सेहत-फिटनेस
न्यूयॉर्क, 19 अगस्त । कम नमक और चीनी के साथ वेज खाना, पर्याप्त आराम, थोड़ी कसरत और सोशल लाइफ मृत्यु का जोखिम 28 प्रतिशत और कैंसर का जोखिम 29 प्रतिशत कम करता है। एक नए शोध में ये पाया गया है।
यूके में जो लोग भूमध्यसागरीय जीवनशैली यानि मेडिटेरेनियन लाइफस्टाइल का पालन करते हैं, उनमें सभी कारणों और कैंसर से मृत्यु दर का जोखिम कम पाया गया।
शोधकर्ताओं ने यूके बायोबैंक समूह के 110,799 सदस्यों की आदतों का विश्लेषण किया, जो इंग्लैंड, वेल्स और स्कॉटलैंड में भूमध्यसागरीय जीवन शैली (मेडलाइफ) का उपयोग करते हैं।
शोध लिखने वाले प्रमुख लेखक मर्सिडीज सोतोस प्रीतो ने कहा, मैड्रिड के स्वायत्त विश्वविद्यालय (एयूएम) और हार्वर्ड टी.एच. चैन स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ के अध्ययन में सुझाव है कि गैर-भूमध्यसागरीय आबादी के लिए स्थानीय रूप से उपलब्ध उत्पादों का उपयोग कर भूमध्यसागरीय आहार को अपनाना संभव है।
हार्वर्ड चैन स्कूल में पर्यावरणीय स्वास्थ्य के सहायक सहायक प्रोफेसर प्रीटो ने कहा, "हम जीवनशैली में परिवर्तन और स्वास्थ्य पर इसके सकारात्मक प्रभाव देख रहे हैं।"
अध्ययन में प्रतिभागियों की उम्र 40 से 75 वर्ष के बीच थी। उन्होंने सूचकांक द्वारा मापी गई तीन श्रेणियों के अनुसार अपनी जीवनशैली के बारे में जानकारी प्रदान की - भूमध्यसागरीय भोजन की खपत; भूमध्यसागरीय आहार संबंधी आदतें' और 'शारीरिक गतिविधि, आराम, और सोशल लाइफ'।
अध्ययन में शामिल लोगों में से, 4,247 का किसी न किसी बीमारी से निधन हो गया; 2,401 कैंसर से; और 731 हृदय रोग से मारे गए।
शोधकर्ताओं ने भूमध्यसागरीय लाइफस्टाइल के पालन और मृत्यु दर के जोखिम के बीच एक विपरीत संबंध देखा।
भूमध्यसागरीय लाइफस्टाइल का स्वतंत्र रूप से पालन सभी कारणों और कैंसर मृत्यु दर के जोखिम को कम करने से जुड़ा था।
शोधकर्ताओं ने कहा, "शारीरिक गतिविधि, आराम, और सोशल लाइफ" कम जोखिम सबसे मजबूती से जुड़ा हुआ था, और इसके अलावा हृदय रोग मृत्यु दर का जोखिम भी कम था। (आईएएनएस)।
एक अध्ययन से यह बात सामने आई है कि महिलाओं में होने वाले अल्जाइमर और यादाश्त कम हाने जैसे रोगों को सांसों पर ध्यान केंद्रित करने वाली योग क्रिया के माध्यम से ठीक किया जा सकता है.
यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया, लॉस ऐंजलेस (यूसीएलए) के शोधकर्ताओं ने पाया कि जिस प्रकार एमआरआई का इस्तेमाल करके मस्तिष्क के क्षेत्रों और उप-क्षेत्रों में गतिविधि को मापा जाता है, उसी तरह 'कुंडलिनी योग' तनाव से प्रभावित मस्तिष्क के एक क्षेत्र में गतिविधि को बढ़ाता है, जिससे यादाश्त तेज होती है.
जर्नल ऑफ अल्जाइमर डिजीज के ऑनलाइन प्रकाशित अध्ययन में शोधकर्ताओं ने हिप्पोकैम्पस के उप-क्षेत्रों में कनेक्टिविटी पर स्मृति वृद्धि प्रशिक्षण (एमईटी) के दृष्टिकोण की तुलना में योग के प्रभावों का अध्ययन किया, जो सीखने और स्मृति के लिए मस्तिष्क का एक महत्वपूर्ण क्षेत्र है. एमईटी उन तकनीकों से यादाश्त सुधारने के लिए मौखिक और दृश्याों का सहारा लेते हैं.
यूसीएलए में लेट-लाइफ, मूड स्ट्रेस एंड वेलनेस रिसर्च प्रोग्राम की निदेशक और मनोचिकित्सक डॉ. हेलेन लावरेत्स्की ने कहा कि 'कुंडलिनी योग' प्रशिक्षण तनाव से संबंधित हिप्पोकैम्पस कनेक्टिविटी को बेहतर ढंग से लक्षित करता है, जबकि एमईटी हिप्पोकैम्पस के संवेदी-एकीकरण उप-क्षेत्रों को बेहतर ढंग से लक्षित कर सकता है, जो बेहतर स्मृति विश्वसनीयता का समर्थन करता है.
अध्ययन में 22 प्रतिभागियों को शामिल किया गया जो अल्जाइमर जोखिम पर योग के प्रभावों का अध्ययन करने वाले एक बड़े स्वतंत्र नियंत्रित परीक्षण का हिस्सा थे. 11 योग प्रतिभागियों की औसत आयु लगभग 61 थी, जबकि एमईटी समूह में यह आयु लगभग 65 रखी गई थी. सभी ने पिछले वर्ष के दौरान यादाश्त में गिरावट की रिपोर्ट की थी. साथ ही उनमें हृदय संबंधी जोखिम था, जो अल्जाइमर रोग के जोखिम को भी बढ़ा सकते हैं.
योग और एमईटी दोनों समूहों में यह सत्र 12 सप्ताह तक चला, प्रत्येक सप्ताह 60 मिनट का व्यक्तिगत प्रशिक्षण सत्र होता था. 'कुंडलिनी योग' प्रशिक्षण को ध्यान रूप क्रिया में समर्थित किया गया था.
नतीजों के आधार पर शोध के लेखकों ने कहा कि योग प्रशिक्षण तनाव से प्रभावित हिप्पोकैम्पस उप-क्षेत्र कनेक्टिविटी को बेहतर ढंग से लक्षित कर सकता है जो यादाश्त बढ़ाने में मदद कर सकता है.
लावरेत्स्की ने कहा, "मुख्य बात यह है कि यह अध्ययन मस्तिष्क के स्वास्थ्य के लिए योग के लाभों का समर्थन करने वाले साहित्य में शामिल है, विशेष रूप से यह उन महिलाओं के लिए जिन्हें अधिक तनाव या यादाश्त कम होने की बीमारी है. योग की क्रियाएं वृद्ध व्यस्कों के लिए आदर्श हैं."
अध्ययन से पता चलता है कि योग की इन क्रियाओं से उन महिलाओं को विशेष लाभ हो सकता है जो अक्सर तनाव का अनुभव करती हैं.
शोधकर्ताओं का कहना है कि हिप्पोकैम्पस कनेक्टिविटी और स्मृति पर योग और एमईटी के लाभकारी प्रभावों को स्पष्ट करने के लिए भविष्य में एक बड़े अध्ययन की जरूरत होगी.
एए/सीके (एपी)
बैक्टीरियोफेजस ऐसे वायरस हैं जो बैक्टीरिया को मारते हैं. एंटीबायोटिक दवाइयों के खिलाफ इंसानी शरीर में पैदा हुई प्रतिरोधक क्षमता का मुकाबला करने में इनका इस्तेमाल करना चाहते हैं.
एंटीबायोटिक दवाओं के असर में आती कमी को देखते हुए वैज्ञानिक मानते हैं कि बैक्टीरिया का शिकार कर उन्हें खत्म करने वाले बैक्टीरियाफेज यानी जीवाणुभोजी वायरस, बैक्टीरिया से होने वाले संक्रमणों का उपचार कर सकते हैं. यह वायरस हैं तो सूक्ष्म लेकिन इंसानों पर उनकी बहुत बड़ी मार पड़ी है. चेचक, जुकाम-नजला, एचआईवी और कोविड-19 जैसी वायरल बीमारियों के प्रकोप से अरबों लोग मार गए हैं और इन बीमारियों ने समूचे मानव इतिहास में समाजों के आकार में बुनियादी बदलाव किए हैं. हालांकि सभी वायरस जानलेवा नहीं होते. बैक्टीरिया की ही तरह कुछ "अच्छे" या "दोस्ताना" वायरस सेहत के लिए फायदेमंद भी हो सकते हैं.
वैज्ञानिक अब एक वायरोम की चर्चा करने लगे हैं. ये वे बिल्कुल ही अलहदा किस्म के वायरस हैं जो हमारे शरीरों में मौजूद होते हैं और स्वास्थ्य में योगदान देते हैं, बहुत कुछ माइक्रोबायोम बैक्टीरिया की मानिंद. ये वायरोम विशाल आकार का है. फिलहाल आपके शरीर पर या उसके भीतर 380 खरब वायरसों का निवास है– बैक्टीरिया की संख्या से 10 गुना ज्यादा तादाद में.
ये वायरस हमारे फेफड़ों और खून में छिपे रहते हैं, त्वचा पर जीवित रहते हैं और हमारी आंतो के जीवाणुओं के भीतर पड़े रहते हैं. सारे के सारे वायरस बुरे नहीं. ऐसे भी वायरस होते हैं जो कैंसर कोशिकाओं को खत्म करते हैं और ट्युमर को विखंडित करने में मदद करते हैं, कुछ ऐसे भी हैं जो हमारी प्रतिरोध प्रणाली को प्रशिक्षित कर उन्हें रोगाणुओं से लड़ने में मदद करते हैं. और कुछ तो गर्भावस्था में जीन व्यवहार को भी नियंत्रित करते हैं.
बैक्टीरियाफेजः बैक्टीरिया निरोधी गश्ती दल
हमारे भीतर बड़े पैमाने पर मौजूद अधिकांश वायरस, बैक्टीरिया को हजम कर जाने वाले यानी बैक्टीरियाफेज होते हैं- यानी वह वायरस जो हमारे माइक्रोबायोम में बैक्टीरिया को खत्म कर देते हैं. बैक्टीरीअफेज को फेज भी कहा जाता है. वे मानव कोशिकाओं को नुकसान नहीं पहुंचाते क्योंकि उन्हें वह अपने शिकार के तौर पर नहीं पहचानते हैं. वह बैक्टीरिया को खोज कर उनका शिकार करते हैं, बैक्टीरिया की कोशिका की सतह से जुड़ जाते हैं. और उसके बाद उस कोशिका में अपनी डीएनए सामग्री पहुंचा देते हैं.
वायरल डीएनए फिर बैक्टीरिया के भीतर रेप्लीकेट करता है, कभी-कभार बैक्टीरिया का अपना डीएनए रेप्लीकेशन का साजो सामान अपने काम में ले आता है. एकबारगी बैक्टीरिया की कोशिका में पर्याप्त मात्रा में नये वायरस बन जाते हैं तो कोशिका फट जाती है और नये वायरल कण निकल जाते हैं. इस पूरी प्रक्रिया में सिर्फ 30 मिनट लगते हैं. मतलब एक वायरस दो घंटो में बहुत सारे वायरसों में तब्दील हो सकता है.
फेज थेरेपीः एक संक्षिप्त इतिहास
बैक्टीरिया को चट कर जाने वायरसों की इसी क्षमता ने 20वीं सदी की शुरुआत में वैज्ञानिकों को सोचने पर मजबूर किया कि क्या उनका इस्तेमाल बैक्टीरिया से होने वाली बीमारियों में किया जा सकता है. लेकिन जब पेनिसिलिन जैसी एंटीबायोटिक दवाएं आ गईं तो वो रिसर्च भी पीछे छूट गई. लेकिन बैक्टीरिया के कई स्ट्रेन यानी स्वरूप एंटीबायोटिक निरोधी हैं और उनकी संख्या बढ़ने लगी है, जानकार कहते हैं कि वैश्विक समुदायों के सामने एंटीबायोटिक प्रतिरोध सबसे बड़ी मेडिकल चुनौतियों में से एक है.
नतीजतन, अब वैज्ञानिक एंटीबायोटिक एजेंटों के नये रूपों की तलाश में जुट गए हैं. इसी सिलसिले में जीवाणुभोजी वायरस भी बैक्टीरिया जनित संक्रमणों से निपटने की लड़ाई के तहत उनकी सूची में लौट आए हैं. येना यूनिवर्सिटी अस्पताल में इन्स्टीट्यूट फॉर इंफेक्शियस मेडिसन एंड हॉस्पिटल हाइजीन के निदेशक माथियस प्लेत्स कहते हैं, "बैक्टीरिया खाने वाले वायरसों के लाभ, प्रत्येक बहु-प्रतिरोधी रोगाणु के खिलाफ उनकी प्रभाविता में निहित हैं."प्लेत्स ये भी बताते हं कि ये वायरस, बैक्टीरिया के सभी रूपों को खत्म करने के मामले में कतई अचूक होते हैं. इतनी सफाई से अपना काम करते हैं कि आंतों के माइक्रोबायोम को बिल्कुल भी नुकसान नहीं पहुंचाते, जैसा कि एंटीबायोटिक दवाएं कर डालती हैं. सैद्धांतिक तौर पर लगता यही है कि ये वायरस एंटीबैक्टीरियल प्रतिरोध के खिलाफ हमारी लड़ाई में एक बड़ा भारी वरदान हो सकते हैं, लेकिन वास्तव में साक्ष्य क्या कहते हैं?
बैक्टीरियाभोजी वायरस सोवियत दवा थी
ये वायरस हर जगह से इस्तेमाल से बाहर नहीं हो गए. सोवियत दौर के रूस में एंटीबायोटिक्स की कमी के चलते, इनका इस्तेमाल बैक्टीरिया जनित संक्रमणों के इलाज में होता था. जॉर्जिया, यूक्रेन और रूस में दशकों से ये इस्तेमाल जारी रहा. फेज टूरिज्म का हॉटस्पॉट है- जॉर्जिया. दुनिया भर से मरीज वहां इलाज के लिए जाते हं. उन्ही क्लिनिकों से मिले परिणामों के आधार पर ही कुछ वैज्ञानिक कहते हैं कि पारंपरिक बैक्टीरिया निरोधी एजेंटों के खिलाफ प्रतिरोध विकसित कर चुके संक्रमणों से निपटने में इन वायरसों के योगदान के अच्छे सबूत मौजूद हैं.
जॉर्जिया फेज थेरेपी के एक प्रमुख वैश्विक केंद्र के रूप में विकसित हो चुका है. उसके पास उपचार के लिए दुनिया में बैक्टीरियाभोजी वायरसों के सबसे बड़े संग्रहों में से एक है. लेकिन बेल्जियम और अमेरिका जैसे देश, विशेषीकृत थेरेपी केंद्रों में भी असाधारण मामलों के लिए फेजों का इस्तेमाल करने लगे हैं. जर्मनी भी फेज थेरेपियों में दिलचस्पी लेने लगा है. 18 जुलाई को प्रकाशित एक रिसर्च रिपोर्ट में नीतिनिर्माताओं को ये सुनिश्चित करने का आग्रह किया गया कि बैक्टीरिया खाने वाले वायरसों को बेहतर ढंग से खंगाला और इस्तेमाल में लाया जाए, न सिर्फ दवा के रूप में बल्कि खाद्यजनित संक्रमणों के खिलाफ और फसल सुरक्षा के उपाय के रूप में भी.
कितने कारगर होंगे बैक्टीरिया खाने वाले वायरस?
क्या ये वायरस एंटीबैक्टीरियल प्रतिरोध की समस्याओं का जवाब हो सकते हैं? शायद हां, जानकार कहते हैं. लेकिन वे इसके लिए भी आगाह करते हैं कि व्यापक रूप से अमल में लाने की मंजूरी देने से पहले जान लेना चाहिए कि फेज थेरेपियों के नुकसान भी हैं जिन पर ध्यान देना होगा. जर्मनी के कोलोन स्थित यूनिवर्सिटी अस्पताल में संक्रामक बीमारी के विशेषज्ञ गेर्ड फैटकेनह्युअर कहते हैं, "मुख्य समस्या ये है कि थेरेपी का कोई मानकीकरण तो है नहीं. फेज थेरेपी ठीक-ठीक उसी बैक्टीरिया के खिलाफ की जानी चाहिए जो मरीज को संक्रमित करता है."
वो कहते हैं कि विभिन्न विशेषताओं वाले बैक्टीरिया से संक्रमण हो सकता है, तो थेरेपी के लिए आपको अलग अलग किस्म के फेजों का कॉकटेल चाहिए. इन वायरसों का ये मिश्रण, संक्रमण के बेकाबू होने से पहले ही, तत्काल रूप से उपलब्ध कराया जाना होगा क्योंकि बैक्टीरिया भी फेज थेरेपी के खिलाफ प्रतिरोध विकसित कर लेते हैं. लेकिन फेज थेरेपी की सुरक्षा को लेकर अच्छा रिकॉर्ड है. प्लेत्स कहते हैं कि इंसान अपने खाने के जरिए ऐसे अरबों वायरस रोजाना हजम कर जाते हैं. इसके कोई उल्लेखनीय नकारात्मक प्रभाव भी नहीं होते. इसका मतलब हमारा शरीर फेज थेरेपी को भी भली-भांति बर्दाश्त करने लायक होना चाहिए.
जर्मन शोध ने सिफारिश की है कि अगले कदम के रूप में व्यापक पैमाने पर शोध कराए जाने चाहिए और क्लिनिकल प्रोजेक्ट चलाए जाने चाहिए जिससे अलग अलग किस्म के संक्रमणों के लिए असरदार फेज थेरेपियां चिन्हित की जा सकें. अभी के लिए, बैक्टीरिया खाने वाले वायरस (बैक्टीरीअफेज) एंटीबायोटिक्स की जगह लेने से तो रहे. लेकिन वैज्ञानिक आशावादी हैं कि मिलाकर इस्तेमाल करने से एंटीबायोटिक्स को ज्यादा असरदार बनाने में वे काम आ सकते हैं, खासतौर पर बैक्टीरिया के प्रतिरोधी रूपों (स्ट्रेन्स) के खिलाफ.
रिसर्चरों ने मल्टीपल स्केलेरोसिस बीमारी की वजह से किसी व्यक्ति की स्थिति खराब होने से जुड़े जेनेटिक वैरिएंट की खोज की है. वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि उनकी खोज से इस बीमारी के इलाज के लिए नए तरीके ईजाद हो सकते हैं.
एक अंतरराष्ट्रीय शोध समूह ने मल्टीपल स्केलेरोसिस (एमएस) बीमारी के बढ़ने से जुड़े पहले जेनेटिक वैरिएंट की खोज की है. सैन फ्रांसिस्को में कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय (यूसीएसएफ) और ब्रिटेन के कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों के नेतृत्व में शोध समूह ने अलग-अलग जीनोम के हिसाब से अध्ययन करते हुए मल्टीपल स्केलेरोसिस के करीब 22,000 रोगियों के डेटा का विश्लेषण किया. जेनेटिक वैरिएंट को खास लक्षणों से जोड़ने के लिए आंकड़ों का बेहद सावधानी से इस्तेमाल किया गया. इस अध्ययन के नतीजे बीते बुधवार को नेचर जर्नल में प्रकाशित किए गए.
