विचार/लेख
भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारी कमेटी के सदस्य और ऑर्गेनाइजर के पूर्व संपादक शेषाद्री चारी ने अपनी पार्टी को आगाह किया है कि पार्टी के अंदर एक सीमित वर्ग से उठ रही जोरदार आवाज भाजपा आलाकमान को चेता रही है कि वह हर उस बागी को जगह न दे जो उसका दरवाजा खटखटाता है, विशेषकर उन्हें जो कड़ी मेहनत, वैचारिक प्रतिबद्धता या निस्वार्थ सेवा और बलिदान के जरिये हासिल करने के बजाये ‘विरासत’ में मिली नेतृत्वशीलता को अपना उत्तराधिकार समझते हों।
उनका कहना है कि भाजपा जैसी कैडर-आधारित पार्टी के लिए बहुत बाद में और पिछले दरवाजे से आने वाले विपक्षी खेमे के नेताओं के कुछ मायने नजर नहीं आते हैं। यह राजस्थान में और भी ज्यादा प्रासंगिक है, जहां भाजपा के पास अच्छी कैडर क्षमता, व्यापक जनाधार वाले और हर स्तर पर लोकप्रिय नेता हैं।भाजपा को ध्यान में रखना चाहिए कि हर राज्य असम नहीं हो सकता, जहां कांग्रेस से आए हेमंत बिस्व सरमा ने पार्टी को 2016 में पहली बार सत्ता में लाने के लिए स्थितियों को एकदम बदलकर रख दिया था। असम एक अलग किस्म का मामला है।
एक वेबसाइट, ‘द प्रिंट’ पर लिखे एक लेख में शेषाद्री चारी ने राजस्थान के सचिन पायलट के भाजपा प्रवेश के सन्दर्भ में यह बातें लिखीं हैं।
उन्होंने लिखा- अपने ‘युवा और होनहार नेता’ सचिन पायलट को राजस्थान के उपमुख्यमंत्री और राज्य इकाई के अध्यक्ष के पद से हटाने के 24 घंटे के भीतर ही कांग्रेस ने उनसे पार्टी में लौटने और मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के साथ जो भी ‘कोई मतभेद’ हों उन्हें सुलझाने की अपील कर दी। फिलहाल तो सचिन पायलट ने यह स्पष्ट कर दिया है कि वह भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) में शामिल नहीं हो रहे हैं, जो कांग्रेस नेता के साथ ही संभवत: 15 विधायक जो उनका समर्थन कर रहे हैं, को अपने पाले में लाने के लिए बेहद उत्सुक थी। लेकिन कुछ बातें हैं जो भाजपा को अवश्य ही ध्यान में रखनी चाहिए। यह किसी से छिपा नहीं है कि कांग्रेस में कई ऐसे असंतुष्ट तत्व हैं जो ‘डूबते जहाज’ को छोडऩे की मंशा रखते हैं। ऐसा लगता है कि खुद कांग्रेस ही भाजपा के ‘कांग्रेस-मुक्त भारत’ के संकल्प को पूरा करने में लगी है। ऐसे में, सचिन पायलट के ऐलान को शपथ लेकर की गई दृढ़ प्रतिज्ञा जैसा नहीं माना जा सकता है। जैसे-जैसे घटनाक्रम आगे बढ़ेगा, कुछ चौंकाने वाली बातें सामने आ सकती है। ऐसे परिदृश्य में भाजपा के लिए आंतरिक चेतावनियों को सुनना ही ज्यादा बेहतर रहेगा।
सतर्क भाजपा
चारी का कहना है- फिलहाल अभी, पार्टी के अंदर एक सीमित वर्ग से उठ रही जोरदार आवाज भाजपा आलाकमान को चेता रही है कि वह हर उस बागी को जगह न दे जो उसका दरवाजा खटखटाता है, विशेषकर उन्हें जो कड़ी मेहनत, वैचारिक प्रतिबद्धता या निस्वार्थ सेवा और बलिदान के जरिये हासिल करने के बजाये ‘विरासत’ में मिली नेतृत्वशीलता को अपना उत्तराधिकार समझते हों। भाजपा जैसी कैडर-आधारित पार्टी के लिए बहुत बाद में और पिछले दरवाजे से आने वाले विपक्षी खेमे के नेताओं के कुछ मायने नजर नहीं आते हैं। यह राजस्थान में और भी ज्यादा प्रासंगिक है, जहां भाजपा के पास अच्छी कैडर क्षमता, व्यापक जनाधार वाले और हर स्तर पर लोकप्रिय नेता हैं। भाजपा को ध्यान में रखना चाहिए कि हर राज्य असम नहीं हो सकता, जहां कांग्रेस से आए हेमंत बिस्व सरमा ने पार्टी को 2016 में पहली बार सत्ता में लाने के लिए स्थितियों को एकदम बदलकर रख दिया था। असम एक अलग किस्म का मामला है।
उन्होंने लिखा-आमतौर पर भाजपा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करिश्माई नेतृत्व और गृह मंत्री अमित शाह की शानदार रणनीतियों के बलबूते चुनाव जीतती रही है। नवागंतुक शायद ही इस मामले में पार्टी में कोई योगदान दे पाते हैं। भाजपा वैसे उन चुनाव क्षेत्रों में अपनी जीत की संभावनाएं बेहतर कर सकती है, जहां बागी नेता का खासा प्रभाव है और जैसे चुनाव नजदीक आएगा। इसका दामन थामने के इच्छुक बागियों की संख्या निश्चित रूप से बढ़ेगी। लेकिन पार्टी को अभी अनपेक्षित नतीजों पर नजर रखनी चाहिए और पार्टी के अंदर उठ रही आवाजों को सुनना चाहिए।
कांग्रेस के लिए एक और संकट
लेख में आगे लिखा है- कांग्रेस के लिए राजस्थान संकट काफी समय से गहरा रहा था। वास्तव में, अशोक गहलोत को 2018 में जब मुख्यमंत्री बनाया गया था, तब ऐसा माना जा रहा था कि ऐसी सहमति बनी है कि एक-दो साल बाद ही सचिन पायलट, जिन्हें राज्य में कांग्रेस की जीत का श्रेय दिया जाता है, मुख्यमंत्री से कमान अपने हाथ में ले लेंगे। लेकिन तथ्य यह है कि गहलोत के योगदान को नजरअंदाज नहीं किया गया, यह देखते हुए कि पुराने योद्धा को रणनीतिक रूप से और शासन क्षमता का गहरा अनुभव है। उनके ‘जादू’ (गहलोत के बारे में माना जाता है कि उन्होंने अपने पिता से जादू के गुर सीखे थे) ने तो महाराष्ट्र में भी काम किया था, जहां उनके अनुसार, कांग्रेस ने चुनाव से पहले ही हार मान ली थी। एक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था, ‘यह मानकर कि पार्टी सफल नहीं हो सकती, उन्होंने (महाराष्ट्र और हरियाणा कांग्रेस) ने विधानसभा चुनाव जीतने की कोई कोशिश करनी भी बंद कर दी थी। जबकि पार्टी को अपनी पूरी क्षमता और ऊर्जा के साथ चुनाव लडऩा चाहिए, न कि पराजित मानसिकता के साथ।’
चारी ने लिखा-एक समय जब उनके केंद्र में पार्टी के लिए अहम भूमिका निभाने की उम्मीद थी, उन्हें राजस्थान भेज दिया गया और उन्हें अपने वर्चस्व के लिए संघर्ष करना पड़ा। अशोक गहलोत ने राज्य का बजट को पेश करने के बाद एक संवाददाता सम्मेलन में कहा था, ‘मैं मुख्यमंत्री पद का हकदार था। यह स्पष्ट था कि किसे मुख्यमंत्री बनना चाहिए और किसे नहीं। जनभावना का सम्मान करते हुए कांग्रेस अध्यक्ष के नाते राहुल गांधी ने मुझे मौका दिया।’ जाहिर है इसके आगे पायलट संकट बहुत ही मामूली नजर आता है।
कांग्रेस में क्या बचा?
उनका कहना है-क्या कांग्रेस एक और विभाजन के कगार पर खड़ी है? कहीं ऐसा तो नहीं कि बड़ा आंतरिक झगड़ा ‘हिलाकर रख देने वाले’ अंजाम तक पहुंचा सकता हो? सीधा नतीजा यह हो सकता है कि सिंधिया की तरह, कांग्रेस की युवा पीढ़ी के कई बागी भाजपा की तरफ कदम बढ़ा सकते हैं, जो हमेशा ऐसे लोगों के स्वागत में रेड कार्पेट बिछाने को तैयार रहती है। इन नेताओं में से अधिकांश में यह भावना बढ़ रही है कि ऐसी पार्टी में बने रहना निरर्थक है जिसका कम से कम हाल-फिलहाल तो कोई राजनीतिक भविष्य नहीं है। एक राजनीतिक व्यक्ति जो सार्वजनिक जीवन पर अपना लंबा समय और बहुत कुछ व्यय करता है, जाहिर है इसे लेकर चिंतित जरूर होगा कि बदले में हासिल क्या है और इसलिए भाजपा में सुनहरा भविष्य तलाशेगा।
शेषाद्री चारी ने लिखा है-कांग्रेस में वंशवाद की राजनीति पर बोलते हुए सचिन पायलट ने एक टेलीविजन इंटरव्यू में सुझाव दिया था कि प्रियंका गांधी वाड्रा को पार्टी का नेतृत्व संभालने के लिए आगे लाया जाना चाहिए। उन्हें और कुछ अन्य युवा नेताओं को ‘प्रियंका लाओ, कांग्रेस बचाओ’ लॉबी का हिस्सा माना जाता रहा है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि बगावत प्रकरण में राहुल गांधी एकदम पीछे रहे। प्रियंका, बीच-बचाव की भूमिका में रहीं, ने कथित तौर पर चार बार पायलट से बात की और उन्हें पार्टी न छोडऩे के लिए समझाया जबकि वह मुख्यमंत्री गहलोत की बुलाई बैठकों में भाग नहीं ले रहे थे।
उनका कहना है- राजनीतिक दल विचारधारा-आधारित रहने के बजाय तेजी से नेता-उन्मुख होते जा रहे हैं। लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों के विपरीत नेतृत्व की अपरिहार्यता बढ़ती जा रही है। कांग्रेस का प्रथम परिवार पार्टी के लिए उत्तरदायित्व साबित हो रहा है। भिन्न स्तर पर, अत्यधिक प्रतिभाशाली लोग साथ छोडक़र एक दूसरे मंच पर दूसरे नेता की छत्रछाया में नया अवतार ले सकते हैं। गांधी परिवार जितनी जल्दी इस बात को समझकर एक प्रतिभाशाली टीम को कमान सौंपता है, कांग्रेस के लिए उतना ही अच्छा होगा। (hindi.theprint.in)
-देवेंद्र वर्मा
संसदीय प्रणाली मैं संख्या बल ही सबसे अधिक महत्वपूर्ण है।संख्या के आधार पर ही न केवल सरकार का गठन होता है, अपितु सदन में होने वाली प्रत्येक प्रक्रिया, चाहे वह वित्तीय कार्य हो अथवा विधिक कार्य,या सरकार की जवाबदेही सुनिश्चित करना हो, आशय यह कि संसदीय प्रणाली का मूलाधार किसी राजनीतिक दल में सदस्यों की संख्या है। सभा में प्रक्रिया एवं कार्य संचालन नियमों के अंतर्गत किसी प्रस्ताव या किसी विषय का प्रस्तुत किया जाना अथवा उसका पारित होना अथवा स्वीकृत होना इसी बात पर निर्भर होता है कि उस प्रस्ताव अथवा किसी भी विषय के पक्ष अथवा विपक्ष में कितने सदस्य हैं और इस सदस्य संख्या के आधार पर ही अध्यक्ष यह निर्णय करते हैं कि कोई प्रस्ताव अथवा कोई विषय सभा के द्वारा स्वीकृत हुआ अथवा नहीं ?
सभा में प्रक्रिया एवं कार्य संचालन नियमों के अंतर्गत ऐसे अनेक विषय होते हैं जब किसी प्रस्ताव के अथवा किसी विषय के बहुमत के द्वारा स्वीकृत ना होने की स्थिति में सरकारें अपदस्थ भी हो सकती है।यही कारण है कि सत्ता पक्ष और प्रति पक्ष सदन में यह प्रयास करते हैं कि उनके समस्त सदस्य ऐसे मतदान के अवसर पर सभा में उपस्थित रहे ताकि मतदान के दौरान किसी भी पक्ष को अप्रिय स्थिति का सामना नहीं करना पड़े, विशेष कर सत्ताधारी दल को।
हमारे देश की राजनीति में साठ के दशक में दल बदल के ऐसे एकाधिक मामले हुए जब सदस्यों द्वारा अन्यान्य कारणों से जिसमें मुख्य रुप से स्वयं को लाभान्वित करना रहा सभा में अपने दल अर्थात जिस दल की विचारधारा एवं प्रत्याशी के रूप में वे निर्वाचित हुए हैं,के विरुद्ध मतदान करने के कारण जनादेश द्वारा चुनी हुई,सरकारें अपदस्थ हुई।
सदस्यों द्वारा इस प्रकार एक दल से दूसरे दल में जाने वापस आने के दिन प्रतिदिन होने वाले, प्रजातांत्रिक एवं संसदीय प्रणाली के विरुद्ध आचरण को रोकने, और जनादेश प्राप्त सरकारों को अपदस्थ करने की प्रवृत्ति पर लगाम लगाने के लिए के लिए वर्ष 1985 में संविधान को संशोधित करते हुए दसवीं अनु सूची सम्मिलित की गई जिसे सामान्य बोलचाल की भाषा में दल बदल कानून कहते हैं।
दल बदल को रोकने हेतु दल बदल कानून में जो अन्य दूसरे प्रावधान किए गए, उनके साथ ही पैरा दो दल परिवर्तन के आधार पर निरर्हरता (disqualification on ground of defection) पेरा (1) (ख) मैं यह प्रावधान किया गया कि यदि कोई सदस्य जिस राजनीतिक दल का सदस्य है उसके द्वारा अथवा दल द्वारा प्राधिकृत किसी व्यक्ति या प्राधिकारी की पूर्व अनुज्ञा के बिना ऐसे सदन में मतदान करता है या मतदान करने से विरत रहता है और ऐसे मतदान या मतदान करने से विरत रहने को ऐसे राजनीतिक दल व्यक्ति या प्राधिकारी ने ऐसे मतदान या मतदान करने से विरत रहने की तारीख से 15 दिन के भीतर माफ नहीं किया है तो उसे दल बदल कानून के पैरा (1) (ख) के अंतर्गत सदस्यता से निर्रहरित (disqualify) किया जा सकेगा।
सभा की कार्यवाही के दौरान जब सभा विभिन्न कार्यों का संपादन करती है कार्य संपादन के समय/ चर्चा के समय राजनीतिक दलों के सदस्य उपस्थित रहे इस उद्देश्य से राजनीतिक दलों द्वारा उनके दल के वरिष्ठ विधायकों में से chief whip नियुक्त किए जाते हैं। और उनकी सहायता के लिए यदि आवश्यक हो तो एक अथवा एक से अधिक विधायकों को राजनीतिक दलों द्वारा व्हिप नियुक्त किया जाता है.
व्हिप (सचेतक) का मुख्य कार्य होता है कि वह अपने दल के सदस्यों की उपस्थिति सदन में अथवा सदन के आसपास ही सुनिश्चित करें ताकि अचानक सभा में होने वाले मतदान के समय, मतदान में उस राजनीतिक दल के सभी सदस्य हिस्सा ले सकें और ऐसी अप्रिय स्थिति निर्मित ना हो कि सत्ताधारी दल का कोई प्रस्ताव पारित ही ना हो सके क्योंकि ऐसी स्थिति सत्ताधारी दल के लिए शर्मनाक मानी जाती है, और कुछ मामलों में सरकारें अपदस्थ भी हो जाती हैं।
वर्ष 1985 में संविधान में दसवीं अनु सूची का समावेश किया गया जिसे सामान्य बोलचाल की भाषा में दल बदल कानून भी कहा जाता है और दल बदल कानून में किसी राजनीतिक दल द्वारा जारी व्हिप के संबंध में भी कुछ प्रावधान किए गए।.
दल परिवर्तन के आधार पर निर्रहरता (disqualification) के संबंध में पैरा दो ध्यान देने योग्य है। पैरा (2) के अनुसार कोई सदस्य सदन का सदस्य होने के लिए डिसक्वालीफाई होगा यदि वह ऐसे राजनीतिक दल जिसका वह सदस्य है अथवा उसके द्वारा निमित्त प्राधिकृत किसी व्यक्ति या प्राधिकारी द्वारा दिए गए किसी ने निदेश के विरुद्ध ऐसे राजनीतिक दल व्यक्ति या प्राधिकारी की पूर्व अनुज्ञा के बिना ऐसे सदन में मतदान करता है या मतदान करने से विरत रहता है, और ऐसे मतदान या मतदान करने से विरत रहने को ऐसे राजनीतिक दल व्यक्ति या प्राधिकारी ने ऐसे मतदान या मतदान करने से विरत रहने की तारीख से 15 दिन के भीतर माफ नहीं किया है तो ऐसा समझा जाएगा कि वह ऐसे राजनीतिक दल का,यदि कोई हो सदस्य है, और निर्वाचन के लिए अभ्यर्थी के रूप में खड़ा किया था, सदस्य बने रहने के लिए अयोग्य हो गया है।
उपरोक्त से यह संदेह रहित है, कि व्हिप का प्रयोग केवल और केवल सभा से संबंधित कार्यों के लिए ही होता है किसी राजनीतिक दल के अंदर होने वाली दिन प्रतिदिन की कार्यवाही या घटनाएँ आदि के संबंध में यदि व्हिप जारी की भी जाती है तो वह प्रभावी नहीं होती और उसे दसवीं अनु सूची के अंतर्गत जारी की गई नहीं मानी जा सकती।वह दल के अंदर अनुशासन बनाए रखने संबंधी पत्राचार की श्रेणी में ही आता है।
विगत कुछ वर्षों में राजनीतिक दलों के मध्य सत्ता प्राप्त करने के लिए संसदीय प्रक्रियाओं के अलावा अन्य तरीके इजाद करते हुए जो प्रयास किए जा रहे हैं वस्तुतः इन्हीं के कारण राजनीतिक दलों द्वारा दसवीं अनु सूची के अंतर्गत प्रावधान का पालन नहीं करने पर अयोग्यता जैसे प्रावधानों का प्रयोग भी सदस्यों को अनुशासित रखने, और लोभ,लालच के कारण अन्य दलों में जाने से रोकने के लिए किया जाने लगा है। क्योंकि यदि कोई सदस्य व्हिप का उल्लंघन करता है अर्थात व्हिप को नहीं मानता है तो उसे अपनी सदस्यता से हाथ धोना पड़ सकता है।किंतु जैसा पूर्व पैरा में उल्लेख किया है यह केवल दल के अंदर अनुशासन बनाए रखने संबंधी पत्राचार की श्रेणी में ही आता है।
वस्तुतः अध्यक्ष व्हिप जारी करने हेतु प्राधिकृत व्यक्ति नहीं रहता बल्कि प्रत्येक राजनीतिक दल अर्थात विधायक दल का मुख्य सचेतक/सचेतक (Chief Whip/whip) ही व्हिप जारी करने के लिए अधिकृत रहता है। व्हिप सभा से संबंधित कार्यों के अतिरिक्त राजनीतिक दलों की बैठकों में जिसमें विधायक दल की बैठक भी सम्मिलित है,यदि जारी की भी जाती है, और यदि कोई सदस्य उसका पालन नहीं करता है अथवा व्हिप के अनुरूप व्यवहार नहीं करता है ऐसी स्थिति में दल बदल कानून के अंतर्गत उस पर किसी प्रकार की कार्यवाही नहीं की जा सकती, अपितु दल में अनुशासन के आधार पर राजनीतिक दल यथा आवश्यक कार्यवाही कर सकता है।
यह अवश्य है कि, यदि किसी राजनीतिक दल के सदस्य द्वारा दल-बदल कानून के अंतर्गत किसी प्रकार की अर्जी अध्यक्ष को प्राप्त होती है, तब अर्जी पर निर्णय करने के पूर्व,यदि अध्यक्ष आवश्यक समझे, जिन सदस्यों के विरुद्ध अर्जी प्राप्त हुई है उनसे वस्तु स्थिति ज्ञात करने के लिए नोटिस जारी कर सकते हैं।
संसदीय प्रणाली में अध्यक्ष का पद विधायिका का सर्वोच्च पद है, वह सभा एवं इसके सदस्यों के अधिकारों एवं विशेष अधिकारों का संरक्षक है, और सदस्यों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे अध्यक्ष के पद का मान सम्मान एवं प्रतिष्ठा कायम रखें। क्योंकि सदस्यों का मान सम्मान एवं प्रतिष्ठा भी अध्यक्ष की प्रतिष्ठा में समाहित है। यदि अध्यक्ष ने किसी प्रकार का कोई नोटिस जारी भी किया है तो सदस्यों का यह दायित्व है कि वह उस नोटिस का जवाब अध्यक्ष को दे।
विगत वर्षों में यह देखने में आ रहा है कि प्रत्येक मामलों में राजनीतिक दलों के सदस्य न्यायालय में जा रहे हैं और न्यायालय सभा की कार्यवाही किस प्रकार से संचालित हो बैठक कब हो और कब नहीं हो, बैठकों में क्या-क्या व्यवस्थाएं की जाए और मतदान कैसे हो, आदि निर्देश भी न्यायालय के द्वारा जारी किए गए हैं। राजनीतिक दलों एवं इसके सदस्यों के इस प्रकार के कार्य व्यवहार से विधायिका की प्रतिष्ठा जन साधारण के दिलो-दिमाग में दिन प्रतिदिन कम होती जा रही है।
जिस प्रकार न्यायालय से किसी भी व्यक्ति को उनके विरुद्ध दायर किसी पिटीशन पर उत्तर देने हेतु सूचना प्राप्त होती है और न्यायालय का सम्मान करते हुए उस सूचना पर प्रति उत्तर निर्धारित अवधि में प्रत्येक नागरिक प्रस्तुत करता है, उसी प्रकार यदि सदस्यों को अध्यक्ष से किसी प्रकार का कोई नोटिस प्राप्त होता है तब सदस्यों का भी यह दायित्व है, वे अध्यक्ष के पद का मान सम्मान एवं प्रतिष्ठा के प्रति निष्ठा एवं विश्वास का भाव रखते हुए प्राप्त नोटिस का प्रति उत्तर अध्यक्ष को दें और इसी में न केवल विधायिका की अपितु विधायिका के प्रत्येक पदाधिकारी और सदस्यों की प्रतिष्ठा एवं मान सम्मान अक्षुण्ण बना रहेगा।
(पूर्व प्रमुख सचिव, छत्तीसगढ़ विधानसभा, संसदीय एवं संविधानिक विशेषज्ञ)
लांसेट जर्नल में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार, 2100 तक भारत सर्वाधिक जनसंख्या और प्रवास वाला देश बन जाएगा
-रिचर्ड महापात्रा
