-राघवेंद्र राव
तवांग, 1 मार्च । तवांग में वो धान की कटाई का वक़्त था. वो लोग रात-दिन चारों तरफ़ से हमला करते हुए तवांग में आए तो लोग यहाँ से भागने लगे."
थुतान चेवांग की उम्र उस समय सिर्फ़ 11 साल थी. लेकिन अपनी आँखों से देखे हुए युद्ध की बहुत सी घटनाएं उन्हें आज भी साफ़-साफ़ याद हैं.
वो साल 1962 का अक्टूबर का महीना था. चीन ने भारत के पूर्वोत्तर में नॉर्थ ईस्ट फ़्रंटियर एजेंसी (वर्तमान अरुणाचल प्रदेश) के इलाक़े पर अचानक हमला कर दिया था. हमला इतनी तेज़ी से हुआ था कि कुछ इलाक़ों में कड़े प्रतिरोध के बावजूद भारतीय सेना चीनी सेना के सामने टिक नहीं पा रही थी.
सीमा से क़रीब 35 किलोमीटर दूर स्थित तवांग जल्द ही चीन के क़ब्ज़े में आ गया और अगले एक महीने तक चीन के क़ब्ज़े में ही रहा.
साठ साल बाद उस युद्ध की यादें धुंधला ज़रूर गई हों, लेकिन उसकी परछाईं आज भी इस इलाक़े के लोगों के ज़हन में क़ायम है.
बड़े होकर थुतान चेवांग भारत के एक अर्ध-सैनिक बल के सिपाही बने और 28 साल की नौकरी के बाद रिटायर हो गए.
वे कहते हैं कि युद्ध के समय लोगों ने जिन मुश्क़िलों का सामना किया वो उसे कभी नहीं भुला सकते.
'बुरे सपने जैसा था युद्ध'
थुतान चेवांग कहते हैं, "इस इलाक़े में सड़कें तक नहीं थीं. लोग रात-दिन जंगलों से गुज़र कर सुरक्षित निचले इलाक़ों तक पहुंचे. उन्होंने खच्चरों पर राशन ढोया. वो सब एक बुरे सपने जैसा था."
1962 के युद्ध को अपनी आँखों से देखने वाले कई बुज़ुर्गों से बात कर तवांग में रहने वाले नवांग छोट्टा ने एक किताब लिखी.
वो कहते हैं, "सबको अपनी जान प्यारी थी और लोग अपने परिवार के साथ किसी सुरक्षित जगह पर भागना चाह रहे थे. आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि उस समय यहाँ गाड़ियां तो थी नहीं. तो पैदल आप जायेंगे भी तो कितना दूर जाएंगे."
लोबसांग त्सेरिंग साल 1962 में 11 साल के थे. वे बताते हैं कि चीन का हमला होने के बाद उनके माता-पिता उन्हें लेकर असम तक चले गए थे. युद्ध ख़त्म होने के बाद ही वो वापस तवांग लौट सके.
क़रीब एक महीने बाद नवंबर में चीन ने युद्धविराम की घोषणा की और अपनी सेना को पीछे हटा लिया. लेकिन बहुत से लोग इस बात पर यक़ीन नहीं कर पा रहे थे.
तवांग में रहने वाले ल्हाम नोरबू कहते हैं, "ये कहा गया कि चीन की सेना वापस चली गई है. कुछ लोग कहने लगे कि ये बात झूठ होगी क्योंकि जब चीन युद्ध में जीत गया है तो वो पीछे क्यों हटेगा.
कुछ लोगों को शक़ था कि शायद भारत उनसे झूठ कह रहा है और अब उन्हें चीन को सौंप दिया जायेगा. जब उन्हें भरोसा दिलाया गया कि ऐसी कोई बात नहीं है, तब वो लोग वापस आए."
युद्ध की भयावह यादें
तवांग से जान बचा कर भागे हुए लोग जब कुछ महीनों बाद वापस लौट रहे थे तो रास्ते में उन्होंने कई ख़ौफ़नाक मंज़र देखे.
रिनचिन दोरजे आज भी उन दृश्यों को याद कर सिहर जाते हैं. वे कहते हैं, " जब हम वापस लौट रहे थे तो हमने देखा कि चीन की सेना ने भारतीय सैनिकों के शव सड़कों पर रख दिए थे."
ल्हाम नोरबू भी आज तक उस दृश्य को भूल नहीं पाए हैं. वे कहते हैं, "चीनी सेना अपने सैनिकों के शव गाड़ियों में ले गई और भारतीय सैनिकों के शव जंगलों से निकालकर रास्ते में रख दिए. बहुत लोग मरे थे."