अध्ययन में शामिल रिसर्चर बताते हैं कि मल्टीपल स्केलेरोसिस के जिन रोगियों को यह वैरिएंट अपने माता-पिता, दोनों से विरासत में मिलता है उन्हें ऐसे रोगियों की तुलना में औसतन चार साल पहले ही छड़ी की मदद से चलना पड़ता है जिन्हें यह वैरिएंट माता-पिता से विरासत में नहीं मिलता.
यह जेनेटिक वैरिएंट दो जीनों के बीच पाया जाता है. इसमें से एक जीन क्षतिग्रस्त कोशिकाओं की मरम्मत में शामिल होता है, तो दूसरा वायरल संक्रमण को नियंत्रित करता है. ये दोनों जीन मस्तिष्क और रीढ़ की हड्डी (स्पाइनल कॉर्ड) के भीतर सक्रिय होते हैं.
कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में न्यूरोलॉजी के प्रोफेसर और नेचर में प्रकाशित अध्ययन के सह-वरिष्ठ लेखक स्टीफन सॉसर कहते हैं, "इस बात के पुख्ता सबूत हैं कि आप मल्टीपल स्केलेरोसिस से अच्छी तरह निपट रहे हैं या उसकी वजह से आपकी हालत खराब है. यह इससे काफी ज्यादा प्रभावित होता है कि आपका मस्तिष्क प्रतिरक्षा प्रणाली के हमलों से कितनी अच्छी तरह निपट सकता है. यह हमला मल्टीपल स्केलेरोसिस के दौरान अक्सर होता है.
सॉसर ने 1990 के दशक के मध्य में मल्टीपल स्केलेरोसिस पर अपनी पीएचडी थीसिस लिखी थी और तब से इस बीमारी को लेकर बड़े स्तर पर अध्ययन कर रहे हैं. नेचर के अध्ययन में इस जेनेटिक वैरिएंट की पहचान को लेकर जो जानकारी दी गई है वह मल्टीपल स्केलेरोसिस को लेकर किए जा रहे अनुसंधान के क्षेत्र में एक बड़ी प्रगति है.
सॉसर ने डीडब्ल्यू को बताया, "मैंने इस पर कई दशकों तक काम किया है और यह मेरी अब तक की सबसे महत्वपूर्ण खोज है.”
मल्टीपल स्केलेरोसिस क्या है?
यह समझने के लिए कि जेनेटिक वैरिएंट से जुड़ी यह खोज इतनी महत्वपूर्ण और अन्य खोजों से अलग क्यों है, हमें मल्टीपल स्केलेरोसिस के बारे में ज्यादा जानना होगा. यह एक ऑटोइम्यून बीमारी है, जिसमें प्रतिरक्षा प्रणाली गलती से मस्तिष्क और रीढ़ की हड्डी पर हमला करती है.
ये हमले माइलिन को नुकसान पहुंचाते हैं. यह वसायुक्त पदार्थ तंत्रिका तंत्र के तंतुओं के चारों ओर सुरक्षात्मक परत के तौर पर काम करता है. माइलिन को नुकसान पहुंचने से आपके मस्तिष्क और शरीर के बाकी हिस्सों के बीच होने वाला संचार बाधित होता है. इससे आपकी नसें खराब हो सकती हैं, जिनका ठीक हो पाना मुश्किल होता है.
इसकी वजह से कई तरह की समस्याएं हो सकती हैं, जैसे कि शरीर का कोई हिस्सा सुन्न हो जाना, मूड में बदलाव, याददाश्त से जुड़ी समस्याएं, दर्द, थकान, अंधापन या लकवा मारना.
मल्टीपल स्केलेरोसिस की वजह से कोई व्यक्ति कितना गंभीर रूप से प्रभावित हो सकता है या कितनी बार इसकी चपेट में आ सकता है, यह हर रोगी के लिए अलग-अलग होता है.
सॉसर मल्टीपल स्केलेरोसिस के रोगियों का इलाज भी करते हैं. वह कहते हैं, "कुछ रोगियों में कोई लक्षण नहीं होते हैं. कभी-कभी हमें पोस्टमार्टम के बाद इसके बारे में पता चलता है. कभी-कभी तो हमें पता भी नहीं चलता कि वे मल्टीपल स्केलेरोसिस से पीड़ित थे.”
वह आगे कहते हैं, "उनमें काफी हल्के लक्षण हो सकते हैं, जो उन्हें कुछ समय के लिए परेशान करते हैं और फिर लंबे समय तक वापस नहीं आते. मेरे पास हाल ही में एक महिला आई थी, जिससे मैं पहली बार 15 साल पहले मिला था और अब वह दोबारा इतने समय बाद आयी. इस दौरान वह पूरी तरह ठीक थी. हालांकि, कभी-कभी कोई गंभीर रूप से भी प्रभावित हो सकता है. उसके बगल वाले बिस्तर पर जो महिला थी उसकी हालत काफी ज्यादा खराब हो गई थी. उसे खुद से खाना खाने में भी परेशानी होती थी.”
मल्टीपल स्केलेरोसिस में जेनेटिक वैरिएंट क्यों महत्वपूर्ण है
मल्टीपल स्केलेरोसिस से जुड़े जितने भी वैरिएंट की अब तक पहचान की गई है वे किसी व्यक्ति में इस रोग के विकसित होने के जोखिम का पता लगाने में मददगार हैं. हाल में जिस नए वैरिएंट की पहचान हुई है उससे यह पता लगाया जा सकता है कि कोई व्यक्ति इस बीमारी की वजह से कितना गंभीर रूप से प्रभावित हो सकता है. यह खोज, बीमारी के इलाज से जुड़े उपायों को ढूंढने के लिए महत्वपूर्ण है.
फिलहाल, एमएस से जुड़े लक्षणों से दोबारा प्रभावित होने से बचाने के लिए बाजार में कई दवाएं उपलब्ध हैं, लेकिन ऐसी कोई दवा नहीं है जिससे इस बीमारी को बढ़ने से रोका जा सके. इसका मतलब है कि कुछ रोगियों की स्थिति दूसरों की तुलना में तेजी से बिगड़ सकती है.
यूसीएसएफ में न्यूरोलॉजी के प्रोफेसर और रिसर्च रिपोर्ट के सहलेखक सर्जियो बारानजिनी ने डीडब्ल्यू को एक ईमेल में लिखा, "एमएस के लक्षणों की फिर से वापसी को नियंत्रित करने के लिए विकसित की गई सभी दवाएं इम्यूनोमॉड्यूलेटरी (प्रतिरक्षा तंत्र को मजबूत करने वाली) हैं, जो एमएस के जोखिम से जुड़े 200 से अधिक जेनेटिक वैरिएंट से मेल खाती हैं. बीमारी की गंभीरता से जुड़े नए जेनेटिक से पता चलता है कि नए चिकित्सा उपायों के तहत केंद्रीय तंत्रिका तंत्र पर ध्यान देना चाहिए.”
मल्टीपल स्केलेरोसिस के इलाज की दिशा में प्रगति
तथ्य यह है कि रोगियों के जिस समूह में नए खोजे गए जेनेटिक वैरिएंट, माता और पिता दोनों से विरासत में मिले उन्हें चलने के लिए काफी कम समय में ही सहायता यानी छड़ी की जरूरत पड़ी. हालांकि, इसका मतलब यह नहीं है कि इस वैरिएंट का इस्तेमाल हर रोगी की भविष्य की स्थिति बताने के लिए किया जा सकता है.
सॉसर का कहना है कि किसी रोगी को लेकर भविष्यवाणी करने से पहले कई और जेनेटिक वैरिएंट की पहचान करने की जरूरत है. इसलिए, जीनोम के आधार पर और ज्यादा अध्ययन करने की जरूरत है.
फिर भी, सॉसर का कहना है कि अब वे मल्टीपल स्केलेरोसिस बढ़ने को लेकर एक खास वैरिएंट की ओर इशारा कर सकते हैं. साथ ही, उन्हें पता है कि इसमें मस्तिष्क के भीतर सामान्य रूप से सक्रिय जीन शामिल हैं. इसलिए, अब इस बात की ज्यादा संभावना है कि दवा कंपनियां इस बीमारी को बढ़ने से रोकने वाली दवा बनाने के लिए निवेश करना शुरू कर सकती है.
सॉसर ने कहा, "मल्टीपल स्केलेरोसिस के रोगियों की सबसे बड़ी जरूरत दवा है. बिना दवा के इस बीमारी का इलाज नहीं हो सकता. और अब उस दवा के विकसित होने की संभावनाएं बन रही हैं.”
भारत में डायबिटीज से पीड़ित मरीजों की संख्या 10 करोड़ से ज्यादा है. 2019 में यह संख्या लगभग सात करोड़ थी. हाल ही में ब्रिटेन के मेडिकल जर्नल लांसेट में भारत में डायबिटीज की स्थिति से जुड़ा शोध छपा है.
डॉयचे वैले पर आमिर अंसारी की रिपोर्ट-
ब्रिटिश मेडिकल जर्नल लांसेट में छपे इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) के शोध के मुताबिक कुछ राज्यों में डायबिटीज के मामले स्थिर हैं, तो वहीं कुछ राज्यों में मामले तेजी से बढ़े हैं. इस शोध में बताया गया है कि जिन राज्यों में डायबिटीज के मामलों में तेजी आई है, वहां इस बीमारी को रोकने के लिए फुर्ती से कदम उठाने होंगे.
शोध में कहा गया है कि देश की 15.3 फीसदी या लगभग 13.6 करोड़ आबादी प्री-डायबिटीक हैं, जबकि देश की 11.4 फीसदी आबादी डायबिटीक है. यानी अगले कुछ सालों में ऐसे लोगों की डायबिटीज की चपेट में आने की आशंका है. शोध में यह भी कहा गया है कि 35 प्रतिशत से अधिक आबादी हाइपरटेंशन और हाई कोलेस्ट्रॉल की शिकार है. वहीं मोटापे की बात करें, तो शोध कहता है कि देश की 28.6 फीसदी आबादी इससे ग्रस्त है.
क्या होता है प्री-डायबिटीक
डायबिटीज के दो प्रकार हैं, टाइप-1 और टाइप-2. टाइप-1 आनुवांशिक होता है. यह बच्चों और युवाओं में देखने को मिलता है, लेकिन इसके मामले बहुत ही कम होते हैं. टाइप-2 डायबिटीज ज्यादा जीवनशैली से जुड़ा है और दुनिया भर में तेजी से फैल रहा है. लेकिन अगर प्री-डायबिटीक की बात की जाए, तो वह एक गंभीर स्वास्थ्य स्थिति है. इसमें शुगर का स्तर सामान्य से अधिक होता है, लेकिन इतना ज्यादा नहीं कि उसे टाइप-2 डायबिटीज की श्रेणी में रखा जा सके.
शोध में कहा गया है कि गोवा में 26.4 फीसदी, पुदुचेरी (26.3), केरल (25.5) और चंडीगढ़ (20.4 फीसदी) में अधिकतम प्रसार देखा गया. शोध में यह भी बताया गया कि कम प्रसार वाले राज्य यूपी, बिहार, मध्य प्रदेश और अरुणाचल प्रदेश जैसे राज्यों में आने वाले कुछ सालों में "डायबिटीज विस्फोट" हो सकता है.
ये वैज्ञानिक कामयाब रहे तो नहीं रहेगी इंसुलिन के इंजेक्शन की जरूरत
बढ़ जाएंगे डायबिटीज के मरीज
अध्ययन की प्रमुख लेखक डॉक्टर आरएम अंजना के मुताबिक, "जब प्री-डायबिटीज के प्रसार की बात आती है, तो लगभग ग्रामीण और शहरी विभाजन नहीं दिखाई देता है. इसके अलावा प्री-डायबिटीज का स्तर उन राज्यों में अधिक पाया गया, जहां डायबिटीज का मौजूदा प्रसार कम था. यह एक टिक-टिक करने वाले टाइम बम जैसा है."
उन्होंने आगे कहा, "अगर आपको प्री-डायबिटीज है, तो हमारी आबादी में डायबिटीज में परिवर्तन बहुत-बहुत तेजी से होता है. प्री-डायबिटीज वाले 60 प्रतिशत से अधिक लोग अगले पांच वर्षों में डायबिटीज के शिकार हो जाएंगे. इसके अलावा भारत की लगभग 70 प्रतिशत आबादी गांवों में रहती है. इसलिए अगर डायबिटीज का प्रसार 0.5 से 1 प्रतिशत भी बढ़ जाता है, तो असल संख्या बहुत बड़ी हो जाएगी."
इस शोध के लिए वैज्ञानिकों ने 31 राज्यों में एक लाख से अधिक शहरी और ग्रामीण लोगों को सर्वे में शामिल किया. सर्वे में शामिल लोगों की 18 अक्टूबर, 2008 और 17 सितंबर, 2020 के बीच जांच की गई. सर्वे में शामिल लोगों की उम्र 20 वर्ष या उससे अधिक थी. और उसके बाद इस शोध के नतीजे सामने आए. (dw.com)
धूम्रपान छोड़ने के बाद जिंदगी में कई सकारात्मक बदलाव होने लगते हैं. इसके बावजूद, कई लोगों के लिए धूम्रपान छोड़ना आसान नहीं होता. ‘सिर्फ एक’ सिगरेट की चाह उनकी आदतों को फिर से खराब कर देती है. आखिर ऐसा क्यों होता है?
"मॉम, तुम धूम्रपान से मर जाओगी!” जब भी मेरा बेटा मुझे धूम्रपान करते हुए देखता था, तो डर की वजह से अपने सिर पर हाथ फेरने लगता था. इससे मुझे भी लगता था कि मेरी यह आदत सही नहीं है. फिर मैंने धूम्रपान करना छोड़ दिया. वह साल था 2019. दो महीने बाद भी मैंने सिगरेट को हाथ नहीं लगाया.
व्यसन से जुड़े मामलों का इलाज करने वाले चिकित्सक टोबियास रूथर मेरे धूम्रपान बंद करने से रोमांचित थे. वह म्यूनिख के लुडविग मैक्सिमिलियन यूनिवर्सिटी अस्पताल में तम्बाकू की लत छुड़ाने के लिए बनाए गए स्पेशल आउट पेशेंट क्लिनिक के प्रमुख हैं. रूथर ने कहा, "जब आप धूम्रपान बंद कर देते हैं, तो आपके जीवन में बहुत जल्दी सकारात्मक बदलाव होने लगते हैं.”
जल्द ही होते हैं कई बदलाव
रूथर ने मुझे बताया कि धूम्रपान छोड़ने के महज आठ घंटे बाद शरीर को बेहतर तरीके से ऑक्सीजन मिलने लगता है. सिर्फ एक से दो दिनों बाद कई लोगों की गंध और स्वाद फिर से बेहतर हो जाते हैं. दो सप्ताह बाद फेफड़े बेहतर तरीके से काम करने लगते हैं, जिससे खेलने के दौरान परेशानी नहीं होती. मैंने भी धूम्रपान छोड़ने के बाद खुद को पहले की तरह ही फिट महसूस किया.
रूथर कहते हैं, "आपको पहले की तुलना में तेज खांसी आ सकती है. इसकी वजह यह है कि फेफड़े खुद को साफ करना शुरू कर देते हैं. फेफड़े में स्प्रिंग जैसी जो संरचना होती है उसकी सफाई में करीब एक महीने का समय लगता है. इसके अलावा, एक महीने बाद आपकी प्रतिरक्षा प्रणाली काफी मजबूत हो जाती है.”
लगातार तीन महीने तक धूम्रपान न करने पर आपको रात में अच्छी नींद भी आ सकती है. रूथर ने कहा, "धूम्रपान करने वालों को रात में ऐसा लगता है कि शरीर में निकोटीन की कमी हो गई है और आपको निकोटीन चाहिए. इस वजह से सोने के दौरान बेचैनी बढ़ जाती है. हालांकि, तीन महीने बाद सामान्य तौर पर नींद आने लगती है.”
सिगरेट पीने से कई और तरह के नुकसान
मैंने पूरी तरह सिगरेट छोड़ने से पहले यह सोचा कि इसे कम करने पर भी इंसान स्वस्थ हो सकता है, लेकिन यह पूरी तरह सच नहीं है. दो से ज्यादा सिगरेट शरीर को नुकसान पहुंचाने के लिए काफी हैं.
रूथर ने कहा, "3 से 20 सिगरेट पीने पर हृदय संबंधी जोखिम, यानी स्ट्रोक या दिल का दौरा पड़ने का खतरा बढ़ जाता है. वहीं, कैंसर को लेकर अलग कहानी है. हर एक सिगरेट कैंसर के जोखिम को बढ़ाता है.” रूथर ने बताया, "यह वाकई में बहुत अच्छी बात है कि आपने पूरी तरह सिगरेट पीना छोड़ दिया.” वे इस बात को लेकर काफी खुश थे.
धूम्रपान करने वाले दो लोगों में से एक की मौत तंबाकू की लत के कारण होती है और उनमें से 50 फीसदी की मौत 70 वर्ष की आयु से पहले हो जाती है. रूथर ने कहा कि मैं 50 वर्ष की आयु तक धूम्रपान के नतीजों को महसूस कर लूंगी.
फिर से धूम्रपान शुरू कर देते हैं 95 फीसदी लोग
मेरे हाथों को सिगरेट से दूर रखने के लिए निकोटीन पैच या एक्यूपंचर जैसे उपायों की जरूरत नहीं थी, जिनका इस्तेमाल धूम्रपान छोड़ने में मदद के लिए किया जाता है. सच्चाई यह है कि सिर्फ मेरी इच्छा शक्ति ही पर्याप्त थी. रूथर के मुताबिक, इसकी वजह यह हो सकती है कि मैंने देर से धूम्रपान करना शुरू किया, 21 वर्ष की उम्र के बाद.
रूथर ने कहा, "धूम्रपान करने वाले ज्यादातर लोग 12 से 16 वर्ष की उम्र के बीच ही ऐसा करना शुरू कर देते हैं. उस समय तक हमारा मस्तिष्क पूरी तरह विकसित भी नहीं हुआ होता है. निकोटीन एक अत्यंत सक्रिय न्यूरोट्रांसमीटर है जो मस्तिष्क में तंत्रिका के विकास पर गहरा असर डालता है. इसकी वजह से लोग आजीवन के लिए इस लत से ग्रसित हो जाते हैं. ऐसे में दृढ़ इच्छा शक्ति से ही इस लत से छुटकारा पाया जा सकता है.”
उन्होंने आगे कहा, "बिना किसी की मदद से धूम्रपान छोड़ने वाले आपके जैसे 100 लोगों में से 95 लोग फिर से एक साल के अंदर धूम्रपान शुरू कर देते हैं.”
धूम्रपान करने वाले का भ्रम
फिर से धूम्रपान शुरू करने का एक कारण है ‘धूम्रपान करने वाले का भ्रम'. इसे निकोटीन की घटिया मनोवैज्ञानिक चाल भी कह सकते हैं. रूथर ने बताया कि सिगरेट की लत में मनोवैज्ञानिक निर्भरता बहुत मजबूत होती है. इसलिए मैं भी धूम्रपान करने वाले के भ्रम में पड़ गई. सालों तक मैंने खुद को आश्वस्त किया कि धूम्रपान से मुझे शांति मिलेगी, तनाव दूर होगा और मुझे थोड़ी देर के लिए राहत मिलेगी. जबकि, हकीकत यह है कि हर सिगरेट दिल की धड़कन को बढ़ाता है और आपको ज्यादा बेचैन करता है.
