अंतरराष्ट्रीय
डब्ल्यूएचओ के एक वरिष्ठ अधिकारी का कहना है कि कोरोना वायरस से जल्दी छुटकारा पाना संभव नहीं है. अधिकारी के अनुसार इस संदर्भ में टीकाकरण रणनीति के पुनर्गठन की तत्काल जरूरत है.
डब्ल्यूएचओ के यूरोप मामलों के प्रमुख हांस क्लूग ने कोरोना वायरस महामारी को नियंत्रित करने के प्रयासों के परिणामों पर निराशा जाहिर की है. उनका मानना है कि वायरस का कोई तत्काल इलाज नहीं है, क्योंकि वायरस के नए वेरिएंट हर्ड इम्युनिटी को हासिल करने की उम्मीदों को धराशायी करते हैं.
क्लूग ने साफ कर दिया है कि अब यह स्पष्ट हो रहा है कि आने वाले कई वर्षों तक कोरोना वायरस मौजूद रहेगा. उन्होंने कहा कि संयुक्त राष्ट्र के स्वास्थ्य अधिकारियों को वर्तमान टीकाकरण कार्यक्रमों और प्रक्रियाओं की समीक्षा करने और संयुक्त राष्ट्र की जरूरतों के संदर्भ में भविष्य की प्राथमिकताओं को निर्धारित करने के लिए रणनीति पर सोचना होगा.
विश्व स्वास्थ्य संगठन के निदेशक ने इस साल मई में कहा था कि जब टीकाकरण 70 प्रतिशत तक पूरा हो जाएगा तो ज्यादातर देशों में कोरोना वायरस महामारी खत्म हो जाएगी. जाहिर तौर पर ऐसा नहीं हुआ है और कोविड-19 की वर्तमान नई लहर एक खतरा बनी हुई है.
स्थिति बदल गई है
मई में दिए गए विश्व स्वास्थ्य संगठन के बयान के बारे में पूछे जाने पर क्लूग ने कहा कि जमीनी हकीकत ने अब अतीत की स्थिति को पूरी तरह से बदल दिया है.
क्लूग के मुताबिक डेल्टा और दूसरे वेरिएंट को लेकर फिलहाल कुछ नहीं कहा जा सकता है. उन्होंने वैक्सीन का फायदा यह है कि आम जनता वायरस से संक्रमित होने के बावजूद ठीक हो रही है और उनमें बीमारी के गंभीर लक्षण नहीं हैं.
डब्ल्यूएचओ के वरिष्ठ अधिकारी ने यह भी कहा कि यह बीमारी जल्द खत्म होने वाली नहीं है और यह फ्लू जैसी बीमारी बनी रहेगी.
वैक्सीन रणनीति को बदलने की जरूरत
क्लूग का कहना है कि मौजूदा स्थिति में टीकाकरण की रणनीति में बदलाव की जरूरत है ताकि इसकी प्रभावशीलता दोगुनी हो सके. इसी तरह संक्रामक और महामारी विज्ञानियों को लगता है कि वायरस के प्रसार को रोकने के लिए घनी आबादी वाले क्षेत्रों में लोगों की प्रतिरक्षा प्रणाली को मजबूत करने के लिए अकेले टीकों की आपूर्ति पर्याप्त नहीं है.
डब्ल्यूएचओ का कहना है कि उच्च टीकाकरण महत्वपूर्ण है क्योंकि यह स्वास्थ्य प्रणाली को बीमार लोगों के बोझ से बचा सकता था. क्लूग का कहना है कि स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली न केवल कोविड-19 के रोगियों के लिए है बल्कि कई अन्य बीमारियों के पीड़ितों की देखभाल और उपचार के लिए भी है.
भारत में मिला डेल्टा वेरिएंट एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में 60 प्रतिशत तेजी से फैलता है. अब कोलंबिया में मिला म्यू वेरिएंट चिंता पैदा कर रहा है. इस वेरिएंट को पहली बार जनवरी 2021 में कोलंबिया में पहचाना गया था.
एए/वीके (एएफपी, एपी)
मिस्र में एक फतवा जारी किया गया है कि कुछ मामलों में महिलाओं के लिए योनि-झिल्ली की सर्जरी कराना जायज है. लेकिन सब इस फतवे से सहमत नहीं हैं और इसका विरोध कर रहे हैं.
डॉयचे वेले पर जेनिफर होलीस की रिपोर्ट
हाल ही में अरबी में हुए एक लाइव फेसबुक ब्रॉडकास्ट में मिस्र की सर्वोच्च धार्मिक संस्था दर अल-इफ्ता में शरिया शोध विभाग के निदेशक डॉ. अहमद ममदोह ने कहा, "कुछ मामलों में, बलात्कार या धोखे का शिकार हुई ऐसी लड़की के लिए पैबंद लगाने की जरूरत होती है और जायज है जो पश्चाताप करना चाहती है और नया पन्ना पलटना चाहती है.”
यह नया फतवा 30 अगस्त को जारी किया गया था. इस फतवे में डॉ. ममदोह ने अपने 2015 के एक अध्ययन से दूर हटकर बात की है, जिसमें उन्होंने असंयमी महिलाओं की योनि-झिल्ली को फिर से जोड़ने का विरोध किया था. उनका वह रुख 2007 में शेख अली गोमा द्वारा दिए गए एक फतवे पर आधारित था.
यूं तो ममदोह ने अपने आदेश में विस्तार से नहीं बताया कि किसे इजाजत होगी और क्या क्या अपवाद होंगे, लेकिन उन्होंने इतना जरूर कहा कि कुछ मामले हैं जिनमें शरिया योनि-झिल्ली की दुरुस्ती को हराम कहता है.
क्यों पड़ी फतवे की जरूरत?
दरअसल एक प्रसूति-विज्ञानी ने सवाल किया था कि इस्लाम में योनि की झिल्ली को रीपेयर करना जायज है या नहीं. उस सवाल के जवाब में ही डॉ. ममदोह ने यह फतवा सुनाया है.
फेसबुक पर लाइव सुनाए गए इसे फतवे के वीडियो के नीचे ही लोगों ने टिप्पणियां करनी शुरू कर दी थीं. उनमें बहुत से लोगों ने इस फैसले की आलोचना की थी. कुछ लोगों का तर्क था कि योनि-झिल्ली की सर्जरी जिसे हाइमन रीकंस्ट्रक्शन सर्जरी या हाइमनोप्लास्टी भी कहते हैं, शादी के बाहर यौन संबंध बनाने के लिए प्रोत्साहित कर सकती है क्योकि महिलाओं को शादी से पहले बदलाव करने का विकल्प मिल जाएगा.
मिस्र में लैंगिक और यौन हिंसा की विशेषज्ञ और तहरीर इंस्टीट्यूट फॉर मिडल ईस्ट पॉलिसी में फेलो हबीबा अब्देलाल ने डीडब्ल्यू को बताया, "कुछ लोगों ने इस फतवे का समर्थन किया लेकिन कुछ ऐसे भी हैं जो इसे विवाह के पूर्ण हो जाने की विश्वसनीयता की शर्त पर ही सवाल मानते हैं.”
मिस्र के कानून के मुताबिक योनि झिल्ली की सर्जरी अवैध नहीं है. इस तरह के ऑपरेशन का खर्च निजी अस्पतालों में एक हजार डॉलर (करीब 70 हजार रुपये) आता है. लेकिन आज भी देश में योनि-झिल्ली को पवित्रता और शुद्धता से जोड़कर देखा जाता है.
अब्देलाल कहती हैं, "मिस्र में परिवारों का सम्मान महिलाओं के कौमार्य से जोड़ा जाता है. मांएं बहुत सी ऊर्जा अपनी बेटियों को यह सिखाने में लगाती हैं कि वे अपनी झिल्ली को बचाकर रखें और हस्तमैथुन जैसी गतिविधियों से दूर रहें.”
'दूसरा मौका देती है सर्जरी'
काहिरा की अल-अजहर यूनिवर्सिटी दर अल-इफ्ता से संबद्ध है. इस यूनिवर्सिटी में पढ़ाने वालीं प्रोफेसर आम्ना नोसेल फतवे का स्वागत करती हैं. उन्होंने ऑनलाइन पत्रिका अल-मॉनिटर को बताया, "बलात्कार का शिकार हुईं या शादी से पहले यौन संबंधों में लुभा ली गईं लड़कियों के नाम पर स्कैंडल बनाना या उनके नाम को सार्वजनिक करना उन लड़कियों के लिए कोई उम्मीद नहीं छोड़ता. जब उनके परिवार और समाज द्वारा उनसे नाता तोड़ लिया जाता है तो वे एकदम बेसहारा हो जाती हैं और उनके पास सम्मानजनक जीवन जीने का कोई मौका नहीं बचता. सर्जरी उन्हें दूसरा मौका देती है और वे पत्नियां और मांएं बनने के लिए जीवन में आगे बढ़ सकती हैं.”
इस फतवे की एक और वजह उफरी यानी ऐसी शादियों में हो रही बढ़ोतरी है जिनका पंजीकरण नहीं कराया जाता. ऐसी शादियों से तलाकशुदा औरतों को भत्ते आदि का अधिकार नहीं मिलता. नतीजतन वे योनि-झिल्ली की सर्जरी कराती हैं ताकि अपने परिवार की बदनामी के बिना वे दोबारा शादी कर सकें.
वैसे मिस्र में धर्मगुरुओं के बीच अब भी इस बात पर एकराय नहीं है कि अगर महिलाएं ऐसी सर्जरी कराती हैं तो उन्हें अपने संभावित पतियों को बताने के लिए नैतिक रूप से बाध्य हैं या नहीं. अल-मॉनिटर की एक रिपोर्ट के मुताबिक दर-अल-इफ्ता ने कहा है कि लड़कियों को अपने भविष्य के पतियों को सर्जरी के बारे में बताने की जरूरत नहीं है क्योंकि इससे उनकी शादी पर खतरा हो सकता है. लेकिन ऐसे धर्मगुरू भी हैं जो इस बात से असहमत हैं और मानते हैं कि सच्चाई और ईमानदारी ही सफल वैवाहिक जीवन का आधार है. (dw.com)
-दिलनवाज़ पाशा
तालिबान की नई सरकार के गठन के बाद ईरान के नए विदेश मंत्री हुसैन आमिर अब्दुल्लाह ने तालिबान के नए विदेश मंत्री आमिर ख़ान मुतक़्क़ी को फ़ोन करने के बजाए अफ़ग़ानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति हामिद करज़ई को फ़ोन किया और अपनी चिंताएं ज़ाहिर की हैं.
इसके अलावा ईरान के पूर्व विदेश मंत्री जव्वाद ज़रीफ़ का ये ट्वीट तालिबान और ईरान के बीच बढ़ते तनाव का स्पष्ट संकेत है.
उन्होंने लिखा है, "अफ़ग़ानिस्तान में ख़ौफ़नाक कूटनीतिक भूल को फिर से दोहराया जा रहा है. कोई भी चाहे वो देसी हो या विदेशी, अफ़ग़ानिस्तान के बहादुर लोगों पर ताक़त के दम पर राज नहीं कर सका है. तीन सुपरपॉवर की यहां दुर्दशा हुई है. कोई और भी जो ताक़त के दम पर सत्ता क़ायम करना चाहेगा, उसका भी यही अंजाम होगा. ये समय बात करने और सभी को शामिल करने का है, इससे पहले कि परिस्थितियां फिर बदल जाएं."
जब अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान से पूरी तरह वापस जाने का फ़ैसला लिया था तो तालिबान और ईरान के बीच नज़दीकियां बढ़नें लगीं थी.
ईरान अफ़ग़ानिस्तान को लेकर सक्रिय हुआ और तालिबान के साथ अपनी पुरानी कड़वाहटों को भुलाकर संबंध सुधारने लगा. ईरान ने तालिबान के प्रतिनिधिमंडल को भी तेहरान बुलाया और बातचीत की.
लेकिन अब जब पूरा अफ़ग़ानिस्तान तालिबान के क़ब्ज़े में हैं, नई तालिबान सरकार का गठन हो गया है और विरोध की प्रतीक पंजशीर घाटी पर भी तालिबान के नियंत्रण का दावा किया जा रहा है, तब ऐसा लग रहा जैसे ईरान-तालिबान के बीच चला 'हनीमून' अब ख़त्म हो गया और दोनों एक बार फिर आमने-सामने आ सकते हैं.
ईरान और तालिबान ने अपने मतभेद समाप्त कर क़रीब आने में एक लंबा फ़ासला तय किया था लेकिन पिछले कुछ दिनों के घटनाक्रम से लग रहा है कि ईरान तालिबान से बहुत ख़ुश नहीं है.
तालिबान की नई कैबिनेट से नाराज़ है ईरान
तालिबान पूरी दुनिया को ये भरोसा देते रहे थे कि वो एक समावेशी सरकार का गठन करेंगे. लेकिन तालिबान की नई कैबिनेट में तालिबान के ही कट्टरवादी नेताओं को जगह दी गई है.
33 मंत्रियों में से सिर्फ़ तीन ही मंत्री अल्पसंख्यक समूहों से हैं. इनमें दो ताजिक मूल के हैं और एक उज़्बेक मूल के. सरकार में न तो सबसे बड़े नस्लीय समूहों में शामिल शिया हज़ारा समुदाय से कोई मंत्री हैं और न ही कोई महिला मंत्री ही शामिल हैं.
ईरान के सर्वोच्च नेता आयतुल्लाह अली ख़ामनेई के सचिव अली शमख़ानी ने एक ट्वीट में कहा कि "अफ़ग़ानिस्तान की पहली प्राथमिकता शांति और स्थिरता" होनी चाहिए.
शमख़ानी ने कहा, "अफ़ग़ानिस्तान में समावेशी सरकार की ज़रूरत को नज़रअंदाज़ किया जाना, विदेशी दखल, सैन्य ताक़त का इस्तेमाल और नस्लीय समूहों और सामाजिक समूहों की माँगों को पूरा करने के लिए बातचीत न करना, अफ़ग़ान लोगों के दोस्तों की प्रमुख चिंताएं हैं."
वहीं ईरान के नए विदेश मंत्री हुसैन आमिर अब्दुल्लाह ने भी कहा है कि ईरान अफ़ग़ानिस्तान में विभिन्न समूहों के बीच बातचीत और समझौतों का समर्थन करता है.
अफ़ग़ानिस्तान के छह पड़ोसी देशों के विदेश मंत्रियों ने गुरुवार को एक वर्चुअल बैठक भी की जिसमें अफ़ग़ानिस्तान की स्थिति पर चर्चा की गई.
एक ट्वीट में आमिर अब्दुल्लाह ने बताया, "अफ़ग़ानिस्तान के छह पड़ोसी देशों के विदेश मंत्रियों की वर्चुअल एक बैठक हुई. इसमें अफ़ग़ानिस्तान में सभी विविध अफ़ग़ान लोगों की इच्छाओं का प्रतिनिधित्व करने वाले समावेशी सरकार के ज़रिए देश में सुरक्षा, स्थिरता और विकास पर ज़ोर दिया गया. हिंसा की जगह बातचीत होनी चाहिए. विदेशी दख़ल को ख़ारिज किया जाना चाहिए. हम अफ़ग़ानिस्तान के लोगों के बीच बातचीत और समझौतों का समर्थन करते हैं.''
दो दशक पहले जब अफ़ग़ानिस्तान से तालिबान को हटाने के बाद नई सरकार के गठन के लिए अप्रैल 2004 में बर्लिन में सम्मेलन हुआ था तब ईरान ने पश्चिमी देशों का सहयोग किया था और अफ़ग़ानिस्तान की सरकार के गठन में सक्रिय भूमिका निभाई थी.
अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार और अमेरिका की डेलावेयर यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर मुक़्तदर ख़ान कहते हैं, "ये उम्मीद की जा रही थी कि इस बार भी तालिबान सरकार के गठन में ईरान बड़ी भूमिका निभा सकता है और तालिबान एक उदार सरकार का गठन कर सकता है. लेकिन ऐसा हुआ नहीं है."
वहीं ईरान और तालिबान पर नज़र रखने वाले ऑब्ज़र्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन के शोधकर्ता कबीर तनेजा कहते हैं, "ईरान और अफ़ग़ानिस्तान के बीच अभी मतभेद बढ़े हुए नज़र आ रहे हैं. जैसे ही तालिबान ने अपनी नई कैबिनेट की घोषणा की, ईरान के नए विदेश मंत्री ने हामिद करज़ई को फ़ोन करके अपनी चिंताएं ज़ाहिर की. ईरान इस नई सरकार से बिलकुल भी ख़ुश नहीं है."
कबीर तनेजा कहते हैं, "सदर इब्राहीम, दाउद इस्लाइल जैसे ईरान के क़रीबी तालिबान नेताओं को कैबिनेट में कुछ नहीं मिला है. ईरान को ये लग रहा होगा कि वो जिन तालिबान नेताओं के साथ मिलकर वो काम कर रहा था उन्हें नज़रअंदाज़ किया गया है. तालिबान ने पहले शिया मौलवी महदी को शैडो गवर्नर बनाया था. तालिबान ने नरमी के कई संकेत भी दिए थे लेकिन अब ईरान को लग रहा है कि तालिबान से जैसी उम्मीद थी वैसा उसे हासिल नहीं हो रहा है."