इस वक्त हम एक नए युग को घोषित करने की प्रक्रिया में है। इस युग का नाम है एंथ्रोपोसीन। यह युग प्रकृति पर इंसानों के असर का परिणाम है। ठीक इसी समय हमारी जनसंख्या भी प्राकृतिक रूप से घट रही है। आबादी घटने की दर आगे चलकर इतनी तेज होगी कि रिकवरी मुश्किल हो जाएगी। लांसेट जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन में दावा किया गया है कि 2064 में दुनिया की आबादी 9.73 बिलियन हो जाएगी। यह आबादी का चरम होगा। इसके बाद अगले 36 सालों में यानी सदी के अंत तक यह आबादी घटकर 8.79 बिलियन रह जाएगी।
इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ मेट्रिक्स और वाशिंगटन विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं द्वारा किए गए इस अध्ययन में अलग मॉडल का उपयोग किया गया है। उन्होंने सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) और मृत्युदर व प्रजनन दर से अलग जनसंख्या के प्रवास के संकेतकों का इस्तेमाल किया। इस अध्ययन में 2018-2100 की अवधि के लिए 195 देशों को शामिल किया गया।
अध्ययन के शोधकर्ता क्रिस्टोमर मरे ब्रिटिश मीडिया को बताया कि बड़ी बात यह है कि दुनिया के अधिकांश देश जनसंख्या में प्राकृतिक कमी के संक्रमण काल से गुजर रहे हैं। अनुमान के मुताबिक, वैश्विक प्रजनन दर (टीएफआर) 2017 में 2.4 के मुकाबले 2100 में 1.7 प्रतिशत रह जाएगी।
अध्ययन में कहा गया है कि 2100 तक भारत दुनिया की सबसे बड़ी आबादी वाला देश होगा और चीन तीसरे नंबर पर पहुंच जाएगा। भारत के बाद नाइजीरिया की आबादी सबसे अधिक होगी। जनसंख्या के मामले में चौथे नंबर पर अमेरिका और पांचवे नंबर पर पाकिस्तान होगा। 2050 के बाद भारत की जनसंख्या तेजी से घटेगी, बावजूद इसके वह सबसे बड़ी आबादी वाला देश बन जाएगा।
अध्ययन के अनुसार, भारत और चीन की आबादी 2050 से पहले अपने उच्चतम स्तर पर पहुंच जाएगी। इसके बाद 2100 तक चीन की आबादी में 51.1 प्रतिशत और भारत की आबादी में 68.1 प्रतिशत की गिरावट आएगी।
अध्ययन के अनुसार, भारत की कुल प्रजनन दर 2018 में पहले ही प्रतिस्थापन के स्तर से नीचे पहुंच गई है। 2040 तक यह दर तेजी से कम होगी और 2100 तक 1.29 प्रतिशत हो जाएगी।
इसी के साथ जनसांख्यकीय में भी तेजी से बदलाव होगा। वर्तमान में कहा जाता है कि धरती पर इस समय किसी भी समय से अधिक युवा आबादी है। लेकिन अध्ययन की मानें तो 2100 में स्थिति उलट होगी। सदी के अंत तक 2.37 बिलियन लोग 65 साल से अधिक उम्र के होंगे जबकि 20 साल से कम उम्र के युवाओं की आबादी 1.70 बिलियन होगी। इस अवधि में 80 साल से अधिक उम्र के लोगों की आबादी 866 मिलियन हो जाएगी। 2017 में यह आबादी 141 मिलियन थी।
अध्ययन में कहा गया है कि जैसे-जैसे बुजुर्गों की आबादी बढ़ेगी, वैसे-वैसे बच्चों की आबादी घटती जाएगी। 2017 से 2100 के बीच पांच साल से कम उम्र के बच्चों की आबादी 41 प्रतिशत कम हो जाएगी।
हालांकि सब सहारा अफ्रीका, उत्तर अफ्रीका और मध्य पूर्व क्षेत्रों में सदी के बाद भी आबादी बढ़ती जाएगी। मध्य यूरोप, पूर्वी यूरोप, और मध्य एशिया के क्षेत्रों में आबादी 1992 में ही उच्चतम स्तर पर जा चुकी है। यहां की आबादी में पूरी शताब्दी गिरावट जारी रहेगी। अध्ययन के मुताबिक, दक्षिण एशिया, दक्षिण पूर्व एशिया, पूर्वी एशिया, ओसेनिया, मध्य यूरोप, पूर्वी यूरोप और मध्य एशिया में आबादी में गिरावट की दर सबसे गंभीर होगी।
अध्ययन में भविष्य में होने वाले प्रवास का भी अनुमान लगाया गया है और यह काफी चिंताजनक है। अनुमान के मुताबिक, 2100 में 195 में से 118 देशों में प्रवास की दर 1000 लोगों में 1 के बीच होगी। इसके अलावा 44 देशों में प्रति 1000 की आबादी पर यह दर इससे दोगुनी होगी। तीन देशों- अमेरिका, भारत और चीन में अप्रवासियों की संख्या सबसे अधिक होगी। दूसरी तरफ सोमालिया, फिलिपींस और अफगानिस्तान से सबसे अधिक लोग देश छोड़ेंगे। (downtoearth)
विष्णु नागर
अगले साल दिसंबर में सोवियत संघ के पतन और बिखराव के तीन दशक पूरे हो जाएँगे।ऐसा क्यों और कैसे हुआ, इस पर विद्वानों ने बहुत लिखा है और आगे भी लिखेंगे। विद्वत्ता मेरा क्षेत्र नहीं है, इसलिए यहाँ उस विस्तार में जाना मेरा उद्देश्य नहीं। मैं कहना चाहता हूँ कि जो भी हुआ-अच्छा या बुरा-वह तो हो चुका है मगर हम साहित्य के अनौपचारिक विद्यार्थी उसके आज तक बहुत ऋणी हैं। चूँकि सोवियत संघ खत्म हो चुका, उसके खत्म होने का दुनिया में बहुत जश्न भी मनाया जा चुका है, इसलिए उसके एकाध ऋण को भी भूल जाना अनैतिक होगा।उसने इस अर्थ में काफी बड़ा काम किया था कि हमारी अपनी हिंदी और अन्य अनेक भारतीय तथा विदेशी भाषाओं में अपने देश का महान (और विचाराधारात्मक भी)साहित्य विपुलता से उपलब्ध करवाया था।इतना बड़ा काम न पहले किसी और देश ने कभी किया था,न अब कोई कर रहा है।
सोवियत संघ ने हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में यह साहित्य बेहद सस्ते दामों पर और बहुत अच्छे कागज पर उपलब्ध करवाया था। विशेषता यह भी रही कि उसने ये अनुवाद रूसी से सीधे हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में करवाए। बीच में अंग्रेजी को यथासंभव नहीं आने दिया। यही माक्र्स-लेनिन आदि की किताबों के मामले में किया। बाल साहित्य के बारे में भी यही किया। विज्ञान आदि विषयों की पुस्तकों के साथ किया। जो पुस्तकें अंग्रेजी में भी आज तक नहीं आई हैं,उन्हें उसने हिंदी में उपलब्ध करवाया।उदाहरण के लिए मेरा बड़ा बेटा अमेजन पर रसूल हमजातोव का ‘मेरा दागिस्तान’ का अंग्रेजी संस्करण ढूँढ रहा था तो उसे नहीं मिला लेकिन हिंदी की यह लोकप्रिय किताब रही है।
हमारी पीढ़ी और उससे पहले तथा बाद की पीढिय़ाँ इस साहित्य से बहुत लाभान्वित हुई हैं। सोवियत संघ ने ये किताबें कुछ खास शहरों में ही उपलब्ध नहीं करवाई थीं, बल्कि छोटे से छोटे कस्बों में अपनी वैन से हासिल करवाईं। अपने महान साहित्य का प्रसार भी एक राजनीतिक कर्म है, इसे सोवियत नेताओं ने समझा था। यह अलग बात है कि सोवियत संघ का टिका रहना इन किताबों के प्रचार-प्रसार पर निर्भर नहीं था मगर एक राज्य न टिका मगर उसने जो साहित्य हमें उपलब्ध करवाया, वह जरूर टिकाऊ था और आज भी है। उसकी सांस्कृतिक कूटनीति के अन्य सकारात्मक पक्ष भी थे लेकिन वे यहाँ हमारे विषय नहीं। उसने प्रेमचंद आदि बडे लेखकों को रूसी में उपलब्ध करवाया,यह भी एक पक्ष है। हम लोगों की दो- चार कविताओं को भी रूसी के एक संकलन में शामिल किया गया था, आदि।
उस जमाने में तब की महंगाई के हिसाब से हिंदी की किताबें आमतौर पर महंगी थीं, हालांकि उतनी महंगी नहीं थीं, जितनी आज हो चुकी हैंं।उस जमाने में हम जैसों ने ढेर सारी सोवियत किताबें खरीदीं,जो प्रगति प्रकाशन या रादुगा से छप कर आती थीं। अपने बच्चों के लिए भी ये सस्ती और सुंदर किताबें खरीदीं।एक किताब तो मुझे भी बहुत प्रिय थी-‘पापा जब बच्चे थे’।
तोल्सतोय के महाउपन्यास ‘युद्ध और शांति’ से लेकर उनके आरंभिक उपन्यास ‘कज्जाक’ तक और ‘पुनरुत्थान’ तक उपलब्ध हुआ। ‘अन्ना केरनिन्ना’ जैसा उपन्यास न जाने क्यों इनमें नहीं था। इसके अलावा तुर्गनेव, गोगोल, पुश्किन, दास्तोयेव्स्की, गोर्की, चेखव आदि न जाने कितने महान लेखक अक्सर अच्छे अनुवादों में हासिल हुए। ‘पुनरुत्थान’ का अनुवाद तो भीष्म साहनी ने किया था। और भी अच्छे अनुवादक थे।मुनीश सक्सेना, राजीव सक्सेना, नरोत्तम नागर,मदन लाल मधु आदि।कविताओं के अनुवाद लगभग नहीं हुए या अच्छे नहीं हुए। मसलन ‘मेरा दागिस्तान’ में लेखक की कविताओं के मदनलाल मधु के अनुवाद बेढब हैं।
पत्रकार के नाते हम जैसे पत्रकारों का एक भला सोवियत संघ ने किया कि उसकी लगभग रोज विज्ञप्तियाँ हिंदी में आती थीं।कागज बढिय़ा होता था तो उसकी पीठ पर लिखना सुखकर था। सोवियत कागजों का यह उपयोग अधिक किया। बाकी कुछ लेखकों को पुरस्कार भी मिले,रूस की यात्रा का सुख भी मिला वगैरह मगर हमें जो मिला, वह भी कम न था।
चीन ने रूस के मुकाबले दस प्रतिशत भी इस मामले में नहीं किया।तथाकथित कम्युनिस्ट देश उत्तरी कोरिया अपने ‘महान’ किम उल सुंग के विचारों के प्रचार में लगा रहा,जिनकी आज किसी को परवाह नहीं। अमेरिका ने अपनी महानता और आधुनिक होने के गुण बहुत गाए। उसका साहित्य से इतना ही वास्ता रहा कि उसने आर्थर केसलर की किताब ‘द्दशस्र ह्लद्धड्डह्ल द्घड्डद्बद्यद्गस्र’ का हिंदी संस्करण शायद ‘पत्थर के देवता’ नाम से उपलब्ध करवाया था,जो शाजापुर के दिनों में किसी से लेकर पढ़ा था।बाद में कहीं नहीं दिखा।
ललित मौर्य
जिन 165 देशों ने इस समझौते में रुचि व्यक्त की है, वो दुनिया की लगभग 60 फीसदी आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं।
दुनिया भर में 150 से भी ज्यादा देशों ने कोरोना वैक्सीन के मामले में एक जुटता दिखते हुए संदेश साफ कर दिया है कि जैसे ही इस महामारी की वैक्सीन बनेगी, वो सभी के लिए उपलब्ध होगी। इसमें अमीर गरीब और अन्य किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाएगा। दुनिया के करीब। 5 देशों ने एक जुटता दिखाते हुए ‘कोवेक्स सुविधा’ से जुडऩे में रूचि दिखाई है। जिससे उनके देशों और दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में रह रहे लोगों की जान कोरोना महामारी से बचाई जा सके। गौरतलब है कि ‘कोवेक्स सुविधा’ कोरोनावायरस के टीकों को दुनिया भर में तेजी से, निष्पक्ष और न्यायसंगत तरीके से पहुंचाने के लिए बनाया गया तंत्र है।
गवी जोकि ग्लोबल वैक्सीन संगठन है। उसके अनुसार जिन 165 देशों ने इस समझौते में रुचि व्यक्त की है, वो दुनिया की लगभग 60 फीसदी आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसमें से। पांच देश अपने स्वयं के सार्वजनिक बजट से टीकों के निर्माण के लिए धन की व्यवस्था करेंगे। जिसमें इनका साथ कम आय वाले 90 देश देंगे। जोकि अपनी मर्जी से गवी के कोवेक्स अग्रिम बाजार प्रतिबद्धता (एएमसी) कार्यक्रम के लिए राशि दान दे सकते हैं। इस संगठन में दुनिया के हर महाद्वीप के देश शामिल हैं। साथ ही इसमें जी-20 के भी आधे से ज्यादा देश सम्मिलित हैं।
सभी सहयोगी देशों की 20 फीसदी आबादी के लिए सुनिश्चित की जाएगी दवा
गवी के अनुसार जैसे ही इस महामारी की वैक्सीन बनती है उसका वितरण सभी भागीदार देशों में इस तरह किया जाएगा कि प्रत्येक देश की 20 फीसदी आबादी के लिए इस दवा की उपलब्धता सुनिश्चित की जा सके। इसके बाद जो वैक्सीन बचेगी वो देशों की जरुरत, महामारी के प्रकोप के आधार पर वितरित की जाएगी। दुनिया भर के कई देश और प्राइवेट कंपनियां इस महामारी की दवा की खोज में लगी हुई हैं। भारत में भी इस बीमारी की वैक्सीन पर काम चल रहा है।
गवी ने बताया है कि इस योजना में देशों को प्रोत्साहित किया जाएगा कि जिनको दवा की ज्यादा जरुरत नहीं है वो दूसरे देशों की मदद कर सकते हैं। जिससे ज्यादा से ज्यादा लोगों को बचाया जा सके। गौरतलब है कि अमेरिका सहित कई अमीर देश पहले ही वैक्सीन निर्माताओं से सौदा करने में लगे हैं। जिससे वो ज्यादा से ज्यादा वैक्सीन प्राप्त कर सकें। ऐसे में दुनिया भर के लिए ‘कोवेक्स सुविधा’ की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है।
कोवेक्स का लक्ष्य 2021 के अंत तक प्रभावी टीकों की दो अरब खुराकें प्रदान करना है। जिसको सभी सहयोगी देशों में बराबर अनुपात से वितरित किया जा सके। धन की व्यवस्था करने के लिए गवी ने कोवेक्स एडवांस मार्केट कमिटमेंट लॉन्च किया था। जिसका मकसद इस परियोजना के लिए धन इक_ा करना था। इस कोवेक्स तंत्र के पहले चरण के लिए करीब 15,048 करोड़ रुपए (200 करोड़ डॉलर) का लक्ष्य रखा गया है। जिसे अमीर देशों और निजी क्षेत्र से प्राप्त किया जाना है। इस योजना को सफलता भी मिल रही है क्योंकि इस फण्ड में अब तक 4,515 करोड़ रुपए (60 करोड़ डॉलर) जुटा लिए गए हैं। साथ ही एस्ट्राजेनेका से पहले ही दवाओं की 30 करोड़ खुराक कोवेक्स को दिए जाने पर समझौता हो चुका है।
डब्ल्यूएचओ के मुख्य वैज्ञानिक डॉ सौम्या स्वामीनाथन के अनुसार ‘सस्ती और सभी के लिए आसानी से उपलब्ध वैक्सीन, स्वास्थ्य के क्षेत्र में व्याप्त असमानताओं को दूर करने में हमारी मदद करेगी। ऐसे में इस लक्ष्य को प्राप्त करने और इस महामारी पर काबू पाने के लिए सभी देशों को कोवेक्स का समर्थन करने की जरुरत है।’ (डायचेवैले)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
राजस्थान में चल रहे दंगल से हमारा देश कोई सबक लेगा या नहीं ? यह सवाल सिर्फ कांग्रेस के संकट का नहीं है बल्कि भारत के लोकतंत्र के संकट का है। जैसे आज कांग्रेस की दुर्दशा हो रही है, वैसी ही दुर्दशा भाजपा तथा अन्य प्रांतीय पारिवारिक पार्टियों की भी हो सकती है। भारत का कितना बड़ा दुर्भाग्य है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की महान पार्टी कांग्रेस दिनोंदिन एक खंडहर में बदलती जा रही है। ऐसा क्यों हो रहा है ? इसके बीज इंदिरा गांधी के कार्यकाल में बोए गए थे। ज्यों ही 1969 में कांग्रेस में फूट पड़ी और इंदिरा कांग्रेस की नींव डली, भारत के लोकतंत्र पर पाला पडऩा शुरु हो गया।
देश में बाकायदा तानाशाही तो नहीं आई सोवियत संघ और चीन की तरह एक पार्टी राज तो कायम नहीं हुआ और न ही पाकिस्तान की तरह फौजी तानाशाही काबिज हुई लेकिन उससे भी ज्यादा खतरनाक प्रवृत्ति शुरु हो गई। ऊपर मुखौटा तो लोकतंत्र का रहा लेकिन असली चेहरा तानाशाही का रहने लगा। कांग्रेस की सारी सत्ता इंदिरा गांधी और संजय गांधी के हाथों में केंद्रित हो गई। कांग्रेस प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बन गई। कांग्रेस की देखादेखी लगभग हर प्रांत में क्षेत्रीय नेताओं ने अपनी-अपनी पारिवारिक और जातीय पार्टियां खड़ी कर लीं। सिर्फ भाजपा ही ऐसी पार्टी बच गई, जिसमें किसी एक नेता या गुट का एकाधिकार नहीं था। वह 2014 में सत्तारुढ़ हुई तो वह भी कांग्रेस के नक्शे-कदम पर चल पड़ी। जैसे कांग्रेस आज मां-बेटा पार्टी है, भाजपा भाई-भाई पार्टी है। सोनिया और राहुल की टक्कर में नरेंद्र और अमित खड़े हैं।
सारे प्रांतों में बेटा-दामाद, भाई-भतीजा, पति-पत्नी, बाप-बेटा, बुआ-भतीजा पार्टियां खड़ी हो गई हैं। सभी पार्टियां जेबी पार्टियां बन गई हैं। इन सभी राष्ट्रीय और प्रांतीय पार्टियों का सबसे बड़ा दोष यह है कि इनके नेता पार्टी में अपने अलावा किसी अन्य को उभरने नहीं देते। हर पार्टी का नेता खुद को इंदिरा गांधी बनाए घूमता है। जबकि इंदिराजी जैसे विलक्षण गुणों का उनमें सर्वथा अभाव होता है। सारी पार्टियां प्राइवेट लिमिटेड कंपनियों में बदल गई हैं। पार्टी में आतंरिक लोकतंत्र शून्य हो गया है। कोई योग्य व्यक्ति शीर्ष पर नहीं पहुंच सकता। प्रतिभाएं दरकिनार कर दी जाती हैं। देश की बागडोर कमतर और घटिया लोगों के हाथ में चली जाती है। ये घटिया नेता जब मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति की कुर्सियों में बैठ जाते हैं तो इन्हें योग्य और निडर लोगों से डर लगने लगता है। इनकी हीनता ग्रंथि रिसने लगती है। ये अपने से भी घटिया लोगों की संगत पसंद करने लगते हैं। जी-हुजूरों से घिरे ये महान नेता लोग या तो बाकायदा आपात्काल घोषित कर देते हैं या फिर अपने साथियों पर अघोषित आपात्काल थोप देते हैं। वे तो सत्ता में बने रहते हैं लेकिन देश का पत्ता कट जाता है। अपने ढोंगी लोकतंत्र पर हम गर्व करते हैं लेकिन हम यह क्यों नहीं देखते कि हमारी ही तरह जेबीतंत्र चीन में चल रहा है और जो हमसे पीछे था, अब उसकी अर्थ-व्यवस्था हमसे पांच गुना अधिक मजबूत हो गई है। इस जेबीतंत्र को स्वस्थ लोकतंत्र कैसे बनाएं, इस पर हम विचार करें। (नया इंडिया की अनुमति से)
-दयानिधि
हाल ही में परागण करने वाले जीवों की तरफ ध्यान खींचने के लिए राष्ट्रीय परागणक सप्ताह मनाया गया था। दुनिया भर में कई कारणों से इनकी संख्या लगातार कम हो रही है। इनमें अधिकतर मधुमक्खियों और पौधों की प्रजातियों का जीवन एक दूसरे पर निर्भर करता है।
इसी को लेकर अमेरिका की यॉर्क यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने मधुमक्खियों और पौधों की प्रजातियों पर एक अध्ययन किया है। अध्ययन में पाया कि पिछले 30 वर्षों में दुनिया भर में खासकर उत्तर-पूर्वी अमेरिका में जलवायु परिवर्तन और कृषि के बढ़ते दायरे से मधुमक्खियों के आवास समाप्त हुए है। इसके कारण पौधों में परागणकर्ता (पॉलिनेटर) नेटवर्क का 94 प्रतिशत नुकसान हुआ है।
शोधकर्ता और विज्ञान संकाय के प्रोफेसर सैंड्रा रेहान और न्यू हैम्पशायर विश्वविद्यालय के स्नातक छात्र मिन्ना माथियासन ने वर्तमान समय और आंकड़ों के माध्यम से 125 साल पहले के पौधों में परागणकर्ता नेटवर्क का विश्लेषण किया। नेटवर्क में जंगली मधुमक्खियों और देशी पौधे शामिल थे, उनमें से अधिकांश अब गायब हो गए हैं। यह अध्ययन इन्सेक्ट कंजर्वेशन एंड डाइवर्सिटी पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।
लगभग 30 प्रतिशत पौधे-परागकण नेटवर्क से पूरी तरह से गायब हो गए थे, जिनमें से या तो मधुमक्खियां, पौधों अथवा दोनों के गायब होने के बारे में बताया गया है। एक और 64 प्रतिशत नेटवर्क के नुकसान से जंगली मधुमक्खियां, जैसे कि मजदूर मक्खियां, या देशी पौधे, जैसे सुमेक और विलो, अभी भी पारिस्थितिक तंत्र में मौजूद हैं, लेकिन मधुमक्खियां अब उन पौधों पर नहीं बैठती हैं। क्योंकि इनका आपसी जुड़ाव अब समाप्त हो गया है।
पौधों के परागणक नेटवर्क के शेष छह प्रतिशत अभी भी मौजूद हैं, यहां तक कि छोटी मधुमक्खियां जो परागण का काम करती हैं।
नेटवर्क में होने वाले नुकसान के कई कारण हैं। जिनमें से जलवायु परिवर्तन सबसे बड़ा कारण है। रेहान कहते हैं कि पिछले 100 वर्षों में वार्षिक तापमान में 2.5 डिग्री का बदलाव आया है। यह उस समय खिलने वाले पौधों में बदलाव करने के लिए पर्याप्त था।