सच्चाई यह है कि धूम्रपान ने मुझे ज्यादा शांत महसूस कराया, क्योंकि मैं सिगरेट के बिना एक लंबी अवधि के बाद, सिगरेट छोड़ने पर होने वाली बेचैनी के लक्षणों का अनुभव कर रही थी. मेरा शरीर निकोटीन की तलाश कर रहा था. रूथर ने कहा, "सिगरेट सिर्फ उस बेचैनी को दूर करता है जो आपको तब नहीं होती थी, जब आप धूम्रपान नहीं करती थीं.”
आदत बन जाती है सिगरेट
दोस्तों, संगीत और शराब के साथ पहली सिगरेट मुक्त शाम काफी अजीब थी. ऐसा लग रहा था जैसे कुछ छूट रहा हो और यह अजीब लग रहा था. वर्षों तक मैं सिर्फ यह मान रही थी कि धूम्रपान सिर्फ कुछ स्थितियों का हिस्सा था, जैसे कि शराब के साथ, कॉफी के साथ या ब्रेक के दौरान.
रूथर ने समझाया, "यह पावलोव के कुत्ते की तरह काम करता है. आप कुत्ते को कुछ खाने के लिए देते हैं और उसी समय घंटी बजाते हैं. कुछ समय बाद, सिर्फ घंटी बजाना ही पर्याप्त होता है और कुत्ता अपनी लार टपकाते हुए आ जाता है.”
धूम्रपान करने वालों के लिए यह घंटी स्थायी रूप से बजती है. आराम करने के दौरान या किसी काम को करने से पहले वे धूम्रपान करते हैं. जैसे कि खाने के बाद, बस का इंतजार करते समय या सेक्स के बाद. धीरे-धीरे यह सूची लंबी होती जाती है. रूथर ने कहा, "मूल बात यह है कि धूम्रपान लोगों की जिंदगी का हिस्सा बन जाता है.”
मुझे धूम्रपान छोड़ना है. आखिर ऐसा कैसे करूं?
जो कोई भी धूम्रपान छोड़ना चाहता है उसके लिए यह काफी मुश्किल काम है. जैसे टोबियास रूथर शुरू में अपने मरीजों को आश्वस्त करते हैं कि विफलता सामान्य है और यह इस प्रक्रिया का हिस्सा है.
उन्होंने बताया, "जब मरीज मुझे बताते हैं कि वे पहले ही पांच बार धूम्रपान छोड़ने की कोशिश कर चुके हैं, तो मैं पहले के इन प्रयासों को स्वीकार करता हूं. आखिरकार यह उनके लिए चिंता का एक महत्वपूर्ण विषय है. धूम्रपान की आदतों को छोड़ना, साइकिल चलाना सीखने जैसा है. गिरना इस प्रक्रिया का हिस्सा है. महत्वपूर्ण बात है उठकर खड़ा होना, फिर से कोशिश जारी रखना और आखिरकार अपने काम में सफल होना.”
इसके अलावा, मस्तिष्क को यह संकेत देना महत्वपूर्ण है कि कुछ बदल गया है. रूथर के मुताबिक, "सुबह सामान्य से अलग कुर्सी पर बैठें. कॉफी के बजाय चाय पिएं. पौधे को अपने ऑफिस में एक नए स्थान पर लगाएं. यानी, अपने मस्तिष्क को यह बताना है कि अब कई चीजें बदल गई हैं.
और सबसे बड़ी बात कि अगर आपकी इच्छा फिर से सिगरेट पीने की करती है, तब भी न पिएं. रूथर कहते हैं, "सिर्फ एक सिगरेट ही वापस आपको पहले वाली स्थिति में ला सकता है, दूसरे की जरूरत नहीं है.” (जूलिया वर्जिन)
न्ययॉर्क, 5 जून | एक नई गोली ने फेफड़ों के कैंसर से मौत के जोखिम को आधे से कम करके नई उम्मीद जगाई है। एक दशक के लंबे वैश्विक क्लीनिकल ट्रायल के परिणामों में यह बात सामने आई है। क्लीनिकल ट्रायल से पता चला कि सर्जरी के बाद एस्ट्राजेनेका द्वारा विकसित ओसिमर्टिनिब दवा लेने से रोगियों के मरने का जोखिम 51 प्रतिशत तक कम हो गया। शिकागो में अमेरिकन सोसाइटी ऑफ क्लिनिकल ऑन्कोलॉजी (एस्को) की वार्षिक बैठक में ट्रायल के परिणाम प्रस्तुत किए गए।
ओसिमर्टिनिब, जिसका टैग्रिसो के रूप में विपणन किया जा रहा है, एक विशेष प्रकार के म्यूटेशन वाले लंग कैंसर के आम प्रकार नॉन-स्मॉल सेल कैंसर को निशाना बनाती है।
फेफड़े का कैंसर दुनिया में कैंसर से होने वाली मौतों का प्रमुख कारण है, जिससे हर साल लगभग 18 लाख लोगों की मौत होती है।
येल कैंसर सेंटर के उप निदेशक डॉ, रॉय हर्बस्ट ने कहा, तीस साल पहले, हम इन मरीजों के लिए कुछ भी नहीं कर सकते थे। अब हमारे पास यह शक्तिशाली दवा है।
किसी भी बीमारी में पचास प्रतिशत एक बड़ी बात है, लेकिन फेफड़ों के कैंसर जैसी बीमारी में तो निश्चित रूप से, जो आमतौर पर उपचारों के लिए बहुत प्रतिरोधी रही है।
परीक्षण में 26 देशों में 30 से 86 वर्ष की आयु के रोगियों को शामिल किया गया और यह देखा गया कि क्या गोली नॉन स्मॉल सेल लंग कैंसर के रोगियों की मदद कर सकती है।
परीक्षण में प्रत्येक व्यक्ति में ईजीएफआर जीन का म्यूटेशन था - जो वैश्विक फेफड़ों के कैंसर के लगभग एक-चौथाई मामलों में पाया जाता है - और एशिया में 40 प्रतिशत मामलों के लिए जिम्मेदार है। पुरुषों की तुलना में महिलाओं में ईजीएफआर म्यूटेशन अधिक आम है, और उन लोगों में भी जो कभी धूम्रपान नहीं करते हैं या हल्के धूम्रपान करने वाले हैं।
रिपोर्ट में कहा गया है कि अपने ट्यूमर को हटाने के बाद दैनिक गोली लेने वाले 88 प्रतिशत रोगी पांच साल बाद भी जीवित हैं। (आईएएनएस)
भारत में मानसिक स्वास्थ्य को लेकर जागरूकता बढ़ने के साथ साथ इससे जुड़ा स्वास्थ्य उद्योग भी बढ़ रहा है. हालांकि सामाजिक मानदंडों को नहीं मानने वाले कई लोगों का कहना है कि मदद मांगने पर उन्हें गलत साबित करने की कोशिश की गई.
डॉयचे वैले पर तनिका गोडबोले की रिपोर्ट-
मुंबई में रहने वाली एक छात्रा ने परिवार के सामने लेस्बियन के तौर पर अपनी पहचान जाहिर करने के बाद इलाज कराने की मांग की. अलीना (बदला हुआ नाम) ने डीडब्ल्यू को बताया, "यह मेरे जीवन का एक भयानक समय था. मेरे पिता ने मुझे अपनाने से इनकार कर दिया था और मैं हर समय खुद को दोषी मानती थी. मुझे लगा कि मैं अपने परिवार को नीचा दिखा रही हूं. उनके सम्मान पर चोट पहुंचा रही हूं.”
25 वर्षीय अलीना ने कहा कि मदद मांगने के बाद उसे ऐसा महसूस हुआ कि वह गलत है, उसका आत्म-सम्मान कम हुआ, और उसका भविष्य अनिश्चित है. अलीना ने कहा, "मेरे चिकित्सक ने उस समय मुझसे कहा था कि मेरे पिता केवल वही चाहते हैं जो मेरे लिए अच्छा है और मुझे उनसे माफी मांगनी चाहिए. इससे मुझे ऐसा लगा जैसे मुझे अपनी सेक्सुअलिटी यानी यौन रुझान पर शर्म आनी चाहिए.” कुछ सेशन के बाद अलीना ने चिकित्सक से मिलना बंद कर दिया.
उन्होंने बताया, "मुझे अब सौभाग्य से क्वियर समुदाय का सहयोग मिलने लगा है. साथ ही, एक बेहतर चिकित्सक मिल गया है. कई काउंसलर और चिकित्सक विज्ञापन देते हैं कि वे क्वियर समुदाय के लोगों के साथ दोस्ताना व्यवहार करते हैं, लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है. यह बहुत से लोगों के मानसिक स्वास्थ्य के लिए काफी खतरनाक है. खासकर ऐसे लोगों के लिए जो रूढ़िवादी या पारंपरिक विचार वाले परिवारों से आते हैं.”
एक ओर जहां भारत की शीर्ष अदालत में समलैंगिक विवाह पर बहस जारी है, वहीं दूसरी ओर भारतीय मनोरोग सोसायटी ने समान अधिकारों के लिए अपना समर्थन बढ़ाया है. 2018 में इस सोसायटी ने एक बयान जारी कर कहा कि समलैंगिकता सामान्य लैंगिक रुझान की तरह ही है, किसी तरह की बीमारी नहीं है. एलजीबीटीक्यूआईए+ (लेस्बियन, गे, बाइसेक्शुअल, ट्रांसजेंडर, क्वियर, इंटरसेक्स, एसेक्सुअल) समुदाय के सदस्यों के प्रति समान व्यवहार किया जाना चाहिए.
भारत में समलैंगिक विवाह पर बहस
हालांकि, कुछ चिकित्सकों का यौन रुझान के प्रति अब भी पुराना विचार ही है. मारीवाला हेल्थ इनिशिएटिव की निदेशक राज मारीवाला कहती हैं, "मनोवैज्ञानिक व्यवस्था ऐतिहासिक रूप से सामाजिक मानदंडों पर आधारित है और इलाज का इस्तेमाल लोगों को सही करने या उन्हें दंडित करने के लिए किया जाता था.” उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया, "महिलाओं में हिस्टीरिया का इलाज किया
जाता था. अब भी कुछ जगहों पर ऐसा किया जाता है. सामान्य तौर पर माना जाता है कि कोई भी व्यक्ति अपने जन्म के आधार पर विषमलिंगी और शारीरिक रूप से सक्षम होता है. इस व्यवस्था की वजह से चिकित्सकों ने यह नहीं समझा कि शारीरिक संरचना के बावजूद किसी का लैंगिक रुझान अलग हो सकता है. यही वजह रही कि उपलब्ध कराई जाने वाली चिकित्सा में काफी अंतर है.”
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुमान के अनुसार, 5.6 करोड़ भारतीय अवसाद से ग्रसित हैं और लगभग 3.8 करोड़ लोग चिंता से जुड़े लक्षणों से पीड़ित हैं. धीरे-धीरे भारत में मानसिक स्वास्थ्य को लेकर जागरूकता बढ़ रही है, खासकर शहरी इलाकों में. यूनिवडाटोस मार्केट इनसाइट्स के एक अध्ययन से पता चलता है कि 2022 से 2028 तक मानसिक स्वास्थ्य उद्योग हर साल 15 फीसदी की दर से बढ़ सकता है.
मानसिक स्वास्थ्य को लेकर बढ़ रही जागरूकता
30 वर्षीय श्रीराम ने अपने मनोचिकित्सक के साथ बच्चे न होने के कारणों को साझा किया. उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया, "कुछ सेशन बाद जब इस बात पर फिर से चर्चा हुई, तो उस मनोचिकित्सक ने मुझसे कहा कि मैं स्वार्थी हूं, इसलिए बच्चे नहीं चाहता. मुझे समझ नहीं आया कि उस समय मुझ पर इस बात का क्या प्रभाव पड़ा. जब मैं दूसरे चिकित्सक के पास गया तब जाकर मुझे समझ आया कि मेरा अनुभव कितना भयानक था.”
उन्होंने आगे कहा, "उस मनोचिकित्सक ने पोर्न देखने की मेरी लत को भी गंभीरता से नहीं लिया. मैं किसी को भी उसके पास जाने की सलाह नहीं दूंगा. वह अक्सर दूसरे रोगियों की कहानियां मेरे साथ साझा करती थीं. इसका मतलब यह है कि वह मेरी कहानी भी दूसरों के साथ साझा करती होंगी.”
चिन्मय मिशन अस्पताल में मनोचिकित्सक हरिनी प्रसाद ने डॉयचे वेले को बताया, "अविवाहित रहना और बच्चे न पैदा करने का फैसला लेना ऐसे विकल्प हैं जिनका चिकित्सकों को सम्मान करना चाहिए. हालांकि, अगर किसी काउंसलर को यह पता नहीं हो कि वह किसी पूर्वाग्रह से ग्रसित है और ऐसी स्थिति में किसी को परामर्श देता है, तो उसके फैसले पूर्वाग्रह से ग्रसित हो सकते हैं.”
मीडिया क्षेत्र में काम करने वाली ऋतिका ने एक वयस्क के तौर पर अटेंशन डेफिसिट हाइपरएक्टिविटी डिसऑर्डर (एडीएचडी) के लिए जांच कराने का फैसला किया. इसके लिए वह एक मानसिक स्वास्थ्य क्लिनिक में गईं. वहां व्यवहार से जुड़े लक्षणों का आकलन करने के लिए काफी महंगी जांच की गई, जिसमें काफी समय भी लगा.
हालांकि, जांच के बाद उन्हें ऐसी रिपोर्ट दी गई जिसमें उस डिसऑर्डर का जिक्र ही नहीं था. इसमें सिर्फ यह बताया गया कि उन्हें सामान्य चिंता और हल्का अवसाद था, जिसके लिए वह पहले से ही इलाज करा रही थीं और दवा ले रही थीं.
'हानिकारक' सलाह
ऋतिका ने कहा, "मैंने अपने पूरे जीवन में न्यूरोडाइवर्जेंसी के साथ संघर्ष किया है और आखिरकार जब मेरी जिंदगी पूरी तरह से प्रभावित होने लगी, तब मैंने जांच कराने का फैसला किया. हालांकि, जिस मनोचिकित्सक से मैंने परामर्श लिया उसे उस स्थिति का कोई व्यवहारिक ज्ञान ही नहीं था. इसके अलावा, इस जांच के दौरान मेरे व्यवहार का आकलन उस तरीके से करने का प्रयास किया गया जो अपमानजनक और मुझे दुखी करने वाला था.”
उन्होंने आगे कहा, "मुझे किसी से बातचीत करने में परेशानी होती थी और इस वजह से किसी के साथ ज्यादा लंबे समय के लिए मेरे बेहतर संबंध नहीं बन पाते थे. मैंने कम्युनिकेशन के क्षेत्र में काम किया है, मेरे पास बेहतर सपोर्ट सिस्टम है और दशकों से मैं अपने पार्टनर के साथ रह रही हूं. इसलिए, मुझे नहीं पता था कि वे किस आधार पर मेरा आकलन कर रहे थे. वे सिर्फ मुझसे बात करके मेरे बारे में ज्यादा जान सकते थे. उनकी जांच की प्रक्रिया न सिर्फ बेकार थी, बल्कि हानिकारक भी थी.”
जब ऋतिका ने इस बात पर सवाल उठाया कि एडीएचडी का जिक्र क्यों नहीं किया गया, तो उन्हें बताया गया कि वह इसके लिए ‘योग्य नहीं' थीं. उन्होंने कहा कि उस पूरी प्रक्रिया से वह गुस्सा हो गई.
बाद में उन्होंने किसी अन्य की सलाह पर दूसरे पेशेवर से परामर्श मांगा जिसके पास बेहतर अनुभव था. उन्होंने कहा, "अब मैं केवल उन पेशेवरों की सलाह लेती हूं जिनकी सिफारिश मेरे किसी भरोसेमंद व्यक्ति ने की हो.”
भारतीय मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम 2017 के तहत, लोगों को यह अधिकार मिलता है कि अगर उन्हें सेवाओं के दौरान किसी तरह की कमी महसूस होती है, तो वे इसकी शिकायत कर सकते हैं.
मारीवाला हेल्थ इनिशिएटिव (एमएचआई), क्वियर अफर्मेटिव काउंसलिंग प्रैक्टिस कोर्स आयोजित करता है. इसके माध्यम से इसने भारत में अब तक लगभग 500 मानसिक स्वास्थ्य पेशेवरों को प्रशिक्षित किया है. यह अपनी वेबसाइट पर उन पेशेवरों का नाम जारी करता है जिन्होंने इस पाठ्यक्रम को पूरा कर लिया है.
मारीवाला हेल्थ इनिशिएटिव की निदेशक राज मारीवाला ने डॉयचे वेले से कहा, "क्वियर, किसी जाति या दिव्यांगों के प्रति दोस्ताना व्यवहार अपनाना किसी एक पाठ्यक्रम तक सीमित नहीं है. इस क्षेत्र में काम करने वाले लोगों को दोस्ताना व्यवहार अपनाने की कोशिश करनी चाहिए. साथ ही, उन्हें खुद को नियमित तौर पर लगातार अपडेट करना चाहिए.”
जब ‘खराब चिकित्सा' की बात आती है, तो पेशेवरों का कहना है कि लोगों को इससे निराश होने की जरूरत नहीं है. चिन्मया मिशन अस्पताल की हिरानी प्रसाद कहती हैं, "क्लाइंट को यह विश्वास करना होगा कि वे चिकित्सक, काउंसलर या मनोचिकित्सक के आसपास कैसा महसूस करते हैं. एक ही व्यक्ति उन सभी के लिए काम का नहीं हो सकता जिन्हें सहायता की जरूरत है. लोगों को काउंसलर से पूछना चाहिए कि वे इलाज के लिए किन तरीकों का इस्तेमाल करते हैं और सहमति से जुड़ी उनकी नीति क्या है. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि क्लाइंट खुद को सम्मानित महसूस करें, आपकी पसंद का सम्मान किया जाता है और सम्मानजनक तरीके से बातचीत की जानी चाहिए.” (dw.com)
पेंक्रियाटिक यानी अग्न्याशय का कैंसर सबसे घातक कैंसरों में से एक है. एक नयी एमआरएनए वैक्सीन, सर्जरी के बाद ट्यूमर को फिर से उभरने से रोक सकती है.
डॉयचे वैले पर आना कार्टहाउज की रिपोर्ट-
पेंक्रियाटिक कैंसर से पीड़ित 10 में से 9 लोग दम तोड़ देते हैं. पिछले करीब 60 साल से सरवाइवल दर में कोई सुधार नहीं आया है. कोई असरदार उपचार भी बामुश्किल ही उपलब्ध है. इसीलिए थेरेपी में हर किस्म की प्रगति किसी क्रांति से कम नहीं. अभी ठीक यही हो रहा है.
अमेरिका में शोधकर्ताओं ने अग्न्याशयी कैंसर के 16 मरीजों को एमआरएनए वैक्सीन लगाई. उससे पहले उनके ट्यूमर निकाल लिए गये थे. 18 महीने की ट्रायल अवधि के अंत में, आधे मरीजों में बीमारी दोबारा नहीं हुई. सर्जरी के कुछ ही महीनों में लौट आने वाली कैंसर जैसी बीमारी के उपचार में ये प्रयोग एक बड़ी कामयाबी है.