नवांग छोट्टा के मुताबिक़, उस समय चीनी सेना ने बहुत कोशिश कि वो स्थानीय लोगों को विश्वास में लेकर उनसे कुछ मदद ले सके.
वे कहते हैं, "इस बारे में जब मैंने अपने बुज़ुर्गों से बात की तो उन्होंने बताया कि चीन की सेना यहाँ के लोगों के विश्वास को कभी नहीं जीत पाई और उनसे उनको मदद न के बराबर मिली."
लगातार सुर्ख़ियों में तवांग
तवांग भारत के पूर्वोत्तर राज्य अरुणाचल प्रदेश का वो इलाक़ा है जो पिछले कई सालों से सुर्ख़ियों में रहा है.
बौद्ध धर्म का एक बड़ा केंद्र होने का साथ-साथ ये वो जगह है जिसका 14वें दलाई लामा तेंज़िन ग्यात्सो से एक ख़ास रिश्ता है.
साल 1959 में तिब्बत से पलायन करने के बाद 14वें दलाई लामा तेनज़िन ग्यात्सो कुछ वक़्त तक तवांग मोनेस्टरी में ही रहे थे.
तवांग एक ऐसा इलाक़ा है जो 1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान क़रीब एक महीने तक चीनी नियंत्रण में रहा.
ये एक ऐसा इलाक़ा है जो दोनों देशों के बीच आज भी विवाद की वजह बना हुआ है.
इसी विवाद की एक झलक पिछले साल दिसंबर के महीने में देखने को मिली जब तवांग के यांग्त्ज़े इलाक़े में दोनों देशों की सेनाओं के बीच झड़प हुई.
भारत ने तब कहा था कि चीन की सेना ने वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर अतिक्रमण कर के यथास्थिति बदलने की कोशिश की.
रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने संसद में इस मामले पर बयान देते हुए कहा था कि 'भारतीय सेना ने चीन की सेना को भारतीय क्षेत्र में अतिक्रमण करने से रोका और चीनी सैनिकों को अपनी पोस्ट पर वापस जाने के लिए मजबूर कर दिया.'
इस इलाक़े में ये पहली झड़प नहीं थी. अक्टूबर 2021 में भी दोनों देशों की सेनाएं यांग्त्ज़े में आमने-सामने आ गई थीं.
'लाइन ऑफ़ एक्चुअल कंट्रोल' तक का सफ़र
तवांग शहर से मौजूदा वास्तविक नियंत्रण रेखा महज़ 35 किलोमीटर दूर है.
बुम-ला दर्रे की घुमावदार सड़कों से गुज़र कर ही एलएसी तक पहुंचा जा सकता है.
बुम-ला दर्रे से गुज़रते वक़्त पंद्रह हज़ार फ़ीट की ऊंचाई पर हवा में ऑक्सीजन की कमी तो महसूस होती है.
साथ ही नज़र आती हैं कई प्राकृतिक झीलें जिनका पानी कम तापमान की वजह से जम गया है.
ये वही जगह है जहाँ 1962 में दोनों देशों के बीच युद्ध के दौरान कई लड़ाइयां लड़ी गयीं.
उन लड़ाइयों की कुछ निशानियां आज भी इस इलाक़े में देखी जा सकती हैं.
जगह-जगह सड़क के किनारे वो बंकर अभी भी मौजूद हैं जिनमें पोज़िशन्स लेकर भारतीय सेना ने चीनी हमले का मुक़ाबला किया था.
ये बंकर आज खाली ज़रूर हैं, लेकिन एलएसी के नज़दीक के इलाक़ों में भारतीय सेना की एक बड़ी उपस्थिति देखी जा सकती है.
दोनों देशों के बीच पिछले कुछ समय से जिस तरह का तनाव चल रहा है, ये सैन्य उपस्थिति हैरान नहीं करती.
इस बड़ी सैन्य उपस्थिति के बावजूद दर्जनों सैलानी अनुमति लेकर तवांग से एलएसी का सफ़र हर दिन तय करते हैं.
पर्यटकों को बुम-ला दर्रे के ज़रिये एलएसी तक ले जाना तवांग के टैक्सी चालकों के लिए आमदनी का एक बड़ा ज़रिया है.
तवांग युद्ध स्मारक
भारतीय सेना के मुताबिक़, इस युद्ध के दौरान कामेंग सेक्टर में 2,420 भारतीय सैनिकों की मौत हुई. इन सैनिकों को श्रद्धांजलि देने के लिए तवांग में एक युद्ध स्मारक बनाया गया है.