एक मधुमक्खी के लिए जो महीनों बाहर रहती है, जो कि एक सामान्य परागणकर्ता है, यह वातावरण उसके लिए ठीक है, लेकिन एक मधुमक्खी जो वर्ष के केवल दो सप्ताह के लिए बाहर रहती है और केवल कुछ ही फूलों पर बैठती है, यह उसके लिए विनाशकारी हो सकता है। मधुमक्खियों की अलग प्रजातियों में और पौधों की आक्रामक (इनवेसिव) प्रजातियों में वृद्धि भी नेटवर्क में गिरावट का एक और कारण है।
रेहान कहते हैं हमें हर साल बहुत सारी आक्रामक प्रजातियां और इस प्रजाति के नए रिकॉर्ड मिल रहे हैं। यह आम तौर पर व्यापार और सजावटी पौधों के माध्यम से होता है। इनमें से बहुत सी मधुमक्खियां पेड़ों की शाखाओं में रहती हैं, इसलिए बिना जाने-समझे मधुमक्खी की प्रजातियां पौधों के साथ आयात हो जाती हैं।
शोधकर्ताओं का कहना है कि वन्य जीवों की जैव विविधता में सुधार के लिए आवासों की बहाली और कृषि भूमि में देशी फूलों के पौधों की वृद्धि महत्वपूर्ण है, लेकिन लोगों के लिए खाद्य सुरक्षा भी जरूरी है।
मधुमक्खियां और अन्य परागणकर्ता हमारे द्वारा खाए जाने वाली फसलों का परागण करके दुनिया भर में सैकड़ों अरबों रुपये के अनाज पैदा करने में मदद करते हैं। जंगली मधुमक्खियां 87 प्रतिशत या 308,006 से अधिक फूलों के पौधों की प्रजातियों में परागण करने वाली सूची में सबसे ऊपर हैं। इनमें से कई फसलें आर्थिक, व्यावसायिक रूप से महत्वपूर्ण हैं, जैसे सेब और ब्लूबेरी।
रेहान कहते हैं इन जंगली परागणकर्ताओं की आबादी और पौधों की प्रजातियों के साथ उनके विशेष, विकासवादी संबंधों को प्रभावित करने वाली, पर्यावरणीय परिस्थितियों की गहरी समझ हासिल करने की तत्काल आवश्यकता है। (downtoearth)
-डॉ राजू पाण्डेय
दुर्दांत अपराधी विकास दुबे की क्रूरता और नृशंसता के किस्से किसी को भी भयभीत और चिंतित कर सकते हैं किंतु अब जब विकास दुबे एक ऐसे एनकाउंटर में मारा जा चुका है जिसकी वास्तविकता शायद कभी उजागर न हो पाएगी तब राहत, आश्वासन और हौसले के स्थान पर एक अनजाना भय और हताशा मन-मस्तिष्क पर छाए हुए हैं। विकास दुबे एक घोषित अपराधी था और बेरहम बदमाशों की एक पूरी टोली उसके साथ थी। आठ पुलिसकर्मियों की निर्ममता से हत्या करने वाले अपराधी को देश के कानून के अनुसार मृत्युदंड मिलना तय था। कानून की पकड़ से भागते भयभीत अपराधी का पुलिस द्वारा पकड़ा जाना और फिर उसे देश के विधान के अनुसार दंडित किया जाना एक सामान्य प्रक्रिया है। किंतु विकास दुबे के कथित एनकाउंटर ने जो संदेश दिया है वह असामान्य है। इस पूरे प्रकरण में पुलिस इस अपराधी को उसके अंजाम तक पहुंचाने के लिए कृतसंकल्पित नहीं लगी। वह देश के कानून द्वारा संचालित तथा अनुशासित बल की भांति आचरण करती भी नहीं दिखती। बल्कि पूरे घटनाक्रम का स्वरूप कुछ ऐसा है मानो दो संगठित अपराधी गिरोहों के बीच गैंगवार हो रहा हो। कहीं भी ऐसा नहीं लगता कि अराजक आतंकवादी विकास दुबे की हिंसा, आतंक और प्रतिशोध की रणनीति का मुकाबला करने के लिए संविधान और कानून के प्रति वचनबद्ध कोई ऐसा संगठन कार्य कर रहा था जिस पर आम लोगों की रक्षा करने का और उससे भी अधिक यह विश्वास उत्पन्न करने का उत्तरदायित्व है कि संविधान और कानून से ऊपर कोई नहीं है। पूरा घटनाक्रम अपराध जगत के नियमों द्वारा संचालित लगता है। ऐसा लगता है कि विकास दुबे विशाल अपराध तंत्र का एक छोटा सा पुर्जा मात्र था जिसने अपनी सीमाओं का अतिक्रमण किया था, जो जरूरत से ज्यादा महत्वाकांक्षी हो गया था, जो निजी प्रतिशोध को अपने आकाओं के हित से ज्यादा महत्व देने लगा था और जिसने अपने संरक्षकों का नाम लेने की अक्षम्य भूल कर दी थी - इसीलिए उसका मारा जाना आवश्यक हो गया था ताकि अन्य कोई अपराधी स्वयं को उस अपराध तंत्र से बड़ा समझने की जुर्रत फिर न करे।
यह आशा करना कि विकास दुबे प्रकरण राजनीति के अपराधीकरण और पुलिस महकमे में व्याप्त भ्रष्टाचार पर किसी व्यापक और सार्थक बहस को प्रारंभ कर सकता है जिसकी निर्णायक परिणति लंबे समय से जानबूझकर लंबित रखे गए पुलिस रिफॉर्म्स और चुनाव सुधारों के क्रियान्वयन में होगी - अतिशय भोलापन है। सच्चाई यह है कि लगभग सभी राजनीतिक दलों के नेताओं और पुलिस तथा प्रशासन के अधिकारियों ने विकास दुबे के मारे जाने पर राहत की सांस ली है। अगर कोई सबक हमारी भ्रष्ट लोकतांत्रिक व्यवस्था ने सीखा भी होगा तो वह यही हो सकता है कि भविष्य में सत्ता और अपराधियों का गठजोड़ और अधिक सतर्क तथा परिष्कृत रूप से किया जाए जिससे इस तरह की असुविधाजनक परिस्थितियों से बचा जा सके।
यह घटिया पटकथाओं के आधार पर देश के लोकतंत्र को संचालित करने का दौर है। हमने फार्मूला फिल्मों के युग में देखा है कि ब्लड, हॉरर,क्राइम और रिवेंज पर आधारित सेनेकन ट्रेजेडीज की विशेषताओं का निम्न स्तरीय अनुकरण करने वाली फिल्में बॉक्स ऑफिस पर धूम मचाया करती थीं। यह फिल्में यथार्थ से कोसों दूर हुआ करती थीं फिर भी सफलता के कीर्तिमान बनाती थीं और बुनियादी मुद्दों पर केंद्रित फिल्मों को दर्शक नहीं मिलते थे। जो फिल्में हिंसा और सेक्स का कॉकटेल परोसा करती थीं वे मुख्यधारा के सिनेमा के नाम से संबोधित की जाती थीं और साफ सुथरी शिक्षाप्रद फिल्में समानांतर सिनेमा कहलाती थीं। यही फॉर्मूले आज राजनीति में अपनाए जा रहे हैं। बुनियादी मुद्दों पर चर्चा से बचने के लिए व्यक्तियों को लार्जर दैन लाइफ नायकों और खलनायकों में बदला जा रहा है। विकास दुबे प्रकरण कोई अपवाद नहीं है। विकास दुबे एक दुस्साहसिक खलनायक है। किंतु उसके सामने रामभक्त योगी आदित्यनाथ जैसा नायक है जो अपराधियों का काल है। राक्षसी शक्तियों का प्रतीक विकास दुबे योगी आदित्यनाथ के सैनिकों को मार डालता है। अब योगी का प्रतिशोध आरंभ होता है। राम रावण युद्ध की भांति विकास दुबे के साथी एक एक कर मारे जाते हैं और अंत में योगी की सेना विकास दुबे का भी वध कर देती है। अपराध का अंत हो जाता है। राम राज्य की स्थापना हो जाती है। यही वह नैरेटिव है जो पिछले कुछ दिनों में मुख्य धारा के मीडिया द्वारा गढ़ा जा रहा है। यदि कोई यह सवाल पूछता है कि क्या उचित नहीं होता यदि न्यायिक प्रक्रिया द्वारा विकास दुबे को उसके अंजाम तक पहुंचाया जाता तो उसे देशद्रोही कहने वाले मित्रों की कमी नहीं है। हो सकता है यह प्रतिप्रश्न भी किया जाए कि क्या एनकाउंटर पर संदेह करना विकास दुबे द्वारा मारे गए पुलिस कर्मियों की शहादत का अपमान नहीं है? कुछ न्यूज़ चैनल चीख चीख कर कह रहे हैं कि विकास दुबे की मुठभेड़ में मौत पर संदेह करने वाले लोग वही हैं जो आतंकवादियों के मानवाधिकारों की रक्षा की बात करते हैं और सैनिकों की शहादत पर मौन रहते हैं।
चाहे वह उत्तरप्रदेश की राजनीति हो या अपराध जगत, जाति का विमर्श यहां अपरिहार्य रूप से संबद्ध होता है। सवर्ण जातियां लोकतंत्र में सामंती शोषण को निरंतर बनाए रखने हेतु अपराध और आतंक का सहारा लेती रही हैं और जनता के एक बड़े वर्ग को मतदान से वंचित करने या प्रत्याशी विशेष के लिए मतदान करने हेतु विवश किया जाता रहा है। विकास दुबे प्रकरण अपवाद नहीं है। किंतु जाति के आधार पर निर्मित शोषण तंत्र की चीर फाड़ किसी को पसंद नहीं है। जैसे ही इस पर चर्चा आरंभ होती है मीडिया का एक हिस्सा तेज आवाज में कहने लगता है कि अपराधी की जाति नहीं होती। प्रायः यह वही पत्रकार होते हैं जो दिल्ली के दंगों या कोरोना के प्रसार के लिए अल्पसंख्यक समुदाय को जिम्मेदार ठहराने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा देते हैं। शायद इनका यह मानना है कि अपराधी की जाति नहीं होती लेकिन धर्म जरूर होता है। यह सिद्धांतों की अपनी सुविधानुसार अवसरवादी व्याख्या का दौर है।
एक ऐसा अपराधी जो कई दशकों से अनेक राजनीतिक दलों का चहेता रहा था और एक बड़े क्षेत्र में पुलिस एवं प्रशासन में मौजूद भ्रष्ट तत्वों के साथ मिलकर लगभग एक समानांतर सरकार चलाता रहा था, बड़ी हड़बड़ी में अनेक अविश्वसनीय संयोगों के बीच पुलिस के साथ मुठभेड़ में मारा गया। पुलिस के पास इस आतंकवादी का मुंह खुलवाने का धीरज तो नहीं था किंतु इसका मुंह बन्द करने की आतुरता पुलिस ने अवश्य दिखाई। विकास दुबे के घर को खंगालने के स्थान पर ढहाने वाली पुलिस सबूत इकट्ठा करने से ज्यादा सबूत मिटाती नजर आई।
अपनी पहचान बताकर लगभग आत्मसमर्पण करने वाले इस दुर्दांत अपराधी को उज्जैन से कानपुर लाते वक्त न्यायिक प्रक्रिया और सामान्य सुरक्षा सावधानियों की उपेक्षा की गई। अंत में मीडिया को कुछ दूरी पर रोक दिया गया और समाचार मिला कि विकास दुबे को ले जा रही गाड़ी दुर्घटनाग्रस्त हो गई तथा मौके का फायदा उठाकर भागने की कोशिश में पुलिस के हथियार छीनकर पुलिस बल पर गोलियां चलाता विकास दुबे पुलिस द्वारा आत्मरक्षार्थ चलाई गई गोलियों से मारा गया। इस प्रकार उन भ्रष्ट जनप्रतिनिधियों और पुलिस तथा प्रशासन के उन पतित अधिकारियों तक पहुंचने का मार्ग बंद हो गया जिन्होंने दशकों से संरक्षण और प्रोत्साहन देकर विकास दुबे को आतंक का पर्याय बनाया था। अब विकास दुबे के निर्माता दूसरा विकास दुबे गढ़ने के लिए स्वतंत्र हैं। विकास दुबे के सारे राजदारों तक यह संदेश पहुंच गया है कि मुंह खोलने का अंजाम क्या होता है? भ्रष्ट व्यवस्था को बार बार विकास दुबे के संरक्षकों के विषय में बताने वाले शहीद पुलिस अधिकारी के परिजनों को भी संदेश मिल गया है कि जितना न्याय उन्हें मिल गया है वे उतने से ही संतोष कर लें। यह बिल्कुल वैसा ही है जैसे हत्या में प्रयुक्त किसी हथियार को नष्ट कर यह दावा किया जाए कि हत्यारे को मार गिराया गया है। विकास दुबे अपने आकाओं का एक अस्त्र मात्र था।
विकास दुबे की मौत के बाद जो कुछ चल रहा है वह आश्चर्यजनक रूप से निर्लज्जतापूर्ण है। विकास दुबे की सुरक्षा में गंभीर लापरवाही बरतने वाली यूपी पुलिस के साहस की प्रशंसा में उच्च पुलिस अधिकारी और सरकारी अफसर तथा नेता बयान पर बयान दे रहे हैं। यदि कोई पुलिस की लापरवाही की चर्चा कर रहा है तो उसे पुलिस का मनोबल गिराने वाला और निर्वाचित सरकार पर संदेह करने वाला अराजकतावादी करार दे दिया जा रहा है। यह सब बिल्कुल वैसा ही भोंडा है जैसे बड़े आराम से अनेक राज्यों की सीमा पार करते हुए विकास के मध्यप्रदेश के उज्जैन पहुंचने पर टीवी चैनलों की यह सुर्खी – योगी के खौफ से राज्य दर राज्य भटकता कायर विकास! या शिवराज की पुलिस ने भगोड़े विकास को धर दबोचा- जैसी अनेक समाचार पत्रों की हेडलाइंस। कुछ समाचार पत्र न्याय प्रक्रिया की विसंगतियों और न्याय पालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार की दुहाई देकर विकास दुबे के और इससे मिलते जुलते एनकाउंटर्स को उचित ठहरा रहे हैं। ऐसा लगने लगा है कि हमारा लोकतंत्र इतना अक्षम और लाचार है कि अब न्याय प्राप्ति और नागरिक सुरक्षा के लिए हमें आदिम बर्बरता और जंगल के कानून का सहारा लेना होगा।
राजनीति से जुड़े डिस्कोर्स में यह गंभीर और घातक परिवर्तन जितने चिंताजनक हैं उससे भी ज्यादा खतरनाक है हमारा इस डिस्कोर्स का आदी बन जाना। जब हम 'योगी के उत्तरप्रदेश में अपराधियों की खैर नहीं' या 'मोदी के भारत में कोरोना को मिला मुंहतोड़ जवाब” या “डोभाल की घुड़की से पीछे हटा चीन' या 'विपिन रावत के चक्रव्यूह में लाचार पाकिस्तान' जैसी सुर्खियों को पचाने लगते हैं और इनके आधार पर सोचना प्रारंभ कर देते हैं तो हम लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के संचालन के कुछ आधारभूत सूत्रों को रद्दी की टोकरी में डाल देते हैं। अनामता का सिद्धांत, व्यक्ति निरपेक्ष शासन व्यवस्था की अवधारणा, सामूहिक उत्तरदायित्व का सिद्धांत, विदेश नीति की निरंतरता का विचार, संवैधानिक मूल्यों की सर्वोपरिता का आदर्श जैसे कितने ही बहुमूल्य और समय परीक्षित लोकतांत्रिक मूल्यों को हाशिए पर धकेल दिया गया है। हमारा लोकतंत्र नायक और खलनायक की भाषा में सोचने लगा है। इन नायकों और खलनायकों को सत्ता अपनी सुविधा से गढ़ रही है और उचित-अनुचित तथा नैतिक-अनैतिक की अवसरवादी व्याख्याएं भी कर रही है। लोकतंत्र अतिरंजना और अतिरेक का स्वभावतः विरोधी है किंतु इनके द्वारा ही लोकतंत्र को संचालित करने की कोशिश की जा रही है।
विकास दुबे प्रकरण अपराध को जीवित रखने के लिए अपराधी को मार डालने का अनूठा उदाहरण है। लेकिन इससे भी घातक है इसे न्यायोचित ठहराने और नायक-खलनायक के मुहावरे में ढालने की कोशिश। भ्रष्टाचार, राजनीति का अपराधीकरण, पुलिस रिफॉर्म्स, चुनाव सुधार, जातिगत सर्वोच्चता की स्थापना के लिए हिंसा जैसे कितने ही बुनियादी मुद्दों का एनकाउंटर किया जा रहा है और हम मूक दर्शक बने हुए हैं।
रायगढ़, छत्तीसगढ़
भारत द्वारा पिछले वर्ष की तुलना में 2019-20 में 24,950 मीट्रिक टन ज्यादा नारियल के रेशों और उससे बने उत्पाद का निर्यात किया था
-ललित मौर्य
देश में नारियल के रेशों (कॉयर) और उससे बने उत्पादों के निर्यात में वृद्धि दर्ज की गई है। जोकि 2019-20 में शिखर पर पहुंच गया है। सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम मंत्रालय द्वारा जारी अधिसूचना के अनुसार 2019-20 में 2757.90 करोड़ रुपये का रिकॉर्ड निर्यात किया गया था। जोकि पिछले वर्ष से करीब 30 करोड़ रुपए ज्यादा है। गौरतलब है कि 2018-19 में यह निर्यात 2728.04 करोड़ रुपये का था।
आंकड़ों के अनुसार जहां 2019-20 में नारियल के रेशों और उसके उत्पाद का 9,88,996 मीट्रिक टन निर्यात किया गया था। जो कि पिछले वर्ष के मुकाबले 24,950 मीट्रिक टन ज्यादा है। जहां एक ओर रेशे से बने उत्पाद जैसे कॉयर पिथ, टफ्ड मैट, जियो-टेक्सटाइल्स, रग्स, कालीन, रस्सी और पावर-लूम मैट के निर्यात की मात्रा और कीमत दोनों में वृद्धि दर्ज की गई। वहीं हैंड-लूम मैट, कॉयर यार्न, रबराइज्ड कॉयर और पावर-लूम मैटिंग जैसे उत्पादों के निर्यात की मात्रा में गिरावट दर्ज की गई है। इसके बावजूद उनकी कीमतों में भी वृद्धि देखी गई है।
अच्छी बात यह रही की निर्यात के साथ-साथ देश में भी कॉयर और उससे बने उत्पादों की बिक्री में तेजी बनी रही। और निर्यात के साथ-साथ घरेलू बाजार में भी इसकी मांग लगातार बनी रही थी। निर्यात में सबसे ज्यादा योगदान कॉयर पिथ का रहा। जिसका कुल निर्यात 1349.63 करोड़ रुपये का था। जो कि कुल कॉयर निर्यात की कमाई का 49 फीसदी है। जबकि इसके बाद कॉयर फाइबर की हिस्सेदारी है, जोकि कुल निर्यात का करीब 18 फीसदी था। जिसकी कीमत 498.43 करोड़ रुपये थी। वहीं कॉयर से बने तैयार उत्पादों की कुल निर्यात में हिस्सेदारी 33 फीसदी की रही। जिसमें 20 फीसदी के साथ टफड मैट सबसे ऊपर था।
भारत द्वारा कॉयर और उसके उत्पादों का निर्यात समुद्री मार्ग से किया जाता है। इनका ज्यादातर निर्यात (करीब 99 फीसदी) तूतीकोरीन, चेन्नई और कोच्चि के बंदरगाह से होता है। जबकि कुछ निर्यात विशाखापत्तनम, मुबंई और कोलकाता आदि बंदरगाहों से किया जाता है। (downtoearth)
-सुशील मानव
कीटनाशक पीकर बेहोश पड़े पिता को हाथ में लेकर विलाप करते बच्चे की तस्वीर आपने देखी कि नहीं देखी। उस बच्चे के दारुण दु:ख के लिए सिफऱ् एमपी पुलिस या शिवराज सिंह सरकार ही जिम्मेदार नहीं है आप भी हैं। आखिर आपने ही तो उन्हें चुनकर सत्ता सौंपी है। अपना अधिकार मांगते 6 किसानों की हत्या के बावजूद। आपने ही तो पुलिस कस्टडी में होने वाली हत्याओं और फर्जी एनकाउंटर को त्वरित न्याय बताकर पुलिस का मनोबल बढ़ाया है।
मध्य प्रदेश पुलिस द्वारा गुना में एक दलित किसान दंपति की बर्बरतापूर्ण पिटाई का वीडियो आपने देखा कि नहीं देखा। नहीं देखा तो देख लीजिए वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल है।
मामला क्या है
14 जुलाई मंगलवार को दोपहर 2.30 बजे गुना के कैंट इलाके के जगनपुर चक में एमपी पुलिस टीम एक दलित किसान दंपति के कब्जे से जमीन छुड़ाने के लिए गई थी। इस दौरान पुलिसवालों ने पति-पत्नी और उसके बच्चों तक लाठियों और लात घूसों से बर्बरतापूर्वक मारा-पीटा।
बताया जा रहा है कि साइंस कॉलेज के लिए दी गई जमीन से कब्जा हटाने गई थी विरोध करने पर दलित दंपति के साथ ये सलूक किया गया। दंपत्ति अपने 7 बच्चों के साथ प्रशासनिक- पुलिस अफसरों के सामने हाथ जोड़ता रहा, उसका कहना था कि यह भूमि गप्पू पारदी ने उसे बटिया पर दी है। कर्ज लेकर वह बोवनी कर चुका है। अगर फसल उजड़ी तो बर्बाद हो जाएगा, लेकिन किसान की फरियाद किसी ने नहीं सुनी। पुलिसिया बर्बरता से आहत होकर एक दलित दंपति ने कीटनाशक पीकर आत्महत्या का प्रयास किया था।
बताया जा रहा है कि जमीन पर कई साल से पूर्व पार्षद गप्पू पारदी का कब्जा है। पारदी परिवार ने जमीन राजकुमार अहिरवार को बटिया पर दे दी है। किसान राजकुमार का कहना था कि उसने 2 लाख कर्ज लेकर धान की बोवनी किया है। इससे पहले का भी उस पर 2 लाख का कर्ज चढ़ा हुआ है। इसीलिए उसने जमीन छुड़ाने गई पुलिस और प्रशासनिक अमले से अपील की कि यह कब्जा बाद में हटवा लें। लेकिन प्रशासन ने उसकी एक न सुनी और बलपूर्वक कब्जा हटवाना शुरू कर दिया।
पुलिस की बर्बरता से आहत दलित किसान राजकुमार बीवी समेत जहर पी लिया। माता-पिता के जमीन पर गिरते ही मासूम बच्चे पास बैठकर रोते रहे। कुछ देर बाद दोनों को उठाकर जिला अस्पताल भेजा गया। राजकुमार के छोटे भाई ने कब्जा हटाने का विरोध किया तो उस पर भी लाठियां भांजी गईं।
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शिवराज सिंह से इस्तीफे की मांग
सोशल मीडिया पर वीडियो वायरल होने के बाद गुना में पुलिस द्वारा किसान दंपति की पिटाई का वीडियो और तस्वीरें फेसबुक, ट्विटर पर ट्रेंड करने लगा। ‘शिवराजसिंह इस्तीफा दो’ टॉप ट्रेंड करने लगा।
क्या ऐसी हिम्मत इन क्षेत्रों में तथाकथित जनसेवकों व रसूख़दारों द्वारा कब्ज़ा की गयी हज़ारों एकड़ शासकीय भूमि को छुड़ाने के लिये भी शिवराज सरकार दिखायेगी?