तनेजा कहते हैं, "तालिबान से ईरान की नाराज़गी को इसी से समझा जा सकता है कि ईरान के विदेश मंत्री ने हामिद करज़ई को फ़ोन किया, तालिबान के नए विदेश मंत्री को नहीं किया."
पंजशीर पर तालिबान के आक्रमण से नाराज़ है ईरान
ईरान ख़ास तौर पर पंजशीर पर तालिबान के आक्रमण से नाराज़ है. पंजशीर में अधिकतर ताजिक नस्ल के लोग रहते हैं जो मूलतः हैं तो सुन्नी लेकिन ईरान धार्मिक तौर पर उन्हें अपने अधिक क़रीब मानता है.
प्रोफ़ेसर मुक़्तदर ख़ान कहते हैं, "एक अर्ली हनीमून के बाद ईरान और तालिबान के संबंध बेहतर नहीं बल्कि ख़राब हो रहे हैं. इसकी एक बड़ी वजह ये है कि तालिबान ने पंजशीर घाटी पर क़ब्ज़ा कर लिया है. ईरान तालिबान के इस आक्रामक रवैये से नाख़ुश है."
समूचे अफ़ग़ानिस्तान के तालिबान के नियंत्रण में आने के बाद भी काबुल से क़रीब 125 किलोमीटर उत्तर में स्थित पंजशीर घाटी ने तालिबान के शासन को स्वीकार नहीं किया था और अपदस्थ उपराष्ट्रपति अमरुल्लाह सालेह और दिवंगत मुजाहिदीन कमांडर अहमद शाह मसूद के बेटे अहमद मसूद ने पंजशीर में तालिबान के ख़िलाफ़ विद्रोह कर दिया था.
इसी सप्ताह तालिबान ने ताक़त के दम पर पंजशीर पर क़ब्ज़ा करने का दावा किया. पंजशीर पर नज़र रख रहे कई विश्लेषकों का मानना है कि पाकिस्तान ने पंजशीर अभियान में तालिबान की मदद की.
पाकिस्तान के प्रभाव से नाराज़ है ईरान?
तालिबान की नई सरकार के गठन से पहले ही आईएसआई के प्रमुख लेफ़्टिनेंट जनरल फ़ैज़ हामिद ने काबुल में डेरा डाल लिया था. तालिबान पर पाकिस्तान का प्रभाव भी स्पष्ट नज़र आता है.
प्रोफ़ेसर मुक़्तदर ख़ान कहते हैं, "एक और बात जो साफ़ नज़र आ रही है वो ये है कि अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान के क़ब्ज़े में पाकिस्तान की अहम भूमिका रही है. पाकिस्तानी आईएसआई और पाकिस्तानी सेना की भूमिका भी साफ़ नज़र आ रही है. एक तरह से अफ़ग़ानिस्तान का प्रॉक्सी कंट्रोल पाकिस्तान को हासिल हो गया है, इसे लेकर ईरान नाख़ुश है."
दूसरी तरफ शिया बहुल ईरान और सुन्नी बहुल सऊदी अरब के बीच कूटनीतिक तनाव और प्रतिस्पर्धा भी जगज़ाहिर है. पाकिस्तान सऊदी अरब के अधिक क़रीब है. ऐसे में ईरान को ये भी लग रहा है कि अफ़ग़ानिस्तान के पाकिस्तान के प्रभाव में आने से अप्रत्यक्ष तौर पर सऊदी अरब का प्रभाव भी वहां बढ़ेगा.
प्रोफ़ेसर मुक़्तदर ख़ान कहते हैं, "ईरान और सऊदी अरब के बीच जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शिया-सुन्नी तनाव चल रहा है उसमें ईरान अब पाकिस्तान को सऊदी के अहम सहयोगी के रूप में देख रहा है. ईरान पाकिस्तान को दुश्मन भले ना समझे लेकिन एक चुनौती तो समझता ही है."
ईरानी नेताओं के तीखे बोल
हाल ही में ईरान के पूर्व राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद ने तालिबान पर तीखा हमला किया. एक बयान में उन्होंने कहा, "एक ऐसे समूह का समर्थन किया जा रहा है जिसे पड़ोसियों ने पैदा किया, प्रशिक्षित किया और तैयार किया. अब इस समूह ने एक देश पर क़ब्ज़ा कर लिया है. दुनिया या तो इसे देख रही है या इसका समर्थन कर रही है. ये दुनिया के मुंह पर कालिख की तरह है."
प्रोफ़ेसर मुक़्तदर ख़ान कहते हैं, "अहमदीनेजाद के बयान से लग रहा है कि ईरान में एक वर्ग तालिबान को अपने लिए ख़तरा मानता है."
ईरान के नए राष्ट्रपति इब्राहीम रईसी अपने पहले विदेशी दौरे पर ताजिकिस्तान जा रहे हैं. ये स्पष्ट है कि ताजिकिस्तान में चर्चा का अहम विषय अफ़ग़ानिस्तान ही होगा.
कबीर तनेजा कहते हैं, "इब्राहीम रईसी के सामने पहली बड़ी चुनौती तालिबान है. तालिबान से निपटना अब ईरान के लिए बड़ा और अहम काम हो गया है."
ईरान शिया बहुल देश है और तालिबान सुन्नी इस्लाम को मानते हैं. तालिबान इस्लाम की अपनी कट्टर व्याख्या के लिए भी जाने जाते हैं.
बावजूद इसके ईरान, तालिबान के साथ मिलकर काम करने का इच्छुक था. प्रोफ़ेसर मुक़्तदर ख़ान कहते हैं, "ईरान और तालिबान के बीच इस्लाम को लेकर धार्मिक मतभेद हैं. ईरान अलग इस्लाम को मानता है और तालिबान अलग इस्लाम को. ये मतभेद स्पष्ट हैं."
हालांकि ऐसी उम्मीदें भी ज़ाहिर की गईं थीं कि ईरान क्षेत्रीय स्थिरता के लिए तालिबान के साथ मिलकर काम कर सकता है. हालांकि विश्लेषकों का मानना है कि ईरान और तालिबान के बीच दीर्घकालिक संबंध शायद ही बन पाएं.
प्रोफ़ेसर मुक़्तदर ख़ान कहते हैं, "पिछले साल जब अज़रबैजान और आर्मीनिया के बीच जंग हुई थी तब ईरान ने मुसलमान देश अज़रबैजान के ख़िलाफ़ ईसाई मुल्क आर्मीनिया का साथ दिया था. ऐसे में ये माना जा सकता है कि ईरान अपने क्षेत्रीय हितों के लिए धार्मिक विचारों को नज़रअंदाज़ कर सकता है. ये उम्मीद की जा सकती है कि ईरान क्षेत्रीय स्थिरता के लिए शायद तालिबान के साथ मिलकर काम करे, लेकिन ये दोस्ती दीर्घकालिक नहीं रहेगी."
भारत के लिए क्या हैं संकेत?
ईरान के भारत से क़रीबी रिश्ते रहे हैं और ये माना जाता रहा है कि भारत ईरान के ज़रिए अफ़ग़ानिस्तान में सक्रिय भूमिका निभा सकता है.
भारत ने इसी के मद्देनज़र ईरान और अफ़ग़ानिस्तान में भारी निवेश भी किया था. लेकिन अब अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की सरकार है और भारत के लिए परिस्थितियां पूरी तरह बदल चुकी हैं.
कबीर तनेजा कहते हैं, "पहले ऐसा था कि भारत और ईरान मिलकर अफ़ग़ानिस्तान में काम करने की संभावना थी. लेकिन इस संभावित सहयोग को लेकर भी झटका तब लगा जब ईरान तालिबान के अधिक क़रीब आने लगा. ईरान ने तालिबान के प्रतिनिधिमंडल को भी बुलाया. ईरान के लिए सबसे अहम ये था कि अमेरिका अफ़ग़ानिस्तान से निकले. अब जब अमेरिका अफ़ग़ानिस्तान से चला गया है तब ईरान की प्राथमिकताएं बदल रही हैं."
तनेजा कहते हैं, "हमने ये भी देखा है कि भारत भी ईरान के साथ मिलकर काम कर रहा है. विदेश मंत्री जय शंकर ईरान भी गए. भारत और ईरान के बीच अफ़ग़ानिस्तान को लेकर सहयोग और बढ़ सकता है और ये बढ़ना भी चाहिए. भविष्य में अफ़ग़ानिस्तान को लेकर भारत और ईरान का सहयोग और भी अहम हो जाएगा." (bbc.com)
भारत की चिंताओं को साझा करते हुए नई दिल्ली दौरे पर आए ऑस्ट्रेलिया की विदेश मंत्री मैरिस पेन ने शनिवार को कहा कि "हम अफ़ग़ानिस्तान को फिर से आंतकवादियों की सुरक्षित पनाहगाह नहीं बनने देंगे, इस बात को सुनिश्चित करने में दोनों देशों के मज़बूत साझा हित हैं."
इंडियन एक्सप्रेस अख़बार की रिपोर्ट के अनुसार, उन्होंने कहा कि अफ़ग़ानिस्तान को लेकर अंतरराष्ट्रीय समुदाय के मन में चिंता व्याप्त है.
इस पर विदेश मंत्री एस जयंशकर ने कहा कि "अफ़ग़ानिस्तान को किसी भी क़ीमत पर आतंकवाद के लिए अपनी ज़मीन के इस्तेमाल की इजाज़त नहीं देनी चाहिए."
हालांकि उन्होंने तालिबान का नाम नहीं लिया लेकिन दोनों मंत्रियों ने मानवाधिकार को लेकर चिंता ज़ाहिर की.
भारतीय विदेश मंत्री ने कहा कि इस बारे में दोनों देशों के बीच गहरी बातचीत हुई है.
उन्होंने कहा कि भारत की अध्यक्षता में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने 30 अगस्त को जिस प्रस्ताव संख्या 2593 को पारित किया था, हमारा रुख वैसा ही है. (bbc.com)
कैथोलिक ईसाइयों की संस्था 'साइरो-मालाबार कैथोलिक चर्च' की पलाई इकाई के बिशप मार जोसेफ़ कल्लारांगट के 'नारकोटिक्स जिहाद' वाली विवादास्पद टिप्पणी की वजह से केरल की राजनीति में आया तूफ़ान थमता हुआ नहीं दिख रहा है.
दक्षिण भारत से निकलने वाले अख़बार डेक्कन क्रॉनिकल की रिपोर्ट के अनुसार, बीजेपी ने सीपीएम और कांग्रेस पर जिहादियों के समर्थन का आरोप लगाया है जबकि कांग्रेस ने संघ परिवार के एजेंडे के ख़िलाफ़ आगाह करते हुए कहा है कि इससे राज्य में ईसाइयों और मुसलमानों की एकता पर आंच आ सकती है.
बिशप मार जोसेफ़ कल्लारांगट के कमेंट पर 'साइरो-मालाबार कैथोलिक चर्च' ने सफ़ाई देते हुए कहा है कि बिशप का इरादा किसी की भावनाओं को आहत करने का नहीं था और उनकी टिप्पणी किसी समुदाय विशेष के ख़िलाफ़ नहीं थी.
'साइरो-मालाबार कैथोलिक चर्च' के सहायक बिशप मार जैकब मुरिकेन ने कहा, "उन्होंने समाज में जारी एक खतरनाक चलन को लेकर लोगों को केवल आगाह किया है."
उन्होंने सभी समुदायों से धर्म और धार्मिक प्रतीकों की आड़ में असामाजिक और कट्टरपंथी गतिविधियों में भाग लेने वाले तत्वों को गंभीरता से लेने की अपील की. साथ ही उन्होंने ये भी संदेश दिया कि गुमराह करने वाले सभी प्रोपेगैंडा को ख़त्म करने के लिए एक होकर आगे बढ़ेंगे.(bbc.com)
नई दिल्ली, 11 सितम्बर| अफगानिस्तान में हाल की घटनाओं से पहले किए गए फॉक्स न्यूज के सर्वे में पाया गया है कि अमेरिका में पंजीकृत मतदाताओं में से दो-तिहाई (64 फीसदी) का मानना है कि 20 साल पहले 9/11 के आतंकवादी हमलों ने अमेरिका में जीवन के तरीके को स्थायी रूप से बदल दिया है। उत्तरदाताओं में एक चौथाई ने कहा कि हमला अस्थायी परिवर्तन (24 प्रतिशत) का कारण बना, जबकि केवल 9 प्रतिशत ने महसूस किया कि जीवन बिल्कुल नहीं बदला है।
अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों के हटने के पहले पन्ने की खबर बनने से कुछ दिन पहले 7 से 10 अगस्त के बीच सर्वे के लिए लोगों की राय ली गई थी।
सर्वेक्षण के अनुसार, मतदाताओं ने 9/11 के हमलों को कोरोनावायरस महामारी की तुलना में अधिक परिणामी के रूप में देखा है, क्योंकि आधे (50 प्रतिशत) ने पहले के एक सर्वेक्षण में कहा कि महामारी ने अमेरिका में जीवन में स्थायी परिवर्तन किया है।
बहुमत (65 फीसदी) का मानना है कि हमलों के बाद लागू की गई नीतियों ने अमेरिका को सुरक्षित बना दिया, वहीं 17 फीसदी ने महसूस किया कि इसने अमेरिका को कम सुरक्षित बनाया है, जबकि 13 फीसदी ने कहा कि उन्हें नहीं लगता कि नीतियों से कोई फर्क पड़ा है।
लगभग दोगुने, हालांकि अभी भी एक कम संख्या के साथ लोगों ने कहा कि वाटरबोडिर्ंग (38 प्रतिशत) और इराक के खिलाफ सैन्य कार्रवाई (31 प्रतिशत) जैसी पूछताछ तकनीक एक अतिरंजना (ओवर-रिएक्शन) थी।
अगस्त की शुरूआत में, एक-चौथाई (25 प्रतिशत) ने कहा कि अमेरिका की ओर से 9/11 के बाद अफगानिस्तान के खिलाफ सैन्य कार्रवाई ओवर-रिएक्शन थी, जबकि आधे (49 प्रतिशत) का मानना है कि यह सही कार्रवाई थी।
फॉक्स न्यूज ने कहा कि जब मतदाताओं से कई मुद्दों पर उनकी चिंता के स्तर के बारे में पूछा गया, तो इस्लामिक आतंकवादियों के हमले सबसे अंत में उनकी सूची में दिखाई दिए - हालांकि यह अफगानिस्तान में होने वाली घटनाओं से पहले था।
सर्वेक्षण के अनुसार, 58 प्रतिशत ऐसे हमलों के बारे में अत्यंत या बहुत चिंतित थे, जबकि महंगाई (86 प्रतिशत), राजनीतिक विभाजन (83 प्रतिशत), हिंसक अपराध (81 प्रतिशत), स्वास्थ्य सेवा ( 78 फीसदी), चीन की बढ़ती ताकत (73 फीसदी), बेरोजगारी (71 फीसदी), संघीय घाटा (70 फीसदी), कोरोनावायरस (69 फीसदी), ओपिओइड की लत (69 फीसदी), अवैध आव्रजन (66 फीसदी) और नस्लवाद (66 प्रतिशत) को अधिक चिंता के रूप में उद्धृत किया गया।
जलवायु परिवर्तन लगभग समान स्तर की चिंता (60 प्रतिशत) पर देखने को मिला। (आईएएनएस)
एक सालाना अध्ययन में लोगों से पूछा गया कि उनका सबसे बड़ा डर क्या है. क्या आप अंदाजा लगा सकते हैं कि किस चीज से जर्मनी में लोग सबसे ज्यादा डरते हैं?
डॉयचे वैले पर राल्फ बोसेन की रिपोर्ट-
जर्मनी पिछले कई साल से कर्ज मुक्त रहा है. इससे लोगों को एक भरोसा मिला कि वे एक आर्थिक रूप से मजबूत देश में रह रहे हैं. और फिर कोविड नाम की महामारी आई और सूनामी की तरह बहुत कुछ बहाकर ले गई.
कोविड महामारी के बाद से जर्मनी बड़े कर्ज के तले आ गया है. मध्य अप्रैल में केंद्रीय संसद ने 284 अरब डॉलर का कर्ज कोविड के दौरान आर्थिक बहाली के लिए मंजूर किया था. यह एक रिकॉर्ड है. इसके चलते जर्मनी का कुल कर्ज 2.2 ट्रिलियन यूरो तक पहुंच गया है जो अब तक का सबसे अधिक है.
कर्ज बढ़ने का डर
इस कर्ज के बढ़ने के कारण जर्मन लोगों को अब टैक्स बढ़ने का डर सता रहा है. यह जर्मनी में सबसे ज्यादा लोगों का डर है. देश की सबसे बड़ी इंश्योरेंस कंपनियों में से एक आर + वी के एक सर्वे में यह बात सामने आई है. सर्वे में लोगों से पूछा गया था कि उनका सबसे बड़ा डर क्या है. राजनीति, अर्थव्यवस्था, पर्यावरण, परिवार और स्वास्थ्य जैसे मुद्दों पर यह सर्वे 1992 से हो रहा है.
पिछले साल इस सर्वे में लोगों ने कहा था कि वे सबसे ज्यादा अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप से डरते हैं. और 2019 में तो शोधकर्ताओं ने कहा था कि जर्मनी में लोगों का डर अब तक का सबसे कम था.