यहाँ रखी गई कुछ दुर्लभ तस्वीरों में साल 1959 की वो तस्वीर भी शामिल है जिसमें 14वें दलाई लामा को तिब्बत से पलायन करने के बाद भारत में देखा जा सकता है.
ये स्मारक युद्ध की तस्वीरों, हथियारों और अन्य सैनिक साज़ो-सामान के ज़रिये आज भी 1962 की भयावह यादों को ताज़ा रखे हुए हैं.
नवांग छोट्टा कहते हैं, "उस घटना को हमलोग इसीलिए नहीं भूले हैं क्योंकि वो हमारे लिए एक बहुत बड़ा सबक है कि दुश्मन की मीठी बातों पर विश्वास नहीं करना चाहिए. एक सबक लिया है हमने उससे."
'कैफ़े 62'
1962 के युद्ध से जुड़ी यादें शायद धुंधली ज़रूर हो गई हों, लेकिन लोगों के ज़हन से निकली नहीं हैं.
तवांग से क़रीब 35 किलोमीटर दूर जंग नाम के छोटे से क़स्बे में हमें ऐसी ही एक मिसाल दिखी.
सेना में 21 साल नौकरी करने के बाद जब रिनचिन ड्रेमा रिटायर हुए तो उन्होंने एक कैफ़े खोला.... 'कैफ़े 62'.
रिनचिन ड्रेमा कहते हैं, "1962 में चीन के साथ जो लड़ाई हुई थी उसकी वजह से हमारे बुज़ुर्गों को बहुत तंग किया था उन लोगों ने. उसी के यादगार के तौर पर हमने इस कैफ़े का नाम रखा."
'कैफ़े 62' के ज़रिये रिनचिन ड्रेमा 1962 युद्ध की यादों को ज़िंदा रखना चाहते हैं.
'सीमा पर मुठभेड़ कोई नई बात नहीं'
तवांग शहर में लोगों का कहना है कि दोनों देशों की सेनाओं के बीच सीमा पर मुठभेड़ उनके लिए एक सामान्य-सी बात बन गई है.
वे कहते हैं कि दिसंबर में हुई झड़प के बाद भी तवांग में कोई डर या तनाव का माहौल नहीं था, लेकिन क़ारोबार पर असर ज़रूर पड़ा.
करमु तवांग के बाज़ार में कपड़ों की एक दुकान चलाती हैं. वो कहती हैं, "हम स्थानीय लोगों को कोई डर नहीं है. अक्सर मीडिया में ख़बर आने के बाद ही हमें पता चलता है कि इस तरह का कुछ हुआ है. लेकिन मीडिया में शोर-शराबा मचने के बाद यहाँ पर्यटकों का आना कम हो जाता है."
तवांग के बाज़ार में एक गिफ़्ट शॉप चलाने वाले तेंजिन दारगे भी ज़ोर देकर कहते हैं कि सीमा पर दोनों देशों की सेनाओं के बीच होने वाली झड़पों का तवांग के लोगों पर कोई ख़ास असर नहीं पड़ता.
वे कहते हैं, "यहाँ जीवन सामान्य है. हमें ख़बरों से ही पता चलता है कि सीमा पर झड़प हुई है. हम तो यहाँ एक सामान्य-सा जीवन जी रहे हैं. कोई उतार-चढ़ाव नहीं है."
तवांग के बहुत से लोग मानते हैं कि 1962 के मुक़ाबले भारतीय सेना किसी भी स्थिति से निपटने के लिए कहीं बेहतर तैयार है. स्थानीय लोग कहते हैं कि 1962 की भारतीय सेना और आज की भारतीय सेना में बहुत फ़र्क़ है.
साथ ही वो ये भी कहते हैं कि पिछले कुछ सालों में इस पूरे इलाक़े में सड़क मार्गों में बहुत सुधार हुआ है जिसकी वजह से भारतीय सेना सीमा तक सैनिक और रसद बहुत तेज़ी से पहुँचाने की स्थिति में आ गई है.
नवांग छोट्टा कहते हैं, "तवांग के किसी भी स्थानीय से बात कर लीजिये, वो यही बोलेंगे कि भारतीय सेना तो है ही और ज़रूरत पड़ी तो पीछे हम भी खड़े हैं."
लेकिन कुछ लोगों का कहना है कि जहाँ बात चीन की हो वहां सावधानी बरतना ही बेहतर है.
थुतान चेवांग कहते हैं, "वो लोग (चीन) धोखेबाज़ी करते रहते हैं. दिन में मीटिंग करते हैं और रात में हमला करते हैं. इसलिए हमें हमेशा आँख और कान खुले रखने होंगे. उन पर ज़रा सा भी विश्वास नहीं किया जा सकता." (bbc.com/hindi)