ऐसी घटना बर्दाश्त नहीं की जा सकती है। इसके दोषियों पर तत्काल कड़ी कार्यवाही हो , अन्यथा कांग्रेस चुप नहीं बैठेगी।
नेता प्रतिपक्ष कमलनाथ ने अपने ट्विटर हैंडल पर वीडियो ट्वीट करते लिखा- मासूम बच्चों की पिटाई कहां का न्याय है। उन्होंने एक के बाद एक तीन ट्वीट किए और लिखा-‘पीडि़त युवक का जमीन संबंधी कोई शासकीय विवाद है तो भी उसे कानूनन हल किया जा सकता है। इस तरह कानून हाथ में लेकर उसकी, उसकी पत्नी की, परिजनों की और मासूम बच्चों तक की इतनी बेरहमी से पिटाई, यह कहां का न्याय है? क्या यह सब इसलिए कि वो एक दलित परिवार से है, गरीब किसान हैं?’
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देर रात हटाए गए गुना के कलेक्टर और एसपी
मामला हाथ से निकलते देख कल देर रात मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने गुना के कलेक्टर और एसपी को हटाने के निर्देश दिए हैं। साथ ही सरकार द्वारा उच्च स्तरीय जांच के आदेश भी दिए गए हैं। (janchowk)
-सुशील मानव
कीटनाशक पीकर बेहोश पड़े पिता को हाथ में लेकर विलाप करते बच्चे की तस्वीर आपने देखी कि नहीं देखी। उस बच्चे के दारुण दु:ख के लिए सिफऱ् एमपी पुलिस या शिवराज सिंह सरकार ही जिम्मेदार नहीं है आप भी हैं। आखिर आपने ही तो उन्हें चुनकर सत्ता सौंपी है। अपना अधिकार मांगते 6 किसानों की हत्या के बावजूद। आपने ही तो पुलिस कस्टडी में होने वाली हत्याओं और फर्जी एनकाउंटर को त्वरित न्याय बताकर पुलिस का मनोबल बढ़ाया है।
मध्य प्रदेश पुलिस द्वारा गुना में एक दलित किसान दंपति की बर्बरतापूर्ण पिटाई का वीडियो आपने देखा कि नहीं देखा। नहीं देखा तो देख लीजिए वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल है।
मामला क्या है
14 जुलाई मंगलवार को दोपहर 2.30 बजे गुना के कैंट इलाके के जगनपुर चक में एमपी पुलिस टीम एक दलित किसान दंपति के कब्जे से जमीन छुड़ाने के लिए गई थी। इस दौरान पुलिसवालों ने पति-पत्नी और उसके बच्चों तक लाठियों और लात घूसों से बर्बरतापूर्वक मारा-पीटा।
बताया जा रहा है कि साइंस कॉलेज के लिए दी गई जमीन से कब्जा हटाने गई थी विरोध करने पर दलित दंपति के साथ ये सलूक किया गया। दंपत्ति अपने 7 बच्चों के साथ प्रशासनिक- पुलिस अफसरों के सामने हाथ जोड़ता रहा, उसका कहना था कि यह भूमि गप्पू पारदी ने उसे बटिया पर दी है। कर्ज लेकर वह बोवनी कर चुका है। अगर फसल उजड़ी तो बर्बाद हो जाएगा, लेकिन किसान की फरियाद किसी ने नहीं सुनी। पुलिसिया बर्बरता से आहत होकर एक दलित दंपति ने कीटनाशक पीकर आत्महत्या का प्रयास किया था।
बताया जा रहा है कि जमीन पर कई साल से पूर्व पार्षद गप्पू पारदी का कब्जा है। पारदी परिवार ने जमीन राजकुमार अहिरवार को बटिया पर दे दी है। किसान राजकुमार का कहना था कि उसने 2 लाख कर्ज लेकर धान की बोवनी किया है। इससे पहले का भी उस पर 2 लाख का कर्ज चढ़ा हुआ है। इसीलिए उसने जमीन छुड़ाने गई पुलिस और प्रशासनिक अमले से अपील की कि यह कब्जा बाद में हटवा लें। लेकिन प्रशासन ने उसकी एक न सुनी और बलपूर्वक कब्जा हटवाना शुरू कर दिया।
पुलिस की बर्बरता से आहत दलित किसान राजकुमार बीवी समेत जहर पी लिया। माता-पिता के जमीन पर गिरते ही मासूम बच्चे पास बैठकर रोते रहे। कुछ देर बाद दोनों को उठाकर जिला अस्पताल भेजा गया। राजकुमार के छोटे भाई ने कब्जा हटाने का विरोध किया तो उस पर भी लाठियां भांजी गईं।
शिवराज सिंह से इस्तीफे की मांग
सोशल मीडिया पर वीडियो वायरल होने के बाद गुना में पुलिस द्वारा किसान दंपति की पिटाई का वीडियो और तस्वीरें फेसबुक, ट्विटर पर ट्रेंड करने लगा। ‘शिवराजसिंह इस्तीफा दो’ टॉप ट्रेंड करने लगा।
क्या ऐसी हिम्मत इन क्षेत्रों में तथाकथित जनसेवकों व रसूख़दारों द्वारा कब्ज़ा की गयी हज़ारों एकड़ शासकीय भूमि को छुड़ाने के लिये भी शिवराज सरकार दिखायेगी?
ऐसी घटना बर्दाश्त नहीं की जा सकती है। इसके दोषियों पर तत्काल कड़ी कार्यवाही हो , अन्यथा कांग्रेस चुप नहीं बैठेगी।
नेता प्रतिपक्ष कमलनाथ ने अपने ट्विटर हैंडल पर वीडियो ट्वीट करते लिखा- मासूम बच्चों की पिटाई कहां का न्याय है। उन्होंने एक के बाद एक तीन ट्वीट किए और लिखा-‘पीडि़त युवक का जमीन संबंधी कोई शासकीय विवाद है तो भी उसे कानूनन हल किया जा सकता है। इस तरह कानून हाथ में लेकर उसकी, उसकी पत्नी की, परिजनों की और मासूम बच्चों तक की इतनी बेरहमी से पिटाई, यह कहां का न्याय है? क्या यह सब इसलिए कि वो एक दलित परिवार से है, गरीब किसान हैं?’
देर रात हटाए गए गुना के कलेक्टर और एसपी
मामला हाथ से निकलते देख कल देर रात मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने गुना के कलेक्टर और एसपी को हटाने के निर्देश दिए हैं। साथ ही सरकार द्वारा उच्च स्तरीय जांच के आदेश भी दिए गए हैं। (janchowk)
एक पंडित जी और एक मौलवी साहब दोस्त थे। दोनों अपने मजहब को लेकर बेहद कट्टर। जि़ंदगी भर पंडित ने धर्मयुद्ध की और मौलाना ने जिहाद की प्रतीक्षा की ताकि वे अपने धर्म के लिए लड़-मर कर स्वर्ग या जन्नत में प्रवेश पा सकें। दोनों धर्मों के जाहिलों के मुक़ाबले उन्हें यह मौक़ा नहीं मिला तो उन्होंने तय किया कि वे आपस में ही लड़ मरें और स्वर्ग की अप्सराओं, जन्नत की हूरों का सुख भोगें। एक दिन दोनों लड़ कर मरे और अपने-अपने गंतव्य पर पहुंच गए।
महीनों बाद स्वर्ग और जन्नत के बीच की एक खाली जगह पर दोनों की मुलाकात हुई। दोनों उदास थे। पंडित ने बताया कि स्वर्ग जटाधारी ऋषि-मुनियों, साधु-साध्वियों और खूसट ब्रह्मचारियों से भरा पड़ा है। च्पवित्रज् लोगों की इस उबाऊ भीड़ में दिल बहलाने का कोई साधन नहीं। गायन के नाम पर ध्रुपद-धमार और वादन के नाम पर मृदंग और वीणा। नृत्य की महफि़ल सजाने वाली इन्द्र की अप्सराएं लाखों साल की बूढ़ी हो चुकी हैं। भोजन में छप्पन भोग की एकरसता से बोरियत होने लगी है। इंद्र महाराज की स्तुति गाकर कभी-कभी थोड़ा सोमरस मिल भी जाय तो बिना चखने के नशा नहीं चढ़ता।
मौलवी का दुख भी कुछ अलग नहीं था। मनहूस धर्मगुरुओं की भीड़ में उनका भी दम घुटने लगा था। सबके अलग फिरके, अलग फ़तवे। जन्नत में जिन बहत्तर हूरों की लालच में पहुंचे थे, उन सभी ने बुढ़ापे मे बिस्तर पकड़ लिया है। रात-रात भर उनके खांसने-थूकने की आवाज़ें गूंजती हैं। खजूर के पेड़, नहरों का ठंढा पानी और सहरा के दिलकश नज़ारें किसी का कितना दिल बहलायेंगे ? खाने के लिए मीठे खजूर तो हैं, लेकिन कबाब और बिरयानी के दीदार मुश्किल। एक-दो बार वे बगल के ईसाईयों के हेवन में भी झांककर आए, लेकिन वहां भी सफेद लबादों में प्रार्थनाएं करते प्रेतनुमा पादरियों और ननों के सिवा कुछ नहीं नजर आया।
थोड़ी ही देर में नरक से टहलता हुआ पुलिस का एक अफसर उधर से गुजऱा। पंडित और मौलाना ने उसपर तरस खाते हुए पूछा कि आपको तो रोज यमराज के दूत आग में भून कर और गर्म तेल के कड़ाहों में तल कर खाते होंगे ? पुलिसवाला हंसा- अरे मोली साहब और पंडीजी, ये सारी कही-सुनी बाते हैं। मरने के बाद जब देह ही नहीं होती तो वे ससुरे भूनेंगे-तलेंगे क्या और खाएंगे किसको ? मरने के पहले मुझे भी क्या पता था कि दुनिया की सारी रंगीनियां नरक में ही मौज़ूद हैं। पृथ्वी लोक के सारे रोमांटिक स्त्री-पुरूष, बिना ब्याह चोंच लड़ाने वाले प्रेमी-प्रेमिकाएं, अफेयरबाज अभिनेता-अभिनेत्रियां - सब वही हैं। स्त्रियों के नंगे चित्र बनाने वाले चित्रकार भी हैं, ग़ैर औरतों का तसव्वुर करने वाले कवि-शायर-गवैये भी और देर रात पराई औरतों के इनबॉक्स में जाकर प्रेम निवेदन करने वाले तमाम फेसबुकिये भी। राजनेता भी और मीडिया वाले भी। बगल वाले जहन्नुम में भी कमोबेश ऐसे ही खूबसूरत नजारे हैं। मेरे तमाम सहकर्मी भी नरक में ही हैं जो वहां के स्टाफ को पटाकर मेरे लिए चिकन-मटन और दारू का इंतज़ाम कर देते हैं। उनके सुबह-शाम के सैलूट से नर्क में भी मेरा रूतबा बुलंद रहता है।
नर्कवासी पुलिसवाले की बात सुनकर पंडित जी और मौलवी साहब को स्वर्ग या जन्नत में जाने के अपने फ़ैसले पर बेहद अफसोस हुआ। नरक या जहन्नुम का तसव्वुर उन्हें इतना दिलफऱेब लगा कि उन्होंने तय किया कि अगले ही दिन वे स्वर्ग और जन्नत की असीम शांति में इतने बवाल खड़ा करेंगे कि वहां के प्रबंधकों को मज़बूरन उन्हें नरक या जहन्नुम में शिफ्ट करना पड़ जाय।
-ध्रुव गुप्त
तेजी से उठ रही कर्ज चुकाने में राहत की मांग
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के महानिदेशक टेड्रोस एडेनॉम ने 13 जुलाई को मीडिया को दिए गए अपने संबोधन में कहा है "इस वायरस का एक ही मकसद है और वह है लोगों को संक्रमित करना। मेरा कहना शायद अच्छा न लगे लेकिन कई देश गलत दिशा में मुड़ चुके हैं।" उन्होंने यह बात लगातार फैल रहे कोविड-19 के संदर्भ में कही। टेड्रोस ने कहा कि सरकारें इसके नियंत्रण को लेकर उचित प्रयास नहीं कर रही हैं। 12 जुलाई, 2020 को दुनिया भर में 230,000 नए कोरोना संक्रमण के मामले एक ही दिन में सामने आए। यह मार्च में महामारी के ऐलान के बाद से एक ही दिन में सर्वाधिक संक्रमण का आंकड़ा यानी रिकॉर्ड रहा है।
लेकिन उन्होंने अपने बयान में यह भी कहा "मैं जानता हूं कि अन्य स्वास्थ्य, आर्थिक और सांस्कृतिक चुनौतियों को भी संतुलित करने की जरूरत है।" इसी के समानांतर दुनिया का आर्थिक अंत शुरु हो गया है, खासतौर से विकसित देश कर्ज के पहाड़ तले दबे हैं और समय से कर्ज की वापसी कर सकने में असक्षम हैं। यह एक ऐसी स्थिति है जो कभी नहीं देखी गई। कोविड-19 की महामारी से पहले भी उनके ऊपर काफी बड़ा कर्ज था जिसकी वापसी होनी थी। इस महामारी ने एक आपात स्थिति खड़ी कर दी है जो सभी उपलब्ध संसाधनों का डायवर्जन जारी है। अब विकसित देशों के सामने सिर्फ दो विकल्प बचे हैं कि ऋण सेवा को जारी रखा जाए, जिसका आशय होगा कि स्वास्थ्य के आपातकाल में नाजायज तरीके से खर्च होना या ऋण को चुकाया ही न जाए। दोनों विकल्प ठीक नहीं प्रतीत होते हैं। लेकिन बाद में इस बात की बड़ी संभावना है कि ऋण सेवा का अस्थायी तौर पर निलंबन कर दिया जाए। आसान शब्दों में कहें तो ऋण के भुगतान में थोड़े समय के लिए राहत दे दी जाए।
इस बाद वाली स्थिति यानी विकल्प के लिए काफी कोलाहल है, जिसे प्रायः "वैश्विक ऋण सौदा" (ग्लोबल डेब्ट डील) कहा जा रहा। ऋण सेवा निलंबन यानी कर्ज भुगतान की अवधि में राहत की मांग विश्व बैंक और आईएमएफ जैसे बहुपक्षीय विकास वित्तपोषण निकायों से शुरू होकर संयुक्त राष्ट्र और दोनों विकसित और विकासशील देशों के प्लेटफार्मों तक तेजी से उठ रही है।
विकासशील और गरीब देशों की आबादी कुल वैश्विकआबादी में 70 फीसदी हैं और वैश्विक जीडीपी में इनकी हिस्सेदारी करीब 33 फीसदी है। महामारी के कारण पहली बार वैश्विक गरीबी अपने पांव पसार रही है। विश्व खाद्य कार्यक्रम का कहना है कि यह महामारी भूख से पीड़ित लोगों की संख्या में करीब दोगुनी वृद्धि (26.5 करोड़) कर सकती है। इसके अलावा ओईसीडी का नीतिगत पेपर कहता है कि इस वैश्विक आर्थिक संकट के चलते 2019 के स्तर की तुलना में 2020 में विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में बाहरी निजी वित्तपोषण 700 अरब यूएस डॉलर तक सिकुड़ सकता है। यह 2008 की वैश्विक वित्तीय मंदी से करीब 60 फीसदी ज्यादा हो सकता है। ओईसीडी का कहना है, "इस तरह की बिगड़ती स्थिति कई झटके दे सकती है जो कि जलवायु परिवर्तन और अन्य वैश्विक सार्वजनिक खराबियों के लिए भविष्य की और महामारियों को और बढ़ा सकती है"।
यूएनसीटीएडी और आईएमएफ ने अनुमान लगाया है कि विकासशील देशों को अपनी आबादी को आर्थिक सहायता और सुविधा के मामले में महामारी और इसके दुष्प्रभावों से निपटने के लिए तुरंत 2.5 खरब (ट्रिलियन) अमेरिकी डॉलर की आवश्यकता है। यूएनसीटीएडी ने विकासशील देशों के लिए इस राहत पैकेज की मांग की। पहले ही, 100 देशों ने आईएमएफ से तत्काल वित्तीय मदद मांगी है। अफ्रीकी वित्त मंत्रियों ने हाल ही में 100 अरब अमेरिकी डॉलर के प्रोत्साहन पैकेज की अपील की। इसमें से 40 प्रतिशत से अधिक अफ्रीकी देशों के लिए ऋण राहत के रूप में था। उन्होंने अगले साल के लिए भी ब्याज भुगतान पर रोक लगाने की मांग की है।
संयुक्त राष्ट्र के महासचिव मुखिसा कित्युई ने कहा कि विकासशील देशों पर कर्ज का भुगतान बढ़ रहा है, क्योंकि उन्हें कोविड-19 के साथ काफी आर्थिक झटके लगें हैं ऐसे में इस बढ़ते वित्तीय दबाव को दूर करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को तुरंत और कदम उठाने चाहिए।
यूएनसीटीएडी के एक अनुमान के अनुसार मौजूदा वित्त वर्ष और 2021 में, विकासशील देशों को 2.6 खरब यूएस डॉलर से 3.4 खरब यूएस डॉलर के बीच सार्वजनिक बाह्य ऋण चुकाना है। वहीं, कोविड -19 महामारी से प्रेरित वित्तीय संकट ऐसे समय में सामने आया जब दुनिया पहले से ही भारी कर्ज में डूबी हुई थी। 2018 में, निम्न और मध्यम आय वाले देशों में सार्वजनिक ऋण ने अपने सकल घरेलू उत्पाद का 51 प्रतिशत की हिस्सेदारी की थी। वहीं, 2016 के उपलब्ध नवीनतम आंकड़ों के अनुसार, कम आय वाले देशों ने अपने ऋण का 55 प्रतिशत तक गैर-रियायती स्रोतों से लिया था जिसका अर्थ है विश्व बैंक जैसे विशेष ऋण के विपरीत बाजार दरों पर लिया गया ऋण है।
हाल ही के महीनों में कई ऋण निलंबन यानी ऋण चुकाने की अवधि में राहत की गई है। 13 अप्रैल को आईएमएफ ने अक्टूबर, 2020 तक 25 सबसे गरीब विकासशील देशों द्वारा ऋण चुकौती को निलंबित कर दिया। 15 अप्रैल को, जी-20 देशों ने मई से इस वर्ष के अंत तक सबसे गरीब देशों में से 73 के लिए समान निलंबन की घोषणा की।
लेकिन इस तरह की राहतें भले ही तात्कालिक रूप से मदद कर सकती हों, लेकिन फिर भी यह विकासशील देशों को महामारी से लड़ने के लिए बिलों को लेने में मदद नहीं करेगी, और इस तरह उन्हें शिक्षा और अन्य टीका कार्यक्रमों जैसे अन्य सामाजिक क्षेत्र के खर्चों से वित्तीय संसाधनों को हटाने के लिए मजबूर करेगी। यूएनसीटीएडी के वैश्वीकरण प्रभाग के निदेशक रिचर्ड कोज़ुल-राइट के निदेशक ने कहा, "हाल ही में अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता की बात सही दिशा में है," लेकिन विकासशील देशों के लिए अब तक बहुत कम समर्थन प्राप्त हुआ है क्योंकि वे महामारी के और इसके आर्थिक नतीजों के तात्कालिक प्रभावों से निपटते हैं।
यूएनसीटीएडी ने भविष्य में संप्रभु ऋण पुनर्गठन को निर्देशित करने के लिए एक अधिक स्थायी अंतरराष्ट्रीय ढांचे के लिए एक अंतर्राष्ट्रीय विकासशील देश ऋण प्राधिकरण (आईडीसीडीए) की स्थापना का सुझाव दिया है। यह "वैश्विक ऋण सौदे" का एक हिस्सा है जो अब कईयों द्वारा समर्थित है।
यूएन ने सुझाव दिया है कि "सभी विकासशील देशों के लिए सभी ऋण सेवा (द्विपक्षीय, बहुपक्षीय और वाणिज्यिक) पर पूर्ण दृष्टिकोण होना चाहिए"। अत्यधिक ऋणी विकासशील देशों के लिए, यूएन ने अतिरिक्त ऋण राहत का सुझाव दिया है ताकि वे चुकौती पर डिफ़ॉल्ट न हों और एसडीजी के तहत कवर की गई अन्य विकास आवश्यकताओं को निधि देने के लिए भी संसाधन हों। वहीं, उच्च ऋण भार के बिना विकासशील देशों के लिए, महामारी से लड़ने के लिए आपातकालीन उपायों को वित्त देने के लिए नए ताजे ऋण की मांग भी की गई है।(downtoearth)
श्रवण गर्ग
राहुल गांधी केवल सवाल पूछते हैं ! प्रधानमंत्री से, भाजपा से; पर अपनी ही पार्टी के लोगों के द्वारा खड़े किए जाने वाले प्रश्नों के जवाब नहीं देते। राहुल न तो कांग्रेस के अब अध्यक्ष हैं और न ही संसद में कांग्रेस दल के नेता।वे इसके बावजूद भी सवाल पूछते रहते हैं और प्रधानमंत्री से उत्तर की माँग भी करते रहते हैं।कई बार तो वे पार्टी में ही अपने स्वयं के द्वारा खड़े किए जाने वाले सवालों के जवाब भी नहीं देते और उन्हें अधर में ही लटकता हुआ छोड़ देते हैं। मसलन, लोक सभा चुनावों में पार्टी के सफाए के लिए उन्होंने नाम लेकर जिन प्रमुख नेताओं के पुत्र-मोह को दोष दिया था उनमें एक राजस्थान के और दूसरे मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री भी थे। क्या हुआ उसके बाद? अशोक गेहलोत भी बने रहे और कमलनाथ भी।जो पहले चले गए वे ज्योतिरादित्य सिंधिया थे और अब जो लगभग जा ही चुके हैं वे सचिन पायलट हैं।
इसे अतिरंजित प्रचार माना जा सकता है कि सचिन की समस्या केवल गेहलोत को ही लेकर है।उनकी समस्या शायद राहुल गांधी को लेकर ज़्यादा बड़ी है। राहुल का कम्फर्ट लेवल या तो अपनी टीम के उन युवा साथियों के साथ है जिनकी कि कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षाएँ नहीं हैं या फिर उन सीनियर नेताओं से है जो कहीं और नहीं जा सकते। क्या ऐसे भी किसी ड्रामे की कल्पना की जा सकती थी जिसमें सचिन की छह महीने से चल रही कथित ‘साजि़श’ से नाराज़ होकर गेहलोत घोषणा करते कि वे अपने समर्थकों के साथ पार्टी छोड़ रहे हैं?