आर + वी के शोधकर्ताओं ने 2,400 लोगों से बात की. 25 मई से 4 जुलाई के बीच यह सर्वे 14 वर्ष से अधिक आयु के पुरुषों और महिलाओं के बीच हुआ. आर+वी के सूचना केंद्र की अगुआ ब्रिगिटे रोम्सटेट बताती हैं, "इस साल लोगों को केंद्रीय, राज्य और स्थानीय स्तर पर बढ़ता जा रहा कर्ज सबसे ज्यादा परेशान किए हुए है.”
बीमारी से बड़ी धन की चिंता
रोम्सटेट के मुताबिक 53 प्रतिशत जर्मनों को डर है कि सरकार स्थायी तौर पर कर बढ़ा देगी या सेवाएं और सुविधाएं कम करेगी क्योंकि कोरोना वायरस संकट ने कर्ज बढ़ा दिया है. सर्वे में कर का बढ़ना सबसे ऊपर रहा है.
इसके उलट, बीमारी का डर, खासकर कोरोना वायरस से संक्रमित हो जाने का डर 14वे नंबर पर है. रोमस्टेट को इस नतीजे से कोई हैरत नहीं होती. वह कहती हैं, "पिछले साल भी सिर्फ एक तिहाई लोगों को संक्रमण का डर था. और तब तो कोई वैक्सीन भी नहीं आई थी.”
रोम्स्टेट कहती हैं कि लोग बीमारी के ख्याल को दूर धकेलना पसंद करते हैं लेकिन जब बात धन की हो तो डर हमेशा ज्यादा बड़ा हो जाता है.
डरों की सूची में दूसरे और तीसरे नंबर पर भी धन ही है. दर दूसरा जर्मन इस बात से चिंतित है कि जीवन यापन का खर्च बढ़ जाएगा. पिछले साल भी लगभग 51 प्रतिशत लोगों ने इस बात का डर जताया था. तीसरे नंबर की चिंता ये है कि जर्मन लोगों को यूरोप के कर्ज संकट के लिए धन देने को कहा जाएगा.
वैसे, आर्थिक मंदी का डर कम हुआ है. अब यह डर सूची में दसवें नंबर पर है. 40 फीसदी लोग ही इससे चिंतित हैं. पिछले साल यह चौथे नंबर पर था और 48 प्रतिशत लोगों को परेशान कर रहा था. इस साल 38 फीसदी लोग चिंतित हैं कि देश में डिजिटलाइजेशन कम हुआ है.
डरपोक नहीं हैं जर्मन
डिजिटलाइजेशन को लेकर लोगों की चिंता रोम्सटेट को हैरान करती है. वह बताती हैं, "यह सच है कि डिजिटलाइजेशन कम होने का डर 12वें नंबर पर रहा है. यह तब है जब पिछले डेढ़ साल से स्कूल और दफ्तर दोनों का काम घर से चल रहा है, जिससे लोगों को पता चला है कि कमी कहां है.”
हाल ही में आई बाढ़ ने जर्मनी में पर्यावरण के प्रति चिंता बढ़ाई है. 69 प्रतिशत लोगों ने कुदरती आपदाओं को लेकर चिंता जताई है जबकि 61 प्रतिशत ने कहा कि जलवायु परिवर्तन का मानव सभ्यता पर बहुत बुरा असर हो सकता है. डर का यह स्तर औसत से 20 फीसदी अधिक है.
2021 के बाद जो डर एक बार फिर टॉप 10 में आ गया है, वह आप्रवासियों का. हालांकि पिछले एक साल में जर्मनी में आप्रवासियों की संख्या में कोई बहुत ज्यादा बढ़ोतरी नहीं हुई है लेकिन 45 फीसदी लोगों को चिंता है कि जर्मनी पर आप्रवासियों को बोझ बढ़ सकता है. यह चौथे नंबर पर है. पिछले साल 43 फीसदी के साथ यह आठवें नंबर पर था.
आर+वी के सर्वे के शोधकर्ता कहते हैं कि आमतौर पर जर्मन परेशान नहीं व्यवहारिक हैं. रोम्सटेट कहती हैं, "इतने सालों से मैं इस अध्ययन का प्रबंधन देख रही हूं, एक बात मुझे स्पष्ट हो गई है कि अक्सर जिस ‘जर्मन डर' की बात की जाती है, वह मूलतः गलत है. जर्मन डरपोक नहीं हैं.” (dw.com)
चीन के सरकारी मीडिया और सत्तारूढ़ पार्टी के सदस्यों ने कई विदेशी कंपनियों पर ग्राहकों को बहकाने का आरोप लगाया है. इसके पहले सरकार ने कनाडा गूस कंपनी के चीनी यूनिट पर झूठे विज्ञापनों के लिए जुर्माना लगाया था.
यह सब ऐसे समय पर हो रहा है जब चीन और पश्चिमी देशों के तनाव की वजह से देश में राष्ट्रभक्ति को बढ़ावा मिल रहा है. इससे प्रेरित हो कर कुछ खरीदार देसी कंपनियों को चुन रहे हैं. सत्तारूढ़ पार्टी के युवा दल कम्युनिस्ट यूथ लीग ने कनाडा गूस पर लगे जुर्माने के बारे में अपने वीचैट सोशल मीडिया अकाउंट पर लिखा, "झूठ की टोकरी और मिथ्या की लहर". सरकारी अखबार चाइना इकोनॉमिक डेली ने भी एक संपादकीय में इसी कंपनी के बारे में लिखा.
संपादकीय में रेखांकित किया गया कि कैसे शंघाई शहर में बाजार का नियमन करने वाली सरकारी संस्था ने कंपनी के स्थानीय यूनिट पर जून में झूठे विज्ञापनों के लिए 70,000 डॉलर जुर्माना लगाया था. नियामक के मुताबिक हंस के रोवों की जगह कंपनी के जैकेटों में बतख के रोवों का इस्तेमाल हो रहा है. इसके अलावा आरोप है कि कंपनी ने दावा किया कि हटराइट के नाम से जाना जाने वाला रोवां कनाडा का सबसे गर्म रोवां है और इससे ग्राहकों को बहकाया गया.
कई कंपनियां निशाने पर
अखबार ने "झूठ बोलने वाले कनाडा के हंस को पकड़ने" के लिए नियामक की प्रशंसा की. कनाडा गूस कंपनी और उसके चीनी यूनिट ने प्रतिक्रिया के लिए भेजे गए अनुरोध का तुरंत जवाब नहीं दिया. हालांकि अखबार ने यह भी कहा है कि सिर्फ इसी कंपनी की आलोचना नहीं हो रही है बल्कि चीन के उपभोक्ता विदेशी सामान के बेहतर होने की अपनी ही पूर्वधारणाओं पर सवाल उठाने लगे हैं.
यूथ लीग ने एक लेख में कहा, "हाल ही में अंतरराष्ट्रीय कंपनियां कई बार गलत काम करते हुए पकड़ी गई हैं जिसकी वजह से इंटरनेट का इस्तेमाल करने वाले यह सोचने लगे हैं कि विदेशी चांद चीन के चांद से ज्यादा गोल होता है क्या." चाइना इकोनॉमिक डेली ने भी कहा, "उपभोक्ता अब यह समझ गए हैं कि यह जरूरी नहीं है कि ब्रांड विदेशी है तो उसकी गुणवत्ता ज्यादा होगी...चीनी ब्रांड भी अब बढ़ रहे हैं."
जापानी ब्रांड के खिलाफ भी कार्रवाई
अखबार ने यूनिलीवर की मैग्नम आइस क्रीम की भी आलोचना की और कहा कि कंपनी उसी आइस क्रीम को बनाने में पश्चिमी देशों के मुकाबले चीन में सस्ती सामग्री का इस्तेमाल करती है. चीन में यूनिलीवर के दफ्तर में किसी ने फोन नहीं उठाया और कंपनी ने ईमेल का तुरंत जवाब नहीं दिया.
यूथ लीग ने जापानी दूध ब्रांड याकुल्ट की भी झूठे विज्ञापनों की वजह से आलोचना की. अगस्त में शंघाई के उसी नियामक ने याकुल्ट के एक स्थानीय यूनिट पर करीब 70,000 डॉलर का जुर्माना लगा दिया था.
नियामक का कहना था कि कंपनी ने एक विज्ञापन में दावा किया था कि प्रोबायोटिकों की कोविड-19 की रोकथाम में महत्वपूर्ण भूमिका थी. याकुल्ट के चीनी दफ्तर ने टेलीफोन कॉल और ईमेल का तुरंत जवाब नहीं दिया. (dw.com)
सीके/एए (रॉयटर्स)
(मनोज गुप्ता)
काबुल. तालिबान शासित अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बीच संबंधों को लेकर चौंकाने वाले जानकारी सामने आई है. खबर है कि अफगान सरकार के कई गोपीनीय दस्तावेज पाकिस्तान के हाथ लग गए हैं. कहा जा रहा है कि इन दस्तावेज़ों से सुरक्षा को लेकर बड़ा खतरा पैदा हो सकता है. एक दिन पहले ही पाकिस्तान ने अफगानिस्तान की अर्थव्यवस्था को नियंत्रण में लेने के इरादे से काबुल के लिए आर्थिक योजनाओं की घोषणा की थी.
सूत्रों के मुतबिक, काबुल में मानवीय सहायता लेकर पहुंचे तीन C-170 विमान दस्तावेजों से भरे बैग लेकर रवाना हुए हैं. यह ऐसे समय पर हुआ जब तालिबान ने भी नई अंतरिम सरकार के शपथ ग्रहण के लिए तय 11 सितंबर यानी अमेरिका में हुए आतंकी हमले की 20वीं वर्षगांठ की तारीख टाल दी है. तालिबान ने 7 सितंबर को अंतरिम सरकार की घोषणा की थी.
पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के साथ काम कर रहे सूत्र ने सीएनएन-न्यूज18 को बताया कि ये गोपनीय दस्तावेज थे, जिन्हें पाकिस्तान की इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस एजेंसी ने अपने कब्जे में ले लिया है. इन दस्तावेजों में मुख्य रूप से एनडीएस के गोपनीय दस्तावेज, हार्ड डिस्क्स और अन्य डिजीटल जानकारी थी. शीर्ष सूत्रों ने बताया है कि इस डेटा को ISI अपने इस्तेमाल के लिए तैयार करेगा, जो सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा बन सकता है. सूत्रों ने जानकारी दी कि यह तालिबान सरकार को पाकिस्तान पर निर्भर बना देगा.
सूत्रों ने जानकार दी कि डेटा लाइव था, क्योंकि पिछली अफगानिस्तान सरकार ने इस कब्जे की उम्मीद नहीं की थी. हालांकि, सैन्य समूह का उन दस्तावेजों पर कोई नियंत्रण नहीं है, क्योंकि इनके प्रभारी कर्मचारी काम पर नहीं लौटे थे. उन्होंन बताया कि दस्तावेजों की लीक अफगानिस्तान में पाकिस्तान के राजदूत मंसूर अहमद की मदद से हुई थी.
पड़ोसी देशों ने द्विपक्षीय कारोबार के लिए पाकिस्तानी रुपयों का इस्तेमाल करने का फैसला किया है. इससे पहले अफगानिस्तान और पाकिस्तान में तालिबान का द्विपक्षीय कारोबार अमेरिकी डॉलर में होता था, जबकि अफगान की मुद्रा ज्यादा मजबूत है. इसके जरिए पाकिस्तान की मुद्रा की अफगान कारोबारियों और व्यापार समुदायों पर पकड़ मजबूत हो जाएगी.
कुछ ही दिनों पहले ISI प्रमुख हामीद फैज को काबुल में देखा गया था. तभी से यह माना जा रहा था पाकिस्तान तालिबान के शासन में हिस्सेदारी की तलाश में है. इसका बड़ा मकसद अफगान की सेना में हो रहे बदलाव में हक्कानियों को लाना था. ISI को हक्कानी नेटवर्क का संरक्षक माना जाता है, जो अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र की तरफ से नामित आतंकवादी समूह है. हक्कानी नेटवर्क का प्रमुख सिराजुद्दीन हक्कानी को आंतरिक मंत्री बनाया गया है.
चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग और अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने सात महीनों में पहली बार फोन पर बात की. चीन-अमेरिका संबंध निचले स्तरों पर चले गए हैं. दोनों पक्ष व्यापार विवादों को चौतरफा संघर्ष में बदलने से बचना चाहते हैं.
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन और उनके चीनी समकक्ष शी जिनपिंग ने सात महीनों में पहली बार फोन पर बात की है. दोनों नेताओं के बीच डेढ़ की फोन पर बातचीत हुई. पिछले सात महीनों में दोनों नेताओं के बीच यह पहली वार्ता थी जिसमें कई अहम मुद्दों पर चर्चा हुई.
व्हाइट हाउस और चीनी सरकारी मीडिया ने फोन कॉल की पुष्टि करते हुए कहा कि दोनों नेताओं के बीच शुक्रवार सुबह बातचीत हुई. व्हाइट हाउस के मुताबिक वार्ता लगभग 90 मिनट तक चली, अमेरिका और चीन के बीच संबंधों को सुधारने का रास्ता खोजने पर ध्यान केंद्रित किया.
किन मुद्दों पर हुई चर्चा?
व्हाइट हाउस के एक बयान में कहा गया है, "दोनों नेताओं ने व्यापक और रणनीतिक वार्ता में उन क्षेत्रों पर चर्चा की, जहां हमारे हित भिन्न हैं, जिनमें ऐसे मुद्दे भी शामिल हैं जहां हमारे हित, मूल्य और दृष्टिकोण परस्पर असमान हैं."
राष्ट्रपति जो बाइडेन ने पद संभालने के बाद फरवरी में राष्ट्रपति शी जिनपिंग से बात की थी. हालांकि, दोनों पक्षों के बीच किसी महत्वपूर्ण प्रगति के कोई संकेत नहीं थे और दोनों समय-समय पर कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर एक-दूसरे की आलोचना करते रहे हैं. इस बार अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने खुद फोन करने का फैसला किया.
व्हाइट हाउस ने एक बयान में कहा, "राष्ट्रपति जो बाइडेन ने हिंद महासागर और दुनिया में शांति, स्थिरता और समृद्धि में अमेरिका की स्थायी रुचि की पुष्टि की. दोनों नेताओं ने दोनों देशों की जिम्मेदारियों पर चर्चा की."
चीन का बयान
चीन ने भी दोनों नेताओं के बीच फोन पर हुई बातचीत की पुष्टि की है. चीनी सरकारी मीडिया में कहा गया कि वार्ता "खुली और विस्तृत थी" दोनों के बीच "स्पष्ट" और "गहराई से" बातचीत हुई. चीनी मीडिया रिपोर्ट में कहा गया है कि दोनों पक्ष नियमित संपर्क बनाए रखने पर भी सहमत हुए.
अमेरिका और चीन के बीच कई मुद्दों पर गंभीर मतभेद हैं, लेकिन अमेरिका इस समय अफगानिस्तान से हटने के बाद की स्थिति से निपटने की कोशिश कर रहा है. इस संबंध में भी दोनों के बीच तीखे मतभेद हैं और चीन अमेरिका के रवैये की आलोचना करता रहा है.
अमेरिका कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों पर दोनों देशों के बीच, बीच का रास्ता निकालने की कोशिश कर रहा है, लेकिन अभी तक इस तरह के सभी प्रयासों का कोई खास नतीजा नहीं निकला है. पूर्व राष्ट्रपति ट्रंप के कार्यकाल में दोनों देशों के बीच संबंध कुछ हद तक बहुत बिगड़ गए थे. दोनों देशों ने एक दूसरे के अधिकारियों पर प्रतिबंध भी लगाए थे.
बाइडेन का प्रशासन जलवायु परिवर्तन जैसे कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों पर सहयोग के तरीके खोजना चाहता है. लेकिन दक्षिण चीन सागर, शिनजियांग और हांग कांग में मानवाधिकारों को लेकर दोनों के बीच तीखे मतभेद हैं. अमेरिका ने भी कुछ व्यापारिक मुद्दों और कोरोना वायरस को लेकर चीन की आलोचना की है.
एए/सीके (रॉयटर्स, एएफपी)
यूएन के मुताबिक इस समय अफगानिस्तान की अर्थव्यवस्था को जीवित रखना महत्वपूर्ण है, नहीं तो लाखों अफगान गरीबी में धकेले जा सकते हैं. इस बीच, चीन ने अफगान राष्ट्रीय संपत्ति को फ्रीज करने के अमेरिकी फैसले की तीखी आलोचना की है.
अफगानिस्तान में संयुक्त राष्ट्र की विशेष दूत डेबोरा ल्योंस ने गुरुवार को कहा कि तालिबान को पैसे तक पहुंच से रोकने के लिए अफगानिस्तान को वित्त मदद रोकने का फैसला लोगों के लिए अच्छे से ज्यादा नुकसान करेगा.
संयुक्त राष्ट्र महासचिव की विशेष प्रतिनिधि ने सुरक्षा परिषद को बताया कि हालांकि तालिबान सरकार के बारे में चिंताएं हैं, देश को धन की सख्त जरूरत है और इसके जारी रखने को सुनिश्चित करना है.
ल्योंस ने कहा, "अर्थव्यवस्था को कुछ और महीनों के लिए सांस लेने की अनुमति देने की आवश्यकता है, जो तालिबान को लचीलापन दिखाने और इस बार अलग तरीके से काम करने का एक वास्तविक अवसर दे सकता है." उन्होंने कहा कि मानवाधिकारों, महिलाओं के अधिकारों और आतंकवाद विरोध के संदर्भ में पैसों की जरूरत है.