चिकित्सा विज्ञान की दुनिया में चमत्कार कम ही होते हैं. इस मामले में पेंक्रियाटिक कैंसर के विशेषज्ञ कुछ ज्यादा ही उत्हासित हैं. हाइडलबर्ग में जर्मन कैंसर शोध केंद्र में ट्यूमर इम्युनोलॉजिस्ट नील्स हलामा ने ताजा घटनाक्रम को "अद्भुत" और "अप्रत्याशित" समाचार बताया. उल्म स्थित ग्रैस्टोएंट्रोलॉजिस्ट थोमास ज्युफरलाइन ने इसे "पूरी तरह से नयी पद्धति वाली" एक निर्णायक सफलता करार दिया. उनके सहकर्मी अलेक्सांद्र क्लेगर ने इसे चिकित्सा क्षेत्र में क्रांति लाने वाला एक "बड़ा कदम" बताया.
सिर्फ 16 मरीजों पर किए गए इस अध्ययन के निष्कर्ष नेचर पत्रिका में प्रकाशित किए गए. अध्ययन का दायरा छोटा था. लेकिन सबसे घातक और लगभग लाइलाज कैंसरों में से एक के उपचार में एमआरएनए टेक्नोलॉजी के सफल उपयोग का यह पहला उदाहरण है. मरीजों के ट्यूमरों के लिहाज से ढले कैंसर के टीकों को बनाने में सालों की कोशिश के बाद यह निर्णायक सफलता भी है.
अध्ययन के दौरान क्या हुआ?
न्यूयॉर्क स्थित मेमोरियल स्लोन केटरिंग कैंसर सेंटर में, मरीजों के ट्यूमर यानी रसौलियां निकालकर जर्मनी भेजे गये. बायोनटेक नाम की कंपनी ने ट्यूमर के टिश्यू के जीनोम की सीक्वेंसिंग की और उनमें, तथाकथित नियोएंटीजन के म्युटेशनों की मौजदूगी के लिए जांच की गई.
इसके बाद, हर मरीज के लिए लक्षित नियोएंटीजन के एक चयन को कम्पाइल किया गया. सालों की रिसर्च पर आधारित ये काफी पेचीदा प्रक्रिया है. फिर इससे एमआरएनए वैक्सीन पैदा की गई. कोविड-19 की एमआरएनए वैक्सीन की तरह लक्ष्य था इन नियोएंटीजन संरचनाओं के खिलाफ एक प्रतिरोधी प्रतिक्रिया पैदा करने का.
अग्न्याशय में प्राइमरी ट्यूमर को सर्जरी से निकालने के नौ हफ्ते बाद पहली बार मरीजों को टीका लगाया गया. इसके अलावा, मरीजों को कीमोथेरेपी भी दी गई. चेकपॉइंट इनहिबिटर्स (कैंसर को प्रतिरोध प्रणाली बंद करने से रोकने वाले मॉलीक्यूल) भी लगाये गये.
इम्यून रिस्पॉन्स दिखाने वाले आठ मरीजों में, अध्ययन के अंत तक ट्यूमर लौट कर नहीं आया. दूसरे आठ मरीजों में प्रतिरोध प्रणाली ने काम नहीं किया. उनका कैंसर लौट आया.
माउंट सिनाई में न्यूयार्क के इकाह्न स्कूल ऑफ मेडेसिन में कैंसर इम्युनोलॉजी की शोधकर्ता नीना भारद्वाज ने कहा, "मैं इस तथ्य को लेकर काफी उत्साहित हूं कि प्रतिरोध कायम करने और ज्यादा लंबे समय तक के बचाव के शुरुआती संकेत के बीच एक स्पष्ट सहसंबंध मिला है." उनके मुताबिक ज्यादा व्यापक और बड़े क्लिनिकल ट्रायलों के जरिए निष्कर्षों की पुष्टि किये जाने की जरूरत है.
पेंक्रियाटिक कैंसर इतना घातक क्यों है?
पेंक्रियाज यानी अग्न्याशय, पेट के भीतर गहराई में मौजूद एक छोटा सा अंग है. वहां पनपने वाला कैरकीनोमा दुनिया भर में कैंसर से होने वाली मौत की प्रमुख वजहों में से एक है. मुख्य समस्या ये है कि पेंक्रियाटिक कैंसर का पता बहुत आखिरी अवस्था में चल पाता है. शुरू में शिनाख्त का कोई तरीका नहीं है, और कैंसर के असामान्य रूप से बड़ा होने या दूसरे अंगों में फैलने से पहले, मरीजों में कोई लक्षण भी नहीं नजर आते. रसौली को सर्जरी से निकालना भले ही संभव है लेकिन वो अक्सर फिर से पनप उठती है.
थेरेपी को जटिल बनाने वाली दूसरी चीज ये है कि कैंसर लगातार बदलता रहता है. वो न सिर्फ पर्यावरण को बदलता है बल्कि खुद भी पर्यावरण से बदल जाता है. नतीजतन, दो पेंक्रियाटिक कैंसर ऐसे जैसे नहीं होते. यह चीज उपचार को खासतौर पर कठिन बना देती है.
अलेक्सांद्र क्लेगर कहते हैं, "हर पेंक्रियाटिक कैंसर अपने स्तर पर एक अलग बीमारी जैसा है." थोमास ज्युफलेन समझाते हैं कि "इसीलिए हर कैंसर के ट्यूमर के लिए आप एक व्यक्तिनिष्ठ थेरेपी तैयार करना चाहते हैं."
टीके की करामात से हैरान वैज्ञानिक
टीकों की मदद से कैंसर के खिलाफ लड़ाई का विचार नया नहीं है. 2010 में प्रोस्टेट कैंसर के खिलाफ वैक्सीन को अमेरिका में मंजूरी मिल गई थी. पिछले कुछ समय से कैंसर की एमआरएनए वैक्सीनों पर रिसर्च भी जारी है. हाल ही में, मॉडर्ना और मर्क कंपनियों की बनायी एक एमआरएनए वैक्सीन, हाई-रिस्क मेलानोमा के इलाज में सफल रही है.
फिर भी कई वैज्ञानिक ये उम्मीद नहीं करते थे कि पेंक्रियाटिक कैंसर के खिलाफ कोई वैक्सीन काम कर जाएगी. ये कैंसर आखिरकार "कोल्ड ट्यूमर" यानी "ठंडा निष्प्राण ट्यूमर" के रूप में श्रेणीबद्ध है. मतलब ये एक मजबूत प्रतिरोधी प्रतिक्रिया नहीं दिखाता और इसीलिए प्रतिरोध प्रणाली के खिलाफ बेहतर ढंग से छिपा रहता है. कोल्ड ट्यूमर आमतौर पर इम्युनोथेरेपी पर प्रतिक्रिया नहीं देते.
पेन्सिलवेनिया यूनिवर्सिटी में इम्युनोलजिस्ट ड्रियू वाइजमान कहते हैं, "मुझे पता है कि अलग अलग किस्म के कैंसरों की तलाश की जा रही थी कि किस पर ये वैक्सीन असर करेगी. मुझे हैरानी है कि पेंक्रियाटिक कैंसर पर इसने इतना बढ़िया काम कर दिखाया."
सचेत आशावाद- और कई अनसुलझे सवाल
तमाम शुरुआती उत्साह के बावजूद, थोड़ी सावधानी और सजगता बरतना भी जरूरी है. अध्ययन का आकार छोटा था. सिर्फ 16 मरीज थे. 18 महीने पर्यवेक्षण की अवधि भी छोटी थी. इसे कंट्रोल ग्रुप के बिना भी अंजाम दिया गया था. यानी उस तुलना समूह के बिना जिसे सिर्फ सर्जरी, कीमोथेरेपी और चेकपॉइंट इनहिबिटर दिया गया था. इसीलिए टीकाकरण के असर को मापना मुश्किल है और पहले के थेरेपी तरीकों से तुलना भी मुश्किल है. हर मरीज को एक टेलर-मेड वैक्सीन दी गई थी- ये तथ्य भी अध्ययन के नतीजों का एक तुलनात्मक आकलन कर पाने में मुश्किलें खड़ी करता है.
यह अभी भी अस्पष्ट है कि टीका सिर्फ आधे मरीजो में ही क्यों कैंसर के खिलाफ प्रतिरोध पैदा कर पाया या भविष्य में नियोएंटीजन का चयन किया जा सकता है या नहीं या कैसे किया जा सकता है. दिलचस्प बात है कि उसी अवधि के दौरान कोविड-9 के खिलाफ दी गई एमआरएनए वैक्सीन ने सभी मरीजों में प्रतिरोध विकसित कर दिया. ये इस बात का संकेत था कि नियोएंटीजन के प्रति उनकी प्रतिक्रिया किसी भी रूप में बाधित या क्षतिग्रस्त नहीं थी.
यह भी अस्पष्ट है कि टीकाकरण से उन मरीजों को मदद मिलती है या नहीं जिनके ट्यूमर पहले से इतने बढ़े हुए होते हैं कि उनका ऑपरेशन हो ही नहीं सकता. अध्ययन में सिर्फ वे मरीज शामिल किए गए थे जिनके ट्यूमर निकाले जा सकते थे.
नीना भारद्वाज कहती हैं, "बीमारी की उच्च अवस्था में, मेरे ख्याल से स्थिति अलग होती है. प्रतिरोध को दबाने वाले बहुत सारे फैक्टर पहले ही सक्रिय हो चुके होते हैं. और अगर आप एक सही प्रतिरोध प्रतिक्रिया पैदा करते हैं, सही कोशिकाएं ट्यूमर में डाल पाते हैं- इस मामले में टी सेल्स- तो ये अपने आप में मुश्किल हो सकता है. ये एक बड़ा मोटा ट्यूमर है."
इसी वजह से, टीकाकरण अपने आप में एक अपर्याप्त उपचार साबित हो सकता है. लेकिन विशेषज्ञ जोर देते हैं कि माना जा सकता है कि इसे एक पूरक थेरेपी के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है, जैसे कि मेटास्टेटिक अवस्था में.
एमआरएनए टीका- इलाज में क्रांति?
इस अवस्था में दूसरे बहुत से व्यवहारिक सवाल भी सामने आ जाते हैं. मसनल, प्रक्रिया को कितना तेज बनाया जा सकता है? एक बार स्थापित हो गई तो वैक्सीन कितनी महंगी होगी? बायोएनटेक के संस्थापक उगुर साहिन ने न्यूयॉर्क टाइम्स को बताया कि पिछले कुछ साल में कंपनी उत्पादन समय को छह सप्ताह से कम रखने में समर्थ रही है और उत्पादन का खर्च प्रति उपचार 350,000 डॉलर से 100,000 डॉलर कर पाई है. ट्यूमर इम्युनोलजिस्ट नील्स हलामा का कहना है, "इस पैमाने पर क्लिनिकल एप्लीकेशन के साथ हम मान सकते हैं कि आगे चलकर और अवसर आएंगे और कीमतों में और कटौती हो पाएगी."
ये सवाल भी है कि क्या ये प्रक्रिया, जिसे जानकार बड़ा ही पेचीदा बताते हैं, विशेषीकृत केंद्रों के बाहर स्थापित की जा सकती है या नहीं. ड्रियू वाइजमान कहते हैं, "ये वो वैक्सीन है जिसे अभी शायद दुनिया में दो या तीन कारगर केंद्रों की दरकार है. लेकिन अंततः हम ऐसी वैक्सीन चाहते हैं जो पूरी दुनिया में इस्तेमाल की जा सके."
इस बारे में अभी काफी कुछ किया जाना बाकी है. कई सवालों के जवाब अभी नहीं मिले हैं. ड्रियु वाइजमान के मुताबिक अभी के लिए, ट्रायल एंड एरर यानी कोशिश और गलती वाला तरीका ही काम का नजर आता है. उन्हें यकीन है कि सारे कैंसर आरएनए वैक्सीन से नहीं जाने वाले. लिहाजा ये तरीका शायद अभी एक क्रांति न कहलाए लेकिन पेंक्रियाटिक कैंसर के मौजूदा उपचार में आमूलचूल बदलाव के लिए एक अहम अगला कदम जरूर साबित हो सकता है. (dw.com)
मरने के बाद क्या होता है? यह सवाल विज्ञान जगत के लिए आज भी अनबूझ पहेली है. लेकिन कुछ वैज्ञानिकों ने इस बारे में नई जानकारियां हासिल की हैं.
जो लोग मौत के बहुत करीब तक पहुंचकर लौटे हैं, वे अक्सर बताते हैं कि उन्हें कुछ अविश्वसनीय अनुभव हुए. कई लोग कहते हैं कि उन्हें एक सुरंग नजर आई, जिसके दूसरी तरफ रोशनी की किरण थी. कुछ लोगों को अपने ही शरीर के बाहर हवा में तैरने का अनुभव हुआ तो कुछ को वे करीबी लोग दिखाई दिए, जिनकी पहले मौत हो चुकी है. एक अनुभव अपनी जिंदगी की घटनाओं को सिनेमा के पर्दे की तरह देखने का भी बताया जाता है.
इन कहानियों में इतनी समानताएं हैं और ये इतने विविध लोगों द्वारा सुनाई गई हैं कि विशेषज्ञ मानते हैं कि इस तरह के अनुभव का कोई शारीरिक या मस्तिष्क में मौजूद कारण हो सकता है, जिसे विज्ञान अभी तक खोज नहीं पाया है.
सोमवार को ‘प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल अकैडमी ऑफ साइंस' पत्रिका में एक शोध पत्र प्रकाशित हुआ है, जिसमें मिशिगन यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने ऐसे अनुभवों का कारण खोजने की कोशिश की है. उन्होंने मरते हुए मरीजों के अध्ययन में पाया कि उस वक्त मस्तिष्क में गतिविधियां बहुत तेज हो गई थीं, जिनका संबंध चेतना से था.
कई नई जानकारियां
यह अपनी तरह का पहला शोध नहीं है लेकिन मुख्य शोधकर्ता जीमो बोरिजिन कहती हैं कि इस बार जो बारीक जानकारियां मिली हैं, वे पहले कभी नहीं मिलीं. बोरिजिन की प्रयोगशाला चेतना के न्यूरोबायोलॉजिकल आधार को समझने पर काम कर रही है.
वैज्ञानिकों के इस दल ने चार ऐसे लोगों के रिकॉर्ड्स का अध्ययन किया जिनकी मौत ईईजी के दौरान हुई थी यानी तब उनकी धड़कनों को दर्ज किया जा रहा था. ये चारों मरीज अपनी मौत से पहले कोमा में थे और डॉक्टरों के सुझाव पर इनका लाइफ सपोर्ट सिस्टम हटा लिया गया था.
जब वेंटिलेटर हटाए गए तो चार में से दो मरीजों के दिलों की धड़कनें तेज हो गईं और मस्तिष्क में गतिविधियां बढ़ गईं. 24 और 77 साल की इन महिलाओं के मस्तिष्क में गामा फ्रीक्वेंसी की लहरें उठीं, जो मस्तिष्क में सबसे तेज गतिविधि होती है और जिसे चेतना से जोड़ा जाता है.
पहले हुए अध्ययनों में भी मरने से ठीक पहले व्यक्ति के मस्तिष्क में गामा किरणों की गतिविधि देखी गई है. 2022 में 87 वर्षीय एक व्यक्ति की मौत गिरने से हुई थी और उसके मस्तिष्क में भी ठीक ऐसी ही गतिविधियां दर्ज की गई थीं.
क्या देखा-सुना
मिशिगन विश्वविद्यालय के शोधकर्ता इन गतिविधियों की गहराई में गए. उन्होंने जानना चाहा कि इस दौरान मस्तिष्क के किन हिस्सों में सक्रियता सबसे ज्यादा रही. शोधकर्ताओं ने पाया कि मस्तिष्क के उन हिस्सों में सक्रियता सबसे ज्यादा थी, जिन्हें चेतना से जुड़ा माना जाता है. इनमें पोस्टीरियर कॉर्टिकल हॉट जोन यानी कान के पीछे का हिस्सा शामिल था.
बोरिजिन कहती हैं, "इस हिस्से में सक्रियता इतनी ज्यादा थी जैसे आग लगी हुई हो. यह मस्तिष्क का वो हिस्सा है जो अगर सक्रिय होता है तो उसका अर्थ है कि मरीज कुछ देख-सुन रहा है और शरीर में संवेदनाओं को भी महसूस कर सकता है.”
मरीजों की मौत तक आखिरी कुछ घंटों में मस्तिष्क और दिल की गतिविधियों पर पल-पल की निगरानी रखी गई थी जिससे विश्लेषण को और गहराई मिली. वैज्ञानिक अभी इस बात का जवाब देने की स्थिति में नहीं हैं कि ये गतिविधियां सिर्फ दो मरीजों के अंदर हुईं और दो अन्य मरीजों में क्यों नहीं हुईं. लेकिन बोरिजिन का अनुमान है कि इन मरीजों को दौरा पड़ने की समस्या रही थी, जिसका कोई असर रहा हो सकता है.
हालांकि विशेषज्ञ मानते हैं कि किसी निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए यह सैंपल साइज बहुत छोटा है. और यह जानना भी संभव नहीं है कि मरीजों ने वाकई उस दौरान कुछ देखा, सुना. बोरिजिन उम्मीद करती हैं कि आने वाले समय में इसी तरह का सैकड़ों लोगों का डेटा उपलब्ध होगा, जिससे मृत्यु को और गहराई से समझा जा सकेगा.