वैसी स्थिति में क्या भाजपा गेहलोत को अपने साथ लेने को तैयार हो जाती? हकीकत यह है कि जिन विधायकों का इस समय गहलोत को समर्थन प्राप्त है उनमें अधिकांश कांग्रेस पार्टी के साथ हैं और जो छोडक़र जा रहे हैं वे सचिन के विधायक हैं। यही स्थिति मध्यप्रदेश में भी थी। जो छोडक़र भाजपा में गए उनकी गिनती आज भी सिंधिया खेमे के लोगों के रूप में होती है, खालिस भाजपा कार्यकर्ताओं की तरह नहीं।
सवाल यह भी है कि कांग्रेस पार्टी को अगर ऐसे ही चलना है तो फिर राहुल गांधी किसकी ताक़त के बल पर नरेंद्र मोदी सरकार को चुनौती देना चाह रहे हैं? वे अगर भाजपा पर देश में प्रजातंत्र को खत्म करने का आरोप लगाते हैं तो उन्हें इस बात का दोष भी अपने सिर पर ढोना पड़ेगा कि अब जिन गिने-चुने राज्यों में कांग्रेस की जो सरकारें बची हैं वे उन्हें भी हाथों से फिसलने दे रहे हैं।नए लोग आ नहीं रहे हैं और जो जा रहे हैं उनके लिए शोक की कोई बैठकें नहीं आयोजित हो रही हैं। असंतुष्ट नेताओं में सचिन और सिंधिया के साथ-साथ मिलिंद देवड़ा, जितिन प्रसाद, प्रियंका चतुर्वेदी और संजय झा की भी गिनती की जा सकती है।
गोवा तब कैसे हाथ से निकल गया उसकी चर्चा न करें तो भी देखते ही देखते मध्य प्रदेश चला गया, अब राजस्थान संकट में है ।महाराष्ट्र को फि़लहाल कोरोना बचाए हुए है ।छत्तीसगढ़ सरकार को गिराने का काम जोरों पर है।संकट राजस्थान का हो या मध्यप्रदेश का ,यह सब बाहर से पारदर्शी दिखने वाली पर अंदर से पूरी तरह साउंड-प्रूफ़ उस दीवार की उपज है जो गांधी परिवार और असंतुष्ट युवा नेताओं के बीच तैनात है।इस राजनीतिक भूकम्प-रोधी दीवार को भेदकर पार्टी का कोई बड़ा से बड़ा संकट और ऊँची से ऊँची आवाज भी पार नहीं कर पाती है।
पिछले साल लोक सभा के चुनाव परिणाम आने के बाद कश्मीर में पीडीपी की नेता महबूबा मुफ्ती ने ट्वीट करते हुए ‘शुभकामना’ संदेश तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भेजा था पर ‘कामना’ संदेश कांग्रेस के लिए था कि उसके पास भी एक ‘अमित शाह’ होना चाहिए।सवाल यह है कि गांधी परिवार या कांग्रेस में किसी अमित शाह को बर्दाश्त करने की गुंजाइश अभी बची है क्या? और राहुल गांधी इसलिए मोदी नहीं बन सकते हैं कि वे अपने अतीत और परिवार को लेकर सार्वजनिक रूप से उस तरह से गर्व करने में संकोच कर जाते हैं जिसे वर्तमान प्रधानमंत्री न सिफऱ् सहजता से कर लेते हैं बल्कि उसे अपनी विजय का हथियार भी बना लेते हैं।
अर्नब गोस्वामी द्वारा पिछले लोकसभा चुनावों के समय अपने चैनल के लिए लिया गया वह चर्चित इंटरव्यू याद किया जा सकता है जिसमें राहुल गांधी ने कहा था-’ मैंने अपना परिवार नहीं चुना।मैंने नहीं कहा कि मुझे इसी परिवार में पैदा होना है। अब दो ही विकल्प हैं ‘या तो मैं सब कुछ छोडक़र हट जाऊँ या फिर कुछ बदलने की कोशिश करूँ।’ राहुल गांधी दोनों विकल्पों में से किसी एक पर भी काम नहीं कर पाए।
कई लोग सवाल कर रहे हैं कि एक ऐसे समय जबकि कांग्रेस पार्टी चारों तरफ से घोर संकट में है, क्या सचिन पायलट इस तरह से विद्रोह करके उसे और कमजोर नहीं कर रहे हैं? इसका जवाब निश्चित ही एक बड़ी ‘हाँ’ में ही होना चाहिए पर साथ में यह जोड़ते हुए कि इस नए धक्के के बाद अगर पार्टी नेतृत्व जाग जाता है तो उसे एक बड़ी उपलब्धि माना जाना चाहिए।हो सकता है इसके कारण वह भविष्य में हो सकने वाले दूसरे बहुत सारे नुकसान से बच जाए।किसे पता सचिन यह विद्रोह वास्तव में कांग्रेस पार्टी को बचाने के लिए ही कर रहे हों!
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और उप-मुख्यमंत्री सचिन पायलट के दंगल का अभी अंत हो गया लगता है। सचिन को उप-मुख्यमंत्री और कांग्रेस के अध्यक्ष पद से हटा दिया गया है। अब भी सचिन यदि कांग्रेस में बने रहते हैं और विधायक भी बने रहते हैं तो यह उनके जीते-जी मरने-जैसा है। अब वे यदि कांग्रेस छोड़ेंगे तो करेंगे क्या? यदि वे कांग्रेस के बाहर रहकर गहलोत-सरकार को गिराने की कोशिश करेंगे तो उन्हें राजस्थान की भाजपा की शरण में जाना होगा। भाजपा की केंद्र सरकार अपनी पूरी ताकत लगाकर सचिन की मदद करे तो गहलोत-सरकार गिर भी सकती है।
भाजपा ने जैसे मध्यप्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया को साथ लेकर कांग्रेस सरकार गिरा दी, वैसा ही वह राजस्थान में भी कर सकती है। लेकिन यदि राजस्थान में ऐसा होता है तो सचिन पायलट और भाजपा को काफी बदनामी भुगतनी पड़ेगी। भाजपा के कुछ नेताओं ने सचिन को अपनी पार्टी में आ जाने का न्यौता दे दिया है तो कुछ कह रहे हैं कि विधानसभा में शक्ति-परीक्षण होना चाहिए याने भाजपा येन-केन-प्रकारेण सत्ता में आना चाहती है।
इस प्रकरण से यह भी पता चल रहा है कि भारतीय राजनीति में अब विचारधारा और सिद्धांत के दिन लद गए हैं। जो कांग्रेसी और भाजपाई नेता एक-दूसरे की निंदा करने में अपना गला बिठा लेते हैं, वे कुर्सी के खातिर एक-दूसरे के गले लगने के लिए तत्काल तैयार हो जाते हैं। इसीलिए अशोक गहलोत के इस आरोप पर अविश्वास नहीं होता कि कांग्रेस के विधायकों को तोडऩे के लिए करोड़ों रु. की रिश्वतें दी जा रही थीं। वह तो अभी भी दी जा सकती है और सरकार को गिराया भी जा सकता है। इसमें शक नहीं कि सचिन पायलट को राजस्थान में कांग्रेस की जीत का बड़ा श्रेय है लेकिन इस श्रेय के पीछे तत्कालीन भाजपा सरकार की अलोकप्रियता भी थी। सचिन को मुख्यमंत्री क्यों नहीं बनाया गया, इसका जवाब तो कांग्रेस-अध्यक्ष ही दे सकते हैं लेकिन सचिन ने यदि उप-मुख्यमंत्री बनना स्वीकार किया तो उन्हें धैर्य रखना चाहिए था। आज नहीं तो कल उन्हें मुख्यमंत्री तो बनना ही था। लेकिन अब वे क्या करेंगे ? यदि गहलोत-सरकार उन्होंने गिरा भी दी तो क्या भाजपा उन्हें मुख्यमंत्री बना देगी ? गहलोत के रिश्तेदारों और नजदीकियों पर इस वक्त डाले गए छापों से भाजपा की केंद्र-सरकार की छवि भी खराब हो रही है। जहां तक कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व का सवाल है, उसकी अक्षमता का जीवंत प्रमाण तो सिंधिया ओर पायलट हैं। गहलोत-सरकार, जो कि काफी अच्छा काम कर रही है, वह यदि अपनी अवधि पूरी कर लेगी तो भी यह तो स्पष्ट हो गया है कि केंद्रीय स्तर पर कांग्रेस का नेतृत्व काफी कमजोर हो गया है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
मेहमान लेखक
कहते है कि भारत की आत्मा गांवों में बस्ती है। लेकिन अब इसे संयोग कहें या विडंबना कि गाँवों के केंद्र परिवारों के आधा सदस्य घरेलू प्रदूषण के कारण कई तरह की बीमारियों से जूझ रहे हैं।दरअसल ग्रामीण क्षेत्रों के ज़्यादातर परिवारों का खाना मिट्टी के चूल्हों पर बनता है, जिसमें ठोस ईंधन का इस्तेमाल किया जाता है। शहरी क्षेत्र के झुगी-झोपड़ी वाले इलाकों में भी इस ईंधन का इस्तेमाल कर खाना बनाया जाता हैं। सरकारी आँकड़ों के अनुसार, भारत 24 करोड़ से अधिक घरों का देश है, जिनमें से क़रीब 10 करोड़ परिवार अभी भी एलपीजी को खाना पकाने के ईंधन के रूप में इस्तेमाल करने से वंचित हैं और उन्हें खाना पकाने के लिए प्राथमिक स्रोत के रूप में लकड़ी, कोयले, गोबर के उपले, केरोसिन तेल जैसी चीजों का इस्तेमाल करना पड़ता हैं।
ऐसे ईंधन के जलने से उत्पन्न धुआं खतरनाक घरेलू प्रदूषण का कारण बनता है, जिससे कई तरह के श्वसन रोग सम्बन्धी विकारों का प्रतिकूल प्रभाव महिलाओं और बच्चों के स्वास्थ्य पर पड़ता है।वैज्ञानिकों का भी मानना है कि लकड़ी जैसे अन्य ठोस ईंधनों का इस्तेमाल खाना बनाने में करने से फेफड़ों में प्रति घंटा चार सौ सिगरेट पीने जितना धुआं भरता है, जो किसी भी स्वस्थ व्यक्ति के लिए बेहद हानिकारक हो सकता है।
साल 2011 की आवास जनगणना डेटा हाइलाइट्स के अनुसार, भारत में खाना पकाने के लिए ईंधन का इस्तेमाल करने वाले 0.2 बिलियन लोगों में से 49 फ़ीसद जलाऊ लकड़ी का, 8.9 फ़ीसद गाय का गोबर केक, 1.5 फ़ीसद कोयला, लिग्नाइट या चारकोल, 2.9 फ़ीसद केरोसीन, 28.6 फ़ीसद लिक्विड पेट्रोलियम गैस (LPG), 0.1 फ़ीसद बिजली, 0.4 फ़ीसद बायोगैस और 0.5 फ़ीसद किसी अन्य साधन का इस्तेमाल करते हैं।
जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) के एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में खाना पकाने के लिए 67.4 फ़ीसद घरों में मुख्य रूप से ठोस ईंधन का इस्तेमाल किया जाता है। यही आंकड़ा ग्रामीण क्षेत्रों में 86.5 फीसद का हैं, जबकि शहरी क्षेत्रों में 26.1 फीसद का। भारत में लगभग सत्तर करोड़ लोग खाना पकाने के लिए पारंपरिक ईंधन जैसे – लकड़ी, कोयला, गोबर के उपले और मिट्टी के तेल आदि का इस्तेमाल करते हैं। इस प्रक्रिया से उत्पन्न कालिख इन घरों में लोगों के जीवन और स्वास्थ्य पर काली छाया डाल रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, खाना पकाने के लिए इस्तेमाल होने वाले प्रदूषणकारी ईंधन की वजह से भारत में हर साल 13 लाख लोगों की मौत होती है।
ठोस ईंधन काफी मात्रा में स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाने वाले प्रदूषकों का उत्सर्जन करते हैं, जिससे कार्बन मोनोऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड, बेंजीन, फॉर्मलाडेहाइड और पोलीरोमैटिक आदि जैसे विनाशकारी गैसों का उत्सर्जन होता हैं। घरेलू वायु प्रदूषण हानिकारक रसायनों और अन्य सामग्रियों से घरेलू वायु गुणवत्ता को दुष्प्रभावित करने से उत्पन्न होता है। वैज्ञानिकों का मानना हैं कि यह (घरेलू वायु प्रदूषण) बाहरी वायु प्रदूषण से दस गुना अधिक दुष्प्रभावित कर सकता है।
विकासशील देशों में घरेलू वायु प्रदूषण के स्वास्थ्य प्रभाव बाहरी वायु प्रदूषण की तुलना में बहुत अधिक हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में ठोस ईंधन से उत्पन्न घरेलू वायु प्रदूषण की वजह से साल 2010 में 35 लाख लोगों की मौत हुई और वैश्विक दैनिक-समायोजित जीवन वर्ष (DALY) का दर भी 4.5 फीसद का रहा। इंडियन जर्नल फॉर कम्युनिटी मेडिसिन में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, घरेलू वायु प्रदूषण के दुष्प्रभाव से प्रतिवर्ष क़रीब दो मिलियन लोगों की मौत होती हैं, जिसमें 44 फ़ीसद निमोनिया, क्रोनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज (COPD) से 54 फ़ीसद और 2 फ़ीसद फेफड़ों के कैंसर के कारण होते हैं। सबसे अधिक प्रभावित समूह महिलाएं और छोटे बच्चे हैं, क्योंकि वे घर पर अधिकतम समय बिताते हैं।
इसी रिपोर्ट में ग्रामीण क्षेत्रों में ठोस ईंधन के इस्तेमाल से उत्सर्जित होने वाले विभिन्न रासायनिक गैसों और अन्य सामग्रियों से पैदा होने वाले बिमारियों के बारे में विस्तृत जानकारी दी गई है। रिपोर्ट के अनुसार, घरेलू वायु प्रदूषण के कारण स्वास्थ्य दुष्प्रभावित होते हैं। इसके कारण श्वास सम्बन्धी संक्रमण, दीर्घकालिक या स्थायी फेफड़े की सूजन और सीओपीडी का कारण बनता है।
सल्फर डाइऑक्साइड और नाइट्रोजन डाइऑक्साइड से अस्थमा होने की संभावना होती है। इसके अलावा, नाइट्रोजन डाइऑक्साइड श्वसन संक्रमण का कारण बनता है और फेफड़ों के कार्यों को बिगड़ता है। सीओपीडी और हृदय रोग के विस्तार में सल्फर डाइऑक्साइड की भी भूमिका होती है। कार्बन मोनोऑक्साइड के संपर्क में आने से गर्भवती महिलाओं के लिए जोखिम बढ़ जाता है। इससे कम वजन के बच्चे होने की संभावना होती है। साथ ही, प्रसवकालीन मृत्यु का डर भी बना रहता है। बायोमास धुआं विशेष रूप से धातु आयनों और पॉलीसाइक्लिक एरोमेटिक्स से मोतियाबिंद होने की भी संभावना बनी रहती है। पॉलीसाइक्लिक एरोमैटिक हाइड्रोकार्बन से फेफड़े, मुंह, नासॉफरीनक्स और स्वरयंत्र के कैंसर भी होता है।
ग्रामीण क्षेत्रों में लोग गरीबी और जानकारी के अभाव में खाना बनाने में ठोस ईंधनों का इस्तेमाल करते हैं, जिसकी वज़ह से वे खुद को मौत के तरफ धकेल रहे हैं। हालांकि पिछले कुछ सालों में ऐसे घरों में कमी आयी हैं। लेकिन यह पर्याप्त नहीं है। डाउन टू अर्थ की एक रिपोर्ट के अनुसार, साल 2030 में खाना पकाने के लिए 580 मिलियन भारतीय ठोस ईंधन का इस्तेमाल करेंगे। ज़ाहिर है इससे न सिर्फ पर्यावरण को नुकसान पहुँचेगा बल्कि मनुष्य के लिए भी एक गहरा संकट को जन्म देगा। (feminisminindiah)
(यह लेख पहले फेमिनिज्मइनइंडियाडॉटकॉम पर प्रकाशित हुआ है।)
-सुसान चाको दयानिधि
देश में रिवर्स ऑस्मोसिस (आरओ) तकनीक के उपयोग के कारण पानी की अत्यधिक हानि हो रही है। इस मामले पर 13 जुलाई 2020, को एनजीटी के न्यायमूर्ति आदर्श कुमार गोयल और न्यायमूर्ति सोनम फिंटसो वांग्दी की दो सदस्यीय पीठ में सुनवाई हुई।
अदालत ने केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय को 20 मई, 2019 के अपने आदेश में एनजीटी द्वारा निर्धारित तरीके से आरओ के उपयोग को प्रतिबंधित करने के लिए एक अधिसूचना जारी करने को कहा था, पर ऐसा नहीं किया गया। इस देरी पर अदालत ने मंत्रालय से जवाब मांगा।
एक वर्ष बीतने के बाद भी, केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने लॉकडाउन के कारण समय बढ़ाने की मांग की थी। अदालत ने निर्देश दिया कि आवश्यक कार्रवाई अब 31 दिसंबर, 2020 तक पूरी की जानी चाहिए।
मामले को 25 जनवरी, 2021 को फिर से विचार के लिए सूचीबद्ध किया गया है।
दिल्ली में चल रहे अवैध बोरवेल को बंद करें
नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति (डीपीसीसी) को दिल्ली में अवैध बोरवेल और ट्यूबवेल के उपयोग पर पर्यावरण विभाग, दिल्ली सरकार द्वारा तय मानकों के तहत चलाने की प्रक्रिया (एसओपी) का पालन करने का निर्देश दिया।
एसओपी में 'भूजल को निकालने के नियम, बंद करने, बोरवेल / ट्यूबवेल के उपयोग से संबंधित गैरकानूनी गतिविधियों' पर रोक लगाने के लिए दिल्ली जल बोर्ड (डीजेबी), स्थानीय निकायों और खंड विकास अधिकारियों जैसी विभिन्न एजेंसियों को जिम्मेदारियां सौंपी गई थीं। अवैध बोरवेल की पहचान उपयोग की प्रकृति के आधार पर और जिलों के डिप्टी कमिश्नर (राजस्व) को अवैध बोरवेलों के बंद और उल्लंघन की जांच की देखरेख करने की भूमिका सौंपी गई थी।
उपायुक्तों की सहायता के लिए प्रत्येक जिले में एक अंतर विभागीय सलाहकार समिति का गठन किया गया था।
ड्रिलिंग मशीन / रिग्स का इस्तेमाल अवैध बोरवेल खोदने के लिए किया जाता है। भूजन निकालने के लिए पंजीकरण, पूर्व अनुमति और पर्यावरण क्षतिपूर्ति सहित एक प्रणाली को एसओपी में शामिल किया गया था।
यह बताया गया था कि दिल्ली जल बोर्ड (डीजेबी) के द्वारा पहले ही 19661 अवैध बोरवेल की पहचान कर ली गई है, जिस पर कार्रवाई की जा रही है और 7248 इकाइयों को पहले ही जिला अधिकारियों द्वारा बंद करवा दिया गया था। शेष इकाइयों को प्राथमिकता से बंद किया जाना है। ये इकाईयां पहले ही पहचान ली गईं थी और इन्हें तीन महीने की अवधि के अंदर पूरी तरह बंद करने की बात कही गई है।
एनजीटी का यह आदेश बिना लाइसेंस के जमीन से पानी निकालने वाले यंत्रों के चलने, दिल्ली के कुछ हिस्सों में दूषित पानी की आपूर्ति पर की गई शिकायत पर था।(downtoearth)
-ईशान कुकरेटी
वनवासियों पर एक बार फिर बेदखली की तलवार लटक रही है। इस साल 24 फरवरी तक 14 राज्यों ने कुल 5,43,432 वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) 2006 के तहत किए गए दावों को स्वत: संज्ञान समीक्षा के बाद खारिज कर दिया। ये राज्य हैं- आंध्र प्रदेश (2,355), बिहार (1,481) छत्तीसगढ़ (39,4851), हिमाचल प्रदेश (47), कर्नाटक (58,002), केरल (801), महाराष्ट्र (9,213), ओडिशा (73737), राजस्थान (5,906), तेलंगाना (5,312), तमिलनाडु (214), उत्तराखंड (16), त्रिपुरा (4), पश्चिम बंगाल (54,993)। पश्चिम बंगाल ने कुल 92 प्रतिशत दावों को खारिज कर दिया। राज्य में कुल 59,524 दावों की समीक्षा की गई थी।
यह जानकारी राज्यों ने जनजातीय मामलों के मंत्रालय को 24 फरवरी के दिन हुई एक बैठक में दी है। मंत्रालय ने इस बैठक के मिनट्स को अपनी वेबसाइट पर 2 जुलाई को अपलोड किया।
गौरतलब है कि 13 फरवरी, 2019 को एफआरए मामले में सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों को उन दावेदारों को बेदखल करने को कहा था जिनका दवा खारिज हो चुका था। हालांकि कोर्ट ने सरकार के दखल के बाद 28 फरवरी को आदेश पर रोक लगा दी थी। इसके बाद जनजातीय मामलों के मंत्रालय ने सभी राज्यों के साथ एक बैठक आयोजित की थी।
6 मार्च और 18 जून को दो बैठकों में राज्यों ने मंत्रालय को बताया था कि उन्होंने दावों को खारिज करने में एफआरए के कई प्रावधानों का पालन नहीं किया था। मंत्रालय ने तब राज्यों को सभी खारिज किए गए दावों की स्वत: समीक्षा की सलाह दी थी।
24 फरवरी की बैठक के मिनट्स के अनुसार, 14,19,259 में से 1,72,439 दावों की समीक्षा की गई। समीक्षा किए गए दावों की संख्या की तुलना में अधिक दावों को खारिज किया जाना डेटा में विसंगति की वजह से है। कुछ राज्यों ने कुल की गई समीक्षाओं के डेटा को साझा नहीं किया है और कुछ ने यह नहीं बताया है कि कुल कितने दावों की समीक्षा होनी है।
मध्य प्रदेश के प्रतिनिधि ने मंत्रालय को बताया कि इस प्रकिया में कम से कम 12 महीने का समय लगेगा। तब तक कोई दावेदार बेदखल नहीं किया जाएगा। उन्होंने बताया कि राज्य सरकार खारिज दावों की समीक्षा और दावेदार की पहचान के लिए मैनेजमेंट इन्फॉर्मेशन सिस्टम (एमआईएस) का सहारा ले रही है। राज्य सरकार ने फील्ड स्टाफ और अधिकारियों को एमआईएस और मोबाइल एप्लीकेशन का प्रशिक्षण देने के लिए ट्रेनिंग कार्यक्रम किए हैं।
जरूरी नहीं है कि समीक्षा में खारिज सभी दावे बेदखल होंगे क्योंकि बहुत सारे दावे डुप्लीकेशन की वजह से भी खारिज कुए हैं। उदाहरण के लिए राजस्थान ने मंत्रालय को बताया कि 18,446 खारिज किए गए दावे कब्जे नहीं होने, दोहरे दावे, अन्य राजस्व भूमि पर कब्जे, दावेदार की मृत्यु, गलत प्रविष्टि, प्रवास आदि के कारण गैर बेदखली दावे हैं।
दावेदारों की बेदखली के क्या परिणाम होंगे, यह जानने के लिए राज्य खारिज किए गए दावों का समुचित वर्गीकरण करेंगे और बताएंगे कि किस आधार पर यह बेदखली हुई है। एफआरए बेदखली के बारे में कुछ नहीं कहता है, इसलिए बैठक में यह निर्णय लिया गया कि एक विस्तृत वर्गीकरण किया जाएगा जो बेदखली की प्रकृति का चित्रण करेगा।(downtoearth)
-ललित मौर्या
चमगादड़ों में कोरोनावायरस के साथ-साथ न जाने कितने वायरस होते हैं। इसके बावजूद इन वायरसों का असर उसके शरीर पर नहीं पड़ता। आखिर ऐसा क्या होता है इन चमगादड़ों के शरीर में, जिनसे वो बीमार नहीं पड़ते। आइये जानते हैं चमगादड़ों की इस ‘सुपर इम्युनिटी’ का राज। और क्या मनुष्य भी इस ‘सुपर इम्युनिटी’ को समझकर इन हानिकारक वायरसों से बच सकते हैं। मनुष्यों में कई बीमारियां चमगादड़ों से ही फैली हैं। इनमें इबोला, रेबीज, सार्स और कोविड-19 भी शामिल है।
सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि आखिर इंसानों को बीमार करने वाले इन वायरसों का असर चमगादड़ों पर क्यों नहीं पड़ता। और क्यों उनमें यह बीमारियां नहीं होती हैं। इसका कारण चमगादड़ों की सुपर इम्युनिटी है जो इन्हें इन बीमारियों को सहन करने के लायक बनाती हैं। जबकि यदि सामान आकर के स्तनधारियों से चमगादड़ों की तुलना करें तो वो उनसे अधिक समय तक जीवित रहते हैं। अनुमान है कि चमगादड़ 30 से 40 साल तक जीवित रह सकते हैं।
यूनिवर्सिटी ऑफ रोचेस्टर के शोधकर्ताओं के अनुसार, चमगादड़ की लंबी उम्र और वायरस को सहन करने की क्षमता का मुख्य कारण उसके इन्फ्लेमेशन (सूजन) को नियंत्रित करने की क्षमता से है। जब भी शरीर में कोई विकार आता है या फिर चोट लगती है तो शरीर में मौजूद श्वेत रक्त कोशिकाएं शरीर को बाहरी आक्रमणों (जैसे वायरस और बैक्टीरिया) से बचाने के लिए सक्रिय हो जाती हैं। यदि इस प्रक्रिया को नियंत्रित कर लिया जाये तो यह शरीर में बीमारी को फैलने से रोक सकती हैं। वैज्ञानिकों द्वारा किया गया यह शोध जर्नल सेल मेटाबॉलिज्म में प्रकाशित हुआ है। इस शोध के प्रमुख शोधकर्ता प्रोफेसर वेरा गोरबुनोवा और आंद्रेई सेलुआनोव ने चमगादड़ों के शरीर में यह प्रक्रिया कैसे काम करती है उसकी पूरी रुपरेखा तैयार की है। साथ ही इस बात का भी पता लगाया है कि यह तंत्र किस तरह से बीमारियों के लिए नए उपचार खोजने में मदद कर सकता है।
वायरसों को कैसे सह लेता है चमगादड़ का शरीर?