आपदा से बचने के लिए पैसों की जरूरत
ल्योंस ने 15 सदस्यीय संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद को बताया कि धन रोकने से "गंभीर आर्थिक मंदी की एक श्रृंखला शुरू हो जाएगी जो लाखों लोगों के लिए और गरीबी और भुखमरी का कारण बन सकती है." उन्होंने कहा यह अफगानिस्तान से शरणार्थियों की एक और बड़ी आमद का कारण बन सकता है. और, वास्तव में यह अफगानिस्तान को पीढ़ियों के लिए पीछे धकेल सकता है.
उन्होंने कहा कि "अर्थव्यवस्था और सामाजिक व्यवस्था को पूरी तरह से ध्वस्त होने से बचाने के लिए" अफगानिस्तान को धन भेजने की तत्काल जरूरत है. गौरतलब है कि अमेरिका ने अफगानिस्तान से लगभग नौ अरब डॉलर फिलहाल वापस लेने का फैसला किया है.
अधिकांश पैसा न्यू यॉर्क के फेडरल बैंकों में जमा किया गया है. बाइडेन प्रशासन का कहना है कि वह देखना चाहता है कि तालिबान क्या करता है और उसके आधार पर फैसला लिया जाएगा. तालिबान का अधिकांश पैसा उनके अपने राष्ट्रीय बैंक के बजाय बाहर है और तालिबान की अभी तक अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष तक पहुंच नहीं है.
अफगानिस्तान अब तक विदेशी सहायता पर बहुत अधिक निर्भर रहा है और अधिकांश देशों ने इसे रोक दिया है. ल्योंस के मुताबिक मौजूदा स्थिति यह है कि अधिकारी सरकारी कर्मचारियों के वेतन का भुगतान नहीं कर पा रहे हैं.
चीन ने की अमेरिका की आलोचना
इस बीच चीन ने तालिबान के साथ तेजी से राजनयिक संबंध स्थापित किए हैं और गुरुवार को अफगानिस्तान को 3.1 करोड़ डॉलर आर्थिक सहायता की घोषणा की. चीन का कहना है कि अमेरिका अफगान केंद्रीय बैंक की संपत्ति को सौदेबाजी की चिप के रूप में इस्तेमाल कर रहा है, जो अंततः अफगान लोगों को नुकसान पहुंचा रहा है.
संयुक्त राष्ट्र में चीन के उप राजदूत जिंग शुआंग ने कहा, "ये संपत्ति अफगानिस्तान की है और इसका इस्तेमाल अफगानिस्तान के लिए किया जाना चाहिए, न कि धमकी देने के लिए."
एए/वीके (एएफपी, रॉयटर्स, एपी)
श्रीलंका में कई महिलाओं की कोविड-19 से मृत्यु हो जाने के बाद अब महिलाओं को गर्भ धारण टालने की सलाह दी जा रही है. देश में आधी आबादी को टीका लग चुका है लेकिन डेल्टा वेरिएंट की वजह से संक्रमण के मामलों में उछाल आया है.
श्रीलंका सरकार ने कोविड-19 के असर को देखते हुए महिलाओं से कहा है कि वे गर्भ धारण करना कम से कम एक साल तक स्थगित कर दें. स्वास्थ्य मंत्रालय के एक अधिकारी ने बताया कि महिलाओं को ऐसा करने की सलाह दी जा रही है. पिछले चार महीनों में देश में कोविड-19 की वजह से कम से कम 40 गर्भवती महिलाओं की मृत्यु हो गई.
सरकार के स्वास्थ्य प्रमोशन ब्यूरो चित्रमालि डि सिल्वा ने बताया, "सामान्य रूप से हमारे देश में एक साल में 90 से 100 गर्भवती महिलाओं की मृत्यु हो जाती है लेकिन तीसरी लहर की शुरुआत से हमने सिर्फ कोविड की वजह से 41 गर्भवती महिलाओं की मृत्यु के मामले किए हैं."
सिर्फ सलाह, आदेश नहीं
सरकारी प्रसूति और स्त्री रोग विशेषज्ञ हर्षा अटपटू ने बताया, "हम परिवारों से कह रहे हैं कि वे एक साल के लिए परिवार नियोजन के तरीके इस्तेमाल करने पर विचार करें. संभव है कि इस अवधि में हम कोविड-19 के उत्तर प्रभावों को और बेहतर समझ पाएं और एक ज्यादा बेहतर टीका भी विकसित कर पाएं."
अटपटू ने कहा कि शुरू में सिर्फ 35 साल से ज्यादा उम्र की गर्भवती महिलाओं को कोरोना वायरस का टीका लेने की सलाह दी गई थी. बाद में इस सलाह का दायरा बढ़ा कर इसमें उन सभी महिलाओं को ला दिया गया जिन्हने गर्भवती हुए 12 सप्ताह से ज्यादा हो गए थे. अब सभी गर्भवती महिलाओं को टीका लेने के लिए कहा जा रहा है.
अटपटू ने यह भी कहा, "हालांकि, डेल्टा वैरिएंट के प्रकोप को देखते हुए अब हमारी सलाह यह है कि गर्भ धारण को टाल दिया जाए." स्वास्थ्य मंत्रालय के प्रवक्ता और स्वास्थ्य सेवाओं के महानिदेशक डॉक्टर हेमंथा हेराथ ने बताया कि वो मानते हैं कि यह एक सुरक्षित रखने वाला कदम है, लेकिन सरकार ने अभी तक इसे फैसले के तौर पर लागू नहीं किया है.
टीकाकरण के बावजूद
पिछले चार महीनों में 5,500 से भी ज्यादा गर्भवती महिलाओं को संक्रमण हो चुका है और इनमें से करीब 70 प्रतिशत महिलाओं का टीकाकरण पूरा हो चुका था. हालांकि, इनमें से अधिकांश ने बिना किसी परेशानी के बच्चों को जन्म दिया. इन महिलाओं में नौ सितंबर को राजधानी कोलंबो में तीन बच्चों को एक साथ जन्म देने वालीं एक 27 साल की महिला भी शामिल हैं.
देश में रोजाना सामने आने वाले संक्रमण के मामले बढ़ रहे हैं. नौ सितंबर को 175 लोगों की मृत्यु हो गई और जनवरी 2020 में महामारी की शुरुआत से अभी तक देश में मारे जाने वालों की कुल संख्या 10,864 हो गई. मई में पहली बार कोविड-19 संक्रमण की वजह से एक गर्भवती महिला की मृत्यु का मामला सामने आया था.
अप्रैल के मध्य में स्थानीय नव वर्ष के जश्न के यात्रा संबंधित प्रतिबंध ढीले किए थे लेकिन उसके बाद से डेल्टा वैरिएंट से संक्रमण के मामलों में उछाल देखा गया. 2.1 करोड़ की आबादी वाले इस देश में अगस्त से तालाबंदी का एक हल्का रूप लागू है. सरकार उम्मीद कर रही है कि सितंबर के मध्य तक इसे भी हटा लिया जाएगा.
लेकिन देश में विश्व स्वास्थ्य संगठन के अधिकारियों ने कहा है कि अक्टूबर की शुरुआत तक और कड़े प्रतिबंध लागू किए जाने चाहिए. देश में अस्पतालों पर मरीजों का बोझ काफी बढ़ गया है, बावजूद इसके कि टीकाकरण अभियान को तेज करने की कई कोशीशें की गई हैं. देश की लगभग आधी आबादी को टीके की दोनों खुराकें दी जा चुकी हैं.
सीके/वीके (डीपीए, एएफपी)
ब्रिक्स देशों की 13वीं शिखर बैठक गुरुवार को आयोजित हुई. ब्रिक्स देशों ने अफगानिस्तान संकट का शांतिपूर्ण समाधान निकालने पर जोर दिया. साथ ही कहा कि अफगानिस्तान की धरती आतंकियों के लए एक और पनाहगाह ना बने.
डॉयचे वेले पर आमिर अंसारी की रिपोर्ट
भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में ब्रिक्स की वर्चुअल बैठक आयोजित हुई. मोदी ने अपने भाषण की शुरुआत करते हुए कहा, "पिछले डेढ़ दशक में ब्रिक्स ने कई उपलब्धियां हासिल की हैं. आज हम विश्व की उभरती अर्थव्यवस्थाओं के लिए एक प्रभावकारी आवाज हैं. विकासशील देशों की प्राथमिकताओं पर ध्यान केंद्रित करने के लिए भी यह मंच उपयोगी रहा है."
जो मुख्य बात मोदी ने कही वह आतंक के खिलाफ मिलकर लड़ने का आह्वान था. ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका के नेताओं की वर्चुअल बैठक में मोदी ने कहा, "विश्व की प्रभावशाली अर्थव्यवस्थाओं के इस मंच ने आतंक-रोधी कार्ययोजना को मंजूरी दी है." उन्होंने कहा, "हमें यह सुनिश्चित करना है कि ब्रिक्स अगले 15 वर्षों में और परिणामदायी हो."
अफगानिस्तान की स्थिति का जिक्र
ब्रिक्स की बैठक के अंत में "नई दिल्ली घोषणा" पत्र जारी हुआ. घोषणा पत्र में कहा गया कि ब्रिक्स नेताओं ने समावेशी अंतर वार्ता की मांग की. नेताओं ने कहा हम अफगानिस्तान में हिंसा से बचने और शांति के साथ स्थिति से निपटने की अपील करते हैं.
ब्रिक्स नेताओं ने कहा, "अफगानिस्तान में राजनीतिक स्थिरता, नागरिक शांति, कानून और व्यवस्था सुनिश्चित करने के लिए एक समावेशी अंतर अफगान वार्ता को बढ़ावा देने में योगदान की जरूरत पर जोर देते हैं."
बैठक के अंत में अपनाई गई "नई दिल्ली घोषणा" ने भी "मानवीय स्थिति को संबोधित करने और महिलाओं, बच्चों और अल्पसंख्यकों समेत सभी के मानवाधिकारों की रक्षा" की जरूरत पर जोर दिया गया.
"आतंक के लिए ना हो जमीन का इस्तेमाल"
15 अगस्त को काबुल पर तालिबान के कब्जे के बाद "नई दिल्ली घोषणा" पहला बयान था. अफगानिस्तान में तालिबान की सरकार बनने के बाद यह ब्रिक्स की पहली बैठक थी. मोदी ने अपने शुरुआती भाषण और खुले सत्र में अफगानिस्तान का जिक्र नहीं किया. बाद में सभी देशों की आपसी चर्चा में मोदी ने अफगानिस्तान पर चिंता जाहिर की.
रूसी राष्ट्रपति व्लादीमीर पुतिन ने बैठक में कहा कि अफगानिस्तान में मौजूदा संकट देश पर 'बाहर से विदेशी मूल्यों को थोपने की गैर-जिम्मेदाराना कोशिशों' का प्रत्यक्ष परिणाम है. शिखर सम्मेलन में अफगानिस्तान का मुद्दा उठाते हुए पुतिन ने कहा कि अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना और उसके सहयोगियों की वापसी से एक "नया संकट" पैदा हुआ है और ब्रिक्स देशों को वहां की स्थिति पर विशेष ध्यान देना होगा.
उन्होंने कहा अफगानिस्तान को "अपने पड़ोसी देशों के लिए खतरा, ड्रग्स की तस्करी और आतंकवाद का स्रोत" नहीं बनना चाहिए. साथ ही उन्होंने कहा, "उसके नागरिकों को यह परिभाषित करने का अधिकार होना चाहिए कि उनका देश कैसा दिखेगा." (dw.com)
तालिबान-शासित अफगानिस्तान के सिखों और हिंदुओं को एक अनिश्चित भविष्य का सामना करना पड़ रहा है. तालिबान का दावा है कि उसकी सरकार में अल्पसंख्यक महफूज रहेंगे लेकिन पुराने अनुभव याद कर सिख और हिंदू समुदाय सिहर उठते हैं.
डॉयचे वेले पर सीरत चब्बा की रिपोर्ट
अफगानिस्तान के विभिन्न हिस्सों से अपना घरबार छोड़ कर आए सिख और हिंदू समुदायों के लोग, काबुल के पास करते परवान में दशमेष पिता गुरुद्वारा में, हफ्तों से पनाह लेकर रहने को मजबूर हैं. अफगानिस्तान में पिछले महीने सिविल सरकार के पतन और युद्ध और हिंसा से जूझते देश में तालिबानियों के हाथ सत्ता आने के बाद से देश के धार्मिक अल्पसंख्यकों की जिंदगियां भी उलट-पलट गई हैं.
अफगानिस्तान में इस समय करीब 250 सिख और हिंदू रहते हैं. काबुल हवाईअड्डे के पास आत्मघाती बम धमाके की वजह से 140 के करीब लोग हवाईअड्डे में दाखिल ही नहीं हो पाए, जहां से उन्हें भारतीय सेना की निकासी उड़ान लेनी थी. तालिबानी हुकूमत में फिलहाल एयरपोर्ट से उड़ानें बंद हैं. ऐसे में इन अल्पसंख्यकों को चरमपंथी इस्लामी हुकूमत में अपना भविष्य डांवाडोल दिखता है.
काबुल एयरपोर्ट से अमेरिकी विमान की आखिरी उड़ान से पहले भारत ने काबुल से करीब 600 लोगों को निकाल लिया था. इसमें 67 अफगानी सिख और हिंदू थे, निकाले गए लोगों में सांसद अनारकली कौर होनारयार और नरेंदर सिंह खालसा भी थे.
कोई गैर-मुस्लिम अफगानी हो सकता है?
"अफगानी हिंदू और सिख हजारों साल का इतिहास” किताब के लेखक इंदरजीत सिंह बताते हैं कि अफगानिस्तान की सिख और हिंदू आबादी की जड़ें सदियों पुरानी है, उस समय ये देश भी नहीं बना था. उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया, "आज के अफगानिस्तान में सिखों का इतिहास, इस इलाके में सिख धर्म के संस्थापक गुरू नानक देव के दौर में तलाशा जा सकता है. 16वीं सदी में सिख धर्म का भी उदय हुआ था. और हिंदुओं की जड़ें तो और भी पीछे जाती हैं.”
हुकूमत किसी की भी हो, अफगानिस्तान पर काबिज सत्ताएं इन अल्पसंख्यकों को "विदेशी” की तरह ही देखती आई हैं. अपने पूर्वजों के देश में उनकी स्थिति दोयम दर्जे की बना दी गई. जर्मनी में रहने वाली अफगान सिख मानवविज्ञानी पूजा कौर मट्टा कहती हैं, "सिख और हिंदू वहीं के बाशिंदे हैं, बाहरी नहीं.” दूसरे बहुत से सिखों और हिंदुओं की तरह, पूजा के माता पिता की जड़ें भी गजनी और काबुल में थीं. वे 1990 के दशक के मध्य में अफगानिस्तान में तालिबानी लड़ाकों के सत्ता पर कब्जे के बाद यूरोप जाकर बस गए थे. 1992 में उनकी संख्या 60,000 थी. आज 300 से भी कम है.
अलगाव और उत्पीड़न का डर
वर्षों से चले आते सिलसिलेवार और संस्थागत भेदभाव के बावजूद, अल्पसंख्यक इस उम्मीद में थे कि नागरिक सरकार चली तो कुछ समान अधिकार भी हासिल हो पाएंगे. लेकिन 2018 और 2020 में दो बड़े भारी हमलों के बाद ये उम्मीद भी चूरचूर हो गई. अफगानी सांसद नरेन्दर खालसा के पिता पहले आत्मघाती बम हमले में मारे गए थे और कम से कम 25 सिख श्रद्धालुओं की 2020 में गुरद्वारा पर हुए हमले में मौत हो गई थी.
"इस्लामिक स्टेट” गुट से जुड़े एक इलाकाई गिरोह, "इस्लामिक स्टेट खोरासान” (आईएस-के) ने दोनों हमलों की जिम्मेदारी ली थी. ये गिरोह हाल में काबुल के हामिद करजई अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर हुए आत्मघाती बम धमाके के लिए भी जिम्मेदार था जिसमें कम से कम 182 लोगों की जानें चली गई थी. नयी तालिबानी हुकूमत के तहत, सिखों और हिंदुओं को ऐसे दौर में धकेल दिए जाने का डर है जहां उन्हें गैर-मुस्लिम के तौर पर अपनी निशानदेही के लिए पीले रंग के टैग लगाए रखने को मजबूर किया जाएगा.
पूजा कौर कहती हैं, "सिखों और हिंदुओं को उनके मजहबों की वजह से निशाना बनाया जाता है. उत्पीड़न के डर के बच्चों की एक पीढ़ी स्कूल का मुंह नहीं देख पाई. अपने प्रियजनों की मौत पर उन्हें दफनाने भी नहीं दिया जाता था और पत्थर बरसाए जाते थे.” घर बेशक स्थायित्व का बोध कराता है लेकिन ये समुदाय बहुत पहले इस बोध को गंवा चुके हैं.