वीके/सीके (एएफपी)
लग्नराशि पर आधारित कलाशांति ज्योतिष साप्ताहिक राशिफल में जानिए, आपका पारिवारिक जीवन, आर्थिक दशा, स्वास्थ्य व कार्यक्षेत्र में आपकी स्थिति इस सप्ताह कैसी रहेगी और यह भी कि इस सप्ताह आपको क्या-कुछ मिलने वाला है, आपके लिए क्या-क्या करना फायदेमंद रहेगा और परेशानियों से बचने के लिए आपको कौन-कौन सी सावधानियां बरतनी चाहिए। मेष लग्नराशि : इस सप्ताह मन में कोई अनजाना डर बना रह सकता है। लाभ को लेकर स्तिथियां आपके पक्ष में रहेंगी। दैनिक बोलचाल मे अपनी वाणी पर संयम बरतें। बड़े भाइयों का सहयोग मिलने से लाभ की स्थिति उत्पन्न हो सकती है तथा उनको भी लाभ प्राप्त होगा। धार्मिक कार्यो में खर्च हो सकता है। संतान पक्ष से खुशखबरी मिल सकती है। कार्यक्षेत्र में स्थिति सामान्य रहेगी।
वृषभ लग्नराशि : इस सप्ताह में भाई-बहनों के मध्य मतभेद उत्पन्न हो सकते हैं। स्वास्थ्य को लेकर परेशानी रह सकती हैं। नौकरी में बदलाव हो सकते हैं तथा प्रमोशन प्राप्त हो सकता है। आलस्य में वृद्धि होने से कार्य समय से पूर्ण न हो पाने से मन व्यथित हो सकता है। माता-पिता का सहयोग प्राप्त होगा। यात्राओं के योग बनेंगे। जातकों के प्रेम प्रसंग विवाह में तब्दील हो सकते हैं।
मिथुन लग्नराशि : इस सप्ताह में अनेक प्रकार के लाभों की प्राप्ति हो सकती है। पराक्रम में वृद्धि होगी तथा समाज में मान-सम्मान में वृद्धि होगी। वाणी पर संयम रखें अन्यथा बनते कार्य बिगड़ सकते हैं। दांतो में तकलीफ उत्पन्न हो सकती है, सचेत रहें। पति-पत्नी तथा व्यापारिक साझेदारों के मध्य मतभेद की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। माता को तकलीफ रह सकती है। नौकरी में स्थिति सामान्य रहेगी।
कर्क लग्नराशि : इस सप्ताह धन को लेकर आर्थिक स्थिति अच्छी बनी रहेगी। मानसिक तनाव बना रह सकता है। स्वास्थ्य को लेकर चिंतित हो सकते हैं। सिरदर्द की समस्या हो सकती है। नौकरी कर रहे जातकों के लिए हफ्ता अच्छा रहेगा। नयी जॉब प्राप्त हो सकती है। वैवाहिक जीवन में कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है। हफ्ते का अंत मानसिक राहत प्रदान करेगा।
सिंह लग्नराशि : इस सप्ताह खचरे में वृद्धि हो सकती है, कुछ व्यर्थ के खर्चे भी संभव हैं। खचरें के हिसाब से धन का आगमन भी होगा। लाभ के नए रास्ते मिलेंगे। हफ्ते के मध्य में संतान तथा शिक्षा के क्षेत्र में कुछ परेशानी मिल सकती है। भाग्य का साथ मिलेगा, नयी नौकरी के ऑफर मिल सकते हैं। पारिवारिक माहौल खुशनुमा बना रहेगा। यात्राओं के योग बन रहे हैं।
कन्या लग्नराशि : इस सप्ताह आलस्य के होने से कार्य धीमी गति से पूर्ण होंगे। स्वास्थ्य के लिहाज से रक्त से सम्बंधित कोई परेशानी हो सकती है। भवन तथा वाहन में खर्च कर सकते है। सरकारी कार्य हेतु यात्रा पर जा सकते हैं। छात्रों को पढ़ाई के क्षेत्र में परेशानी मिल सकती है। इस हफ्ते मन विचलित बना रहेगा। सकारात्मक सोच के साथ कार्यों को करें। माता के सुख में कमी आएगी तथा उनके स्वास्थ्य का ध्यान रखें।
तुला लग्नराशि : इस सप्ताह लाभ की नई स्तिथियां उतप्न्न होंगी। छात्रों को अपने परिश्रम का अच्छा फल मिलेगा। संतान की और से शुभ समाचार प्राप्त होंगे, पारवारिक माहौल अच्छा बना रहेगा। माता को कष्ट हो सकता है, ध्यान रखें। नौकरी कर रहे जातकों को अधिक परिश्रम करना पड़ सकता है। अधिक कार्य होने से मन व्यथित हो सकता है। पति-पत्नी के मध्य स्थिति सामान्य बनी रहेगी।
वृश्चिक लग्नराशि : इस सप्ताह लाभ कम तथा खचरें की अधिकता हो सकती है। नौकरी के लिए किये गए प्रयासों में सफलता मिल सकती है। उच्च अधिकारियो से तालमेल अच्छा बना रहेगा तथा उनके सहयोग से कार्य समय से पूर्व संपन्न हो सकते हैं। वाणी की कटुता से काम बिगड़ सकते हैं, सचेत रहें। बड़े भाई से मतभेद हो सकते हैं। नकारत्मक विचारों के चलते परेशान हो सकते है।
धनु लग्नराशि : इस सप्ताह भाग्य का साथ होने से आपके सभी कार्य पूर्ण होते रहेंगे। अचानक धन लाभ की प्राप्ति हो सकती है। विदेश यात्रा के योग बनेंगे। मान-सम्मान में कमी होगी। वैवाहिक जीवन में परेशानियां आ सकती हैं। छात्रों के लिए ये हफ्ता बहुत अच्छा व्यतीत होगा। वे अपने सभी कार्य सरलता से पूर्ण करेंगे। दादा तथा पिता को कष्ट हो सकता है, तनाव लेने से बचें।
मकर लग्नराशि : इस सप्ताह मानसिक तनाव बड़ सकते हैं। बायीं आंख में परेशानी हो सकती है। अनचाही यात्रा हो सकती है। क्रोध के चलते कार्य बिगड़ सकते हैं। खचरें में अधिकता रहेगी। जीवनसाथी के ऊपर किसी प्रकार का खर्चा हो सकता है। नौकरी में स्थिति सामान्य रहेगी, कार्य का बोझ अधिक हो सकता है। हफ्ते के अंतिम दिनों में स्थितियां सामान्य होंगी, तथा लाभ प्राप्त होगा।
कुंभ लग्नराशि : इस सप्ताह भाई तथा मित्रों से बहसबाजी हो सकती है, बचाव करें। वाहन चलाते समय सावधानी बरतें। यात्राओं के कारण शारीरिक परेशानियां हो सकती हैं। धन की स्थिति ठीक रहेगी, जिन लाभों के बारे में सोचा था, वे हफ्ते के अंत तक हो सकते हैं। पारिवारिक जीवन अच्छा चलेगा। कार्यक्षेत्र में कार्यों की अधिकता हो सकती है। संतान को शारीरिक कष्ट हो सकता है।
मीन लग्नराशि : इस सप्ताह नौकरी कर रहे जातकों को उच्च अधिकारियों से तनाव मिल सकता है। सहकर्मियों का सहयोग अल्प मात्रा में मिल सकता है। पिता से मतभेद हो सकते हैं। कोई आपको नीचा दिखाने की कोशिश कर सकता है। छात्रों को परिश्रम अनुसार फल की प्राप्ति में कमी होगी। संतान पक्ष से तकलीफ मिल सकती है। किसी भी प्रकार का निवेश करने से बचें।
(ज्योतिषी विशाल वाष्र्णेय कलाशांति ज्योतिष के संस्थापक हैं। यह साप्ताहिक राशिफल आपकी लग्नराशि के आधार पर आधारित है। ये समस्त राशिफल सामान्य हैं। किसी भी निश्चित परिणाम पर पहुंचने के लिए ज्योतिषी से दशा-अंतर्दशा और जन्मपत्री का पूर्ण रूप से अध्ययन कराना उचित रहता है।)
कोई काम जो नुकसान पहुंचाता हो, उसे कोई इंसान बार-बार क्यों करता है? यह मानव मन की ऐसी गुत्थी है जिसे मनोवैज्ञानिक बरसों से समझने की कोशिश कर रहे हैं. ऑस्ट्रेलिया के वैज्ञानिकों ने कुछ जवाब खोजे हैं.
डॉयचे वैले पर विवेक कुमार की रिपोर्ट-
रात को बहुत ज्यादा शराब पीने के बाद सुबह सिर दर्द के साथ उठते लोग अक्सर कहते या कम से कम सोचते हैं कि वे दोबारा ऐसा नहीं करेंगे. लेकिन यह बात बेमायने होती है क्योंकि वे ऐसा फिर करते हैं. लेकिन क्यों? अगर लोगों को पता है कि कोई चीज या काम उनके लिए हानिकारक है तो वे क्यों अपने आपको दोहराते हैं? ऑस्ट्रेलिया के मनोविज्ञानियों ने इस सवाल का जवाब खोजने की कोशिश की है.
ऑस्ट्रेलिया के न्यू साउथ वेल्स यूनिवर्सिटी और वेस्टर्न सिडनी यूनिवर्सिटी के मनोवैज्ञानिकों ने इस बात पर शोध किया है कि जो लोग हानिकारक व्यवहार को दोहराते हैं, वे ऐसा क्यों करते हैं. प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल अकैडमी ऑफ साइंसेज (पीएनएएस) में छपा यह शोध बताता है कि जो लोग बार-बार गलतियां करते हैं, उनकी खुद को बदलने की इच्छा में कोई कमी नहीं होती बल्कि वे अपने अनुभवों से जो सीखते हैं, उसका सही कारण समझने की कमी के कारण वे उन्हीं अनुभवों को दोहराते हैं.
कैसे हुआ शोध?
सवाल का जवाब जानने के लिए वैज्ञानिकों ने एक प्रयोग किया. उन्होंने कुछ इच्छुक युवाओं को एक साधारण वीडियो गेम खेलने के लिए बुलाया. यह वीडियो गेम ब्रह्मांड में मौजूद अलग-अलग मायावी ग्रहों पर आधारित था. खेलने वालों को दो ग्रहों पर क्लिक करना था जिसके बदले उन्हें अंक मिलते. इन अंकों के आधार पर उन्हें पैसे मिलने थे.
लेकिन वैज्ञानिकों ने प्रयोग में शामिल युवाओं को यह नहीं बताया था कि जब भी वे किसी ग्रह पर क्लिक करते, तो कुछ नए स्पेसशिप पैदा हो जाते. एक ग्रह पर क्लिक करने से जो स्पेसशिप पैदा हो रहे थे वे उनके अंकों को चुरा सकते थे जबकि दूसरे ग्रह पर क्लिक करने से पैदा होने वाले यान कोई नुकसान नहीं पहुंचाते.
जिन युवाओं ने गेम में अच्छा प्रदर्शन किया, उन्हें वैज्ञानिकों ने संवेदनशील का नाम दिया. ये वे लोग थे जिन्होंने बुरे ग्रह और उस पर क्लिक करने की वजह से पैदा हो रहे पाइरेट शिप में संबंध को समझ लिया था और अपने व्यवहार में बदलाव करके उस बुरे ग्रह पर क्लिक करने से परहेज किया.
लेकिन वैज्ञानिकों ने पाया कि कई दौर खेले जाने के बाद भी ऐसे लोग थे जो पाइरेट शिप और बुरे ग्रह में संबंध को समझ नहीं पाए थे और नुकसान के बावजूद बार-बार बुरे ग्रह पर क्लिक किए जा रहे थे. जब उन्हें यह संबंध समझाया गया तो ज्यादातर लोगों ने अपना व्यवहार बदल लिया और बुरे ग्रह पर क्लिक करने से परहेज किया. लेकिन वैज्ञानिकों को हैरत इस बात से हुई कि समझाए जाने के बावजूद कुछ लोगों ने बुरे ग्रह पर क्लिक करना बंद नहीं किया.
क्या पता चला?
मुख्य शोधकर्ता डॉ. फिलिप ज्याँ-रिचर्ड-डिट-ब्रेसेल लिखते हैं, "हम इसी वीडियो गेम के जरिए अब तक हुए शोधों के आधार पर यह जानते हैं कि बहुत से लोग इस बात को समझने में नाकाम रहते हैं कि उनके व्यवहार का असर नतीजों पर पड़ रहा है. लेकिन हमारे प्रयोग ने यह पाया कि समझाए जाने के बाद कुछ लोगों का व्यवहार बदल गया लेकिन तब भी ऐसे लोग थे जो अपने व्यवहार में कोई बदलाव नहीं कर पाए थे.”
ऐसे लोगों को वैज्ञानिकों ने कंपल्सिव नाम दिया. शोध में शामिल बिहेवियरल न्यूरोसाइंटिस्ट प्रोफेसर गैवन मैकनैली कहते हैं कि इस प्रयोग को समग्र रूप में देखा जाना चाहिए क्योंकि असल जिंदगी में लोग आमतौर पर इससे ज्यादा लचीले होते हैं. वह कहते हैं कि उनका शोध इस बात पर रोशनी डालता है कि मस्तिष्क के अंदर ऐसी परिस्थितियों में क्या चल रहा होता है.
अब तक खुद को नुकसान पहुंचाने वाले व्यवहार की दो व्याख्याएं उपलब्ध हैं. एक कहती है कि नशीली दवाओं या जुए की लत जैसी आदतों में लोग अपने किए को बाकी सबसे ऊपर समझते हैं इसलिए नुकसान के बावजूद उसे करते जाते हैं. एक और व्याख्या यह है कि उनकी आदत उनके नियंत्रण या समझ से बाहर की चीज होती है.
प्रोफेसर मैकनली कहते हैं, "हम यह दिखा रहे हैं कि उनका व्यवहार के लिए जागरूकता की कमी या नैतिक मूल्यों में कमी जिम्मेदार नहीं है बल्कि वे यह समझ ही नहीं पाते हैं कि उनकी हरकतें उन्हें नुकसान पहुंचा रही हैं. इसे यूं समझ सकते हैं कि वे अनुभवों से गलत बात ही सीखते हैं.” (dw.com)
लग्नराशि पर आधारित कलाशांति ज्योतिष साप्ताहिक राशिफल में जानिए, आपका पारिवारिक जीवन, आर्थिक दशा, स्वास्थ्य व कार्यक्षेत्र में आपकी स्थिति इस सप्ताह कैसी रहेगी और यह भी कि इस सप्ताह आपको क्या-कुछ मिलने वाला है, आपके लिए क्या-क्या करना फायदेमंद रहेगा और परेशानियों से बचने के लिए आपको कौन-कौन सी सावधानियां बरतनी चाहिए। मेष लग्नराशि: हफ्ते की शुरुआत अच्छी होगी। किये जा रहे प्रयासों में सफलता मिलने के संकेत है। नौकरी कर रहे जातकों को कार्यस्थल में थोड़ी परेशानी हो सकती है। हफ्ते के मध्य में स्वास्थ्य बिगड़ सकता है। किसी से भी बहसबाजी से बचें। प्रेम सम्बन्धों के लिए ये हफ्ता मिलाजुला रहने वाला है। आसपास की किसी यात्रा का योग बन सकता है। खर्चा थोड़ा बढ़ सकता है। किसी के द्वारा दिया गया व्यापारिक सुझाव आपको फायदा दे सकता है।
वृषभ लग्नराशि: सुखो मैं वृद्धि के योग है। अपने रहन सहन पर खर्च कर सकते है। नौकरी तथा व्यापार मैं स्तिथि अच्छी बनी रहेगी। किसी भी कार्य को जल्दबाजी से करने से बचे। पारिवारिक माहौल अच्छा बना रहेगा। पुराने लोगो से मुलाकात हो सकती है। ये हफ्ता विद्यार्थी वर्ग के लिए बहुत अच्छा जायेगा। स्वास्थ्य के प्रति लापरवाही न बरते। मन ना होने पर भी किसी यात्रा पर जाना पड सकता है।
मिथुन लग्नराशि : इस हफ्ते आप अपने स्वास्थ्य पर ज्यादा ध्यान देंगे। नौकरी तथा व्यापार की तलाश में भटक रहे लोगो को शुभ अवसर प्राप्त हो सकते हैं। उधार दिया पैसा वापस मिल सकता है। परिवार के साथ घूमने का प्रोग्राम बना सकते है। वार्तालाप करते समय शब्दों का ध्यान रखें। अन्यथा बनते काम बिगड़ सकते हैं। बुजुर्ग लोगों और सरकारी कार्यों में अड़चन आ सकती है।
कर्क लग्नराशि: हफ्ते की शुरुआत से ही लाभ के योग बनेंगे। बैंकों तथा किसी पॉलिसी से लाभ मिलने के योग हैं। इस हफ्ते आपको स्वास्थ्य पर बहुत ध्यान देना पड़ सकता है। पति पत्नी और व्यापारिक साझेदारों के मध्य मनमुटाव की स्तिथि उत्पन्न हो सकती है। नौकरी कर रहे लोगो को उच्च अधिकारियो का साथ न मिलने से मन खिन्न हो सकता है। माता तथा भूमि से आपको लाभ संभव है।
सिंह लग्नराशि: हफ्ते की शुरुआत में स्वास्थ्य से सम्बंधित कोई विकार परेशान कर सकता है। खचरें में वृद्धि से आर्थिक पक्ष कमजोर बन सकता है। कार्य के सिलसिले में व्यर्थ की भागदौड़ परेशान कर सकती है। इस हफ्ते विदेश यात्रा के योग भी बनेंगे। हफ्ते के मध्य भाग से आर्थिक पक्ष मजबूत हो सकता है तथा व्यवसाय में लाभ सम्भव है। पारिवारिक लोगों का साथ रहने से कई परेशानियों पर विजय प्राप्त करेंगे।
कन्या लग्नराशि: हफ्ते की शुरुआत में आप अपने अटके हुए कार्यों को पूरा करने में समय देंगे। भावनाओं में बहकर कोई भी कार्य न करें अन्यथा नुकसान हो सकता है। लाभ की स्तिथि बनी रहेगी। पारिवारिक वातावरण अच्छा बना रहेगा। विद्यार्थी वर्ग को थोड़ी परेशानी हो सकती है। माता की तबीयत बिगड़ सकती है। अचानक कोई लाभ होने से मन खुश होगा।
तुला लग्नराशि: हफ्ते की शुरुआत से ही आप अपने रुके हुए कार्यों में गति देने के लिए ध्यान केंद्रित कर सकते हैं। भाइयों का भरपूर सहयोग प्राप्त होगा। नौकरी तथा व्यवसाय में आपका रुतबा बढ़ेगा और नौकरी में पदोन्नति भी सम्भव है। आर्थिक स्थिति सामान्य बनी रहेगी और लाभ की स्थिति बनेगी। जीवनसाथी तथा संतान के साथ खुशियों भरा समय व्यतीत करेंगे।
वृश्चिक लग्नराशि: हफ्ते की शुरुआत में आप अपने कार्य पर बहुत ध्यान देंगे। स्वास्थ्य अच्छा रहेगा। सहकर्मियों का भरपूर साथ मिलेगा। भाइयो का साथ देंगे तथा उनके कार्यो में मदद भी करेंगे। अचानक लाभ की स्तिथि बनी रहेगी। खचरें में बढ़ोतरी हो सकती है। कार्यक्षेत्र में आपका लोगों से मिलना जुलना बढ़ेगा। पारिवारिक जीवन मधुरता बाला रहेगा। शत्रुओं पर विजय प्राप्त होगी।
धनु लग्नराशि: इस हफ्ते किये जा रहे प्रयासों में सफलता मिलेगी। भाग्य का साथ मिलेगा। मान सम्मान में वृद्धि के योग है। पिता तथा सरकारी कार्यों में अवरोध आ सकते हैं। पूजा पाठ में ध्यान बढ़ सकता है। आर्थिक स्तिथि में वृद्धि के योग हैं। यात्राएं लाभकारी सिद्ध होंगी। नौकरी कर रहे जातकों को उच्च अधिकारियो द्वारा प्रसंशा प्राप्त होगी। माता की सेवा कर सकते हैं।
मकर लग्नराशि: इस हफ्ते स्वास्थ्य को लेकर चिंता रह सकती है। यात्राओं के बनेंगे जो शारीरिक और मानसिक रूप से थकाने वाली हो सकती है। व्यर्थ के वातार्लाप से दूर रहें अन्यथा मानसिक अशांति उत्पन्न हो सकती है। कार्यक्षेत्र में सहकर्मियों का सहयोग मिलेगा। आर्थिक स्तिथि में सुधार होगा तथा खर्चा भी बहुत रहेगा। पति पत्नी तथा संतान के मध्य तालमेल बिगड़ सकता है। किसी के द्वारा गिफ्ट प्राप्त हो सकता है।
कुंभ लग्नराशि: इस हफ्ते आप कई कार्यो में व्यस्त रह सकते हैं। नौकरी की तलाश कर रहे जातकों को सफलता प्राप्त हो सकती है। आपका पराक्रम और आत्मविश्वास बढ़ाचढ़ा रहेगा। ऑफिस में आप उत्तम समय व्यतीत करेंगे। यात्रा के योग बन सकते हैं। स्वास्थ्य का ध्यान रखे थकावट तथा सिरदर्द की परेशानी हो सकती है। रुका पैसा मिलने के योग बन सकते हैं। भाग्य का साथ बन रहेगा।
मीन लग्नराशि: इस हफ्ते आपका स्वास्थ्य कुछ नरम रह सकता है। पेट से संबंधित कोई विकार उत्पन्न हो सकता है। विद्यार्थी वर्ग को पढ़ाई में अवरोध आ सकते हैं। हफ्ते के मध्य में जीवनसाथी से सहयोग प्राप्त हो सकता है। वरिष्ठ लोगो से मतभेद हो सकता है। मित्रों के साथ समय व्यतीत कर सकते हैं। नौकरी के लिए किए आवेदन में सफलता प्राप्त हो सकती है।
(ज्योतिषी विशाल वाष्र्णेय कलाशांति ज्योतिष के संस्थापक हैं। यह साप्ताहिक राशिफल आपकी लग्नराशि के आधार पर आधारित है। ये समस्त राशिफल सामान्य हैं। किसी भी निश्चित परिणाम पर पहुंचने के लिए ज्योतिषी से दशा-अंतर्दशा और जन्मपत्री का पूर्ण रूप से अध्ययन कराना उचित रहता है।)
आज दुनिया में कई ऐसे लोग हैं जिनके जीन को सीआरआईएसपीआर-केस9 जीन एडिटिंग तकनीक का इस्तेमाल करके संशोधित किया गया है. तकनीक सही है या गलत, इस पर चर्चा होती रहेगी, लेकिन जीन थेरेपी काम कैसे करती हैं और उनकी सीमाएं क्या हैं?