इसे समझने के लिए शोधकर्ताओं ने चमगादड़ों की लम्बी उम्र के रहस्य और उनके वायरसों के खिलाफ सुपर इम्युनिटी को साथ-साथ समझने का प्रयास किया है। बढ़ती उम्र और उम्र से जुडी बीमारियों दोनों में ही इन्फ्लेमेशन (सूजन) का बहुत बड़ा हाथ होता है। कई बड़ी बीमारियां जैसे कैंसर, अल्जाइमर और हृदय रोग सहित उम्र से जुड़े विकारों में इन्फ्लेमेशन का बहुत बड़ा हाथ होता है। कोरोनावायरस भी शरीर में सूजन को सक्रिय कर देता है।
गोरबुनोवा के अनुसार कोरोनावायरस के मामले में जब वायरस को रोकने के लिए शरीर का इम्यून सिस्टम काम करता है, तो इन्फ्लेमेशन अनियंत्रित हो जाती है। जिसके कारण वो वायरस को खत्म करने की जगह मरीज को ही नुकसान पहुंचाने लगती है। उनके अनुसार हमारा इम्यून सिस्टम इस तरह काम करता है कि जैसे ही हम संक्रमित होते हैं तो हमारे शरीर में अपने आप ही एक प्रतिरक्षा प्रणाली काम करने लगती है। संक्रमण को रोकने के लिए शरीर में बुखार और सूजन होने लगती है, जिसका मकसद वायरस को खत्म करना और संक्रमण को रोकना होता है। पर कभी-कभी यह प्रतिक्रिया अनियंत्रित हो जाती है जिसकी वजह से यह रोगी पर ही असर डालना शुरू कर देती है।
जबकि चमगादड़ों के साथ ऐसा नहीं होता। मनुष्यों के विपरीत उन्होंने इससे निपटने के लिए विशिष्ट तंत्र विकसित कर लिया है। जो वायरस के फैलने की गति को काम कर सकता है। इसके साथ ही वो अपने इम्यून की प्रतिरक्षा प्रणाली को भी नियंत्रित कर लेते हैं। जिस वजह से जो संतुलन बनता है वो उनके शरीर में वायरस के असर को खत्म कर देता है। और उन्हें लम्बे समय तक जीने में मददगार होता है।
क्यों बन गए हैं चमगादड़ बीमारियों को सहने के काबिल?
शोधकर्ताओं के अनुसार, ऐसे कई कारक हैं जो इनके वायरस से लड़ने और लंबे जीवन के लिए मददगार होते हैं। एक कारक उनकी उड़ने की क्षमता में छिपा है। चमगादड़ अकेले ऐसे स्तनधारी हैं जो उड़ सकते हैं। जिसके लिए उसे अपने शरीर के तापमान में तेजी से वृद्धि और कमी को नियंत्रित करना होगा है। साथ ही अपने मेटाबोलिज्म में होने वाली एकाएक वृद्धि को भी नियंत्रित करना पड़ता है। साथ ही उन्हें अपने मॉलिक्यूलर को होने वाली क्षति को भी नियंत्रित करने में वर्षों लगे हैं। उनका यह अनुकूलन रोगों से लड़ने में भी मदद करता है।
दूसरा कारण इनका वातावरण है। इनकी कई प्रजातियां बहुत तंग जगह और घुप्प अंधेरे वाली गुफाओं में रहते हैं। जहां इनकी एक बड़ी आबादी साथ-साथ होती है। यह दशा वायरस को फैलने के लिए आदर्श स्थिति प्रदान करती है। यह लगातार वायरस के संपर्क में रहते हैं। जब वो बहार से गुफाओं में आते हैं तो अपने साथ वायरस भी लाते हैं जो बड़ी आसानी से दूसरों में भी फ़ैल जाता है। लगातार लम्बे समय से इन वायरसों के संपर्क में रहने के कारण इनका इम्यून सिस्टम इन वायरसों से लड़ने के काबिल बन गया है। शोधकर्ताओं के अनुसार चमगादड़ों का विकास इन वायरसों के साथ लड़ते-लड़ते ही हुआ है जिसने इसे इनसे निपटने के काबिल बना दिया है। साथ ही यह इनके दीर्घायु होने में भी मददगार रहा है।
क्या इंसानों में भी विकसित हो सकती है इसी तरह की रोगप्रतिरोधक क्षमता?
विकास कुछ महीनों में नहीं होता यह साल दर साल विकसित होने की प्रक्रिया है। चमगादड़ों में यह क्षमता हजारों सालों में विकसित हुई है। इंसान अपनी सुख-सुविधाओं के बीच शहरों में रहने लगा है। साथ ही तकनीकों के बल पर एक जगह से दूसरी जगह जा सकता है। हमारी कुछ सामाजिक आदतें भले ही चमगादड़ों की तरह हैं। पर हमारा विकास उनकी तरह नहीं हुआ है। इंसानों के शरीर में अभी तक चमगादड़ों की तरह परिष्कृत तंत्र विकसित नहीं हुआ है। क्योंकि उनका शरीर वायरस का मुकाबला करता है उसके साथ-साथ और तेजी से विकसित होता जाता है।
गोरबुनोवा के अनुसार यह हमारे शरीर में अधिक इन्फ्लेमेशन के कारण हो सकता है। शोधकर्ताओं का यह भी मत है कि अधिक उम्र के लोगों पर यह वायरस ज्यादा बुरा असर करता है। यह उम्रदराज लोगों में अलग तरह से असर डालता है। वैसे भी जीवन और मृत्यु के लिए उम्र बहुत मायने रखती है। उम्र पर काबू पाने के लिए हमें इसकी पूरी प्रक्रिया पर नियंत्रण पाना होगा, न कि केवल उसके एक कारक पर काम करके उसे नियंत्रित किया जा सकता है।
हालांकि इसके बावजूद शोधकर्ताओं का मानना है कि चमगादड़ों के इम्यून सिस्टम का अध्ययन चिकित्सा जगत के लिए मददगार हो सकता है। इसकी मदद से रोगों और बुढ़ापे से लड़ने में मदद मिल सकती है। चमगादड़ों ने इन्फ्लेमेशन से निपटने के लिए अपनी कई जीनों में बदलाव और कई को पूरी तरह समाप्त कर दिया है। मनुष्य इन जीनों में बदलाव करने के लिए नई दवाओं का विकास कर सकता है। पर शोधकर्ताओं ने यह भी माना है कि इससे सभी वायरसों से लड़ने में मदद मिलेगी यह मुमकिन नहीं है, पर हम इसकी मदद से अपने इम्यून सिस्टम को चमगादड़ कि तरह बेहतर बना सकते हैं, यह मुमकिन है। (downtoearth)
जयपुर, 15 जुलाई। राजस्थान में मुख्यमंत्री पद को लेकर जो अदावत अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच बीते डेढ़ साल से चली आ रही थी वो अपने चरम पर पहुंच चुकी है. लेकिन यह पहली बार नहीं है जब प्रदेश का मुखिया बनने की चाह में राजस्थान कांग्रेस के दिग्गज नेताओं के बीच बड़ी खींचतान देखने को मिली है. असल में राजस्थान कांग्रेस में मुख्यमंत्री पद की लड़ाई उतनी ही पुरानी है जितना कि इस राज्य का राजनीतिक इतिहास.
30 मार्च 1949 का दिन था. वृहद राजस्थान के उद्घाटन समारोह की तैयारियां पूरी हो चुकी थीं और कुछ ही देर में कांग्रेस के नेता हीरालाल शास्त्री यहां का पहला मुख्यमंत्री (इस पद को तब प्रधानमंत्री कहा जाता था) बनने के लिए शपथ लेने वाले थे. तभी सूचना मिली कि लोकनायक कहे जाने वाले जयनारायण व्यास और माणिक्यलाल वर्मा जैसे दिग्गज नेता समारोह का बहिष्कार कर चले गए. उन्हें शिकायत थी कि समारोह में उनके बैठने के लिए सम्मानजनक व्यवस्था नहीं की गई थी. लेकिन सूबे के पुराने राजनीतिकारों का कहना है कि इस नाराज़गी की असल वजह समारोह नहीं बल्कि मुख्यमंत्री पद की कुर्सी से जुड़ी थी.
दरअसल, कांग्रेस नेता होने के बावजूद हीरालाल शास्त्री ने कथित निजी हितों के लिए ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ और ‘करो या मरो’ जैसे आंदोलनों को जयपुर में व्यापक नहीं होने दिया था. बताया जाता है कि इस वजह से वे तत्कालीन जयपुर महाराज सवाई मानसिंह और प्रख्यात व्यवसायी घनश्याम दास बिड़ला को भा गए थे. आजाद हिंदुस्तान की राजनीति को करीब से देखने वाले अमेरिकी लेखक रिचर्ड सिसन अपनी किताब ‘कांग्रेस पार्टी इन राजस्थान : पॉलिटिकल इंटिग्रेशन एंड इंस्टिट्युशन बिल्डिंग इन एन इंडियन स्टेट’ में ज़िक्र करते हैं कि जयपुर महाराज ने रियासती विभाग के सर्वेसर्वा और गृहमंत्री वल्लभभाई पटेल से आश्वासन ले लिया था कि राजस्थान का पहला मुख्यमंत्री उन्हीं की पसंद का होगा.
दूसरी तरफ जयनारायण व्यास और माणिक्यलाल वर्मा, गोकुलभाई भट्ट को मुख्यमंत्री के तौर पर देखना चाहते थे. लेकिन शास्त्री को सरदार पटेल का वरदहस्त होने की वजह से एकबारगी मामला शांत हो गया. पर यह सब्र ज्यादा दिन नहीं चला. तीन महीने भी नहीं गुज़रे कि शास्त्री के विरुद्ध प्रदेश कांग्रेस समिति ने भारी बहुमत से अविश्वास प्रस्ताव पारित कर दिया. हालांकि पटेल ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया था. लेकिन कांग्रेस में हमेशा के लिए रार पड़ गई. अपने अपमान का बदला लेने के लिए शास्त्री ने जयनारायण व्यास समेत उनके दो सहयोगियों पर विशेष न्यायालय में भ्रष्टाचार का मुकदमा चला दिया. हालांकि भारतीय संविधान के लागू हो जाने के बाद राजस्थान हाईकोर्ट ने इसे रोक दिया.
इसी बीच सरदार पटेल का निधन हो जाने से शास्त्री के पैर डिगने लगे थे. नतीजतन उन्होंने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया और अप्रैल, 1951 में यह जिम्मेदारी जयनारायण व्यास के कंधे पर आ गई. लेकिन फरवरी, 1952 के पहले आम चुनाव में व्यास दो क्षेत्रों से चुनाव हार गए. बताया जाता है कि व्यास के समर्थकों ने उन्हें मुख्यमंत्री बनाने और उपचुनाव लड़वाने की पुरजोर पैरवी की थी. लेकिन विरोधियों के आगे उनकी एक न चली. और, राजस्थान को टीकाराम पालीवाल की शक्ल में कांग्रेस की तरफ से तीसरे मुख्यमंत्री मिले.
लेकिन व्यास और उनके समर्थकों ने जब हीरालाल शास्त्री को ही नहीं टिकने दिया तो अपेक्षाकृत कमजोर पालीवाल की दाल भला कैसे गलती! आठ महीने की अंदरूनी रस्साकशी के बाद नवंबर, 1952 में यह पद एक बार फिर व्यास के पास आ गया. लेकिन तब तक कांग्रेस में एक नया धड़ा अपनी जगह तलाश चुका था.
अपनी किताब ‘राजस्थान की राजनीति : सामंतवाद से जातिवाद की ओर’ में वरिष्ठ पत्रकार विजय भंडारी लिखते हैं, ‘कुंभाराम आर्य और मथुरादास माथुर जैसे प्रमुख नेताओं ने व्यास की जगह मोहनलाल सुखाड़िया को मुख्यमंत्री बनाने की योजना तैयार कर ली.’ इन तमाम नेताओं ने व्यास पर शक्ति परिक्षण का दबाव बनाया. न-न करते भी व्यास को नवंबर, 1954 में यह परीक्षण करवाना ही पड़ा. इसमें 110 विधायकों में से 51 ने व्यास का पक्ष लिया तो 59 के समर्थन से सुखाड़िया पांच साल में राजस्थान के पांचवें मुख्यमंत्री बनने में सफल हुए. इसके बाद सत्रह साल तक सुखाड़िया इस पद पर बने रहे. हालांकि इस दौरान कुंभाराम आर्य, नाथूराम मिर्धा और माथुरदास माथुर जैसे नेताओं ने सुखाड़िया को भी कमजोर करने की कई बार कोशिश की. लेकिन नाकाम रहे.
1969 के राष्ट्रपति चुनाव में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने विधायकों से ‘अंतरात्मा की आवाज पर’ मत देने की अपील की थी, तब मोहनलाल सुखाड़िया ने इंदिरा गांधी की पसंद वीवी गिरि के बजाय नीलम संजीव रेड्डी पर गलत दांव खेला और इसका खामियाजा उठाया. इसके चलते सुखाड़िया को पद से इस्तीफा देना पड़ा और राजस्थान को 1971 में पहला पैराशूट और अल्पसंख्यक मुख्यमंत्री यानी बरकतुल्लाह ख़ान का नेतृत्व मिला. 1973 में ख़ान के असामयिक निधन के बाद पार्टी के अनुशासित सिपाही हरिदेव जोशी ने यह बागडोर संभाली. इस बात पर आज भी सवाल खड़े किए जाते हैं पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र के नाम पर कौन-सी प्रक्रिया अपनाई गई थी कि तत्कालीन केंद्रीय गृह राज्यमंत्री रामनिवास मिर्धा को परास्त कर जोशी राजस्थान के मुख्यमंत्री निर्वाचित हुए?
जोशी के कार्यकाल के दौरान ही देश में आपातकाल लगा था और अप्रैल, 1977 में राजस्थान में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया. जनवरी, 1978 में कांग्रेस के दो फाड़ हो गए. राजस्थान के संदर्भ में इस घटना का ज़िक्र इसलिए आवश्यक है कि तब अशोक गहलोत ने रेड्डी कांग्रेस को चुना था. यदि समझाइश के बाद गहलोत कांग्रेस (आई) में शामिल न होते तो शायद राजस्थान का राजनैतिक इतिहास कुछ और ही होता.
सातवीं विधानसभा (1980-1985) में एक बार फिर कांग्रेस सत्ता में रही लेकिन इस दौरान भी पार्टी ने तीन मुख्यमंत्री बदले. 1980 में संजय गांधी के करीबी जगन्नाथ पहाड़िया को मुख्यमंत्री चुना गया. लेकिन तमाम कारणों के चलते राज्य की आर्थिक स्थिति बिगड़ गई और संगठन के प्रमुख नेता शिवचरण माथुर ने अपने समर्थकों के साथ जाकर इंदिरा गांधी से इस बात की शिकायत की. नतीजतन पहाड़िया से इस्तीफा लेकर जुलाई, 1981 में शिवचरण माथुर को सूबे का मुख्यमंत्री चुना गया. लेकिन 1985 में डीग-कुम्हेर (भरतपुर) के निर्दलीय प्रत्याशी और पूर्व जाट राजघराने से ताल्लुक रखने वाले मानसिंह की पुलिस मुठभेड़ में मौत हो गई. मानसिंह पर शिवचरण माथुर की अनुपस्थिति में उनका हेलीकॉप्टर और उनकी सभा का मंच तोड़ देने का आरोप था. मामले की गंभीरता को देखते हुए माथुर से आधी रात को ही इस्तीफा ले लिया गया और हीरालाल देवपुरा को मुख्यमंत्री बनाया गया.
1985 के विधानसभा चुनाव के बाद हीरालाल देवपुरा के ही मुख्यमंत्री बने रहने की पूरी संभावना थी. लेकिन हरिदेव जोशी पार्टी आलाकमान को लुभाने में सफल रहे और बाजी मार ले गए. लेकिन सितंबर, 1987 को सीकर के दिवराला सती कांड को लेकर मंत्री नरेंद्र सिंह भाटी ने विधानसभा में अपनी ही सरकार की जमकर आलोचना की. बताया जाता है कि भाटी ने इस घटना को रोक पाने में असफल रहे जोशी के विरुद्ध तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के कान भरने में कोई कसर नहीं छोड़ी. 1986 में जब राजीव गांधी रणथंभौर अभ्यारण्य में भ्रमण के लिए आए तो भाटी की सलाह पर जोशी ने सादगी से उनका स्वागत किया, जो गांधी को अखर गया. हालांकि इस मामले मे जोशी अपना पक्ष मजबूती से रख पाए और भाटी को शक्ति केंद्र बनने से पहले ही अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा.
लेकिन अगले ही साल जब राजीव गांधी सरिस्का अभ्यारण्य गए तो जोशी के हिस्से में एक बार फिर नाराज़गी ही आई. दरअसल, इस बार राजीव ने बेहद साधारण तरीके से स्वागत करने के निर्देश दिए थे. लेकिन जोशी को पिछला सबक याद था. उन्होंने नेताओं के साथ तमाम तामझाम इकठ्ठा तो कर लिया था, किंतु उचित मौका मिलने तक उन्हें अभ्यारण्य से दूर रखा था. प्रदेश कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता बताते हैं कि जोशी विरोधियों ने सड़क पर लगे दिशानिर्देशों को उस तरफ मोड़ दिया जहां सैंकड़ो गाड़ियां खड़ी थीं. अपनी कार खुद चला रहे राजीव निर्देशों के सहारे वहां पहुंच गए और उस लवाजमे को देखकर भौचक्के रह गए. इसके बाद उन्होंने जोशी को जमकर लताड़ लगाई. वहीं पार्टी के वरिष्ठ नेता से ऐसा व्यवहार करने पर राष्ट्रीय मीडिया ने राजीव गांधी को जमकर आड़े हाथों लिया और आखिर में उनकी खीज उतरी जोशी पर. 1988 में जोशी से उनका पद छीन लिया गया और शिवचरण माथुर को फिर से मुख्यमंत्री बनाया गया.
1989 के लोकसभा चुनावों में बोफोर्स कांड के काले साये में घिरी कांग्रेस के हाथों से राजस्थान की सभी पच्चीस सीटें फिसल गईं जो उसे 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद मिली थीं. केंद्र में राजीव कमजोर हो चुके थे. मौका भांपकर राजस्थान में माथुर के विरोधियों ने उन्हें पद से हटाने में देर नहीं लगाई और असम के राज्यपाल बना दिए गए हरिदेव जोशी एक बार फिर मुख्यमंत्री बनकर राजस्थान आए. हालांकि अगले साल हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को मुंह की खानी पड़ी थी.
इसके बाद दिसंबर, 1998 में कांग्रेस 153 विधायकों के साथ रिकॉर्ड बहुमत हासिल करने में सफल रही. उस समय अशोक गहलोत पार्टी प्रदेशाध्यक्ष हुआ करते थे और हाईकमान का कथित इशारा मिलने के बाद परसराम मदेरणा मुख्यमंत्री बनने के लिए आश्वस्त थे. वहीं मदेरणा के बाद लाइन में लगे नवलकिशोर शर्मा और शिवचरण माथुर को भी यह पद मिलने की उम्मीद थी. लेकिन सेहरा बंधा अशोक गहलोत के सर पर. बड़ी गहमागहमी हुई. कहा जाता है कि इस घटना के बाद प्रदेश में सबसे ज्यादा आबादी वाला जाट समुदाय गहलोत और कांग्रेस से बिदक गया. हालांकि गहलोत ने सर्वाधिक जाट मंत्रियों को चुनकर इस नुकसान की भरपाई की कोशिश की लेकिन वे इसमें कामयाब नहीं माने गए. मदेरणा को भी मंत्रिमंडल में शामिल होने का आमंत्रण दिया गया लेकिन उन्होंने उसे स्वीकार करने से इन्कार कर दिया.
फ़िर 2008 के चुनाव आए जिनमें मुख्यमंत्री पद और अशोक गहलोत के बीच पूर्व केंद्रीय मंत्री सीपी जोशी को बड़ा रोड़ा माना जा रहा था. लेकिन जोशी एक वोट से अपना चुनाव हार गए. मजेदार बात है कि इस चुनाव में उनकी पत्नी ने वोट नहीं डाला था. आखिरकार गहलोत तकरीबन एकतरफा मुख्यमंत्री चुन लिए गए. प्रदेश कांग्रेस के इतिहास में यह शायद पहला और अब तक का आख़िरी मौका था जब इस पद को लेकर कुछ खास गहमागहमी देखने को नहीं मिली थी.
