संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : नैतिकता के पैमानों पर पीएम को हटाना, हटना
16-Aug-2024 6:02 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय :  नैतिकता के पैमानों पर  पीएम को हटाना, हटना

अलग-अलग देशों में लोकतंत्र के कई किस्म के संस्करण काम करते हैं। थाईलैंड में अभी वहां की संवैधानिक अदालत ने मौजूदा प्रधानमंत्री को इस आधार पर हटा दिया कि उन्होंने अपनी पसंद के एक नेता को उसके पुराने सजा भुगत चुके जुर्म को जानते हुए भी उसे मंत्री बनाया था, जो कि नैतिकता के पैमानों के खिलाफ था। संवैधानिक पीठ के इस फैसले के बाद प्रधानमंत्री को तुरंत ही हट जाना पड़ा, और वहां के एक भूतपूर्व नेता और अरबपति की 37 बरस की बेटी थाईलैंड के इतिहास की सबसे कम उम्र की प्रधानमंत्री बन गई है। इस्तीफा देने वाले पीएम श्रीथा टाविसिन की ही पार्टी से यह नई प्रधानमंत्री पाएटोंगटार्न चिनावाट पीएम बनी है, और उसके परिवार के चार सदस्य पहले भी थाईलैंड के पीएम रह चुके हैं। थाईलैंड में तख्तापलट या संवैधानिक फैसलों की वजह से प्रधानमंत्री को पद छोडऩे का पुराना सिलसिला रहा है। ऐसा माना जाता है कि वहां की अदालतें, खासकर संवैधानिक अदालत, नाममात्र के लिए स्वतंत्र जांच एजेंसियां, और चुनाव आयोग जैसी संस्थाएं देश के शाही परिवार के असर में रहती हैं, और उनका इस्तेमाल राजनीतिक विरोधियों को खत्म करने के लिए किया जाता है। इसलिए थाईलैंड की इस फैसले को सीधे-सीधे नैतिकता की जीत करार देना ठीक नहीं होगा। इस घटना के पीछे जिस मंत्री के नाम का विवाद है, उसे एक जज को एक मोटी रकम सब्जी के झोले में डालकर उस वक्त के प्रधानमंत्री को एक मामले से बचाने के लिए देने का दर्ज जुर्म था, और वह छह महीने की सजा भी काट चुका था। इस पृष्ठभूमि को जानते हुए भी प्रधानमंत्री ने उसे मंत्री बनाय था। यह एक अलग बात है कि बवाल ज्यादा बढऩे पर उसे मंत्री पद से इस्तीफा दे देना पड़ा था, लेकिन अभी का अदालती फैसला इस आधार पर है कि पीएम ने ऐसे व्यक्ति को मंत्री बनाकर एक अनैतिक काम किया था।

हम थाईलैंड के लोकतंत्र की बारीकियों में गए बिना सिर्फ इतने हिस्से पर सोचना चाहते हैं कि एक बुरे व्यक्ति को मंत्री बनाकर नैतिकता के पैमानों के खिलाफ काम करना किस तरह किसी मुखिया, अमरीका जैसे देश में राष्ट्रपति, या ब्रिटेन और भारत सरीखे देश में प्रधानमंत्री के खिलाफ अपात्रता का मामला बन सकता है! यह घटना नैतिकता के पैमानों से ही समझी जा सकती है कि लोकतंत्र में किसी निर्वाचित मुखिया को मामूली मुजरिम की तरह कानूनी कार्रवाई से बचने की हरकत नहीं सुहाती। नैतिकता के पैमाने भी कानून की जटिलताओं के बीच जिंदा रहने चाहिए। हिन्दुस्तान में ही एक वक्त एक रेल हादसे के बाद रेलमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने इस्तीफे की पेशकश की थी, जिसे नेहरू ने नामंजूर कर दिया था। लेकिन तीन महीने बाद एक और ट्रेन एक्सीडेंट हुआ, शास्त्रीजी ने फिर इस्तीफा दिया, और नेहरू ने उसे मंजूर कर लिया था। इसके बाद एक वक्त नीतीश कुमार ने भी दो ट्रेनों की टक्कर में 285 मौतों के बाद नैतिक आधार पर इस्तीफा दिया था। दो रेल दुर्घटनाओं के बाद ममता बैनर्जी ने भी रेलमंत्री पद से इस्तीफा दिया था। लेकिन धीरे-धीरे नैतिकता की बात खत्म होती चली गई। अब तो हालत यह है कि मणिपुर ने अपने इतिहास की सबसे खराब हिंसा देखी, पूरी दुनिया में इसे लेकर लोकतांत्रिक फिक्र जताई गई, लेकिन न मणिपुर के भाजपा सीएम ने इस्तीफा दिया, न देश के भाजपा पीएम ने उनका इस्तीफा लिया। गुजरात दंगों के बाद सीएम नरेन्द्र मोदी से इस्तीफा लेने की बात तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने सोची थी, लेकिन वह बात आई-गई हो गई, लेकिन बाद में तो मोदी लगातार वहां जितने चुनाव जीतते गए, तो फिर इस्तीफे की बात ही खत्म भी हो गई, और अप्रासंगिक भी हो गई।