डॉयचे वैले पर फ्रेड श्वालर की रिपोर्ट-
2018 में वैज्ञानिक हे जिआन्की ने संशोधित जीनोम वाली दो बच्चियों के जन्म की घोषणा कर दुनिया को चौंका दिया. उन्होंने दावा किया था कि वह सीआरआईएसपीआर-केस9 जीन एडिटिंग तकनीक का इस्तेमाल कर दो जुड़वां लड़कियों के जीन को संशोधित करने में कामयाब रहे हैं, ताकि उन्हें भविष्य में एड्स वायरस के संक्रमण से बचाया जा सके.
हे जिआन्की चीन के शेनजेन प्रांत में सदर्न यूनिवर्सिटी ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी में बतौर एसोसिएट प्रोफेसर कार्यरत थे. जिआन्की ने जुड़वा भ्रूणों पर सीआरआईएसपीआर-केस9 नामक जीन एडिटिंग टूल का इस्तेमाल किया, ताकि उन भ्रूण के सीसीआर5 जीन को संशोधित किया जा सके और उनके अंदर एचआईवी के लिए प्रतिरोध पैदा हो सके.
इन दोनों बच्चियों के अलावा, एक साल बाद तीसरा ऐसा बच्चा पैदा हुआ जिसके जीन में संशोधन किया गया था. ये तीनों दुनिया के पहले जीन संशोधित बच्चों का प्रतिनिधित्व करते हैं. पांच साल बाद भी तीनों कथित तौर पर स्वस्थ हैं और सामान्य जीवन जी रहे हैं.
इस घटना से वैज्ञानिकों के साथ-साथ सामान्य लोगों का एक बड़ा तबका आक्रोशित हुआ. जिआन्की के शोध और कार्य की नैतिकता को लेकर दुनिया के कई हिस्सों में काफी तेज और व्यापक आलोचना हुई. नतीजा यह हुआ कि ‘गैर-कानूनी तरीके से डॉक्टरी उपचार' के आरोप मेंजिआन्की को चीन में तीन साल कैद की सजा सुनाई गई.
ये तीनों बच्चे भ्रूण के दौरान जीनोम संशोधन के पहले मामलों के उदाहरण हो सकते हैं, लेकिन वे संशोधित जीनोम वाले एकमात्र इंसान नहीं हैं. सिकल सेल रोग के इलाज के लिए सीआरआईएसपीआर-केस9 का इस्तेमाल करके, क्लिनिकल ट्रायल में 200 से अधिक वयस्कों का इलाज किया गया है.
जीन एडिटिंग थेरेपी ने उनके जीवन को पूरी तरह बदल दिया. उनके खून से जुड़ी गड़बड़ियों को ठीक कर दिया. यह तकनीक सही है या गलत, इस पर चर्चाओं का दौर जारी है, लेकिन अन्य अनुवांशिक बीमारियों के इलाज के लिए भी इस तकनीक का इस्तेमाल करने को लेकर परीक्षण जारी है.
सीआरआईएसपीआर-केस9 जीन एडिटिंग क्या है
सीआरआईएसपीआर-केस9 तकनीक विकसित होने के बाद पिछले दशक में जीन थेरेपी के मामले अचानक बढ़ गए. हालांकि, जीन एडिटिंग 1990 के दशक से अस्तित्व में है, लेकिन डीएनए को बदलने के अपने सटीक और प्रोग्राम करने लायक तरीके की वजह से सीआरआईएसपीआर को काफी महत्वपूर्ण माना गया है.
सीआरआईएसपीआर-केस9 दो हिस्सों वाली आणविक प्रणाली है. सीआरआईएसपीआर अनुक्रमों का एक समूह है जिसे किसी जीन में डीएनए के खास हिस्से को खोजने के लिए प्रोग्राम किया जाता है. वहीं, केस9 एडिटिंग करने का काम करता है, जो डीएनए के एक स्ट्रैंड को काटकर अलग करता है और उसकी जगह नया हिस्सा जोड़ता है.
आसान भाषा में कहें, तो यह कंप्यूटर पर Ctrl+F बटन दबाकर किसी खास शब्द को खोजने जैसा है. सीआरआईएसपीआर-केस9 भी कुछ इसी तरह काम करता है. यह आरएनए या डीएनए अनुक्रम में खोज कर बुरे बैक्टीरिया को खत्म कर देता है.
यह खोजने और काटने वाले आणविक मशीन की तरह है. आप इसे किसी खास डीएनए अनुक्रम के बारे में बताते हैं. यह सिर्फ उसी जगह पर काटता है. इस मामले में, जो डीएनए अनुक्रम है वह एंटीबायोटिक प्रतिरोधी जीन है. यह जीन स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा सकता है.
सुनने में यह प्रक्रिया काफी आसान लगती है, लेकिन कठिन है. अगर हम किसी बीमारी के इलाज के लिए इसका इस्तेमाल करना चाहते हैं, तो यह प्रक्रिया हमारे शरीर की खरबों कोशिकाओं में होनी चाहिए.
इस तरह, सीआरआईएसपीआर की मदद से सिर्फ उन बीमारियों का इलाज किया जा सकता है जिनमें किसी एक प्रकार की कोशिका में ‘सरल' आनुवांशिक बदलाव हुआ हो. अगर आपको यह पक्के तौर पर पता है कि कोई बीमारी किसी एक जीन में गड़बड़ी की वजह से होती है, तो सीआरआईएसपीआर की मदद से इसका इलाज किया जा सकता है. जैसे, सिकल सेल एनीमिया या कुछ प्रकार के कैंसर.
जीन थेरेपी की सीमाएं
सीआरआईएसपीआर की मदद से जटिल अनुवांशिक बीमारी का इलाज नहीं किया जा सकता. जैसे, अलग-अलग तरह की कोशिकाओं में एक से अधिक जीन में गड़बड़ी से जुड़ी बीमारी. यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन, यूके में मेडिकल जेनेटिक्स के प्रोफेसर डेविड कर्टिस कहते हैं, "काफी कम रोगियों में बीमारी से जुड़े पहचाने जाने लायक ऐसे आनुवंशिक लक्षण होते हैं जिन्हें आप टारगेट कर सकते हैं.”
कार्टिस को संदेह है कि सीआरआईएसपीआर की मदद से ऐसी किसी बीमारी का इलाज किया जा सकता है जिसमें कम से कम समय के लिए एक से ज्यादा आनुवंशिक बदलाव शामिल हैं.
उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया, "अगर आप स्किजोफ्रीनिया जैसी जटिल अनुवांशिक बीमारी से ग्रसित हैं, तो जीन थेरेपी मददगार नहीं है. जीन थेरेपी की मदद से मस्तिष्क का इलाज करना बेहद मुश्किल है.
आपको गलत जगह पर विकसित हुई मस्तिष्क कोशिकाओं को फिर से जोड़ने के लिए अरबों मस्तिष्क कोशिकाओं में कई डीएनए बदलाव करने होंगे. ऐसा करना शायद ही संभव है.”
डिजाइनर बेबी
जीन एडिटिंग के दो मुख्य तरीके होते हैं: जर्मलाइन एडिटिंग और सोमेटिक सेल थेरेपी. जर्मलाइन एडिटिंग भ्रूण के विकास के दौरान किया जाता है. आप भ्रूण में उस समय बदलाव करते हैं जब उसमें सिर्फ एक कोशिका होती है या कुछ कोशिकाएं होती हैं, तो आप उन सभी कोशिकाओं में बदलाव करते हैं जो उनसे अलग होंगी. इसका मतलब है कि शरीर की सभी कोशिकाओं के जीन में बदलाव होता है.
यह रोग के इलाज के लिए बढ़िया है, लेकिन इससे शुक्राणु और अंडाणु वाली कोशिकाएं भी प्रभावित होती हैं. इसका मतलब है कि यह संशोधित जीन उन बच्चों के साथ-साथ उनकी आने वाली पीढ़ियों में भी मौजूद होता है. इसलिए, भ्रूणों में बदलाव करके आप उनकी आने वाली पीढ़ियों के लिए विकास की प्रक्रिया को बदल देते हैं. यही वजह है कि ‘डिजाइनर बेबी' बहस का मुद्दा बना हुआ है और इसी वजह से जिआन्की को जेल में डाल दिया गया.
इस थेरेपी के पक्ष में बात करने वाले लोगों का कहना है कि हम यह पक्का कर सकते हैं कि हमारे किसी रिश्तेदार ने एचआईवी/एड्स या अलग-अलग तरह के कैंसर जैसी बीमारियों को विकसित नहीं किया है, बल्कि उनके अस्तित्व को ही मिटा दिया है. जबकि, आलोचकों का कहना है कि यह प्रकृति के साथ छेड़छाड़ है.
सोमेटिक सेल थेरेपी मददगार हो सकती है
सोमेटिक सेल थेरेपी में, जीन को रोगी या डोनर के शरीर से निकाली गई कोशिकाओं में संशोधित किया जाता है और फिर वापस उसके शरीर में कोशिकाओं को स्थापित कर दिया जाता है. सिकल सेल एनीमिया के इलाज के लिए इस तरीके का इस्तेमाल किया जा रहा है. इसकी मदद से, जीन से जुड़ी ऐसी अन्य बीमारियों का इलाज किया जा सकता है जहां सिर्फ एक ही जगह पर बदलाव हुआ हो.
अधिकांश वैज्ञानिकों का तर्क है कि सोमेटिक सेल थेरेपी, जर्मलाइन एडिटिंग की तुलना में ज्यादा कारगर है. हमने देखा है कि यह तरीका काम कर सकता है. साथ ही, यह डिजाइनर बच्चों जैसे मुद्दे को भी दरकिनार कर देता है. हालांकि, सोमेटिक सेल थेरेपी की अपनी समस्याएं हैं. इससे दूसरे जीनोम पर भी असर पड़ सकता है.
बर्लिन में मैक्स डेलब्रुक सेंटर फॉर मॉलिक्यूलर मेडिसिन में काम करने वाले सीआरआईएसपीआर वैज्ञानिक वान ट्रंग चू ने कहा, "जब आप सीआरआईएसपीआर का इस्तेमाल करते हैं, तो इस बात की संभावना होती है कि जीनोम के अन्य हिस्सों में भी अनचाहे बदलाव हो सकते हैं. साथ ही, इससे अन्य जीन के काम करने का तरीका बदल सकता है या वे निष्क्रिय हो सकते हैं. हालांकि, शरीर पर इससे क्या प्रभाव पड़ता है, इसके बारे में पूरी जानकारी नहीं है.”
जीन एडिटिंग की दुनिया
जीनोम में होने वाले कुछ आकस्मिक बदलाव हानिकारक नहीं हो सकते हैं, लेकिन अन्य बदलाव कैंसर या आनुवंशिक से जुड़ी गड़बड़ियां पैदा कर सकते हैं. बदलाव देखने के लिए, जीनोम को कॉम्बिंग करने के तरीके हैं, लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि बदलाव होने पर क्या होगा. क्या जीन में पहली बार बदलाव करते समय हुई गड़बड़ियों को ठीक करने के लिए अन्य जीन में बदलाव करने होंगे या कुछ और करना होगा?
चू ने डॉयचे वेले को बताया, "ये बदलाव पूरी तरह आकस्मिक नहीं होते हैं. आपके द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले केस जीन एडिटिंग टूल के आधार पर आपको अंदाजा होता है कि ये बदलाव कहां हो सकते हैं.”
फिलहाल, सभी वैज्ञानिक टारगेट किए जाने वाले जीन के अलावा अन्य जीन में होने वाले बदलाव को खोजने के लिए जीनोम का गहन अनुक्रमण विश्लेषण कर सकते हैं. हालांकि, यह भूसे के ढेर से सुई खोजने जैसा काम है. चू ने कहा, "लंबी अवधि में, नई तरह की सीआरआईएसपीआर-केस9 तकनीक ईजाद की जा रही हैं, ताकि अन्य जीन पर किसी तरह का प्रभाव न पड़े.”
जीन एडिटिंग की नैतिकता पर बहस
जीन एडिटिंग को नैतिक तरीके से विकसित नहीं किया गया है. वैज्ञानिकों के साथ-साथ दूसरे विशेषज्ञ भी इस तकनीक को चुनौती दे रहे हैं. ऐसा तब से किया जा रहा है, जब जीन में बदलाव करना संभव भी नहीं था.
वैज्ञानिक नैतिकता को लेकर खुद का आकलन कर रहे हैं. अधिकांश वैज्ञानिक इस बात पर सहमत हैं कि भ्रूण में जीन एडिटिंग नहीं होनी चाहिए. जिआन्की के मामले में जिस तरह का कानूनी फैसला सुनाया गया उसने इस बात की मिसाल कायम की है कि देश जीन एडिटिंग को कितनी गंभीरता से ले रहे हैं. चू ने कहा, "यह लगभग स्पष्ट है कि आप जर्मलाइन डीएनए को संशोधित नहीं कर सकते हैं.”
जीन एडिटिंग संभव है, लेकिन इसके लिए जरूरी समर्थन चाहिए. कई लोगों का कहना है कि वैज्ञानिक प्रकृति के साथ छेड़छाड़ कर रहे हैं. वहीं, कुछ लोग इसे घृणा वाले नजरिए से देख रहे हैं.
इन सब के बीच एक बड़ा सवाल यह है कि क्या लोग नहीं चाहेंगे कि उनकी बीमारी या उनके बच्चे की बीमारी को ठीक किया जाए या जीन एडिटिंग की मदद से बीमारियों से बचा जाए? हमारे पास कुछ बीमारियों के इलाज या उन्हें पूरी तरह जड़ से खत्म करने के उपकरण हैं. ऐसे में सवाल यह है कि अधिक नैतिक क्या है: लोगों की बीमारियों को ठीक करने के लिए उपलब्ध तकनीक का इस्तेमाल करना या उसका इस्तेमाल ना करना? (dw.com)
किसी कठिनाई बारे में सोच कर पसीना क्यों छूट जाता है, या दिल की धड़कनें क्यों तेज हो जाती हैं? हमारा शरीर एक साथ कई कामों के लिए खुद को कैसे तैयार करता है? वैज्ञानिकों को लग रहा है कि ऐसे कई सवालों के जवाब मिल गये हैं.
मानव शरीर और उसके दिमाग के बीच रिश्ता हजारों सालों से विचारकों और विद्वानों के शोध विषय रहा है. अरस्तू से लेकर देकार्त तक इससे सवाल से जूझते रहे हैं. हालांकि इसका जवाब ऐसा लग रहा है कि दिमाग की संरचना में छिपा है.
बुधवार को रिसर्चरों ने बताया कि दिमाग का एक हिस्सा जिसे मोटर कॉर्टेक्स कहा जाता है वह शरीर की हरकत को नियंत्रित करता है और यह एक नेटवर्क जुड़ा है जिसमें योजना बनाना, मस्तिष्क की उत्तेजना, दर्द और आंतरिक अंगों का नियंत्रण शामिल है. इसके साथ ही इसमें ब्लडप्रेशर और दिल का धड़कना भी शामिल है.
रिसर्चरों का कहना है कि उन्होंने एक ऐसे तंत्र का पता लगाया है जिसके बारे में पहले से जानकारी नहीं थी. इसके मुताबिक मोटर कॉर्टेक्स कई गांठों में मुड़ा होता है और वे दिमाग के उस हिस्सों के बीच होती हैं जिन्हें पहले से ही शरीर के खास हिस्सों मसलन हाथ, पैर और चेहरे की गतिविधियों के लिए जिम्मेदार माना जाता है. ये तब हरकत में आते हैं जब शरीर के अलग अलग हिस्सों को एक साथ काम करना होता है.
सोमैटो कॉग्निशन एक्शन नेटवर्क यानी स्कैन
रिसर्चरों ने इस तंत्र को सोमैटो कॉग्निटिव एक्शन नेटवर्क या स्कैन नाम दिया है. उन्होंने इसका सबंध दिमाग के उन हिस्सों से जोड़ा है जो लक्ष्य तय करने और कार्य योजना बनाने के लिए जाने जाते हैं.
बंदरों पर किये गये शोध में भी यह तंत्र दिमाग के उन हिस्सों के बीच मिला है जो आंतरिक अंगों से जुड़े हैं इनमें पेट और एड्रिनल ग्लैंड भी शामिल हैं. इनकी वजह से इन अंगों की गतिविधियों का स्तर किसी खास काम को करने के अनुमान के आधार पर बदल जाता है. इससे पता चलता है कि किसी कठिन काम के बारे में महज सोचने भर से ही क्यों पसीने छूट जाते हैं या फिर दिल की धड़कनें तेज हो जाती हैं.
मोटर कॉर्टेक्स दिमाग की सबसे बाहरी परत सेरेब्रल कॉर्टेक्स का हिस्सा है. सेंट लुई में वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी स्कूल ऑफ मेडिसिन में रेडियोलॉजी के प्रोफेसर इवान गोर्डन इस रिसर्च रिपोर्ट के प्रमुख लेखक हैं. यह रिसर्च रिपोर्ट नेचर जर्नल में छपी है. गॉर्डन का कहना है, "बुनियादी रूप से अब हम यह जानते हैं कि इंसान का मोटर सिस्टम अकेला नहीं है. इसकी बजाय हमारा मानना है कि दो अलग तंत्र हैं जो हमारी गतिविधियों को नियंत्रित करते हैं."
दो तंत्र हैं मानव शरीर में
गॉर्डन के मुताबिक, "एक तंत्र है हमारी अलग अलग हरकतों के लिए जैसे कि हाथ, पैर या चेहरा. यह बोलने, लिखने या ऐसी हरकतों के लिए अहम है जिसमें शरीर का सिर्फ एक हिस्सा शामिल होता है. एक दूसरा सिस्टम है स्कैन, जो ज्यादा महत्वपूर्ण और पूरे शरीर की गतिविधियों से जुड़ा हुआ है. यह दिमाग के उन हिस्सों से जुड़ा है जो ऊंचे दर्जे की योजना बनाते हैं."