भारत की असंगत नीति से अधर में फंसे
भारत में अफगानिस्तान से आने वाले सिखों और हिंदुओं के प्रति स्वागत का नजरिया दिखता है लेकिन शरण मांगने वालों और शरणार्थियों के प्रति सरकार की हिचकिचाहट भरी और अस्थिर सी नीति ने सैकड़ों लोगों को अधर में लटका दिया है. शरण मांगनेवालों के प्रति सरकार की नीति अलग अलग है. ये उस देश के साथ आपसी संबंधों पर आधारित है जहां से शरणार्थी आ रहे हैं या घरेलू राजनीति को ध्यान में रखते हुए तय की जाती है.
पिछले महीने, भारत सरकार ने कहा था कि हिंदुओं और सिखों के अलावा वो सभी धर्मों के अफगानियों को शरण देगा. लेकिन सरकार जो कहती है वो धरातल पर शायद नहीं नजर आता है. सरकार की शरणार्थी नीति के अभाव में, लोगों के वीजा मंजूर कैसे किए जा रहे हैं, इसमें कम पारदर्शिता रह गई है. रिफ्यूजी स्टेटस में स्पष्टता की कमी के अलावा, भारत में जिंदगी इतनी आसान भी नहीं. अधिकांश अफगानी बिरादरी दिल्ली में रहती है. लेकिन ये एक महंगा शहर है. बहुत से अफगानियों के पास वर्क परमिट नहीं है. दान-दया पर कब तक टिके रहा जा सकता है.
एक स्थिर जीवन का ख्वाब
अफगानिस्तान से भागने वाले सिखों और हिंदुओं को एक नयी जिंदगी शुरू करने की उम्मीद है, एक बेहतर और स्थिर जिंदगी और उन्हें ये भी उम्मीद है कि वे अपने बच्चों का भविष्य बेहतर बना पाएंगे. 29 साल की पूजा कौर मट्टा उन बच्चों में से थी जिसके माता-पिता ने अफगानिस्तान छोड़ने का फैसला किया था और उसके लिए अवसरों की एक नयी दुनिया खोल दी थी. आज वो अपने समुदाय के बारे में संवादों को प्रोत्साहित करना चाहती हैं.
लेकिन बड़ी संख्या में अफगानिस्तान छोड़कर जाने वाले सिखों और हिंदुओं से अलग कुछ ऐसे परिवार भी हैं जिन्होंने देश में ही रहने का फैसला किया है. वे अपने गुरुद्वारों और मंदिरों के निगहबान की तरह वहीं रहना चाहते हैं. उनके लिए वही उनकी बचीखुची विरासत है. पूजा कौर मट्टा कहती हैं, "हमारा कोई घर नहीं है. अफगानिस्तान में लोग हमें इंडियन बुलाते हैं, भारत में हम अफगानी कहलाते हैं.”
"हम लोग सिर्फ एक सुरक्षित ठिकाना चाहते हैं जहां हम अपनी जिंदगी बेखौफ होकर गुजार सकें. हमें ऐसी जगह चाहिए जहां हम पर जुल्म न हों, हमें अपना धर्म मानने की छूट हो, अपनी रिवायतें, रस्में निभा सकें, नौकरी कर सकें और अपने बच्चों को पालपोस कर बड़ा कर सकें.” (dw.com)
दो अलग अलग टीमों ने अति शक्तिशाली चुम्बकें बनाई हैं जिनसे न्यूक्लियर फ्यूजन को ऊर्जा के एक स्त्रोत के रूप में विकसित करने की दिशा में एक कदम और आगे बढ़ाया जा सकेगा.
दुनिया के अलग अलग कोनों में काम कर रही ये टीमें ऊर्जा के एक ऐसेस्त्रोत पर काबू पाने की कोशिश कर रही हैं जिसकी जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई में काफी महत्वपूर्ण भूमिका है. नौ सितंबर को दक्षिणी फ्रांस स्थित अंतरराष्ट्रीय थर्मोन्यूक्लियर एक्सपेरिमेंटल रिऐक्टर (आईटीईआर) के वैज्ञानिकों को एक बेहद शक्तिशाली चुंबक का पहला हिस्सा प्राप्त हुआ.
चुंबक इतनी शक्तिशाली है कि उसे बनाने वाली अमेरिकी कंपनी का दावा है कि वो एक विमानवाहक जहाज तक को उठा सकती है. जब इसके सभी हिस्सों को जोड़ दिया जाएगा तब यह लगभग 60 फुट लंबी होगी और इसका 14 फुट का व्यास होगा. यह चुंबक न्यूक्लियर फ्यूजन पर पूरी तरह से निपुणता हासिल करने के 35 देशों की कोशिशों का एक बेहद जरूरी हिस्सा है.
फिशन बनाम फ्यूजन
इसके अलावा एक और निजी कंपनी ने मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के साथ इसी सप्ताह घोषणा की कि उन्होंने दुनिया की सबसे मजबूत ऊंचे तापमान वाली सुपरकंडक्टिंग चुंबक का सफलतापूर्वक परीक्षण कर लिया है. इस चुंबक की मदद से यह टीम "धरती पर सूर्य" बनाने की रेस में आईटीईआर को पीछे छोड़ देगी.
मौजूदा फिशन रिऐक्टर रेडियोऐक्टिव कचरे का भी उत्पादन करते हैं और कभी कभी तो उनकी वजह से विनाशकारी दुर्घटनाएं हो जाती हैं. इसके विपरीत फ्यूजन की वकालत करने वाले कहते हैं कि उससे बिजली की स्वच्छ और असीमित आपूर्ति मिल सकती है. हां, इसके लिए पहले इसे नियंत्रण में लाना जरूरी है. वैज्ञानिक और इंजीनियर लगभग पिछले 100 सालों से इस समस्या पर काम कर रहे हैं.
अणुओं के विभाजन की जगह फ्यूजन में एक ऐसी प्रक्रिया की नकल करने की कोशिश की जाती है जो सितारों के अंदर प्राकृतिक रूप से होती है. इसमें हाइड्रोजन के दो अणुओं को मिला कर हीलियम का एक अणु बनाया जाता है. ऐसा करने पर बड़ी मात्रा में ऊर्जा भी उत्पन्न होती है.
लेकिन फ्यूजन को हासिल करने के लिए अकल्पनीय मात्रा में गर्मी और दबाव चाहिए होता है. इसे हासिल करने का एक तरीका तो यह है कि हाइड्रोजन को बिजली से चार्ज की हुई एक गैस या प्लाज्मा में बदल दिया जाए जिसे उसके बाद डोनट के आकार के एक वैक्यूम चेंबर में नियंत्रित कर लिया जाए.
2026 में शुरुआत का लक्ष्य
ऐसा करने के लिए शक्तिशाली सुपरकंडक्टिंग चुंबकों की जरूरत पड़ती है. ऐसी ही एक चुंबक 'सेंट्रल सोलेनॉयड' को जनरल एटॉमिक्स कंपनी ने इसी साल गर्मियों के दौरान अमेरिका के सान डिएगो से फ्रांस भेजना शुरू किया. वैज्ञानिकों का कहना है कि आईटीईआर अब 75 प्रतिशत पूरा हो चुका है और रिऐक्टर को 2026 की शुरुआत तक चालू कर देना का लक्ष्य रखा गया है.
आईटीईआर की प्रवक्ता लबान कोब्लेंट्ज ने बताया, "हर अहम टुकड़े के पूरा होने के साथ हमारा यह विश्वास बढ़ता जाता है कि हम पूरी मशीन की पेचीदा इंजीनियरिंग को पूरा बना सकते हैं." अंतिम लक्ष्य है प्लाज्मा को गर्म करने के लिए जितनी ऊर्जा चाहिए उससे 10 गुना ज्यादा ऊर्जा 2035 तक बना लेना. इससे साबित हो जाएगा कि फ्यूजन तकनीक व्यवहार्य है.
इस रेस में मैसाचुसेट्स की टीम इस टीम को हरा देनी की उम्मीद कर रही है. उसका कहना है कि वो आईटीआर के चुंबकीय क्षेत्र से दोगुना ज्यादा बड़ा क्षेत्र बना चुकी है और ऐसा उसने एक ऐसी चुंबक की मदद से किया है जो आईटीईआर की चुंबक से करीब 40 गुना कम छोटी है.
एमआईटी और कॉमनवेल्थ फ्यूजन सिस्टम्स के वैज्ञानिकों ने बताया कि संभव है 2030 के दशक की शुरुआत में ही वो एक ऐसा उपकरण बना लें जिसका रोजमर्रा में इस्तेमाल किया जा सके.
सीके/एए (एपी)
-रेहान फ़ज़ल
11 सितंबर, 2001 एक आम दिन की तरह शुरू हुआ था. लेकिन दस बजते बजते ये दिन दुनिया के इतिहास के सबसे ख़तरनाक आतंकवादी हमले और पर्ल हार्बर के बाद अमेरिका पर किए गए सबसे भयानक वार के रूप में तब्दील हो चुका था.
न्यूयॉर्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के दो टावरों पर जब दो विमानों ने आकर टक्कर मारी थी तो इस हमले में 2606 लोग मौत के मुँह में समा गए थे.
9/11 हमले के बाद वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के जल्दी गिरने के दो कारण
9/11 के ख़ौफ़ को बयां करती 9 तस्वीरें
पेंटागन पर हुए हमले में 206 अन्य लोग और पेन्सिलवेनिया में विमान अपहरण का प्रयास विफल करने में 40 और लोगों की मौत हो गई थी. न्यूयॉर्क में बनाए गए 9/11 के मेमोरियल में कुल 2983 लोगों के नाम दर्ज हैं जिन्होंने इन हमलों में अपने प्राणों की आहुति दी थी.
वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर ये पहला आतंकवादी हमला नहीं था. वर्ष 1993 यानी आठ साल 102 मिनट पहले हुए हमले में भी छह लोग मारे गए थे.
मशहूर किताब 'द ओनली प्लेन इन द स्काई द ओरल हिस्ट्री ऑफ़ 9/11' में गैरेट एम ग्राफ़ लिखते हैं, "9/11 में हुए हमलों में 3000 से अधिक बच्चों ने अपने माता-पिता खो दिए थे. इनमें से क़रीब 100 बच्चे वो थे जो हमलों के कई महीनों बाद पैदा हुए थे और जिन्हें अपने पिता को कभी देखने का मौका नहीं मिल सका. संख्या की बात दरकिनार भी कर दी जाए तो इस हमले ने उस दिन अमेरिका में रहने वाले क़रीब क़रीब हर जीवित अमेरिकी और दुनिया भर के उन लाखों नागरिकों की ज़िंदगी पर असर डाला था, जिन्होंने ये लोमहर्षक ख़बर समाचारों में सुनी थी."
वे लिखते हैं, "उस घटना से होने वाला सदमा अभी भी हर अमेरिकी की यादों से ओझल नहीं हुआ है. ये घटना उस जगह हुई थी जिसे दुनिया की सबसे सुरक्षित जगह माना जाता था."
उसने उठते ही उसी होटल में रह रहे अपने साथी अब्दुल अज़ीज़ अल ओमारी को फ़ोन मिलाया. फिर वह शॉवर के नीचे खड़े हो कर नहाने लगा. उसने अपनी नीले रंग की कमीज़ और काली पैंट पहनी. फिर उसने अपने लैपटॉप पर अपनी वसीयत खोली जिसे उसने अप्रैल, 1996 में लिखा था.
वसीयत में दो चीज़ें थोड़ी अजीब थीं. मार्टिन एमिस अपनी किताब 'द सेकेंड प्लेन' में लिखते हैं, "अता ने अपनी वसीयत में लिखा था, मैं चाहता हूँ कि मेरे अंतिम संस्कार में लोग शोर न मचाएं, क्योंकि ईश्वर चाहता है कि ऐसे मौके पर बिल्कुल चुप रहा जाए. दूसरा मेरे मरने के बाद जो व्यक्ति मेरे जिस्म को नहलाए वो दस्ताने पहने और मेरे गुप्ताँगों को न छुए. मैं ये भी नहीं चाहता कि कोई गर्भवती महिला या वो शख़्स जो साफ़ सुथरा न हो मुझे अंतिम विदाई दे."
इनमें से कोई भी निर्देश पूरा नहीं किया जा सका क्योंकि न तो किसी ने उसे अंतिम विदाई दी और न ही किसी ने उसको नहलाया या उसके गुप्ताँगों को छुआ.
'ऑन दैट डे द डेफ़ेनेटिव टाइम लाइन' के लेखक विलियम आर्किन लिखते हैं, "5 बजकर 33 मिनट पर अता और उसके साथी ने चेक आउट किया. कमरों का बिल अता के वीज़ा डेबिट कार्ड से चुकाया गया. इससे एक दिन पहले का समय उन्होंने एटीएम से पैसे निकालने, पित्ज़ा खाने और वॉलमार्ट से शॉपिंग करने में बिताया. एफ़बीआई का मानना है कि उसी दिन अता ने अपनी कार से जाकर वर्ल्ड ट्रेड सेंटर का जाएज़ा भी लिया था."
मेटल डिटेक्टर में कुछ नहीं निकला
होटल से चेक आउट करने के बाद अता और उसका साथी अब्दुल अज़ीज़ अल ओमारी किराए पर ली गई नीले रंग की निसान अल्टिमा कार पर बैठे और सात मिनट के अंदर एयरपोर्ट की पार्किंग में पहुंच गए. वहाँ पर पार्किंग में घुसते हुए एयरपोर्ट सिक्योरिटी ने उसकी तस्वीर ली. 5 बजकर 45 मिनट पर अता और उसके साथी की सुरक्षा जाँच की गई.
अता के हाथ में कंधे पर लटकाने वाला एक काला बैग और अमारी के हाथ में एक कैमरा या कैमकॉर्डर जैसी चीज़ थी जिसे उसने दोनों हाथों से पकड़ा हुआ था. मेटल डिटेक्टर को उनके पास से कुछ नहीं मिला.
विलियम आर्किन लिखते हैं, "ठीक छह बजे अता और उसका साथी यूएस एयरवेज़ की फ़्लाइट नंबर 5930 में बैठे. 19 यात्रियों की क्षमता वाले उस विमान में कुल 8 यात्री ही सवार थे. अता को पंक्ति नंबर 9 में सीट दी गई थी. वो और अल ओमारी विमान पर सवार होने वाले अंतिम यात्री थे. 45 मिनट के अंदर ही वो बोस्टन लोगन इंटरनैशनल एयरपोर्ट पहुंच गए जहाँ से उन्हें लॉस एंजेलिस जाने वाली AA फ़्लाइट नंबर 11 में सवार होना था. इस विमान में 81 यात्रियों के अलावा 9 विमानकर्मी भी सवार थे. 7 बजकर 59 मिनट पर इस 767 बोइंग विमान को टेक ऑफ़ के लिए क्लीयर किया गया."
बचपन में बहुत शर्मीला और दब्बू था अता
अता का जन्म 1 सितंबर, 1968 को कफ़्र अल शेख़, मिस्र में हुआ था. उसके परिवार वालों और दोस्तों का कहना है कि वो बचपन में बहुत शर्मीला था.
टाइम पत्रिका के 30 सितंबर, 2001 में 'अताज़ ओडेसी' शीर्षक से छपे लेख में जॉन क्लाउड लिखते हैं, "अता के पिता बताते हैं कि बचपन में उसे शतरंज खेलने का शौक था और उसे हिंसक खेलों से नफ़रत थी. उसका क़द 5 फ़ीट 7 इंच था और वो इतना दुबला था कि उसके पिता उसे 'बुलबुल' कह कर पुकारते थे."
"काहिरा विश्वविद्यालय से वास्तुकला इंजीनयरिंग में स्नातक की डिग्री लेने के बाद वो आगे की पढ़ाई के लिए हैम्बर्ग, जर्मनी चला गया था. 90 के दशक के मध्य से अता अपने विश्वविद्यालय से अक्सर लंबे समय के लिए ग़ायब रहने लगा था. उसने अपने साथियों को इसका कारण बताया था कि वो हज करने सऊदी अरब गया था. जब वो वापस लौटा था तो उसने दाढ़ी रख ली थी."
जर्मन ख़ुफ़िया सूत्रों का मानना है कि इस दौरान अता आतंकवादी गतिविधियों से जुड़े लोगों के सम्पर्क में आ चुका था.
विमान उड़ाने की ट्रेनिंग
टेरी मेकडॉरमेट अपनी किताब 'पर्फ़ेक्ट सोलजर्स हू दे वर वाई दे डिड इट' में लिखते हैं, "गायब रहने के बाद वापस आने के बाद अता ने एक नए पासपोर्ट के लिए आवेदन किया था जबकि उसका पुराना पासपोर्ट अभी एक्सपायर नहीं हुआ था. चरमपंथियों के बीच ऐसा करना आम था क्योंकि पुराने पासपोर्ट को नष्ट कर वो ये सबूत मिटा देना चाहते थे कि वो कहाँ कहाँ गए थे."
3 जून, 2000 को प्राग से छह महीने के टूरिस्ट वीज़ा पर नेवार्क पहुंचा था और एक महीने के अंदर ही उसने अपने कुछ साथियों के साथ वेनिस में हफ़मेन एविएशन इंटरनेशनल से विमान उड़ाने की ट्रेनिंग लेनी शुरू कर दी थी.
चार महीने की इस ट्रेनिंग के लिए उन सबने मिलकर हफ़मेन को क़रीब 40 हज़ार डॉलर दिए थे. 21 दिसंबर, 2000 को अता और उसके साथी अल शेही को पायलेट लाइसेंस मिल गया था.
