजा के कानून में संपत्ति के बंटवारे का प्रावधान जोड़ा जाना चाहिए। जब तक बलात्कारी को आर्थिक नुकसान नहीं पहुंचेगा, और उसकी हिंसा के शिकार को यह मिल नहीं सकेगा, तब तक इंसाफ पूरा नहीं हो सकेगा। ऐसा ही प्रावधान हत्या और कुछ दूसरे अपराधों में भी जोड़ा जाना चाहिए, ताकि अगर कातिल सक्षम रहे, तो मृतक परिवार को उसकी संपत्ति का एक हिस्सा मिल सके। भारत के कानून में यह मानवीय सोच जोडऩी होगी कि कैद से मुजरिम को तो सजा मिल जाती है, जुर्म के शिकार परिवार को कोई मुआवजा नहीं मिलता।
एक वक्त अनचाहे बच्चों को छोडऩे के लिए कुछ तरह के आश्रम चलते थे, और मदर टेरेसा की संस्था का भी एक ऐसा आश्रम देश के कई शहरों में था। लेकिन अभी सीसीटीवी कैमरों की निगरानी से लोग सहमे रहते हैं, और सरकार को कानून बनाकर यह गारंटी देनी चाहिए कि अनचाहे बच्चों को किसी सुरक्षित केन्द्र तक पहुंचाने वाले लोगों की न तो किसी तरह की रिकॉर्डिंग की जाए, न शिनाख्त पूछी जाएगी, और न ही इसे किसी तरह की कानूनी कार्रवाई में लिया जाएगा। इसे पूरी तरह एक नवजात जिंदगी को बचाने का काम माना जाएगा, और इस पर सजा नहीं, किसी पुरस्कार का प्रावधान हो सकता है। नवजात बच्चों की मां भी अगर उन्हें ऐसे केन्द्र पर ले जाकर छोड़े, तो उसके लिए भी एक सहायता राशि का प्रावधान करना चाहिए जो कि कानूनी रूप से शिनाख्त छुपाए रखने वाला हो, जैसे कि बलात्कार की शिकार महिलाओं के नाम उजागर नहीं हो सकते, कानून तोडऩे वाले नाबालिगों के नाम उजागर नहीं हो सकते। देश की नवजात संतानें नालों और घूरों पर जिंदा या मुर्दा मिलें, यह देश के लिए बड़ी शर्मिंदगी की बात है। दूसरी तरफ देश में बच्चे चाहने वाले लोगों की प्रतीक्षा सूची बहुत ही लंबी है। पिछले बरस के कुछ आंकड़ों के मुताबिक भारत में हर बरस साढ़े 3-4 हजार बच्चे गोद जाने के लिए उपलब्ध रहते हैं, और करीब 30 हजार दंपत्तियां गोद लेने की कतार में हैं। इस तरह बच्चा पाने का औसत इंतजार तीन साल से ज्यादा का है। इस पर पिछले बरस देश के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई.चन्द्रचूड़ ने सेंट्रल एडॉप्शन रिसोर्स अथॉरिटी से पूछा था कि वह बच्चों के गोद लेने में इतने अड़ंगे क्यों लगाती है। अदालत इस बात पर हैरान थी कि इस कानूनी संस्था ने पूरी दत्तक प्रक्रिया को नियमों में उलझाकर रखा है, और दूसरी तरफ अनाथाश्रमों में बच्चे बिना परिवारों के पड़े हैं।
बलात्कार से गर्भवती होने, बच्चे पैदा होने की समस्या के कई पहलुओं में बच्चों को गोद देने की समस्या, या उसे समाधान कहें, भी शामिल है इसलिए हमने इस पूरे मामले से जुड़े हुए तमाम पहलुओं पर यहां बात की है। देखें अदालतें, और सरकारें, संसद, और जनता क्या करते हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)