वैज्ञानिकों की यह खोज शरीर और दिमाग के रिश्तों का खाका खींच देती है. वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी स्कूल ऑफ मेडिसिन में न्यूरोलॉजी के प्रोफेसर निको डोजेनबाख इस रिसर्च रिपोर्ट के वरिष्ठ लेखक हैं. डोजेनबाख का कहना है, "ऐसा लग रहा है कि स्कैन सिस्टम वास्तविक गतिविधियों और शरीरविज्ञान के साथ योजना बनाता है, विचार करता है और प्रेरणा देता है. यह शरीर और दिमाग क्यों अलग नहीं हैं या अलग नहीं किये जा सकते इसकी तंत्रिकीय व्याख्या करता है."
रिसर्चर आधुनिक ब्रेन इमेजिंग तकनीकों का इस्तेमाल कर करीब 9 दशक पहले तैयार किये गये उस नक्शे का परीक्षण करने की तैयारी में हैं. यह नक्शा न्यूरोसर्जन विल्डर पेनफिल्ड ने तैयार किया था जिसमें दिमाग के हिस्सों से गतिविधियों के नियंत्रण का खाका है. इनकी खोज दिखा रही है कि पेनफील्ड के नक्शे में उस समय के तकनीक की वजह से कुछ कमियां रही हैं जिनमें थोड़े बहुत बदलाव की जरूरत है.
क्या काम है दिमाग का
स्कैन की पहचान सात वयस्कों की बारीक इमेजिंग के जरिये हुई जिसमें दिमाग के संगठनात्मक गुणों का परीक्षण किया गया. इसके बाद बड़े आंकड़ों से इनकी पुष्टि की गई जब उन्हें हजारों वयस्कों के साथ जोड़ा गया. इसके बाद की गई इमेजिंग ने स्कैन सर्किट को 11 महीने और 9 साल के बच्चों में पहचाना गया. साथ ही यह भी देखा गया कि यह नवजात बच्चे में नहीं बना था. इन खोजों की सैकड़ों नवजात बच्चों और हजारों 9 साल के बच्चों में पुष्टि हुई.
इस रिसर्च से इस बात को बल मिला है कि इंसानी दिमाग के बारे में अभी और कितना जानना बाकी है. गॉर्डन का कहना है, "वास्तव में दिमाग के उद्देश्य को लेकर खूब बहस होती है. कुछ न्यूरोसाइंटिस्ट समझते हैं कि दिमाग एक अंग है जिसका प्राथमिक काम है अहमारे आसपास की दुनिया को समझना और उसकी व्याख्या करना.दूसरे मानते हैं कि यह अंग बेहतरीन आउटपुट पैदा करने के लिए है, आमतौर पर शारीरिक गतिविधी जिससे कि किसी भी परिस्थिति में अस्तित्व और उत्पत्ति के लिए शारीरिक योग्यता पैदा की जा सके."
गॉर्डन का कहना है, "संभवतया दोनों सही हैं, लेकिन स्कैन दूसरी परिभाषा के साथ ज्यादा सही बैठता है, यह पूरे शरीर की गतिविधियों के लिए लक्ष्य और कार्ययोजना तैयार करता है."
एनआर/वीके (रॉयटर्स)
हॉर्मोन आधारित सभी गर्भनिरोधक स्तन कैंसर के खतरे को थोड़ा सा बढ़ा देते हैं. इनमें केवल प्रोजेस्टोजेन से बने गर्भनिरोधक भी हैं जिनकी लोकप्रियता तेजी से बढ़ रही है. यह खुलासा एक ताजा अध्ययन में हुआ है.
शोधकर्ताओं का कहना है कि हॉर्मोन पर आधारित गर्भनिरोधक स्तन कैंसर के खतरे को बढ़ा सकते हैं. मंगलवार को प्रकाशित एक अध्ययन में विशेषज्ञों ने कहा है कि हॉर्मोन आधारित गर्भनिरोधकों के इस्तेमाल के वक्त स्तन कैंसर के खतरे को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए और साथ ही, ऐसा करते वक्त इनके फायदों पर भी विचार होना चाहिए जैसे कि ये महिलाओं में कई तरह के कैंसर के खतरे कम करते हैं.
अब तक हुए अध्ययनों में यह बात साबित हुई है कि दो हॉर्मोन का इस्तेमाल करके बनाए गए गर्भनिरोधक स्तन कैंसर के खतरे को बढ़ाते हैं, जो एस्ट्रोजन और प्रोजेस्टोजन हैं. हाल के दिनों में सिर्फ प्रोजेस्टोजन से बनी गर्भनिरोधक गोलियों का चलन बढ़ा है. पिछले एक दशक में इसमें काफी तेजी देखी गई है. लेकिन इसे लेकर स्तन कैंसर पर कम ही अध्ययन हुए हैं.
पीएलओएस मेडिसन नामक पत्रिका में प्रकाशित इस रिपोर्ट में कहा गया है कि दोनों हॉर्मोन मिलाकर या एक ही हॉर्मोन से बने, दोनों ही तरह के गर्भनिरोधकों से स्तन कैंसर का खतरा बराबर बढ़ता है. शोध के मुताबिक हॉर्मोन आधारित गर्भनिरोधक लेने वाली महिलाओं में स्तन कैंसर होने का खतरा इन्हें ना लेने वाली महिलाओं के मुकाबले 20-30 फीसदी ज्यादा होता है. 1996 में इस संबंध में एक विस्तृत अध्ययन हुआ था जिसमें ऐसे ही निष्कर्ष सामने आए थे.
उम्र बढ़ने का असर
शोध में यह भी स्पष्ट हुआ कि गर्भनिरोधकों के इस्तेमाल के तरीके से खतरा कम या ज्यादा नहीं होता. यानी गोली खाई जाए, उसे इंजेक्शन से लिया जाए या फिर इंप्लांट कराया जाए, या किसी अन्य तरह से लिया जाए, हर मामले में स्तन कैंसर का खतरा बराबर होता है.
शोध करते वक्त विशेषज्ञों ने इस बात का भी ध्यान रखा कि आयु बढ़ने के साथ-साथ महिलाओं में स्तन कैंसर का खतरा बढ़ता जाता है. उन्होंने इस बात की गणना की कि बढ़ती उम्र के साथ हॉर्मोन आधारित गर्भनिरोधक लेने से खतरा कितना बढ़ता है.
इस शोध में शामिल रहीं जिलियन रीव्स ऑक्सफर्ड यूनिवर्सिटी में सांख्यिकीय महामारी विज्ञान की विशेषज्ञ हैं. वह कहती हैं, "ऐसा कोई नहीं सुनना चाहता कि जिस चीज को वे ले रही हैं, उससे स्तन कैंसर का खतरा 25 फीसदी तक बढ़ जाएगा. हम यहां पक्के खतरे में मामूली वृद्धि की बात कर रहे हैं.”
रीव्स यह भी कहती हैं कि इस खतरे को हॉर्मोन आधारित गर्भनिरोधकों के बहुत सारे फायदों के संदर्भ में ही देखा जाना चाहिए. वह बताती हैं, "सिर्फ गर्भ नियंत्रण ही एक फायदा नहीं है बल्कि गोलियों से महिलाओं को कई अन्य तरह के कैंसर के खतरे लंबे समय तक और पक्की सुरक्षा मिलती हैं.”
10,000 महिलाओं पर अध्ययन
इस अध्ययन में इस बात की भी पुष्टि हुई कि जब महिलाएं ये गर्भनिरोधक लेना बंद कर देती हैं तो स्तन कैंसर का खतरा घटता जाता है. लंदन की क्वीन मैरी यूनिवर्सिटी में प्रोफसर स्टीफन डफी, जो खुद इस शोध का हिस्सा नहीं थीं, कहती हैं कि इस निष्कर्ष से तसल्ली मिलती है कि प्रभाव बहुत ज्यादा नहीं है.
यह अध्ययन 50 वर्ष से कम आयु की करीब 10 हजार महिलाओं पर किया गया. ब्रिटेन में 1996 से 2017 के बीच यह अध्ययन चला. ब्रिटेन में सिर्फ प्रोजेस्टोजेन आधारित गर्भनिरोधकों का काफी चलन है. रीव्स कहती हैं कि इस चलन के बढ़ने की कई वजह हो सकती हैं. ये ऐसी महिलाओं को देने की सिफारिश की जाती है जो बच्चे को दूध पिला रही हों, 35 वर्ष से ऊपर की हों और धूम्रपान करती हों या फिर जिन्हें दिल संबंधी बीमारियां होने का खतरा हो.
रीव्स ने कहा, "ऐसा इसलिए भी हो सकता है कि महिलाएं बाद के वर्षों में हॉर्मोन आधारित गर्भनिरोधक ले रही हों. इसलिए वे तो कुदरती रूप से ही ऐसी चीजों के खतरे में हो सकती हैं जो गर्भनिरोधकों के साथ मिलकर खतरे को बढ़ा दें.”
वीके/एए (एएफपी)
एक नए अध्ययन के मुताबिक फुटबॉल खिलाड़ियों को अल्जाइमर रोग और डिमेंशिया का खतरा अधिक होता है.
एक नए अध्ययन के मुताबिक फुटबॉल खिलाड़ियों को अल्जाइमर रोग और अन्य प्रकार के मनोभ्रंश का खतरा अधिक होता है. हालांकि, गोलकीपरों को इस तरह के तंत्रिका संबंधी विकारों के प्रति कुछ हद तक प्रतिरक्षित दिखाया गया है.
मेडिकल जर्नल द लांसेट में प्रकाशित एक नए अध्ययन के मुताबिक सामान्य आबादी की तुलना में बड़ी प्रतियोगिताओं या टीमों में खेलने वाले फुटबॉल खिलाड़ियों में डिमेंशिया विकसित होने की संभावना अधिक होती है.
डिमेंशिया एक ऐसी बीमारी है जिससे याददाश्त लगभग खत्म हो जाती है. डिमेंशिया के शुरुआती चरण भूलने की बीमारी से शुरू होते हैं, व्यक्ति समय का क्रम भूलने लगता है और परिचित जगहों को याद नहीं रख पाता है. चिंता और अवसाद भी शुरुआती संकेत के रूप में काम कर सकते हैं, खासकर युवा रोगियों के लिए.
इस नए शोध का विवरण मेडिकल जर्नल द लांसेट में प्रकाशित हुआ है. इसने 1924 और 2019 के बीच 56,000 से अधिक फुटबॉल के अलावा अन्य खेलों के खिलाड़ियों के साथ 6,000 से अधिक शीर्ष-स्तरीय स्वीडिश पुरुष फुटबॉल खिलाड़ियों के मेडिकल रिकॉर्ड की तुलना की.
स्वीडन में कारोलिंस्का इंस्टीट्यूट के शोधकर्ताओं ने पाया कि फुटबॉलरों को नियंत्रण समूह की तुलना में अल्जाइमर रोग और अन्य प्रकार के मनोभ्रंश विकसित होने की संभावना डेढ़ गुना अधिक थी.
कारोलिंस्का इंस्टीट्यूट के पेटर उएडा ने इस शोध का नेतृत्व किया. उनका कहना है कि यह दर्शाता है कि बड़े पुरुष खिलाड़ी डिमेंशिया विकसित करने के "महत्वपूर्ण जोखिम" पर हैं.
इस अध्ययन के मुताबिक क्योंकि गोलकीपरों को शायद ही कभी गेंद को सिर से मारने की आवश्यकता होती है, वे इसके प्रति प्रतिरक्षित हैं.
"गोलकीपर को खतरा कम"
पेटर उएडा ने कहा, "एक परिकल्पना यह है कि बार-बार बॉल को सिर से मारना खिलाड़ियों को अधिक जोखिम में डालते हैं और मैदान पर गोलकीपरों और खिलाड़ियों के बीच के अंतर को देखते हुए इस सिद्धांत का समर्थन करता है."
यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन के मनोरोग प्रोफेसर गिल लिविंगस्टन ने कहा, "उच्च गुणवत्ता वाले शोध" ने "ठोस सबूत" जोड़े हैं कि जिन फुटबॉलरों के सिर गेंद के संपर्क में ज्यादा आते हैं उनमें डिमेंशिया का खतरा अधिक होता है.
लिविंगस्टन भी अनुसंधान में शामिल थे. उन्होंने कहा, "हमें लोगों के सिर और दिमाग की रक्षा के लिए काम करते हुए खेलते रहने की जरूरत है."
अध्ययन में एएलएस जैसे मोटर न्यूरॉन रोगों का कोई बढ़ा हुआ जोखिम नहीं पाया गया और फुटबॉलरों में पार्किंसंस रोग का जोखिम भी कम पाया गया.
हालांकि पेटर उएडा ने आगाह किया कि अवलोकन संबंधी अध्ययन यह दिखाने में सक्षम नहीं है कि फुटबॉल खेलने से सीधे तौर पर डिमेंशिया होता है और इसके निष्कर्षों को महिला, शौकिया या युवा फुटबॉल खिलाड़ियों पर लागू नहीं किया जा सकता.
उन्होंने कहा, "खिलाड़ियों के मानसिक स्वास्थ्य की रक्षा के लिए और अधिक उपाय किए जाने के लिए अब अधिक से अधिक आवाजें उठ रही हैं और हमारा शोध ऐसे जोखिमों को सीमित करने में निर्णायक रूप से मदद कर सकता है."
सिर में चोट का विवाद
हाल के वर्षों में खेल के दौरान सिर की चोटों और खेल करियर के अंत के बाद उनके दुष्प्रभावों पर बहुत शोध हुआ है. विशेष रूप से रग्बी और अमेरिकी फुटबॉल पर काफी शोध किया गया है.
पिछले साल ग्लासगो विश्वविद्यालय के नेतृत्व में एक अध्ययन में पाया गया कि पूर्व रग्बी खिलाड़ियों में सामान्य आबादी की तुलना में मोटर न्यूरॉन रोग विकसित होने की संभावना 15 गुना अधिक थी.
नेशनल फुटबॉल लीग के 111 मृत पूर्व खिलाड़ियों के 2017 के बॉस्टन विश्वविद्यालय के अध्ययन में जिन्होंने अपना दिमाग दान किया था, उनमें क्रोनिक ट्रॉमैटिक एन्सेफैलोपैथी (सीटीई) जैसी बीमारियों के सबूत थे. सीटीई सिर की कई चोटों के बाद विकसित होता है और व्यवहारिक परिवर्तनों के साथ दीर्घकालिक डिमेंशिया का कारण बन सकता है.