जॉन क्लाउड ने टाइम पत्रिका में लिखा था, "11 सितंबर से 10 दिन पहले अता के अकाउंट में दो बार पैसे ट्राँसफ़र किए गए थे. 7 सितंबर को अता अपने साथी अल शेही और एक और व्यक्ति के साथ हॉलीवुड, फ़्ला में ओएसटर बार और ग्रिल में गया था. उन तीनों में अता ही अकेला शख़्स था जिसने शराब नहीं पी थी. इसके बदले वो लगातार क्रैनबरी जूस पीता रहा था."
फ़्लाइट अटेंडेंट ने फ़ोन पर दी विमान हाइजैक होने की सूचना
जब AA 11 फ़्लाइट ऊपर गई तो अगले कुछ मिनटों तक तो उसने बोस्टन एयररूट ट्रैफ़िक कंट्रोल के निर्देशों का पालन किया लेकिन 8 बजकर 13 मिनट के बाद जब अता और उसके साथियों का विमान पर नियंत्रण हो गया तो उसने उनके निर्देशों को मानना बंद कर दिया.
विलियम आर्किन लिखते हैं, "प्रत्यक्षदर्शियों द्वारा दी गई सूचना के अनुसार अता ने पायलट पर नियंत्रण करने के लिए चाकू और हिंसा का सहारा लिया. 8 बजकर 18 मिनट पर फ़्लाइट अटेंडेंट बेटी ओंग ने अमेरिकन एयरलाइंस, साउथ ईस्टर्न रिज़र्वेशन सेंटर फ़ोन कर हाइजेकिंग की आशंका जताई. उन्होंने बताया कि वो विमान के पीछे जंप सीट पर बैठकर ये फ़ोन कर रही हैं. बेटी का ये फ़ोन कॉल 25 मिनट तक चला. उन्होंने बताया कि कॉकपिट से उनके संदेश का कोई जवाब नहीं आ रहा है और बिज़नेस क्लास में 9 बी सीट पर बैठे डेनियल लेविन को छुरा भोंक दिया गया है."
लेविन ने कुछ सालों तक इसरायली सेना में काम किया था. ऐसा अनुमान है कि उन्होंने अपने सामने बैठे हाइजैकर को रोकने की कोशिश की होगी लेकिन उन्हें ये पता नहीं था कि उनके पीछे एक और हाइजैकर बैठा हुआ था.
ओंग ने ये भी बताया कि 10बी सीट पर बैठा हुआ व्यक्ति इस समय कॉकपिट के अंदर है. 8 बजकर 26 मिनट पर विमान ने अचानक 100 डिग्री का कोण बनाते हुए न्यूयॉर्क शहर का रुख़ किया. फ़्लाइट अंटेंडेंट ओंग ने ख़बर दी कि विमान कभी ऊपर तो कभी नीचे जा रहा है.
8 बजकर 46 मिनट पर विमान उत्तरी टावर से टकराया
विलियम आर्किन आगे लिखते हैं, "इस बीच पायलट की सीट पर बैठे मोहम्मद अता ने विमान के इंटरकॉम सिस्टम के ज़रिए यात्रियों को संबोधित करने की कोशिश की. लेकिन उसने ग़लत बटन दबा दिया. इसलिए उसका संदेश नीचे कंट्रोल रूम में सुनाई दिया. ओंग लगातार ख़बर दे रही थीं कि विमान तेज़ी से नीचे की तरफ़ जा रहा है. इस बीच एक दूसरी फ़्लाइट अटेंडेंट स्वीनी ने सूचित किया कि विमान में बैठे लोगों को ग़लतफ़हमी है कि फ़र्स्ट क्लास में कोई मेडिकल इमरजेंसी हो गई है, इसलिए विमान को नीचे उतारा जा रहा है."
"इस बीच फ़्लाइट अटेंडेंट स्वीनी ने कहा, विमान तेज़ी से नीचे आ रहा है. मुझे पानी दिख रहा है. भवन भी दिखाई देने लगे हैं. थोड़ी देर बाद वो फिर बोलीं, 'ओ माई गॉड हम बहुत बहुत नीचें आ गए हैं.' तभी एक बहुत ज़ोर की आवाज़ सुनाई दी और अमेरिकन ऑपरेशन सेंटर का फ़ोन संपर्क उससे टूट गया."
"ठीक 8 बजकर 46 मिनट पर AA फ़्लाइट 11 वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के उत्तरी टॉवर में 93 से 99 वीं मंज़िल के बीच टकराई. जहाज़ में मौजूद क़रीब 10000 गैलन जेट ईंधन उन मंज़िलों में मौजूद फ़र्म फ़्रेड आलगर मैनेजमेंट और मार्श एंड मेग्लेनेन के दफ़्तरों में फैल गया."
चारों तरफ़ आग ही आग
उस समय न्यूयॉर्क अग्निशमन विभाग के प्रमुख जॉज़ेफ़ फ़ाइफ़र के पास ही खड़े हुए थे. बाद में उन्होंने 'द ओनली प्लेन इन द स्काई' के लेखक गैरेट एम ग्राफ़ को बताया, "मेनहटन में ऊँची इमारतों की वजह से आपको जहाज़ों की आवाज़ नहीं सुनाई देती. लेकिन जैसे ही विमान ने उत्तरी टॉवर को हिट किया एक ज़ोर का धमाका हुआ. हम सब की निगाह ऊपर गई. हम सब ने दाँतों तले उँगली दबाते हुए देखा कि विमान ने टावर को टक्कर मार दी है."
उसी समय न्यूयॉर्क पुलिस विभाग में काम कर रहे सार्जेंट माइक मेकगवर्न को भी धमाका सुनाई दिया.
उन्होंने रेडियो पर संदेश भेजा, "अभी अभी एक 767 विमान ने वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के उत्तरी टावर में टक्कर मारी है."
जैसे ही पुलिस प्रमुख जो इसपोसिटो ने ये संदेश सुना, उन्होंने सार्जेंट मेकगवर्न से पूछा, "तुम्हें कैसे पता कि वो विमान 767 था?"
81वीं मंज़िल में बैठे बैंक ऑफ़ अमेरिका के जीन पॉटर को इतनी ज़ोर से धक्का लगा कि वो अपनी कुर्सी से गिर गए. बाद में उन्होंने बताया कि "पूरी बिल्डिंग बुरी तरह से हिलने लगी और हर तरफ़ धुँआ भर गया."
90वीं मंज़िल में पास कंसल्टिंग ग्रुप के कंसेलटेंट रिचर्ड ऐकन ने याद किया, "मैंने अपने बाँए कंधे की ओर देखा कि एक एशियाई मूल का व्यक्ति मेरी तरफ़ तेज़ी से दौड़ता चला आ रहा है. ऐसा लग रहा था जैसे उसे डीप फ़्राई कर दिया गया हो. उसकी बाहें फैली हुई थीं और उसकी खाल सीवीड की तरह लटक रही थी. वो 'हेल्प मी, हेल्प मी' चिल्लाते हुए मेरे पैरों के बीचों-बीच गिर गया था. उसने वहीं पर दम तोड़ दिया. तभी मैंने देखा कि मेरी पूरी कमीज़ ख़ून से सनी हुई थी."
दूसरे विमान ने भी टक्कर मारी
17 मिनट बाद 9 बजकर 3 मिनट पर हाइजैक किए गए एक और विमान फ़्लाइट 175 ने वर्ल्ड ट्रेट सेंटर के दक्षिणी टावर को हिट किया. 1 घंटे 42 मिनट के अंदर 110 मंज़िल ऊँची दोनों इमारतें धराशाई हो गईं.
एक और विमान ने पेंटागन के पश्चिमी छोर पर हमला किया जिससे भवन का एक हिस्सा ढह गया. यूनाइटेड एयरलाइंस की फ़्लाइट नंबर 93 को भी हाइजैक करने की कोशिश की गई लेकिन विमान में सवार यात्रियों ने वो कोशिश नाकामयाब कर दी. 10 बजकर 3 मिनट पर वो विमान पेंसिलवेनिया में दुर्घटनाग्रस्त हो गया और उसमें सवार सभी लोग मारे गए.
अंतरिक्ष से भी धुआँ उठता दिखाई दिया
उस समय अमेरिका के राष्ट्रपति जॉर्ज बुश फ़्लोरिडा में थे. उनको जब ये सूचना मिली तो उन्होंने तुरंत राजधानी वॉशिंगटन पहुंचने की मंशा जताई. उस समय व्हाइट हाउस में मौजूद उनकी सुरक्षा सलाहकार कोंडालिजा राइस ने उन्हें सलाह दी कि वो जहां हैं वहीं रहें.
उस समय अमेरिकी अंतरिक्ष यात्री फ़्रैंक कुलबर्टसन अकेले अमेरिकी थे जो इस धरती पर न होकर अंतरिक्ष में थे. 11 सितंबर को इस सबसे बेख़बर उन्होंने पृथ्वी पर फ़्लाइट सार्जेंट स्टीव हार्ट से संपर्क कर पूछा कि वहाँ सब ठीक तो है.
उस समय अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन कनाडा के ऊपर से गुज़र रहा था. बाद में कमाँडर फ़्रैंक कुलबर्टन ने लिखा, "थोड़ी देर बाद जब मैं न्यूयॉर्क शहर से 400 किलोमीटर दूर ऊपर से गुज़रा तो मैंने देखा कि वहाँ से उठता काला धुआँ साफ़ दिखाई दे रहा है. जब मैंने अपने कैमरे को ज़ूम किया तो मैंने पाया कि पूरा मैनहटन का इलाका धुएं से भरा हुआ था. मेरी आँखों के सामने ही दूसरा टावर धराशाई हुआ. अपने देश पर हमला होते देखना बहुत भयावह था."
"मैं जब दूसरी बार अमेरिका के ऊपर से गुज़रा तो मैंने पाया कि अमेरिकी वायुसीमा में पूरी शाँति थी. सभी विमानों को ज़मीन पर उतर जाने के लिए कहा गया था. एक भी विमान हवा में नहीं था सिवाए एक विमान के."
ये विमान था एयरफ़ोर्स वन जिसमें राष्ट्रपति बुश सवार थे और वो अपने सलाहकारों की सलाह के विपरीत वाशिंगटन डीसी की तरफ़ बढ़ रहे थे. (bbc.com)
-अरुल लुइस
न्यूयॉर्क, 10 सितम्बर| अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने घोषणा की कि कोविड-19 के खिलाफ टीकाकरण के प्रतिरोध के साथ 'हमारा धैर्य कमजोर हो रहा है'। उन्होंने कम से कम 100 कर्मचारियों वाली कंपनियों को उन सभी को टीका लगवाने या होल्ड-आउट का परीक्षण करने का आदेश दिया है।
एक उदाहरण पेश करते हुए बाइडन ने गुरुवार को कहा कि सभी संघीय कर्मचारियों और ठेकेदारों को भी टीका लगवाने या नियमित रूप से जांच कराने के लिए कहा जाएगा।
जैसा कि कोविड -19 के मामले बढ़ने में डेल्टा वैरिएंट ईंधन की तरह काम कर रहा है, बाइडन ने स्कूलों और निजी व्यवसायों तक पहुंचने वाली महामारी से निपटने के लिए अपने दूरगामी कार्यक्रम की घोषणा की।
बाइडन ने व्हाइट हाउस से अपने संबोधन में कहा कि श्रम विभाग एक आपातकालीन नियम के माध्यम से टीकाकरण की आवश्यकता निजी क्षेत्र के 8 करोड़ से ज्यादा श्रमिकों को कवर करेगी।
उन्होंने कहा कि स्वास्थ्य कर्मियों को भी टीका लगवाने या नियमित जांच कराने का आदेश दिया जाएगा।
रोग नियंत्रण केंद्र (सीडीसी) के आंकड़ों के अनुसार, हालांकि अमेरिका में 12 वर्ष से अधिक उम्र के सभी लोगों के लिए टीके की खुराक मुफ्त में उपलब्ध हैं, लेकिन योग्य आबादी के लगभग 26 प्रतिशत लोगों को टीका नहीं लगाया गया है।
वैक्सीन की कम से कम एक खुराक 12 वर्षों में 20.8 करोड़ लोगों या उनमें से 73.4 प्रतिशत लोगों को दी गई है, जबकि 17.7 करोड़ या 62.5 प्रतिशत लोगों को पूरी तरह से टीका लगाया जा चुका है।
डेल्टा वैरिएंट संचालित कोविड -19 मामलों की एक नई लहर से आर्थिक सुधार को खतरा है, जिससे बाइडन की कड़ी कार्रवाई को बढ़ावा मिला है।
राष्ट्रपति ने कहा, "हम इस प्रगति को बिना टीकाकरण के नहीं होने दे सकते, इसे पूर्ववत करें, इसे वापस करें।"
जुलाई में स्वतंत्रता दिवस पर महामारी पर विजय प्राप्त करने की उच्च आशाओं से, पिछले महीने 42 लाख मामलों के साथ कोविड -19 मामले बढ़े है और प्रतिदिन संक्रमण की संख्या 1,500 की सीमा के पार हो रही है।
बाइडन ने कहा, "हम टीकाकरण किए गए श्रमिकों को बिना टीकाकरण वाले सहकर्मियों से बचाने जा रहे हैं। हम टीकाकरण करने वाले कर्मचारियों की हिस्सेदारी को बढ़ाकर कोविड -19 के प्रसार को कम करने जा रहे हैं।"
अमेरिका में कुछ बड़े नियोक्ताओं जैसे फेसबुक, गूगल, माइक्रोसॉफ्ट, यूनाइटेड एयरलाइंस, डेल्टा एयरलाइंस और गोल्डमैन सैक्स के पास पहले से ही कार्यस्थल पर लौटने वाले कर्मचारियों के टीकाकरण के लिए अनिवार्य है।
बाइडन ने कहा, जबकि स्कूल के 90 प्रतिशत कर्मचारियों को टीका लगाया गया है और वह बच्चों की सुरक्षा के लिए इसे 100 प्रतिशत करना चाहते हैं।
इस लक्ष्य तक पहुंचने के लिए, उन्होंने कहा कि उन्हें संघीय निधि प्राप्त करने वाले स्कूल कार्यक्रमों में टीकाकरण की आवश्यकता होगी और उन्होंने सभी राज्यपालों से सभी शिक्षकों और कर्मचारियों के लिए टीकाकरण अनिवार्य करने के लिए कहा है।
बाइडन के प्रस्ताव का कई लोग निश्चित तौर पर विरोध करेंगे, जिनमें से कुछ उनकी डेमोक्रेटिक पार्टी के आधार से भी शामिल हैं।
क्योंकि टीकाकरण के विरोध को अक्सर एक राजनीतिक मुद्दे के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। शिक्षक संघ जो परस्पर डेमोक्रेटिक पार्टी का समर्थन करता है, न्यू यॉर्क सिटी स्कूल सिस्टम में कर्मचारियों के टीकाकरण या नियमित परीक्षण का सामना करने की आवश्यकता के खिलाफ है।
टीकाकरण के विकल्प के रूप में हर हफ्ते परीक्षण करवाना एक असुविधा है जो वास्तविक चिकित्सा स्थितियों वाले लोगों को छोड़कर सभी को राजी कर सकती है जो शॉट्स या कट्टर विचारकों को चकमा देने से रोकते हैं।
बाइडन ने कुछ रिपब्लिकन राज्य के राज्यपालों को भी नोटिस दिया, जिन्होंने स्कूलों को एक तसलीम के लिए दृश्य सेट करने के लिए दिशानिर्देशों का पालन करने से रोका है।
उन्होंने उन पर स्कूलों को धमकाने का आरोप लगाया और कहा, "अगर ये राज्यपाल महामारी को हराने में हमारी मदद नहीं करेंगे, तो मैं उन्हें रास्ते से हटाने के लिए राष्ट्रपति के रूप में अपनी शक्ति का उपयोग करूंगा।"
रिपब्लिकन गवर्नर्स, टेक्सास के ग्रेग एबॉट और फ्लोरिडा के रॉन डीसेंटिस ने स्कूलों को अनिवार्य रूप से मास्क पहनने से रोकने के आदेश जारी किए, लेकिन उन आदेशों को अदालतों ने अस्थायी रूप से अवरुद्ध कर दिया गया है, जिससे स्कूलों को मास्क पहनने को लागू करने की अनुमति मिली है।
राज्यपालों ने मास्क अनिवार्य करने वाले स्कूलों को भुगतान रोकने की धमकी दी है और इसका मुकाबला करने के लिए, बाइडन ने कहा, "कोई भी शिक्षक या स्कूल का अधिकारी जिसका वेतन सही काम करने के लिए रोक दिया गया है, हमारे पास वह वेतन होगा जो संघीय सरकार द्वारा 100 प्रतिशत बहाल किया जाएगा।"
स्कूल सुरक्षा एक महत्वपूर्ण मुद्दा है क्योंकि स्कूल नए शैक्षणिक वर्ष की शुरूआत इन-पर्सन लनिर्ंग की वापसी के साथ कर रहे हैं और 12 साल से कम उम्र के बच्चों के लिए टीके अभी तक स्वीकृत नहीं हैं।
बाइडन ने कहा, "अगर स्कूल विज्ञान का पालन करते हैं और सुरक्षा उपायों को लागू करते हैं, जैसे परीक्षण, मास्किंग, पर्याप्त वेंटिलेशन सिस्टम, जिसके लिए हमने पैसे दिए, टीकाकरण, तो बच्चे स्कूलों में कोविड -19 से सुरक्षित रह सकते हैं।"
पिछले साल की शुरूआत में महामारी की शुरूआत के बाद से, अमेरिका में कुल 40,600,763 और 654,576 मौतें दर्ज की गई हैं।
ये दोनों आंकड़े दुनिया में सबसे ज्यादा हैं, जिससे अमेरिका सबसे ज्यादा प्रभावित देश बन गया है। (आईएएनएस)
काबुल, 10 सितम्बर| तालिबान ने पूर्व अशरफ गनी सरकार के कुछ अधिकारियों के बैंक खाते बंद कर दिए हैं, जिनमें से ज्यादातर काबुल के 15 अगस्त के पतन के बाद अफगानिस्तान से भाग गए थे।
टोलो न्यूज की रिपोर्ट के अनुसार, तालिबान सांस्कृतिक आयोग के सदस्य अनामुल्ला समांगानी ने गुरुवार को इसकी घोषणा की, लेकिन उन्होंने प्रभावित पूर्व अधिकारियों के नामों का खुलासा नहीं किया।
समांगानी के हवाले से कहा गया, पिछली सरकार के कुछ अधिकारियों के खाते बंद कर दिए गए हैं, जिनमें से ज्यादातर देश छोड़कर भाग गए हैं।
हालांकि, देश के सेंट्रल बैंक द अफगानिस्तान बैंक की ओर से इस घटनाक्रम पर कोई आधिकारिक टिप्पणी नहीं की गई। (आईएएनएस)
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने कोविड-19 से निपटने के उपायों के तहत बड़ी कंपनियों के कर्मचारियों के लिए वैक्सीन लगवाना अनिवार्य कर दिया है.