लेकिन दुनिया के लोकतंत्रों में अभी भी कई जगहों पर नैतिकता के आधार पर इस्तीफों की बात की जाती है। यह एक अलग बात है कि जेल में महीनों से रहते हुए भी मुख्यमंत्री पद न छोडऩे वाले अरविंद केजरीवाल ने दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र में एक असाधारण, और असामान्य स्थिति पैदा कर दी है। अब तक तो नेता ही जेल से चुनाव लडक़र सांसद और विधायक निर्वाचित होते थे, लेकिन अब तो मुख्यमंत्री महीनों तक जेल में मुख्यमंत्री बने हुए हैं। उधर हेमंत सोरेन गिरफ्तारी के वक्त इस्तीफा देते हैं, और जमानत होते ही फिर मुख्यमंत्री बन जाते हैं। अब नैतिकता के पुराने पैमाने पेनिसिलीन के इंजेक्शन के साथ इतिहास में जिक्र का सामान बन चुके हैं। अब आखिरी अदालत तक लड़ाई लड़ी जाती है, और लोग सरकारी या राजनीतिक ओहदों पर बने रहते हैं, बहुत से मामलों में तो संवैधानिक ओहदों पर बने रहते हैं। मातहत कर्मचारी के सेक्स शोषण की तोहमत के बाद भी भारत के मुख्य न्यायाधीश से लेकर राज्यपालों तक को अपनी कुर्सी पर बने रहना जायज लगता है, और वे अपने को मिली तमाम संवैधानिक ताकत और हिफाजत के साथ किसी पेशेवर मुजरिम के अंदाज में बचाव पक्ष के वकील की मदद से बचे रहते हैं। अब नैतिकता कहीं आड़े नहीं आती। अब मंत्री हों, या सांसद-विधायक, चाहे बलात्कार के आरोप में फंसे हों, चाहे ऐसे ही किसी और जुर्म में, आखिरी अदालत तक अपने आपको बचाते हुए वे लगे रहते हैं कि नैतिकता जाए तो जाए, ओहदा न जाए।

सार्वजनिक जीवन में जो आम गिरावट आई है, उसके मुकाबले भी भारत सरीखे देश में राजनीति में गिरावट खासी अधिक है। जिस तरह किसी अदालत से कोई पेशेवर मुजरिम सुबूतों के अभाव में, गवाहों के पलट जाने से, या जांच एजेंसी की कमजोर जांच की वजह से छूटकर भी खुशी मनाते हैं, कुछ उसी तरह भारत के नेता भी हो गए हैं जो कि नैतिकता की स्केल को उठाकर बाहर फेंक चुके हैं, और किसी पेशेवर और खानदानी माफिया के अंदाज में जुर्म में लगे रहते हैं। सैकड़ों और हजारों करोड़ के भ्रष्टाचार का फंदा जब गले में कुछ अधिक टाईट फंसने लगता है, तो ऐसे नेता अपने सीने पर टंगा पार्टी का बिल्ला बदल देते हैं, और नया बिल्ला लगते ही फंदा तार-तार होकर खुद ही हट जाता है। चलते-चलते जापान की एक मिसाल और सामने दिख रही है जिसमें वहां के प्रधानमंत्री फुमिओ किशिदा ने घोषणा की है कि वे सितंबर में पद छोड़ देंगे, और अपनी पार्टी के मुखिया का चुनाव नहीं लड़ेंगे। उनकी पार्टी पर लगातार भ्रष्टाचार के आरोपों से उनकी लोकप्रियता गिर गई थी, और अब उन्होंने इस्तीफे की घोषणा की है। हम अभी जापान की इस मिसाल की बारीकियों और जटिलताओं पर नहीं जाते, लेकिन भ्रष्टाचार और कालेधन के पकड़े जाने पर लोकतंत्र में खुद होकर किस तरह का बर्ताव करना चाहिए, यह उसकी एक मिसाल है। हम हिन्दुस्तान के पेशेवर नेताओं को कोई सलाह देने की हालत में नहीं हैं। क्योंकि एक किसी पानठेले पर यह नोटिस देखा हुआ याद पड़ता है- यहां ज्ञान न बघारें, यहां सभी ज्ञानी हैं।

गांधी के इस देश में सभी को नैतिक पैमाने पता है, अब हम स्केल लेकर किस-किसकी नैतिकता का कद नापते रहें? (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 


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