इसके बाद जब 2018 के विधानसभा चुनाव हुए तब राजस्थान में एक बार फिर से कांग्रेस पार्टी अपना परचम फहराने में सफल रही. तब कांग्रेस के प्रदेशाध्यक्ष होने के नाते पायलट अपनी अगुवाई में मिली इस जीत के इनाम के तौर पर मुख्यमंत्री पद चाहते थे. लेकिन राजनीति के जादूगर कहे जाने वाले अशोक गहलोत ऐन मौके पर बाजी मार ले गए. इसके बाद से दोनों के बीच में राजनीतिक शह-मात का खेल लगातार चलता ही रहा है.(satyagrah)
-श्रवण गर्ग
राहुल गांधी केवल सवाल पूछते हैं ! प्रधानमंत्री से, भाजपा से ; पर अपनी ही पार्टी के लोगों के द्वारा खड़े किए जाने वाले प्रश्नों के जवाब नहीं देते।राहुल न तो कांग्रेस के अब अध्यक्ष हैं और न ही संसद में कांग्रेस दल के नेता।वे इसके बावजूद भी सवाल पूछते रहते हैं और प्रधानमंत्री से उत्तर की माँग भी करते रहते हैं।कई बार तो वे पार्टी में ही अपने स्वयं के द्वारा खड़े किए जाने वाले सवालों के जवाब भी नहीं देते और उन्हें अधर में ही लटकता हुआ छोड़ देते हैं।मसलन, लोक सभा चुनावों में पार्टी के सफ़ाये के लिए उन्होंने नाम लेकर जिन प्रमुख नेताओं के पुत्र-मोह को दोष दिया था उनमें एक राजस्थान के और दूसरे मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री भी थे। क्या हुआ उसके बाद ? अशोक गेहलोत भी बने रहे और कमलनाथ भी।जो पहले चले गए वे ज्योतिरादित्य सिंधिया थे और अब जो लगभग जा ही चुके हैं वे सचिन पायलट हैं।
इसे अतिरंजित प्रचार माना जा सकता है कि सचिन की समस्या केवल गेहलोत को ही लेकर है।उनकी समस्या शायद राहुल गांधी को लेकर ज़्यादा बड़ी है। राहुल का कम्फ़र्ट लेवल या तो अपनी टीम के उन युवा साथियों के साथ है जिनकी कि कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षाएँ नहीं हैं या फिर उन सीनियर नेताओं से है जो कहीं और नहीं जा सकते। क्या ऐसे भी किसी ड्रामे की कल्पना की जा सकती थी जिसमें सचिन की छह महीने से चल रही कथित ‘साज़िश’ से नाराज़ होकर गेहलोत घोषणा करते कि वे अपने समर्थकों के साथ पार्टी छोड़ रहे हैं ? वैसी स्थिति में क्या भाजपा गेहलोत को अपने साथ लेने को तैयार हो जाती ? हक़ीक़त यह है कि जिन विधायकों का इस समय गेहलोत को समर्थन प्राप्त है उनमें अधिकांश कांग्रेस पार्टी के साथ हैं और जो छोड़ कर जा रहे हैं वे सचिन के विधायक हैं।यही स्थिति मध्य प्रदेश में भी थी।जो छोड़कर भाजपा में गए उनकी गिनती आज भी सिंधिया खेमे के लोगों के रूप में होती है, ख़ालिस भाजपा कार्यकर्ताओं की तरह नहीं।
सवाल यह भी है कि कांग्रेस पार्टी को अगर ऐसे ही चलना है तो फिर राहुल गांधी किसकी ताक़त के बल पर नरेंद्र मोदी सरकार को चुनौती देना चाह रहे हैं ? वे अगर भाजपा पर देश में प्रजातंत्र को ख़त्म करने का आरोप लगाते हैं तो उन्हें इस बात का दोष भी अपने सिर पर ढोना पड़ेगा कि अब जिन गिने-चुने राज्यों में कांग्रेस की जो सरकारें बची हैं वे उन्हें भी हाथों से फिसलने दे रहे हैं।नए लोग आ नहीं रहे हैं और जो जा रहे हैं उनके लिए शोक की कोई बैठकें नहीं आयोजित हो रही हैं।असंतुष्ट नेताओं में सचिन और सिंधिया के साथ-साथ मिलिंद देवड़ा ,जितिन प्रसाद ,प्रियंका चतुर्वेदी और संजय झा की भी गिनती की जा सकती है।
गोवा तब कैसे हाथ से निकल गया उसकी चर्चा न करें तो भी देखते ही देखते मध्य प्रदेश चला गया, अब राजस्थान संकट में है ।महाराष्ट्र को फ़िलहाल कोरोना बचाए हुए है ।छत्तीसगढ़ सरकार को गिराने का काम ज़ोरों पर है।संकट राजस्थान का हो या मध्य प्रदेश का ,यह सब बाहर से पारदर्शी दिखने वाली पर अंदर से पूरी तरह साउंड-प्रूफ़ उस दीवार की उपज है जो गांधी परिवार और असंतुष्ट युवा नेताओं के बीच तैनात है।इस राजनीतिक भूकम्प-रोधी दीवार को भेदकर पार्टी का कोई बड़ा से बड़ा संकट और ऊँची से ऊँची आवाज़ भी पार नहीं कर पाती है।
पिछले साल लोक सभा के चुनाव परिणाम आने के बाद कश्मीर में पीडीपी की नेता महबूबा मुफ़्ती ने ट्वीट करते हुए ‘शुभकामना’ संदेश तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भेजा था पर ‘कामना’ संदेश कांग्रेस के लिए था कि उसके पास भी एक ‘अमित शाह’ होना चाहिए।सवाल यह है कि गांधी परिवार या कांग्रेस में किसी अमित शाह को बर्दाश्त करने की गुंजाइश अभी बची है क्या? और राहुल गांधी इसलिए मोदी नहीं बन सकते हैं कि वे अपने अतीत और परिवार को लेकर सार्वजनिक रूप से उस तरह से गर्व करने में संकोच कर जाते हैं जिसे वर्तमान प्रधानमंत्री न सिर्फ़ सहजता से कर लेते हैं बल्कि उसे अपनी विजय का हथियार भी बना लेते हैं।
अर्नब गोस्वामी द्वारा पिछले लोक सभा चुनावों के समय अपने चैनल के लिए लिया गया वह चर्चित इंटरव्यू याद किया जा सकता है जिसमें राहुल गांधी ने कहा था :’ मैंने अपना परिवार नहीं चुना।मैंने नहीं कहा कि मुझे इसी परिवार में पैदा होना है।अब दो ही विकल्प हैं :या तो मैं सब कुछ छोड़कर हट जाऊँ या फिर कुछ बदलने की कोशिश करूँ।’ राहुल गांधी दोनों विकल्पों में से किसी एक पर भी काम नहीं कर पाए।
कई लोग सवाल कर रहे हैं कि एक ऐसे समय जबकि कांग्रेस पार्टी चारों तरफ़ से घोर संकट में है ,क्या सचिन पायलट इस तरह से विद्रोह करके उसे और कमज़ोर नहीं कर रहे हैं ? इसका जवाब निश्चित ही एक बड़ी ‘हाँ’ में ही होना चाहिए पर साथ में यह जोड़ते हुए कि इस नए धक्के के बाद अगर पार्टी नेतृत्व जाग जाता है तो उसे एक बड़ी उपलब्धि माना जाना चाहिए।हो सकता है इसके कारण वह भविष्य में हो सकने वाले दूसरे बहुत सारे नुक़सान से बच जाए।किसे पता सचिन यह विद्रोह वास्तव में कांग्रेस पार्टी को बचाने के लिए ही कर रहे हों !
सीटू तिवारी
बिहार के अररिया में एक गैंगरेप की सर्वाइवर को ही जेल भेज दिया गया है। रेप सर्वाइवर और उनके दो सहयोगियों पर कोर्ट की अवमानना का आरोप लगा है। जिसके बाद इन गैंगरेप की सर्वाइवर सहित तीनों लोगों को समस्तीपुर के दलसिंहसराय जेल भेज दिया गया है।
6 जुलाई को इस गैंगरेप की रिपोर्ट रेप सर्वाइवर ने अररिया महिला थाना में 7 जुलाई को दर्ज कराई।
महिला थाने में कांड संख्या 59/2020, भारतीय दंड संहिता की धारा 376 (डी) के तहत दर्ज इस एफआईआर में जिक्र है कि मोटरसाइकिल सिखाने के बहाने उनको एक परिचित लडक़े ने बुलाया।
रेप सर्वाइवर को एक सुनसान जगह ले जाया गया। जहाँ मौजूद चार अज्ञात पुरूषों ने उसके साथ बलात्कार किया। एफआईआर के मुताबिक़ रेप सर्वाइवर ने अपने परिचित से मदद मांगी, लेकिन वो वहाँ से भाग गया।
घबराई रेप सर्वाइवर, अररिया में काम करने वाले जन जागरण शक्ति संगठन (जेजेएसएस) के सदस्यों की मदद से अपने घर पहुँची। लेकिन जब उन्हें अपने घर में भी असहज लगा तो रेप सर्वाइवर ने अपना घर छोडक़र जन जागरण शक्ति संगठन के सदस्यों के साथ ही रहने लगी।
7 और 8 जुलाई को उनकी मेडिकल जाँच हुई। जिसके बाद 10 जुलाई को बयान दर्ज कराने के लिए रेप सर्वाइवर को ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट कोर्ट में ले जाया गया। जन जागरण शक्ति संगठन की ओर से जारी प्रेस रिलीज के मुताबिक, रेप सर्वाइवर और जन जागरण शक्ति संगठन के कार्यकर्ता 10 जुलाई को दोपहर 1 बजे कोर्ट पहुँचे। वहाँ इन लोगों ने कॉरीडोर में इंतज़ार किया। उस वक़्त केस का एक अभियुक्त भी वहीं मौजूद था। तकरीबन 4 घंटे के इंतज़ार के बाद रेप सर्वाइवर का बयान हुआ।
प्रेस विज्ञप्ति के मुताबिक, ‘बयान के बाद जब उसे न्यायिक दंडाधिकारी ने बयान पर हस्ताक्षर करने के लिए कहा, तो वो(रेप सर्वाइवर) उत्तेजित हो गई। उन्होंने उत्तेजना में कहा कि मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा है। आप क्या पढ़ रहे है, मेरी कल्याणी दीदी को बुलाइए।’
कल्याणी और तन्मय निवेदिता जन जागरण शक्ति संगठन के कार्यकर्ता हैं।
‘बाद में, केस की जाँच अधिकारी को बुलाया गया, तब रेप सर्वावइवर ने बयान पर हस्ताक्षर किए। बाहर आकर रेप सर्वावइवर ने जेजेएसएस के दो सहयोगियों तन्मय निवेदिता और कल्याणी बडोला से तेज आवाज में पूछा कि ‘तब आप लोग कहाँ थे, जब मुझे आपकी जरूरत थी।’
बाहर से आ रही तेज आवाजों के बीच ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट ने कल्याणी को अंदर बुलाया। कल्याणी ने रेप सर्वावइवर का बयान पढक़र सुनाए जाने की मांग की। जिसके बाद वहाँ हालात तल्ख होते चले गए। तकरीबन शाम 5 बजे कल्याणी, तन्मय और रेप सर्वाइवर को हिरासत में लिया गया और 11 जुलाई को जेल भेज दिया गया।
स्थानीय अखबार दैनिक भास्कर में छपी रिपोर्ट में लिखा है, ‘न्यायालय के पेशकार राजीव रंजन सिन्हा ने दुष्कर्म पीडि़ता सहित दो अन्य महिलाओं के विरुद्ध महिला थाना में प्राथमिकी दर्ज कराई है। दर्ज प्राथमिकी में बताया गया है कि पीडि़ता ने बयान देकर फिर उसी पर अपनी आपत्ति जताई।’
रिपोर्ट में लिखा है कि, ‘न्यायालय में बयान की कॉपी भी छीनने का प्रयास किया गया। न्यायालय में इस तरह की अभद्रता से आक्रोशित न्यायिक दंडाधिकारी ने तीनों के विरुद्ध प्राथमिकी दर्ज करने का आदेश दिया है।’
बीबीसी के पास भी एफ़आईआर की कॉपी मौजूद है।
इस मामले में बीबीसी ने जब पब्लिक प्रोसिक्यूटर (लोक अभियोजक) लक्ष्मी नारायण यादव से बात की तो उन्होंने कहा, ‘मुझे इस मामले के बारे में कोई जानकारी नहीं है। लॉकडाउन के चलते हम लोग अभी मजिस्ट्रेट कोर्ट नहीं जा पा रहे है।’ वहीं अररिया के एसडीपीओ पुष्कर कुमार ने बीबीसी के सवाल पर सिर्फ इतना कहा, ‘जेल नहीं भेजा गया है।’
ये कहकर उन्होंने कहा कि आपकी (रिपोर्टर की) आवाज नहीं आ रही है और फोन काट दिया। इसके बाद फोन मिलाने पर उन्होंने फोन नहीं उठाया। वहीं अररिया की पुलिस अधीक्षक धुरात साईली सावलाराम और महिला थाना अध्यक्ष रीता कुमारी से संपर्क करने की तमाम कोशिशें असफल रही। बीबीसी ने ई-मेल के जरिए भी संबंधित अधिकारियों से संपर्क करने की कोशिश की, जिसका जवाब ख़बर लिखे जाने तक नहीं मिला है।
महिला संगठनों ने की रिहाई की मांग
इस घटना के सामने आने के बाद बिहार के महिला संगठनों ने रेप सर्वाइवर और जन जागरण शक्ति संगठन के कार्यकर्ताओं को रिहा करने की मांग की है।
एडवा की राज्य अध्यक्ष रामपरी के मुताबिक, ‘ये एक अमानवीय फैसला है। वो मानसिक तनाव की स्थिति से गुजर रही थी। उसको कई बार घटना को बताना पड़ा, उसकी पहचान उजागर की गई। एक अभियुक्त और उसके परिवार के लोगों ने शादी का प्रस्ताव देकर मामले को रफ़ा- दफ़ा करने की कोशिश की, जिसको रेप सर्वाइवर ने ठुकरा दिया। वो 22 साल की है, वयस्क है और अपना केस मज़बूती से लडऩा चाहती है, लेकिन उससे, उसके ‘लीगल गार्जियन’ के बारे में पूछा जा रहा है। कांउसलिंग की भी कोई सुविधा नहीं है। हम न्यायपालिका में विश्वास रखते हुए, न्याय की मांग और उम्मीद करते है।’
भारत में बलात्कार कानून
भारत में बलात्कार कानूनों की बात करें तो 80 के दशक में बलात्कार कानूनों में एक बड़ा बदलाव ये आया कि ‘ओनस ऑफ प्रूफ’ महिला से पुरूष को चला गया। बाद में साल 2013 में क्रिमिनल लॉ एमेन्डमेंट एक्ट में महिला केंद्रित कानून बना। मानवाधिकार कार्यकर्ता खदीजा फारूखी बताती है, ‘इसके मुताबिक़ पुरानी सेक्शुएलिटी हिस्ट्री डिस्कस नहीं करने, रेप सर्वाइवर की प्राइवेसी को अहम माना गया तो 164 का बयान दर्ज कराते वक्त अगर रेप सर्वाइवर किसी ‘पर्सन ऑफ कॉन्फिडेंस’ (विश्वस्त व्यक्ति) को साथ में ले जाना चाहती है, तो इसकी अनुमति दी गई। साथ ही उसे बयान की कॉपी भी मिलने का प्रावधान किया गया। इसमें अगर संभव है तो महिला जज के सामने बयान दर्ज किया जाना चाहिए। लेकिन इन सबके बावजूद रेप सर्वाइवर्स के साथ सामाजिक, पारिवारिक और कानूनी स्तर पर अमानवीय व्यवहार होता है।’
रेप सर्वाइवर का ट्रामा
खदीजा जो बात कर रही है उसे 21 साल की दूसरी रेप सर्वाइवर सुलेखा (बदला हुआ नाम) के जीवन से समझा जा सकता है।
बीबीसी से वो कहती हैं, ‘बिहार में उसी की चलती है जिसके पास पैसा है। दुष्कर्म हो जाता है उसके बाद आप शिकायत करें तो गंदे-गंदे सवाल पूछे जाते है। बार-बार पूछते हैं, क्या हुआ था, क्यों गई थी वहाँ? क्या पहना था? ऐसा लगता है केस करके मैंने ही बहुत बड़ी ग़लती कर दी हो। मेरे साथ तो एक पुलिस वाले ने ही रेप किया था तो मुझे न्याय कैसे मिलेगा।’
इस मामले में रिपोर्ट छपने तक प्रशासन की तरफ से कोई आधिकारिक बयान नहीं आया है। (बीबीसी)
प्रकाश दुबे
संविधान की शपथ के कारण केन्द्रीय गृह मंत्री पर देश की विधि- व्यवस्था का दायित्व है। उन पौधों के विकास का ध्यान रख्नना है, जिन्हें पार्टी अध्यक्ष के नाते रोपा था। पूर्वोत्तर में अमित शाह का मिनी अवतार जि़म्मेदारी संभाल लेता है। असम के स्वास्थ्य मंत्री हिमांत विश्व शर्मा समूचे पूर्वोत्तर में पार्टी की सरकारों को बनाने और संभालने में जुटे रहते हैं। हिमांत ने मणिपुर में जुगाड़ से सरकार बनवाई। दल बदल के कारण सरकार अल्मपत में आई। फौरन पहुंचकर दल बदलुओं से पुनर्दलबदल कराया। सरकार बचाई। मेघालय में एक पार्टी विधायक की बदौलत केन्द्र समर्थित सरकार चल रही है।
इतनी दौड़ भाग में असम के स्वास्थ्य मंत्रालय पर पकड़ कम हुई। असम के करीब आधा दर्जन जिलों से राजधानी दिसपुर में आवागमन पर रोक लगी है। स्वास्थ्य मंत्री शर्मा का विधानसभा क्षेत्र जालुकबारी कामरूप जिले में आता है। मंत्री हिमांत को कुछ जिलों में कोरोना के सामुदायिक संक्रमण के खतरे की आशंका है। राजनीतिक दल बदल पर काबू पाना आसान है। विषाणु के देह- बदल का पता ही नहीं लगता।
कोरोना हाजिऱ है
संसद के अधिवेशन की तिथि और तरीके पर निर्णय नहीं हो सका है। संसद से संबंधित स्थायी समितियों की बैठकों पर भी कोरोना का कोप मंडराता है। गृह मंत्रालय से संबंधित स्थायी समिति की बैठक नहीं हो सकी। विज्ञान और प्रौद्योगिकी से संबंधित बैठक में कोरम का सवाल उठा। 30 सदस्यों में दो तिहाई से अधिक गैर हाजिऱ रहे। विज्ञान और प्रोद्योगिकी स्थायी समिति के अध्यक्ष जयराम रमेश ने राज्यसभा के सभापति को पत्र लिखकर कोरम के अभाव का हल सुझाया। रमेश् चाहते हँं कि सदस्यों का स्वयं आना मुश्किल है तब आभासी बैठकों को मान्यता दी जाए। लोग आन लाइन बैठक में अपने विचार बतायें। वरना गणपूर्ति यानी कोरम के अभाव में काम नहीं होगा। उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू राज्य सभा के पदेन सभापति हैं। नायडू ने तात्कालिक हल सुझाया। बैठकों में कोरम के अभाव के बावजूद विचार विनिमय पर रोक नहीं है। समिति की रपट पेश करने या कोई अत्यंत महत्वपूर्ण निर्णय करते समय कोरम की आवश्यकता पर विचार करें। मजेदार बात यह है कि जिस बैठक में कोरम नहीं था उसमें कोरोना का मुकाबला करने की रणनीति पर विचार होना था।
आज नकद कल उधार
चतुर व्यापारी उधार देने से पहले दस बार सोचते हैं। पुराने बकाये का भुगतान होने तक लेन देन बंद। मुश्किल तब आती है, जब आप माल को बेहतरीन बताकर बेचने की जुगत भिड़ा रहे हों और जाना पहचाना, पुराना ग्राहक पोल खोल दे। नाम लेकर ही सारा किस्सा सुनाए देते हैं। एयर इंडिया को बेचने के लिए केन्द्र सरकार बेताब है। बोली लगाने वाले दिलचस्पी नहीं दिखाते। इस बीच भारतीय विमानपत्तन प्राधिकरण ने एयर इंडिया का चीरहरण कर दिया। कुछ हवाई अड्?डों ने एयर इंडिया के हवाई जहाज उतरने पर शर्त लगाई। शर्त बताते हुए हमें शर्मिंदगी हो रही है। हवाई अड्?डे पर विमान तभी उतार सकोगे जब नकद रकम साथ लेकर आओ। भुगतान करो। तब हवाई जहाज उतरने देंगे। एक उड़ान भरते हो तो उसकी रकम। एक से ज्यादा तब दिन भर का भुगतान। उड़ानें स्थगित होने के कारण हैरान एयर इंडिया ने दो जुलाई को दो करोड़ रु जमा किए हैं। हवाई अड्?डों का रखरखाव करने वाला प्राधिकरण अड़ा है। जिन हवाई अड्?डों पर एयर इंडिया के ज़हाज उतरने से रोक लग सकती है, उनमें अहमदाबाद हवाई अड्?डा शामिल है। नागरिक उड्?डयन मंत्री हरदीप पुरी के माथे एक नया सिरदर्द। भई गति सांप-छंछूदर केरी।
अतिथि, मत आओ
देवभूमि हिमाचल प्रदेश में रहने या जाने का किसका मन नहीं करेगा? जीते जी देवलोक में। कोरोना के कहर के कारण हिमाचल राज्य में संक्रमित बढ़ रहे हैं। देवभूमि में घुसपैठ के लिए सैलानी दानवीय छल बल का आसरा लेने से बाज़ नहीं आते। आसपास के राज्यों के लोग हिमाचल में प्रवेश के लिए फर्जी ई पास दिखाते पकड़े गए। किसी ने शादी का झूठा निमंत्रण दिखाया। संक्रमण मुक्ति का झूठा कोरोना निगेटिव प्रमाण पत्र दिखाने से नहीं चूके। वह भी देश भर में मशहूर दिल्ली के सरकारी अस्पताल का। सैलानियों पर कड़ी नजऱ रखी जा रही है। फर्जी दस्तावेज़ों और और झूठे कारण बताने वाले सैकड़ों लोगों को पुलिस सीमा से लौटा रही है। अब तक मुख्यमंत्री की तस्वीर के साथ देव भूमि में सदेह आमंत्रित करने वाले विज्ञापन बंद हैं। होटल वाले कहते हैं-अतिथि मत आओ। सैलानी निजी घरों का जुगाड़ कर घुस जाते हैं। फर्जीवाड़ा पकड़ में आने के बाद से मुख्यमंत्री जय राम ठाकुर हैरान हैं।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाड ट्रंप की कृपा कुछ ऐसी है, जो ईरान को चीन की गोद में बिठा देगी। ‘न्यूयार्क टाइम्स’ ने एक 18 पृष्ठ का दस्तावेज उजागर किया है, जिससे पता चलता है कि ईरान में चीन अगले 25 साल में 400 बिलियन डॉलर्स का विनियोग करेगा। इस पैसे का इस्तेमाल किस-किस क्षेत्र में घुसने के लिए इस्तेमाल किया जाएगा, यह जानकर ही आप दंग रह जाएंगे। ईरान में रेलें, सडक़ें, पुल, बंदरगाह आदि के निर्माण में तो चीनी पूंजी लगेगी ही, चीन का बस चलेगा तो वह ईरान की बैंकों, दूर-संचार और फौजी जरुरतों पर भी अपना वर्चस्व कायम करना चाहेगा। ईरान के जरिए वह दक्षिण और मध्य एशिया के राष्ट्रों में अपनी सामरिक उपस्थिति बढ़ाने की पूरी कोशिश करेगा। दक्षिण एशिया के साथ 2000 तक चीन का व्यापार सिर्फ 5.57 बिलियन डॉलकर का था, पिछले 18-19 साल में वह 23 गुना बढक़र 127.36 बिलियन डॉलर का हो गया है। पाकिस्तान पर तो चीन की पकड़ काफी मजबूत है ही वह अफगानिस्तान में भी अपना प्रभाव बढ़ाने की कोशिश कर रहा है। यदि पाकिस्तान, अफगानिस्तान और ईरान- इन तीनों देशों में चीन का वर्चस्व बढ़ गया तो भारतीय विदेश नीति के लिए यह काफी चिंता का विषय बन जाएगा। इसकी जिम्मेदारी सबसे ज्यादा अमेरिका पर होगी, क्योंकि डोनाल्ड ट्रंप ने अपनी अतिवादी और बड़बोली नीतियों के कारण ईरान को चीन पर निर्भर कर दिया है। ट्रंप ने राष्ट्रपति बनने के पहले से यह एलान कर रखा था कि वे ईरान के साथ हुए बहुराष्ट्रीय परमाणु समझौते को गलत मानते हैं और यदि वे राष्ट्रपति बन गए तो उसे वे रद्द कर देंगे।
2015 में वह समझौता अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा और छह राष्ट्रों ने मिलकर किया था। दो साल की कड़ी मेहनत के बाद वह अंतरराष्ट्रीय समझौता संपन्न हुआ था और ईरान पर लगे प्रतिबंध उठा लिए गए थे लेकिन ट्रंप ने उस समझौते से अमेरिका को बाहर निकाल लिया और 2018 से ईरान पर सारे प्रतिबंध दुबारा थोप दिए। उसने उन देशों पर प्रतिबंध लगाने की धमकी दे दी, जो ईरान से तेल खरीदते हैं या व्यापार करते हैं। ईरान की अर्थ-व्यवस्था लगभग चौपट हो गई है। मरता, क्या नहीं करता ? 2016 में चीनी राष्ट्रपति शी चिन फिंग ने अपनी ईरान-यात्रा के दौरान सामरिक सहयोग का जो प्रस्ताव रखा था, उसे अब ईरान ने स्वीकार कर लिया है। इस समय चीन अपना 70 प्रतिशत तेल आयात करता है। उसे अब वह सस्ता और आसानी से मिलेगा।
इस समय ईरान-चीन व्यापार सिर्फ 23 बिलियन डॉलर का है लेकिन चीनी राष्ट्रपति के अनुसार वह 600 बिलियन डॉलर तक पहुंच सकता है। यदि ऐसा होता है तो सबसे ज्यादा चिंता सउदी अरब और इस्राइल को ही होगी, क्योकि इन दोनों देशों के विरोधियों को टेका लगाने का दोष ईरान के मत्थे ही मढ़ा जाता है। यदि नवंबर में अमेरिका में सत्ता-परिवर्तन हो जाता है तो निश्चय ही ईरान के साथ उसके संबंध सुधरेंगे और एशिया के इस क्षेत्र में तनाव घटेगा।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-पुलकित भारद्वाज
राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट के बीच की अंदरूनी खींचतान चरम पर पहुंच चुकी है. इस बात का अंदाज पायलट के उस मैसेज से लगाया जा सकता है जो उन्होंने अपने ऑफिशियल ग्रुप में रविवार रात को भेजा था. सूत्रों के मुताबिक इसमें उन्होंने तीस कांग्रेसी और निर्दलीय विधायकों का समर्थन अपने पक्ष में होने की बात कही थी. जबकि उनके समर्थक इससे पहले ही राजस्थान में अशोक गहलोत सरकार के अल्पमत में आने की घोषणा कर चुके थे.