राष्ट्रपति के आदेश में कहा गया है कि बड़ी कंपनियों के कर्मचारियों को वैक्सीन लगवानी होगी या हर हफ़्ते कोविड-19 की जांच करानी होगी.
नए उपायों के तहत लाखों सरकारी कर्मचारियों के लिए भी वैक्सीन लगाना अनिवार्य किया गया है.
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन पर कोरोना के बढ़ते मामलों से निपटने का दबाव बना हुआ है जिसे देखते हुए ये उपाय अपनाए गए हैं.
अभी तक छह लाख 50 हज़ार से ज़्यादा अमेरिकियों की कोविड-19 से मौत हो चुकी है और अस्पताल मरीज़ों से भरे पड़े हैं.
जो बाइडन ने लोगों से वायरस से ‘आज़ादी की गर्मियों’ का वादा किया था यानी इन गर्मियों तक वायरस ख़त्म हो जाएगा, लेकिन डेल्टा वैरिएंट के कारण हालात ख़राब हो गए.
व्हाइट हाउस में गुरुवार को अपने संबोधन के दौरान जो बाइडन ने श्रम मंत्रालय को आदेश दिया कि 100 या उससे ज़्यादा कर्मचारियों वाली निजी कंपनियों के लिए वैक्सीन लगवाना अनिवार्य किया जाए या उनके कर्मचारियों से हफ़्ते में एक बार कोविड-19 की नेगेटिव टेस्ट रिपोर्ट मंगवाई जाए.
इस आदेश से क़रीब आठ करोड़ से ज़्यादा कर्मचारी प्रभावित होंगे.
इसे लेकर जो बाइडन ने कहा, “ये आज़ादी या निजी चुनाव की बात नहीं है. ये आपको और आसपास मौजूद लोगों को सुरक्षित रखने के लिए है.” (bbc.com)
अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की पूरी तरह वापसी के बाद पहली बार दर्जनों विदेशी यात्री अफ़ग़ानिस्तान से सुरक्षित बाहर आ पाए हैं.
इन यात्रियों को लेकर क़तर एयरवेज़ की एक फ़्लाइट गुरुवार को राजधानी दोहा पहुंची. ऐसी ही एक और फ़्लाइट शुक्रवार को आने वाली है.
अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन ने हाल ही में क़तर की यात्रा के दौरान लोगों को अफ़ग़ानिस्तान से निकलने में मदद करने की अपील की थी.
पिछले महीने अमेरिकी विमान में वो हज़ारों अफ़ग़ान नागरिक बैठने में सफल हुए थे जिन्होंने अमेरिकी सेना की अफ़ग़ानिस्तान में रहते हुए मदद की थी.
न्यूज़ एजेंसी रॉयटर्स के मुताबिक विमान में 113 लोग सवार थे.
ब्रिटेन के विदेश मंत्री डॉमिनिक राब ने बताया कि 13 ब्रितानी नागरिक दोहा पहुंचे हैं. उन्होंने फ़्लाइट के लिए क़तर को धन्यवाद भी किया. (bbc.com)
नई दिल्ली, 9 सितंबर| अफगानिस्तान के कई प्रमुख राजनीतिक दलों ने तालिबान की नई कार्यवाहक सरकार पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा है कि कैबिनेट समावेशी नहीं है और राजनीतिक दलों को बाहर रखा गया है। सलाहुद्दीन रब्बानी के नेतृत्व वाली जमीयत-ए-इस्लामी पार्टी ने एक बयान में कहा कि कैबिनेट असंतुलित है।
बयान में कहा गया है, "सरकार की घोषणा से पता चला है कि तालिबान राजनीति और सत्ता में पिछले थोपे गए नेताओं की तुलना में अधिक एकाधिकारवादी और चरमपंथी हैं।"
टोलो न्यूज ने बताया कि इस बीच, जमीयत-ए-इस्लामी पार्टी के अलग हुए धड़े के प्रमुख अत्ता मोहम्मद नूर ने भी नए मंत्रिमंडल की आलोचना की।
उन्होंने अपने फेसबुक पेज पर लिखा, "सरकार की घोषणा सभी नियमों और सत्तारूढ़ कानूनों के खिलाफ है। यह आधिपत्य, एकाधिकार और अतीत की वापसी का संकेत है। हमारे अनुसार, यह सरकार विफल होने के लिए अभिशप्त है।"
काबुल निवासियों ने भी घोषित कैबिनेट और कार्यवाहक मंत्रियों पर विभिन्न तरीकों से प्रतिक्रिया व्यक्त की। रिपोर्ट में कहा गया है कि कुछ लोगों ने घोषणा का स्वागत किया, जबकि अन्य ने तालिबान द्वारा लिए गए फैसलों पर आपत्ति जताई।
काबुल निवासी अब्दुल रशीद ने कहा, "उन्होंने अपने स्वयं के आंकड़े नियुक्त किए, लोगों से नहीं। 'समावेशी' का अर्थ है कि अफगानिस्तान में रहने वाली सभी जातियां सरकार में भाग लेती हैं।" (आईएएनएस)
-मृत्युंजय कुमार झा
नई दिल्ली, 9 सितंबर : इटली में अफगानिस्तान इस्लामिक गणराज्य के दूतावास ने घोषणा की है कि अफगानिस्तान के राष्ट्रीय नायक अहमद शाह मसूद की 20वीं पुण्यतिथि पर सम्मान के लिए गुरुवार, 9 सितंबर, 2021 को इसे बंद कर दिया जाएगा। मसूद एकमात्र प्रमुख अफगान नेता थे, जिन्होंने सोवियत संघ के खिलाफ लड़ाई की और बाद में तालिबान के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष में भी अफगानिस्तान को कभी नहीं छोड़ा।
मसूद, जो अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे के अंतिम शेष प्रतिरोध का नेतृत्व कर रहा था, को तालिबान और अल-कायदा के आत्मघाती हमलावरों ने 9/11 से दो दिन पहले 9 सितंबर, 2001 को अपने आवास में मार दिया था। 2001 में तालिबान के पतन के बाद, उन्हें देश का राष्ट्रीय नायक घोषित किया गया और 9 सितंबर को शहीद दिवस के रूप में चिह्न्ति किया गया।
अप्रत्याशित रूप से तालिबान मसूद और उसके कबीले से नफरत करता है, इसलिए मंगलवार को पंजशीर में उनके मकबरे को नष्ट करने की भी कोशिश की।
दो दशक बाद, मसूद का बेटा अहमद मसूद एक बार फिर तालिबान से अपने पिता की विरासत की रक्षा के लिए लड़ रहा है। उन्हें अफगानिस्तान के प्रसिद्ध युद्ध नायक के पूर्व सहयोगी अमरुल्ला सालेह से मदद मिलती है।
अहमद मसूद ने घोषणा की, "तालिबान चाहता है कि दुनिया उसे पहचान ले और फिर वह अफगान लोगों पर फिर से अत्याचार करना चाहता है। लेकिन अगर कोई हमारी जमीन पर हमला करता है, तो हम उसके खिलाफ लड़ेंगे और अपनी और अफगान लोगों के अधिकारों की रक्षा करेंगे।"
जूनियर मसूद ने तालिबान के खिलाफ छापामार युद्ध शुरू किया है, जो पाकिस्तानी सेना के सक्रिय समर्थन से पंजशीर घाटी के कुछ हिस्सों पर कब्जा करने में कामयाब रहे हैं।
रूसी समाचार एजेंसी स्पुतनिक ने बुधवार को बताया कि पाकिस्तानी वायु सेना के विमानों और विशेष बलों की बटालियनों ने पंजशीर में तालिबान के ऑपरेशन को सैन्य सहायता प्रदान की।
रिपोर्ट में कहा गया है कि 27 पाकिस्तानी विशेष बलों के हेलीकॉप्टर और ड्रोन सहित पाकिस्तान वायुसेना के चार जेएफ-7 लड़ाकू जेट तालिबान को उनकी तलाश में सहायता कर रहे हैं।
इटली की तरह, इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ अफगानिस्तान के कई दूतावास तालिबान द्वारा थोपी गई इस्लामिक अमीरात अफगानिस्तान के शासन का विरोध कर रहे हैं। भारत में अफगानिस्तान के दूतावास ने भी तालिबान सरकार का प्रतिनिधित्व करने से इनकार कर दिया है।
दिल्ली में अफगान दूतावास के प्रवक्ता अब्दुलहक आजाद ने डेक्कन हेराल्ड को बताया कि वह भारत में अफगानिस्तान के इस्लामी गणराज्य का प्रतिनिधित्व करना जारी रखेगा, न कि तालिबान द्वारा स्थापित अफगानिस्तान के इस्लामी अमीरात का।
आजाद ने कहा, "नई दिल्ली में अफगानिस्तान इस्लामिक गणराज्य का दूतावास भारत में अफगानिस्तान के नागरिकों को सेवाएं देना जारी रखेगा।"
इससे पहले, तालिबान की आक्रामकता के दौरान, अफगान दूत ने भारत से तालिबान के खिलाफ हवाई शक्ति के साथ अपने देश की मदद करने के लिए कहा था।
अफगान दूत फरीद ममुंडजे ने कहा, "अफगानिस्तान की परिहार्य पीड़ा मानव निर्मित है और सभी सभ्य चिंतन से परे है। अफगानिस्तान एक कठिन समय से गुजर रहा है, और केवल अच्छा नेतृत्व, दयालु रवैया और अफगान लोगों के लिए अंतर्राष्ट्रीय समर्थन इन दुखों को कुछ हद तक कम कर देगा।"
यह 1996 की पुनरावृत्ति है, जब भारत में तत्कालीन अफगान राजदूत मसूद खलीली ने तालिबान शासन को मान्यता देने से भारत के इनकार के बाद तालिबान के प्रति निष्ठा की प्रतिज्ञा करने से इनकार कर दिया था। खलीली, उत्तरी गठबंधन के तालिबान विरोधी बल के नेता अहमद शाह मसूद का करीबी दोस्त था।
पिछले तालिबान शासन को केवल पाकिस्तान, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात ने मान्यता दी थी।
जब दुनिया के देशों ने अभी तक तालिबान सरकार को मान्यता देने के बारे में फैसला नहीं किया है, सभी अफगान दूतावास संयुक्त राष्ट्र द्वारा मान्यता के अनुसार पिछली अफगान सरकार के प्रतिनिधियों के रूप में जाने जाएंगे।
अन्य अफगान दूतावासों ने भी तालिबान सरकार के प्रति निष्ठा की प्रतिज्ञा करने से इनकार कर दिया है। श्रीलंका में अफगानिस्तान के राजदूत अशरफ हैदरी हमेशा तालिबान के आलोचक रहे हैं।
(यह सामग्री इंडिया नैरेटिव के साथ एक व्यवस्था के तहत प्रस्तुत है)
--इंडियानैरेटिव
नई दिल्ली, 9 सितंबर| तालिबान ने अफगानिस्तान के नए गृहमंत्री सिराजुद्दीन हक्कानी को काली सूची में डाले जाने की स्थिति पर अमेरिका द्वारा हाल ही में जारी किए गए बयान पर आपत्ति जताई है। एरियाना न्यूज की रिपोर्ट के अनुसार, तालिबान के प्रवक्ता जबीहुल्ला मुजाहिद द्वारा जारी एक बयान में कहा गया है कि निरंतर प्रतिबंधों पर वाशिंगटन की स्थिति दोनों पक्षों के बीच पिछले साल फरवरी में हस्ताक्षरित दोहा समझौते का उल्लंघन है।
बयान में कहा गया है, "इस्लामिक अमीरात इस स्थिति को दोहा समझौते का स्पष्ट उल्लंघन मानता है जो न तो संयुक्त राज्य अमेरिका और न ही अफगानिस्तान के हित में है।"
रिपोर्ट में कहा गया है कि तालिबान ने हक्कानी नेटवर्क के सिराजुदीन हक्कानी के बारे में की गई हालिया टिप्पणियों पर भी आपत्ति जताई, जिन्हें इस्लामिक अमीरात के कार्यवाहक गृहमंत्री के रूप में नियुक्त किया गया है।
हक्कानी को अमेरिका ने काली सूची में डाल दिया है और उसके सिर पर 1 करोड़ डॉलर का इनाम है।
बयान में कहा गया है, "दोहा समझौते में बिना किसी अपवाद के इस्लामिक अमीरात के सभी अधिकारी अमेरिका के साथ बातचीत का हिस्सा थे और उन्हें संयुक्त राष्ट्र और अमेरिकी ब्लैकलिस्ट से हटा दिया जाना चाहिए था, एक मांग जो अभी भी मान्य है।"
"अमेरिका और अन्य देश इस तरह के भड़काऊ बयान दे रहे हैं और अफगानिस्तान के आंतरिक मामलों में दखल देने की कोशिश कर रहे हैं, इस्लामिक अमीरात इसकी कड़े शब्दों में निंदा करता है।"
इसमें कहा गया है, "अमेरिकी अधिकारियों की इस तरह की टिप्पणी पिछले असफल प्रयोगों की पुनरावृत्ति है और इस तरह की स्थिति अमेरिका के लिए हानिकारक है। हम आग्रह करते हैं कि राजनयिक बातचीत के माध्यम से इन गलत नीतियों को तुरंत उलट दिया जाए।" (आईएएनएस)
पिछले महीने 31 अगस्त को अमेरिका अफ़ग़ानिस्तान से 20 सालों बाद निकल गया.
अमेरिका की आलोचना हो रही है कि उसने अफ़ग़ान नागरिकों को बीच मझधार में छोड़ ख़ुद को अलग कर लिया है.
यह भी कहा जा रहा है कि अमेरिका ने जिस लक्ष्य से अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान पर हमला किया था क्या वो हासिल हुआ? अगर ऐसे ही छोड़कर जाना था या तालिबान को ही फिर से सत्ता सौंपनी थी तो 20 साल तक क्यों रहा?
अमेरिका के सामने ऐसे कई सवाल हैं, जो उससे पूछे जाएंगे. इन्हीं सवालों को अफ़ग़ानिस्तान में टोलो न्यूज़ के प्रमुख लोतफ़ुल्लाह नजफ़िज़ादा ने बुधवार को अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन से पूछा.
लोतफ़ुल्लाह नजफ़िज़ादा के इंटरव्यू को अमेरिकी विदेश मंत्रालय ने अपनी वेबसाइट पर भी पोस्ट किया है.
लोतफ़ुल्लाह नजफ़िज़ादा ने अमेरिकी विदेश मंत्री से पहला सवाल पूछा कि दो दशक, दो ट्रिलियन डॉलर से ज़्यादा ख़र्च और हज़ारों ज़िंदगियां. क्या इसे ऐसे ही ख़त्म किया जाना चाहिए था?
इस सवाल के जवाब में ब्लिंकन ने कहा, ''यही सवाल हैं जो आने वाले वक़्त में पूछे जाएंगे और जिनके जवाब दिए जाएंगे. पहली बात तो यह कि हम अफ़ग़ानिस्तान क्यों गए? यह 9/11 के हमले के बाद हुआ. जिन्होंने 9/11 का हमला किया था, उन्हें जवाब देना था. हमने अपनी क्षमता के हिसाब से यह सुनिश्चित किया कि अफ़ग़ानिस्तान से ये दोबारा ऐसा ना कर सकें.''
''हमारी यह कोशिश व्यापक पैमाने पर सफल रही है. एक दशक पहले ही ओसामा बिन-लादेन को न्याय के कठघरे में खड़ा किया जा चुका है. एक संगठन के तौर पर अल-क़ायदा के पास यह क्षमता थी कि वो हम पर या किसी पर हमला कर सके, लेकिन अब ऐसा नहीं है. 9/11 के हमले के बाद हमने इसे सुनिश्चित कर दिया है. हमने वो हासिल किया, जो हमारा लक्ष्य था.''
''आपने 20 साल, एक ट्रिलियन या इससे ज़्यादा डॉलर और कई ज़िंदगियां गँवाने की बात कही, लेकिन हमने कई ज़िंदगियां बदली भी हैं. हम इस बदलाव को आने वाले दिनों, हफ़्तों और महीनों में देखने जा रहे हैं. मैं इस बात को लेकर आश्स्त हूँ कि यह आने वाले दिनों में बहस और संवाद का विषय होगा.''
'अफ़ग़ान सेना के आकलन में ग़लती'
टोलो न्यूज़ के हेड लोतफ़ुल्लाह नजफ़िज़ादा ने ब्लिंकन से दूसरा सवाल पूछा कि जब तालिबान को ही आना था तो आपने ये सब क्यों किया? इस सवाल के जवाब में ब्लिंकन ने कहा, ''यह सवाल हमें सालोंसाल पीछे ले जाता है. हम तालिबान को सालों से देख रहे हैं कि वो अफ़ग़ानिस्तान के कई इलाक़ों में शासन अपने हाथ में लेने की कोशिश करता रहा. यहाँ तक कि पिछले छह या सात सालों में सरकार का अफ़ग़ानिस्तान पर नियंत्रण 60 प्रतिशत आबादी से 40 प्रतिशत आबादी तक रह गया था. और अब ये हुआ.''
लोतफ़ुल्लाह नजफ़िज़ादा ने तीसरे सवाल में पूछा कि लेकिन पिछले 100 दिन काफ़ी नाटकीय रहे. जो कुछ हो रहा था, उसे कोई क्यों नहीं समझ सका?
इसके जवाब में ब्लिंकन ने कहा, ''मुझे लगता है कि यह अहम सवाल है कि अफ़ग़ान सुरक्षा बल कैसे इतने लाचार हो गए और सरकार भी बेबस दिखी. मैं ये कह सकता हूँ कि सुरक्षा बलों में कई अफ़ग़ानों ने बहादुरी से लड़ाई लड़ी और अपनी जान तक दांव पर लगा दिया. लेकिन एक इंस्टीट्यूशन के तौर पर कुछ बचा नहीं और सरकार को आख़िरकार सरेंडर करना पड़ा. ये सब कुछ बहुत ही जल्दी हुआ और इसका गहरा असर पड़ा.''
टोलो न्यूज़ के प्रमुख ने अमेरिकी विदेश मंत्री से अगला सवाल पूछा - आपने तो लोगों को ठीक से निकाला तक नहीं...यहाँ तक कि अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी नागरिकों को भी ठीक से नहीं निकाला. अफ़ग़ान नेशनल सिक्यॉरिटी फ़ोर्सेज़ में रहे अफ़ग़ानों को बड़ी संख्या में छोड़ दिया गया.
अशरफ़ ग़नी
इस सवाल के जवाब में ब्लिंकन ने कहा, ''अफ़ग़ानिस्तान से लोगों को निकालने का काम असाधारण रहा है. हमने क़रीब एक लाख 25 हज़ार लोगों को अफ़ग़ानिस्तान से निकाला है और यह बहुत कम समय में किया गया. लोगों को निकालने का काम बेहद कठिन परिस्थिति में किया गया है. आईएसआईएस-के का ख़तरा भी था. अब भी अफ़ग़ानिस्तान में छोटी संख्या में वैसे लोग हैं जो वहाँ से निकलना चाहते हैं. हम इन्हें वहाँ से सुरक्षित निकालने के लिए प्रतिबद्ध हैं.''
लोतफ़ुल्लाह नजफ़िज़ादा ने ब्लिंकन से पूछा, ''क्या आपने राष्ट्रपति ग़नी को देश से भगाने में मदद की है? इस पर ब्लिंकन ने कहा, ''नहीं. सच तो यह है कि मैं उनसे फ़ोन पर बात कर रहा था. जिस दिन राष्ट्रपति ग़नी ने अफ़ग़ानिस्तान छोड़ा, उससे एक दिन पहले उनसे फ़ोन पर बात हुई थी. हमारी बातचीत दोहा में जारी सत्ता हस्तांतरण पर हो रही वार्ता पर थी. उन्होंने मुझसे पूछा था कि अगर यह वार्ता सफल नहीं रही तो वे मरते दम तक लड़ेंगे. इसके बाद 24 घंटे के भीतर ही उन्होंने देश छोड़ दिया. मुझे उनकी योजना के बारे में बिल्कुल पता नहीं था और न ही हमने उनके भागने का इंतज़ाम किया था.''
लोतफ़ुल्लाह नजफ़िज़ादा ने ब्लिंकन से पूछा कि ग़नी अपने साथ आपके टैक्सपेयर्स और अफ़ग़ानों के लाखों डॉलर साथ ले गए हैं. क्या आपको इसके बारे में पता है?
इस सवाल के जवाब में ब्लिंकन ने कहा, ''ये मुझे नहीं पता है. उनका देश छोड़ना अचानक हुआ और बहुत कम समय में. एक संस्थान के रूप में सुरक्षाबल की व्यवस्था ध्वस्त हो गई थी और सरकार ने फिर वही काम किया.''
टोलो न्यूज़ के प्रमुख ने पूछा कि पिछले कुछ सालों में शांति प्रक्रिया को लेकर जो वार्ता चल रही थी, राष्ट्रपति ग़नी उस चुनौती का हिस्सा थे या वे शांति प्रक्रिया में बाधा थे?
इस सवाल के जवाब में ब्लिंकन ने कहा, ''मैं इसमें बहुत दिलचस्पी नहीं रखता. मैं फिर से पीछे नहीं जाना चाहता. 20 साल का लेखा-जोखा करने के लिए बहुत वक़्त है. पिछले कुछ महीनों में जो कुछ भी हुआ है, वो अचानक नहीं हुआ है बल्कि उसका संबंध पिछले 20 सालों से है.''
लोतफ़ुल्लाह नजफ़िज़ादा ने ब्लिंकन से पूछा कि अब अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान का पूरा नियंत्रण है. क्या आप तालिबान को मान्यता देंगे? इस सवाल के जवाब में ब्लिंकन ने कहा, ''तालिबान ने अंतरराष्ट्रीय मान्यता की बात कही है. लेकिन यह इस पर निर्भर करेगा कि तालिबान क्या कर रहे हैं न कि वो क्या कह रहे हैं. तालिबान का हमसे या पूरी दुनिया से संबंध उनकी करनी और कथनी में फ़र्क़ पर निर्भर करेगा. तालिबान ने कई वादे किए हैं. लेकिन हम देखेंगे कि वे किन वादों के साथ ईमानदार हैं.
अमेरिका के लिए सबक
टोलो न्यूज़ के प्रमुख लोतफ़ुल्लाह नजफ़िज़ादा ने अमेरिकी विदेश मंत्री से पूछा कि अमेरिका को अफ़ग़ानिस्तान से क्या सीख लेनी चाहिए या अफ़ग़ानिस्तान पर हमला या 20 साल की संलिप्तता से क्या सबक़ लेना चाहिए?
इस सवाल के जवाब में ब्लिंकन ने कहा, ''यह एक बहुत ही अहम सवाल है. इस सवाल पर विचार करने के लिए पर्याप्त समय चाहिए होगा. अभी हमारा ध्यान अफ़ग़ानों की मदद पर है.''
लोतफ़ुल्लाह नजफ़िज़ादा ने ब्लिंकन से आख़िरी सवाल पूछा कि क्या आप ऐसा सोचते हैं कि लोकतंत्र अफ़ग़ानिस्तान के लिए नहीं बना है? इस सवाल के जवाब में ब्लिंकन ने कहा, ''मैं ऐसा नहीं मानता हूँ. मेरा मानना है कि दुनिया भर के लोगों में आज़ाद जीवन जीने की तमन्ना होती है और अफ़ग़ानिस्तान के लोग भी ऐसा ही चाहते हैं.'' (bbc.com)
काबुल और उत्तर-पूर्वी अफ़गान प्रांत बदख्शां में दर्जनों महिलाओं ने अफ़ग़ानिस्तान में पुरुष प्रधान अंतरिम सरकार के गठन का विरोध किया है.
इन प्रदर्शनकारियों का कहना है कि वो महिलाओं की गै़रमौजूदगी वाली सरकार को स्वीकार नहीं करेंगी.
ख़बरें हैं कि विरोध प्रदर्शन के तितर-बितर होने से पहले कुछ महिलाओं को कथित तौर पर पीटा गया.
स्थानीय समाचार एजेंसी एतिलाट्रोज़ के मुताबिक रैली को कवर कर रहे उसके कुछ पत्रकारों को हिरासत में लिया गया और पीटा गया.
तालिबान ने इन आरोपों का अब तक कोई जवाब नहीं दिया है लेकिन चेतावनी दी कि इस तरह के विरोध प्रदर्शन अवैध हैं.
उन्होंने कहा है कि प्रदर्शनकारियों को मार्च करने के लिए अनुमति की आवश्यकता है, और उन्हें अभद्र भाषा का उपयोग नहीं करना चाहिए।
तालिबान का कहना है कि प्रदर्शनकारियों को मार्च करने के लिए मंज़ूरी की आवश्यकता है, और उन्हें अभद्र भाषा का उपयोग नहीं करना चाहिए.
इस बीच, मंगलवार को पश्चिमी शहर हेरात में एक प्रदर्शन के दौरान तीन लोगों की मौत हो गई.
यूरोपीय संघ का कहना है कि तालिबान सरकार को "समावेशी और प्रतिनिधि" बनाने के वादों से मुकर गया है.
अमेरिका ने भी चिंता जताई कि अंतरिम सरकार में अमेरिकी बलों पर हमलों से जुड़े लोग शामिल किए गए हैं.
अमेरिकी विदेश मंत्रालय ने अपने एक बयान में कहा है कि वो "कुछ व्यक्तियों के ट्रैक रिकॉर्ड" से चिंतित है.
लेकिन चीन ने अफ़ग़ानिस्तान में "तीन सप्ताह की अराजकता" की समाप्ति का स्वागत किया, और तत्काल $ 31 मिलियन डॉलर की आथिक मदद का वादा किया.
अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान विरोधी ताकतों ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय से तालिबान की नई सरकार को मान्यता नहीं देने का अनुराध किया है.
तालिबान की अंतरिम कैबिनेट में कोई महिला नहीं है और इसमें सिर्फ़ तालिबान या उससे जुड़े नेता हैं. इसकी अमेरिका ने भी आलोचना की है. पंजशीर में तालिबान से लड़ रहे लड़ाकों ने सरकार को 'ग़ैर-क़ानूनी' बताया है.
अंतिरम कैबिनेट मुल्ला मोहम्मद हसन अखुंद के नेतृत्व में काम करेगी जिन्हें संयुक्त राष्ट्र ने ब्लैक लिस्ट कर रखा है. अंतरिम कैबिनेट में सिराजुद्दीन हक्कानी अमेरिकी एफबीआई की वॉन्टेड लिस्ट में हैं.
नेशनल रेज़िस्टेंस फ़ोर्स (एनआपएफ़) ने कहा है कि वो तालिबान की अंतरिम सरकार की कैबिनेट को "अफ़ग़ान लोगों के ख़िलाफ़ दुश्मनी के साफ़ संकेत की तरह देखते हैं."
तालिबान ने इस बात पर ज़ोर दिया है कि उन्होंने नेशनल रेज़िस्टेंमस फोर्स को हरा दिया है, लेकिन एनआरएफ के नेता का कहना है कि वो अभी भी लड़ रहे हैं.
अमेरिका ने जताई चिंता
अमेरिका की तरफ़ से जारी एक बयान में कहा गया है, "हमने देखा है कि जारी की गई लिस्ट में सिर्फ़ तालिबान से जुड़े लोगों या उनके नज़दीकियों के नाम हैं, और इसमें कोई महिला नहीं है." "इनमें कुछ लोगों के ट्रैक रिकॉर्ड और उनके जुड़ाव को लेकर भी हम चिंतित हैं."
बयान कहा गया कि अमेरिका अफ़ग़ान नागरिक, जिनके पास वैध दस्तावेज़ हैं, उन्हें विदेश जाने की इजाज़त देने की "तालिबान की प्रतिबद्धता पर कायम रखने" के लिए कहता रहेगा.
"इसके अलावा हम इस बात पर ज़ोर देना चाहते हैं कि हमें उम्मीद है कि तालिबान ये सुनिश्चित करेगा कि अफ़ग़ानिस्तान की ज़मीन का इस्तेमाल किसी दूसरे देश के लिए ख़तरा पैदा करने के लिए नहीं होगा."
तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान पर क़रीब तीन हफ़्ते पहले कब्ज़ा कर लिया था. अब उसके सामने कई मुश्किलें हैं जिनमें अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाना करना और अंतरराष्ट्रीय मान्यता प्राप्त करना अहम है.
बुधवार को कुछ महिलाओं ने काबुल में उस महिला पुलिसकर्मी की तस्वीर के साथ प्रदर्शन किया जिसकी कथित तौर पर तालिबान ने हत्या कर दी थी. इससे पहले भी महिलाओं से सार्वजनिक तौर पर विरोध करने की अपील की गई थी और तालिबान को मिल रहे कथित पाकिस्तान के समर्थन पर विरोध जताया गया था.
मंत्रियों को इस्लामी क़ानून लागू करने के लिए कहा गया
मंगलवार को तालिबान के सुप्रीम लीडर मौलवी हिबातुल्लाह अखुंदज़दा के हवाले से जारी एक बयान में सरकार को शरिया क़ानून के हिसाब से काम करने के लिए कहा गया है. तालिबान को शरिया कानून की कठोर व्याख्या के मुताबिक काम करने के लिए जाना जाता है.
समूह ने बयान में कहा, "तालिबान दूसरे देशों के साथ "मज़बूत और स्वस्थ" रिश्ते चाहता है और उन अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों और संधियों मुताबिक चलेगा जिनका "इस्लामी क़ानून और देश की मूल्यों" के साथ विरोधाभास न हो.
नए अंतरिम प्रधानमंत्री हसन अखुंद 1996 से 2001 के बीच उप विदेश मंत्री रह चुके हैं, जब तालिबान पिछली बार सत्ता में थी. उनका वर्चस्व सैन्य पक्ष से अधिक धार्मिक में है.
हाल ही में कुछ उदारवादी तालिबान सदस्य और उनके कट्टर सहयोगियों के बीच लड़ाई की खबरों के बाद उनकी नियुक्ति को एक समझौते के रूप में देखा जा रहा है.
गृह मंत्री अमेरिका के आतंकवादियों की लिस्ट में
अंतरिम आंतरिक मंत्री सिराजुद्दीन हक्कानी सैन्य समूह हक्क़ानी नेटवर्क के प्रमुख हैं. इस समूह को तालिबान की मान्यता प्राप्त है और पहले दो दशकों तक चली जंग में कई घातक हमलों के लिए ये ज़िम्मेदार रहा है, इसमें काबुल में 2017 में हुआ ट्रक धमाका भी शामिल है जिसमें 150 लोगों की जान चली गई थी.
तालिबान से अलग इस नेटवर्क को अमेरिका ने विदेशी आतंकवादी समूह का दर्जा दिया है. इस समूह के अलकायदा के साथ भी क़रीबी रिश्ते हैं. एफबीआई के मुताबिक सिरजुद्दीन की तलाश 2008 में अफ़ग़ानिस्तान मे हुए होटल हमले के संबंध में की जा रही है. इस हमले में एक अमेरिकी नागरिक की मौत हो गई थी.
"एक आंदोलन जो लंब समय तक छिपकर चला है, उनमें शामिल ऐसे लोग जिनका नाम सिर्फ आतंकवादियों की लिस्ट में आता था, अब दुनियाभर की सरकारों में इस्तेमाल हो रहे पद के नाम से जाने जा रहे हैं.
कार्यवाहक प्रधानमंत्री मुल्ला अखुंद प्रमुख सैन्य और राजनीतिक सदस्यों के बीच प्रतिद्वंद्विता के बाद एक समझौते के रूप में सामने आए हैं जो उनके अधीन काम करेंगे.
तालिबान बंदूकों से सरकार की ओर बढ़े हैं इसलिए इसके संरक्षक भी थोड़ी सांस लेनें की जगह दे रहे हैं.
लेकिन इसके साथ ही ये तालिबान की उस सोच को दर्शाता है कि तालिबान की जीत मतलब है सिर्फ तालिबान का शासन है.
सूत्रों का कहना है कि उन्होंने "समावेशी" सरकार के आह्वान के ख़िलाफ ज़ोर दिया है. वे पूर्व राजनीतिक शख्सियतों और अधिकारियों को शामिल करने से कतराते दिखे, जो शीर्ष पर रह चुके हैं, और ख़ासतौर पर वो जिनपर भ्रष्टाचार के आरोप हैं.
एक तर्क ये दिया गया कि "जब दूसरे देश अपनी कैबिनेट खुद बनाते हैं तो हम किसी और को अपनी कैबिनेट चुनने क्यों दें"
जहां तक महिलाओं की बात है तो ऐसी कोई उम्मीद थी ही नहीं कि उन्हें किसी मंत्री पद की ज़िम्मेदारी दी जाएगी. महिला मामलों मंत्रालय अब पूरी तरह से ख़त्म होता दिख रहा है.(bbc.com)