कांग्रेस से सचिन पायलट के बाग़ी हो जाने के कयासों को तब और हवा मिल गई जब रविवार को उन्होंने अपने करीबी और मध्यप्रदेश में कांग्रेस को बड़ा झटका दे चुके ज्योतिरादित्य सिंधिया से एक लंबी मुलाकात की. सिंधिया के अलावा पायलट के भारतीय जनता पार्टी के कुछ अन्य नेताओं से भी मुलाकात की सूचना है. इस पर ज्योतिरादित्य सिंधिया ने ट्वीट कर कहा था कि - मुझे इस बात का दुख है कि मेरे साथी रह चुके सचिन पायलट को राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने परेशान करते हुए हाशिए पर पहुंचा दिया है. यह दिखाता है कि कांग्रेस में प्रतिभा और योग्यता को बहुत कम महत्व मिलता है.
इससे पहले जब ज्योतिरादित्य सिंधिया के भारतीय जनता पार्टी में शामिल होने के बाद कांग्रेस के अधिकतर छोटे-बड़े नेता उन्हें जमकर आड़े हाथ ले रहे थे, तब सचिन पायलट ने एक बहुत संतुलित सा ट्वीट कर लोगों का ध्यान अपनी तरफ़ खींचा था. उन्होंने लिखा था कि ‘ज्योतिरादित्य सिंधिया को कांग्रेस से अलग होते देखना दुखद है. काश चीजों को पार्टी के अंदर ही मिल-जुलकर सुलझा लिया गया होता.’ उनके इस संदेश को कांग्रेस आलाकमान के लिए नसीहत के तौर पर देखा गया जो पार्टी के नए नेताओं की शिकायतों को कथित पर लगातार अनसुना कर रहा है.
यूं तो सचिन पायलट और अशोक गहलोत के बीच की तनातनी 2018 के विधानसभा चुनाव के बाद से किसी से नहीं छिपी है जब छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश की ही तरह राजस्थान में भी कांग्रेस पार्टी अपना परचम फहराने में सफल रही थी. तब कांग्रेस के प्रदेशाध्यक्ष होने के नाते पायलट अपनी अगुवाई में मिली इस जीत के इनाम के तौर पर मुख्यमंत्री पद चाहते थे. लेकिन राजनीति के जादूगर कहे जाने वाले अशोक गहलोत ऐन मौके पर बाजी मार ले गए. तभी से सचिन पायलट, राजस्थान में मुख्यमंत्री गहलोत और उनके नेतृत्व वाली सरकार को घेरने का कोई मौका छोड़ते नहीं दिखे हैं.
लेकिन जानकार कहते हैं कि जो उठापटक इस समय राजस्थान में देखने को मिल रही है उसके तार हाल ही में हुए राज्यसभा चुनावों से जुड़ते हैं. इस चुनाव में भाजपा ने राजस्थान में नाटकीय ढंग से अपने विधायकों के संख्या बल को दरकिनार करते हुए एक की बजाय दो प्रत्याशी मैदान में उतार दिए थे. तब यह संभावना जोर-शोर से जताई गई थी कि राज्यसभा चुनाव के साथ भारतीय जनता पार्टी मध्यप्रदेश की ही तरह राजस्थान में भी सत्ता पलटने की कोशिश कर सकती है. उसकी इस कवायद में पायलट खेमे का सहयोग मिलने के भी कयास लगाए गए. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. इसके लिए जानकारों ने मुख्यमंत्री गहलोत के रणनीतिक कौशल को श्रेय दिया. लेकिन बात तब बिगड़ी जब स्पेशल ऑपरेशनल ग्रुप (एसओजी) ने बीते शुक्रवार इस बारे में पूछताछ करने के लिए सचिन पायलट को एक पत्र लिखा.
अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक, राजस्थान की तरफ़ से भेजे गए इस पत्र में धारा 124 ए, 120 बी के तहत मामले की जांच करने और इस संदर्भ में सचिन पायलट के बयान लेने की बात कही गई है. पायलट इसी बात पर भड़क गए. उन्होंने इस पत्र को अपने स्वाभिमान पर चोट बताया. उन्होंने बयान दिया कि ‘एसओजी का नोटिस उचित नहीं है. धारा 124 ए के तहत पूछताछ आत्मसम्मान पर चोट है. पुलिस इस केस की आड़ में फोन टैप कर सकती है जो कतई उचित नहीं है. यह क़दम एक रणनीति के तहत उठाया गया है.’ इसके बाद से सचिन पायलट ने कांग्रेस नेताओं के फ़ोन उठाने बंद कर दिए. वहीं, अशोक गहलोत समर्थकों का कहना है कि ऐसा ही एक पत्र एसओजी ने मुख्यमंत्री के नाम भी भेजा था. लेकिन सिर्फ पायलट का इस बात पर भड़कना ‘चोर की दाढ़ी में तिनका’ वाली कहावत को सही साबित करता है.
राजस्थान कांग्रेस से जुड़े सूत्र इस पूरे मामले पर कहते हैं कि लंबे समय से मुख्यमंत्री अशोक गहलोत अपने मंत्रिमंडल का विस्तार करना चाहते थे. लेकिन इसके लिए वे सचिन पायलट के पार्टी प्रदेशाध्यक्ष पद से हटने का इंतजार कर रहे थे ताकि वे नए मंत्रियों के चयन या पुराने मंत्रियों को हटाए जाने पर ज़्यादा हस्तक्षेप न कर सकें. कुछ ऐसी ही स्थिति विभिन्न राजनीतिक नियुक्तियों को लेकर भी बनी हुई थी. लेकिन अब गहलोत की राह आसान होती दिख रही है.
दरअसल इस पूरी खींचतान के मद्देनज़र पार्टी ने आज जयपुर में कांग्रेस विधायक दल की बैठक बुलाई है जिसमें आने के लिए सभी विधायकों को व्हिप जारी कर दिया गया है. कांग्रेस महासचिव और पार्टी के प्रदेश प्रभारी अविनाश पांडेय ने इस बारे में बयान दिया है कि इस बैठक में न आने वाले विधायकों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाएगी. उधर, बागी रुख अपनाए हुए राजस्थान कांग्रेस के मुखिया और उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट ने अपने समर्थकों के साथ इस बैठक में हिस्सा लेने से साफ इनकार कर दिया है. जानकारी के अनुसार कांग्रेस के 107 विधायकों में से 102 विधायक इस बैठक में भाग लेने के लिए पहुंच चुके हैं. ऐसे में पायलट और उनके समर्थक विधायकों के ख़िलाफ़ अनुशासनात्मक कार्रवाई होना तय है. ऐसा शायद न भी होता अगर मध्यप्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया की वजह से कांग्रेस हाईकमान पहले ही अपमान का घूंट नहीं पी चुका होता.
विश्लेषकों के मुताबिक ऐसी स्थिति में पायलट के सामने तीन विकल्प बचते हैं. और तीनों में से एक भी उनके लिए फ़ायदे का सौदा नज़र नहीं आता. पहला तो यही कि इतना सब होने के बाद भी वे कांग्रेस से ही जुड़े रहें. इसके लिए वे पार्टी हाईकमान से जमकर मोल-भाव करने की कोशिश कर सकते हैं. लेकिन सूत्रों का कहना है कि बात इतनी बढ़ जाने के बाद ऐसा हो पाना मुश्किल है. फ़िर अशोक गहलोत भी ऐसा आसानी से होने देने से रहे. हालांकि इसके लिए गहलोत को हाईकमान को इस बात का यकीन दिलाना होगा कि राजस्थान में किसी भी हाल में वे सत्ता की चाबी को अपने हाथ से नहीं फिसलने देंगे. यदि वे ऐसा कर पाए तो ज़ाहिर तौर पर इससे पार्टी और प्रदेश सरकार में सचिन पायलट का क़द घटेगा और संगठन पर भी उनकी पकड़ कमज़ोर होगी. अभी तक प्रदेश कांग्रेस में पायलट का क़द दूसरे नंबर का माना जाता है. लेकिन इस पूरे घटनाक्रम के बाद उनकी क्या स्थिति क्या होगी, इस बारे में अभी निश्चित तौर पर कुछ भी नहीं कहा जा सकता है.
सचिन पायलट के सामने दूसरा विकल्प यह बचता है कि वे भी ज्योतिरादित्य सिंधिया की तरह भाजपा में शामिल हो जाएं. रविवार शाम तक ऐसी संभावना जताने वाली ख़बरें जमकर सामने आई थीं और सोमवार को भी राजस्थान के प्रमुख अख़बारों के पहले पन्ने पर छाई रहीं. लेकिन पायलट ने बयान ज़ारी कर यह क़दम उठाने से इन्कार कर दिया है. इसके पीछे बड़ी वजह तो यही है कि राजस्थान में दल-बदलू नेता की छवि के साथ लंबा राजनैतिक सफ़र तय करना अब तक मुश्किल ही रहा है. फ़िर जानकारों की मानें तो यदि सचिन पायलट चाहें तो भी भारतीय जनता पार्टी उन्हें अपने साथ जोड़ने में कम ही दिलचस्पी दिखाएगी. इसके कई कारण हैं:
वरिष्ठ पत्रकार अवधेश आकोदिया इस बारे में हमें बताते हैं कि ‘मध्यप्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया से भारतीय जनता पार्टी ने इसलिए हाथ मिलाया क्योंकि वे वहां सरकार गिराने की स्थिति में थे. जबकि राजस्थान विधानसभा का गणित पायलट को ऐसा करने की इजाज़त नहीं देता.’ ग़ौरतलब है कि राजस्थान के कुल 200 विधायकों में से 107 विधायक सत्ताधारी दल कांग्रेस से आते हैं. इनमें बहुजन समाज पार्टी के छह विधायक भी शामिल हैं जो पिछले साल कांग्रेस में शामिल हो गए थे. इनके अलावा राज्य के 13 निर्दलीय, भारतीय ट्राइबल पार्टी (बीटीपी) के दो, सीपीएम के दो और राष्ट्रीय लोकदल (आरएलडी) के एक विधायक का भी समर्थन अब तक प्रदेश की अशोक गहलोत सरकार को हासिल रहा है. वहीं भाजपा की बात करें तो राजस्थान में उसके पास 72 विधायक हैं और उसे राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी (आरएलपी) के तीन और विधायकों का समर्थन हासिल है. इस तरह उसके पास कुल 75 विधायक ही हैं.
बकौल आकोदिया, ‘यदि 30 विधायकों के साथ होने के सचिन पायलट के दावे को सही मान लें तो जैसा कि सामान्य तौर पर होता है सरकार को अस्थिर करने के लिए इन सभी विधायकों को इस्तीफ़ा देना होगा. तब विधानसभा में बचे विधायकों की संख्या रहेगी 170 और बहुमत के लिए आवश्यक होंगे 85 विधायक. यानी पूरी खींचतान करने के बाद भी भाजपा को सरकार बनाने के लिए दस और विधायकों की आवश्यकता पड़ेगी जिसे पूरा कर पाना टेड़ी खीर है. और बाद में इन सीटों के लिए बाद में जो उपचुनाव होंगे उसमें भी पार्टी के लिए जोख़िम ही रहेगा. इसलिए भाजपा के लिए तो यही बेहतर नज़र आता है कि वह दूर खड़े रहकर पूरा तमाशा देखे. वहीं जानकारी के मुताबिक 109 विधायक अभी तक गहलोत कैंप में पहुंच चुके हैं जो कि सामान्य बहुमत (101) से भी ज़्यादा हैं.’
फ़िर, एक से एक दिग्गज नेताओं से भरी भारतीय जनता पार्टी की राजस्थान इकाई में किसी बाहरी नेता के लिए पैर रखने की भी जगह नज़र नहीं आती. राजस्थान में भारतीय जनता पार्टी इस समय कई छोटे-बड़े गुटों में बंटी हुई है. इनमें सबसे बड़ी धुरी पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ख़ुद हैं. कहा जाता है कि राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा में सिर्फ़ राजे ही हैं जो पार्टी के मौजूदा शीर्ष नेतृत्व यानी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह की आंखों में आंख डालकर बात कहने का माद्दा रखती हैं.
भाजपा से जुड़े सूत्रों की मानें तो भाजपा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह के नेतृत्व से नाख़ुश धड़ा अगले लोकसभा चुनाव से पहले उन पर दबाव बनाने के लिए वसुंधरा राजे की मदद ले सकता है. शायद यह भी एक प्रमुख कारण है कि राजस्थान विधानसभा चुनाव में पार्टी की हार के बाद भाजपा हाईकमान राजे को कमजोर करने में कोई कसर छोड़ता नहीं दिख रहा है. ऐसे में राजस्थान की राजनीति पर नज़र रखने वाले जानकार अभी से यह जानने में खासी दिलचस्पी दिखाते हैं कि करीब सवा तीन साल बाद होने वाले विधानसभा चुनाव में राजे क्या रुख़ अपनाएंगी! इस समय राजस्थान में भारतीय जनता पार्टी के 72 विधायकों में से पचास से ज्यादा ऐसे माने जाते हैं जिनके लिए ‘वसुंधरा ही भाजपा’ हैं. राजस्थान से आने वाले भाजपा के सभी 25 सांसदों में से कमोबेश आधों की भी यही स्थिति बताई जाती है.
अवधेश आकोदिया के मुताबिक ‘यदि भाजपा ने राजस्थान में वसुंधरा राजे की बजाय किसी और नेता को मुख्यमंत्री बनाने की सोची भी तो पार्टी में इस तरह की तोड़-फोड़ देखने को मिल सकती है जैसी कांग्रेस में भी नहीं है.’ यानी कुल मिलाकर राजे भाजपा हाईकमान ना तो राजे को तीसरी बार मुख्यमंत्री बनाकर और ज़्यादा ताकतवर करने का ख़तरा मोल ले सकता है और ना ही मुख्यमंत्री ना बनाकर उन्हें नाराज़ करने का. चूंकि अगले लोकसभा और राजस्थान विधानसभा चुनावों में अभी ठीक-ठाक समय बाकी है सो विश्लेषकों का कहना है कि इस समय राजे को लेकर ‘वेट एंड वॉच’ ही सबसे सही रणनीति हो सकती है, क्योंकि अगले चुनावों तक न जाने कितने समीकरण बनेंगे और बिगड़ेंगे. ऐसे में सचिन पायलट को साथ जोड़कर भाजपा आलाकमान दुविधा के उस जिन्न से अभी शायद ही जूझना चाहेगा जो अगले कुछ साल के लिए बोतल में बंद है.
इसके अलावा भी देखें तो ज्योतिरादित्य सिंधिया का भाजपा के रंग में ढल जाना उनके समर्थकों को ज़्यादा इसलिए नहीं अखरा क्योंकि सिंधिया परिवार की जड़ें पूर्व राजमाता विजया राजे के जमाने से ही जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी से जुड़ी रही हैं. जबकि सचिन पायलट का दूर-दूर तक किसी भी तरह का कोई रिश्ता भाजपा से नहीं रहा है. फ़िर ज्योतिरादित्य सिंधिया केंद्रीय मंत्रिमंडल में जगह पाकर संतुष्ट नज़र आ सकते हैं. वहीं, सचिन पायलट का ध्यान केंद्र के बजाय प्रदेश की राजनीति पर ज़्यादा है. ऊपर से सचिन की पत्नी सारा जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला की बेटी और उमर अब्दुल्ला की बहन हैं. इन दोनों ही नेताओं को मोदी सरकार ने धारा-370 के हटाने के बाद से ही नजरबंद कर रखा था. लेकिन कुछ महीने पहले जिस तरह पहले फारूख़ अबदुल्ला और फ़िर उमर अब्दुल्ला की अचानक रिहाई हुई, उसे कुछ लोगों ने पायलट को भी खुश करने की भाजपा की कवायद के तौर पर देखा. लेकिन विश्लेषकों के एक बड़े वर्ग का मानना है कि अब्दुल्ला परिवार की वजह से सचिन पायलट और भारतीय जनता पार्टी के बीच किसी सहज राजनीतिक रिश्ते की गुंजाइश कम ही नज़र आती है.
अब सचिन पायलट के सामने बचा तीसरा और आख़िरी रास्ता है एक नई पार्टी बनाने का. राजस्थान युवा कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता आयुष भारद्वाज इस बारे में कहते हैं कि ‘आज़ादी के बाद से ही राजस्थान में किसी तीसरे मोर्चे का कोई प्रभावशाली वज़ूद नहीं रहा है. हमारे प्रदेशाध्यक्ष से पहले भी प्रदेश के कई कद्दावर नेताओं ने ऐसा करने की कोशिश की और उन्हें मन मसोस कर ही रहना पड़ा.’ वे आगे जोड़ते हैं, ‘सामान्य समझ से भी देखें तो विधायकों को भारतीय जनता पार्टी में शामिल होने से कुछ न कुछ आर्थिक या राजनीतिक लाभ मिल सकता है. लेकिन सिर्फ़ सचिन पायलट के साथ जाने के लिए कौन अपनी विधायकी को दांव पर लगाना चाहेगा, कहना मुश्किल है. उन्होंने जाने-अनजाने अपनी छवि एक मनमौजी नेता के तौर पर स्थापित कर ली है जिस पर भरोसा करते हुए बड़ा फ़ैसला लेना कोई आसान काम नहीं.’
बहरहाल, बीते कुछ सालों में ऐसे कई मौके आए जब पायलट ने मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की पेशानी पर बल ला दिए थे. यह सही है कि गहलोत सरीखे परिपक्व नेता के लिए चुनौती बनना पायलट की बड़ी उपलब्धि मानी जा सकती है. लेकिन अपने लंबे राजनीतिक अनुभव की मदद से गहलोत हर बार उन पर इक्कीस ही साबित होते रहे. राजनीतिक विश्लेषकों का इस बारे में मानना है कि जब भी सचिन पायलट ने गहलोत पर छोटी बढ़त हासिल की, उन्होंने उसे अपनी जीत समझा. जबकि असल में वे ऐसा करके गहलोत के जाल में फंसते जा रहे थे. गहलोत ने उन्हें पटकने के लिए सही समय का इंतजार किया. जबकि पायलट ने हर मौके पर अतिउत्साहित होकर अपनी अपरिपक्वता ज़ाहिर की.
पार्टी से जुड़े एक वरिष्ठ सूत्र नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, ‘पायलट गहलोत के बिछाए ऐसे व्यूह में फंस चुक जिसमें घुसना तो आसान है, लेकिन निकलना नहीं. पायलट को ये बात तभी समझ लेनी चाहिए थी जब सत्ता में आने के बाद ही उनके कई विश्वस्त नेता पाला बदलते हुए गहलोत की तरफ़ झुकते चले गए थे. लेकिन पायलट इसमें नाकाम रहे और शायद अब उन्हें इस बात का ही ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ सकता है.’(satyagrah)