एए/वीके (एएफपी, डीपीए)
(जेनिफर वीक्स, द कन्वर्सेशन)
मेलबर्न, 9 मार्च। अमेरिकी पर्यावरण संरक्षण एजेंसी पीने के पानी में दो फ्लोरिनेटेड रसायनों को सीमित करने के लिए एक मसौदा विनियमन जारी करने की तैयारी कर रही है, जिन्हें संक्षेप में पीएफओए और पीएफओएस कहा जाता है। ये रसायन दो प्रकार के पीएफएएस हैं, पदार्थों का एक व्यापक वर्ग जिसे अक्सर "हमेशा का रसायन" कहा जाता है क्योंकि वे पर्यावरण में स्थायी होते हैं।
पीएफएएस का व्यापक रूप से सैकड़ों उत्पादों में उपयोग किया जाता है, नॉनस्टिक कुकवेयर कोटिंग्स से लेकर खाद्य पैकेजिंग, दाग-धब्बों और पानी प्रतिरोधी कपड़ों और अग्निशमन फोम तक। अध्ययनों से पता चलता है कि पीएफएएस के उच्च स्तर से स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ सकता है जिसमें प्रतिरक्षा प्रणाली के कार्य में कमी, कोलेस्ट्रॉल के स्तर में वृद्धि और गुर्दे या वृषण कैंसर का उच्च जोखिम शामिल है।
पिछले 20 वर्षों में जनसंख्या-आधारित स्क्रीनिंग से पता चलता है कि अधिकांश अमेरिकियों में पीएफएएस पाया गया है और उनके रक्त में इसका स्तर पता लगने योग्य हैं। नया नियम सार्वजनिक स्वास्थ्य की रक्षा के लिए एक लागू करने योग्य अधिकतम मानक निर्धारित करके डिज़ाइन किया गया है, जिसमें यह तय किया गया है कि पीने के पानी में दो लक्षित रसायनों में से कितना हो सकता है।
द कन्वरसेशन के अभिलेखागार के ये तीन लेख पीएफएएस के संपर्क में आने के स्वास्थ्य प्रभावों के बारे में बढ़ती चिंताओं की व्याख्या करते हैं और बताते हैं कि क्यों कई विशेषज्ञ इन रसायनों के राष्ट्रीय विनियमन का समर्थन करते हैं।
1. सर्वव्यापी और हमेशा
पीएफएएस कई प्रकार के उत्पादों में उपयोगी होते हैं क्योंकि वे पानी, ग्रीस और दागों को प्रतिरोध प्रदान करते हैं और आग से बचाते हैं। अध्ययनों में पाया गया है कि अधिकांश उत्पाद जिन पर दाग-धब्बे या पानी प्रतिरोधी का लेबल लगा होता है उनमें पीएफएएस होता है - भले ही उन उत्पादों पर "नॉन-टॉक्सिक" या "ग्रीन" का लेबल लगा हो।
मिडिलबरी कॉलेज के पर्यावरणीय स्वास्थ्य विद्वान कैथरीन क्रॉफोर्ड ने लिखा, "एक बार जब लोग पीएफएएस के संपर्क में आ जाते हैं, तो रसायन उनके शरीर में लंबे समय तक - महीनों से लेकर सालों तक - रहता है और वे समय के साथ बढ़ सकते हैं।" मनुष्यों में पीएफएएस विषाक्तता अध्ययन की 2021 की समीक्षा "इस निश्चित निष्कर्ष के साथ संपन्न हुई कि पीएफएएस थायरॉयड रोग, उच्च कोलेस्ट्रॉल, यकृत की क्षति और गुर्दे और वृषण कैंसर में योगदान देता है।"
समीक्षा में इस बात के भी पुख्ता सबूत मिले कि गर्भाशय में पीएफएएस के संपर्क में आने से बच्चों के जन्म के समय वजन कम होने की संभावना बढ़ जाती है और टीकों के लिए प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया कम हो जाती है। अभी तक पुष्टि किए जाने वाले अन्य संभावित प्रभावों में "आंत्र रोग, कम प्रजनन क्षमता, स्तन कैंसर और गर्भपात की संभावना में वृद्धि और गर्भावस्था के दौरान उच्च रक्तचाप और प्रिक्लेम्प्शिया विकसित करना शामिल है।"
क्रॉफर्ड के अनुसार, "सामूहिक रूप से, यह बीमारियों और विकारों की एक दुर्जेय सूची है," ।
2. राष्ट्रीय विनियमों की आवश्यकता क्यों है
सुरक्षित पेयजल अधिनियम के तहत, पर्यावरण संरक्षण एजेंसी के पास पीने के पानी के प्रदूषकों के लिए लागू करने योग्य राष्ट्रीय नियम निर्धारित करने का अधिकार है। पीने के पानी की आपूर्ति का प्रबंधन करने वाले प्राधिकारों को दूषित पदार्थों की उपस्थिति जांचने के उद्देश्य से सार्वजनिक जल प्रणालियों की निगरानी करने की आवश्यकता हो सकती है।
हालांकि, अब तक, एजेंसी ने पीएफएएस जोखिम को सीमित करने वाले बाध्यकारी मानकों को निर्धारित नहीं किया है, पर इसने गैर-बाध्यकारी सलाहकार दिशानिर्देश जारी किए हैं। 2009 में एजेंसी ने प्रति खरब भाग पीने के पानी में पीएफओए के 400 भाग के लिए एक स्वास्थ्य सलाहकार स्तर की स्थापना की। 2016 में, इसने इस सिफारिश को प्रति खरब में 70 भाग तक कम कर दिया और 2022 में इस सीमा को घटाकर लगभग शून्य कर दिया।
3. पीएफएएस को तोड़ना
पीएफएएस रसायन दुनिया भर में पानी, हवा, मिट्टी और मछली में व्यापक रूप से मौजूद हैं। कुछ अन्य प्रकार के प्रदूषकों के विपरीत, कोई प्राकृतिक प्रक्रिया नहीं है जो पानी या मिट्टी में मिलने के बाद पीएफएएस को तोड़ देती है। कई वैज्ञानिक इन रसायनों को पर्यावरण से पकड़ने और उन्हें हानिरहित घटकों में तोड़ने के तरीके विकसित करने के लिए काम कर रहे हैं।
पीएफएएस को पानी से फिल्टर करने के कई तरीके हैं, लेकिन यह सिर्फ शुरुआत है। "एक बार पीएफएएस पकड़ में आ जाता है, तो आपको पीएफएएस लोडेड सक्रिय कार्बन का निपटान करना पड़ता है, और पीएफएएस अभी भी घूमता रहता है। यदि आप दूषित सामग्री को लैंडफिल या अन्य जगहों पर दबाते हैं, तो पीएफएएस अंततः बाहर निकल जाएगा। इसलिए इसे नष्ट करने के तरीके खोजना आवश्यक है, ”मिशिगन स्टेट यूनिवर्सिटी के रसायनविद् ए. डैनियल जोन्स और हुई ली ने ऐसा लिखा है।
उन्होंने समझाया, भस्मीकरण सबसे आम तकनीक है, लेकिन इसके लिए आमतौर पर सामग्री को लगभग 1,500 डिग्री सेल्सियस (2,730 डिग्री फ़ारेनहाइट) तक गर्म करने की आवश्यकता होती है, जो महंगा है और इसके लिए विशेष भस्मक की आवश्यकता होती है। विभिन्न रासायनिक प्रक्रियाएं विकल्प प्रदान करती हैं, लेकिन अब तक जो दृष्टिकोण विकसित किए गए हैं, उन्हें बढ़ाना कठिन है। और पीएफएएस को विषैले उप-उत्पादों में परिवर्तित करना एक महत्वपूर्ण चिंता का विषय है।
जोन्स और ली के अनुसार, “अगर कोई सबक सीखना है, तो वह यह है कि हमें उत्पादों के पूरे जीवन चक्र पर विचार करने की आवश्यकता है। हमें वास्तव में कितने समय तक चलने वाले रसायनों की आवश्यकता है?" (द कन्वरसेशन)
द कन्वरसेशन एकता एकता 0903 1718 मेलबर्न
नयी दिल्ली, 9 मार्च (भाषा)। न्यूरोलॉजिस्ट एम. वी. पद्मा श्रीवास्तव का कहना है कि आघात (स्ट्रोक) भारत में मौत का दूसरा सबसे आम कारण है और देश में हर चार मिनट में इससे एक व्यक्ति की मौत होती है।
श्रीवास्तव ने एक कार्यक्रम में कहा कि आघात के 68.6 प्रतिशत मामले और इससे मौत के 70.9 प्रतिशत मामले भारत में सामने आते हैं। उन्होंने कहा कि जब मस्तिष्क में कोई रक्त वाहिका फट जाती है और उससे खून बहने लगता है या मस्तिष्क को खून की आपूर्ति में रुकावट आती है तो ‘स्ट्रोक’ की समस्या होती है।
उन्होंने अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के मौके पर सर गंगा राम अस्पताल में आयोजित एक व्याख्यान में कहा, ‘‘भारत में मौत का दूसरा सबसे बड़ा कारण आघात है। भारत में हर साल आघात के लगभग 1,85,000 मामले सामने आते हैं, हर 40 सेकंड में आघात का लगभग एक मामला सामने आता है और हर चार मिनट में यह बीमारी एक व्यक्ति की जान लेती है।’’
श्रीवास्तव ने कहा कि ये आंकड़े भारत के लिए चिंताजनक हैं। उन्होंने कहा कि इन चिंताजनक आंकड़ों के बावजूद कई भारतीय अस्पतालों में आघात के मरीजों का शीघ्र और बेहतर ढंग से इलाज करने के लिए आवश्यक बुनियादी ढांचे और संसाधनों की कमी है।
यह कार्यक्रम अस्पताल के अनुसंधान विभाग द्वारा आयोजित किया गया था।
(बेन सिंह, कैरोल माहेर और जैसिंटा ब्रिंसले, दक्षिण ऑस्ट्रेलिया विश्वविद्यालय)
सिडनी, 2 मार्च। दुनिया वर्तमान में एक मानसिक स्वास्थ्य संकट से जूझ रही है, जिसमें लाखों लोग अवसाद, चिंता और अन्य मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं की शिकायत कर रहे हैं। हाल के अनुमानों के अनुसार, सभी ऑस्ट्रेलियाई लोगों में से लगभग आधे अपने जीवनकाल में किसी समय मानसिक स्वास्थ्य विकार का अनुभव करते हैं।
मानसिक स्वास्थ्य विकार की पीड़ित व्यक्ति और संबद्ध समाज दोनों को बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है, साथ ही अवसाद और चिंता स्वास्थ्य संबंधी बीमारी के बोझ के प्रमुख कारणों में से हैं।
कोविड महामारी इस स्थिति को और बिगाड़ रही है, मनोवैज्ञानिक तनाव की दरों में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है और यह एक तिहाई लोगों को प्रभावित कर रहा है।
हालांकि इसके उपचार में पारंपरिक उपचार जैसे चिकित्सा और दवा प्रभावी हो सकते हैं, हमारा नया शोध इन स्थितियों के प्रबंधन में व्यायाम के महत्व पर प्रकाश डालता है।
ब्रिटिश जर्नल ऑफ स्पोर्ट्स मेडिसिन में प्रकाशित हमारे हालिया अध्ययन ने अवसाद, चिंता और मनोवैज्ञानिक संकट पर शारीरिक गतिविधि के प्रभावों की जांच करने वाले 1,000 से अधिक शोध परीक्षणों की समीक्षा की। इसने दिखाया कि व्यायाम मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों के इलाज का एक प्रभावी तरीका है - और यह दवा या परामर्श से भी अधिक प्रभावी हो सकता है।
कठिन, तेज, मजबूत
हमने 97 समीक्षा पत्रों की समीक्षा की, जिसमें 1,039 परीक्षण और 128,119 प्रतिभागी शामिल थे। हमने पाया कि हर हफ्ते 150 मिनट विभिन्न प्रकार की शारीरिक गतिविधि (जैसे तेज चलना, वजन उठाना और योग करना) सामान्य देखभाल (जैसे दवाएं) की तुलना में अवसाद, चिंता और मनोवैज्ञानिक संकट को काफी कम कर देता है।
सबसे बड़ा सुधार (प्रतिभागियों द्वारा स्व-रिपोर्ट के अनुसार) अवसाद, एचआईवी, गुर्दे की बीमारी, गर्भवती और प्रसवोत्तर महिलाओं में और स्वस्थ व्यक्तियों में देखा गया, हालांकि सभी आबादी के लिए स्पष्ट लाभ देखा गया।
हमने पाया कि व्यायाम की तीव्रता जितनी अधिक होती है, उतना ही अधिक लाभदायक होता है। उदाहरण के लिए, सामान्य गति से चलने के बजाय तेज गति से चलना। और कम अवधि के बजाय छह से 12 सप्ताह तक व्यायाम करने से सबसे अधिक लाभ होता है। मानसिक स्वास्थ्य में सुधार बनाए रखने के लिए लंबे समय तक व्यायाम करना महत्वपूर्ण है।
कितना अधिक प्रभावी?
पिछली व्यवस्थित समीक्षाओं से मानसिक स्वास्थ्य स्थितियों के लिए अन्य सामान्य उपचारों के लिए व्यायाम के लाभों के आकार की तुलना करते समय, हमारे निष्कर्ष बताते हैं कि व्यायाम दवा या संज्ञानात्मक व्यवहार थेरेपी की तुलना में लगभग 1.5 गुना अधिक प्रभावी है।
इसके अलावा, दवाओं की तुलना में व्यायाम के अतिरिक्त लाभ हैं, जैसे कम लागत, कम दुष्प्रभाव और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए अतिरिक्त लाभ की पेशकश, जैसे कि सही वजन, बेहतर हृदय और हड्डियों का स्वास्थ्य, और संज्ञानात्मक लाभ।
यह कैसे प्रभावी है
माना जाता है कि व्यायाम कई तरीकों से और छोटे और दीर्घकालिक प्रभावों के साथ मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करता है। व्यायाम के तुरंत बाद, मस्तिष्क में एंडोर्फिन और डोपामाइन का स्राव होता है।
अल्पावधि में, यह मूड को बेहतर करने और तनाव को कम करने में मदद करता है। लंबे समय तक, व्यायाम के बाद न्यूरोट्रांसमीटर के रिलीज होने से मस्तिष्क में परिवर्तन को बढ़ावा मिलता है जो मूड को बेहतर करने और अनुभूति में मदद करती है, प्रदाह को कम करती है, और प्रतिरक्षा को बढ़ावा देती है, जो सभी हमारे मस्तिष्क के कार्य और मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं।
नियमित व्यायाम से नींद में सुधार हो सकता है, जो अवसाद और चिंता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसके मनोवैज्ञानिक लाभ भी हैं, जैसे आत्म-सम्मान में वृद्धि और उपलब्धि की भावना, ये सभी अवसाद से जूझ रहे लोगों के लिए फायदेमंद हैं।
ऐसा 'वैकल्पिक' इलाज नहीं
शोध के निष्कर्ष अवसाद, चिंता और मनोवैज्ञानिक संकट के प्रबंधन के लिए व्यायाम की महत्वपूर्ण भूमिका को रेखांकित करते हैं।
कुछ नैदानिक दिशानिर्देश पहले से ही व्यायाम की भूमिका को स्वीकार करते हैं - उदाहरण के लिए, ऑस्ट्रेलियाई और न्यूजीलैंड नैदानिक दिशानिर्देश, दवा, मनोचिकित्सा और जीवनशैली में परिवर्तन जैसे व्यायाम का सुझाव देते हैं।
हालांकि, अन्य प्रमुख निकाय, जैसे कि अमेरिकन साइकोलॉजिकल एसोसिएशन क्लीनिकल प्रैक्टिस दिशानिर्देश, अकेले दवा और मनोचिकित्सा पर जोर देते हैं, और "वैकल्पिक" उपचार के रूप में एक्यूपंक्चर जैसे उपचार के समान श्रेणी में व्यायाम को सूचीबद्ध करते हैं।
जब उपचार की बात आती है तो "वैकल्पिक" का अर्थ कई चीजें हो सकती है, यह सुझाव देता है कि यह परंपरागत चिकित्सा से अलग होती है, या इसका कोई स्पष्ट साक्ष्य आधार नहीं है। मानसिक स्वास्थ्य के लिए व्यायाम के मामले में इनमें से कोई भी बात सही नहीं है।
ऑस्ट्रेलिया में भी, दवा और मनोचिकित्सा आमतौर पर व्यायाम की तुलना में अधिक निर्धारित होते हैं। ऐसा इसलिए हो सकता है क्योंकि क्लिनिकल सेटिंग्स में व्यायाम को निर्धारित करना और निगरानी करना कठिन है। और रोगी इसका विरोध कर सकते हैं क्योंकि वे ऊर्जा या प्रेरणा में कम महसूस करते हैं।
लेकिन 'इसे अकेले मत करें'
यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि जबकि व्यायाम मानसिक स्वास्थ्य स्थितियों के प्रबंधन के लिए एक प्रभावी उपकरण हो सकता है, मानसिक स्वास्थ्य की स्थिति वाले लोगों को एक व्यापक उपचार योजना विकसित करने के लिए एक स्वास्थ्य पेशेवर के साथ काम करना चाहिए।
एक उपचार योजना में मनोचिकित्सा और दवा जैसे उपचारों के साथ-साथ नियमित रूप से व्यायाम करना, संतुलित आहार खाना, और सामाजिकता जैसे जीवन शैली दृष्टिकोणों का संयोजन शामिल हो सकता है।
लेकिन व्यायाम को सिर्फ एक अच्छे विकल्प के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। यह मानसिक स्वास्थ्य स्थितियों के प्रबंधन के लिए एक शक्तिशाली और सुलभ उपकरण है - और सबसे अच्छी बात यह है कि यह मुफ़्त है और बहुत सारे अतिरिक्त स्वास्थ्य लाभों के साथ आता है। (द कन्वरसेशन)
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कोपेनहेगन, 18 फरवरी | विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) और आर्थिक सह-संगठन संचालन और विकास (ओईसीडी) द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, शारीरिक गतिविधि में वृद्धि से जहां बड़ी संख्या में जीवन बचाया जा सकता है, वहीं यूरोपीय संघ (ईयू) में स्वास्थ्य देखभाल लागत में सालाना अरबों यूरो की बचत भी की जा सकती है। शिन्हुआ समाचार एजेंसी रिपोर्ट का हवाला देते हुए बताया गया है कि डब्ल्यूएचओ द्वारा अनुशंसित न्यूनतम स्तर तक शारीरिक गतिविधि बढ़ाने से 2050 तक गैर-संचारी रोगों (एनसीडी) के 11.5 मिलियन नए मामलों को रोका जा सकता है, हजारों अनावश्यक मौतों से बचा जा सकता है, और स्वास्थ्य देखभाल लागत में सालाना यूरोपीय संघ का अरबों यूरो बच सकता है।
सार्वजनिक स्वास्थ्य पर ओईसीडी कार्यक्रम का नेतृत्व कर रहे मिशेल सेचिनी ने कहा हमारा मॉडलिंग अध्ययन स्पष्ट रूप से दिखाता है कि शारीरिक गतिविधि का स्तर बढ़ाना न केवल स्वास्थ्य के लिए अच्छा है, यह किसी भी देश की अर्थव्यवस्था के लिए सकारात्मक प्रभाव पैदा करेगा।
रिपोर्ट के अनुसार प्रति सप्ताह 150 मिनट की मध्यम-तीव्रता वाली शारीरिक गतिविधि की डब्ल्यूएचओ की सिफारिश के पालन से यूरोपीय संघ के नागरिक हर साल इस क्षेत्र में 10 हजार से अधिक समय से पहले होने वाली मौतों को रोकेंगेञ
रिपोर्ट के अनुसार, यूरोपीय संघ के देशों से अपेक्षा की जाती है कि यदि वे पूरी आबादी के बीच शारीरिक निष्क्रियता के मुद्दे का समाधान करते हैं, तो वे अपने स्वास्थ्य देखभाल बजट का औसतन 0.6 प्रतिशत बचा सकते हैं। यह लगभग 8 बिलियन यूरो सालाना है।
यूरोप में डब्ल्यूएचओ के क्षेत्रीय निदेशक हैंस क्लूज ने कहा, रिपोर्ट इस बात का सबूत देती है कि शारीरिक गतिविधि को बढ़ावा देने वाली नीतियों में निवेश करने से न केवल व्यक्तिगत भलाई और जनसंख्या स्वास्थ्य में सुधार होता है, बल्कि आर्थिक लाभांश भी मिलता है।
हालांकि, अध्ययन में यह भी सामने आया है कि यूरोपीय संघ में हर तीसरा व्यक्ति पर्याप्त मात्रा में शारीरिक गतिविधि में संलग्न नहीं होता है। 45 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने कहा कि वे कभी व्यायाम नहीं करते या खेल नहीं खेलते। पर्याप्त शारीरिक गतिविधि का सबसे अधिक बोझ जर्मनी, इटली और फ्रांस में पाया जाता है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि शारीरिक निष्क्रियकता चार सबसे घातक रोगों का कारण बना रहा है। इनमें हृदय रोग, कैंसर, पुरानी सांस की बीमारियां व मधुमेह शामिल है। (आईएएनएस)|
भारतीय उपभोक्ताओं पर सोशल मीडिया इंफ्लुएंसरों का प्रभाव तेजी से बढ़ रहा है. एक रिपोर्ट बताती है कि 90 फीसदी लोगों ने कोई चीज इसलिए खरीदी क्योंकि किसी इंफ्लुएंसर ने उसकी सिफारिश की थी .
पढ़ें डॉयचे वैले पर विवेक कुमार की रिपोर्ट-
सोशल मीडिया पर इंफ्लुएंसर की भूमिका निभाने वाली हस्तियों के कहे का भारतीय उपभोक्ताओं पर बहुत भारी असर होता है. एडवर्टाइजिंग स्टैंडर्ड्स काउंसिल ऑफ इंडिया की ताजा रिपोर्ट कहती है कि 70 प्रतिशत भारतीय उपभोक्ता कोई उत्पाद इसलिए खरीद लेते हैं क्योंकि किसी इंफ्लुएंसर ने उनकी सिफारिश की है.
काउंसिल की सालाना रिपोर्ट में भारत में विज्ञापन और उपभोक्ता के आपसी संबंधों के बारे में कई दिलचस्प जानकारियां सामने आई हैं. रिपोर्ट कहती है कि हर दस में से सात उपभोक्ता इंफ्लुएंसर की सिफारिश पर अमल करते हैं जबकि जिन लोगों ने सर्वे में हिस्सा लिया उनमें से 90 प्रतिशत लोग ऐसे थे जिन्होंने कम से कम एक चीज ऐसी खरीदी जिसे किसी इंफ्लुएंसर ने प्रमोट किया था.
18 शहरों में सर्वे
काउंसिल ने देशभर के 18 शहरों में 820 लोगों पर सर्वेक्षण के आधार पर यह रिपोर्ट तैयार की है. इन शहरों में महानगरों के अलावा छोटे और मध्यम दर्जे के शहर भी शामिल थे. रिपोर्ट के मुताबिक इंफ्लुएंसर की सिफारिशों का असर क्यों हो रहा है, इसका सबसे अहम कारण ब्रैंड के साथ जुड़ाव के मामले में पारदर्शिता और ईमानदारी रही. दूसरे नंबर पर उत्पाद से जुड़े निजी अनुभवों को साझा करना रहा.
यूट्यूब की मदद से बॉलीवुड के अपने सपनों को जी रहे हैं इस गांव के लोग
इंफ्लुएंसर ट्रस्ट रिपोर्ट नाम से जारी यह सर्वे कहता है कि पारदर्शिता की कमी, सामग्री का दोहराव और जरूरत से ज्यादा प्रमोशन लोगों को बुरा लगा और ऐसे मामलों में वे उत्पाद से दूर हो गए.
इस रिपोर्ट में पता चला है कि उत्पाद बेचने के लिए सोशल मीडिया इंफ्लुएंसर और ब्रैंड्स के बीच हो रही साझेदारियों का फायदा दोनों को ही हो रहा है. सर्वे में शामिल 58 प्रतिशत लोगों ने कहा कि ब्रैंड से जुड़ने पर कोई इंफ्लुएंसर ज्यादा विश्वसनीय हो जाता है जबकि 64 फीसदी उपभोक्ताओं का मानना था कि किसी इंफ्लुएंसर से जुड़ने पर ब्रैंड ज्यादा भरोसेमंद हो जाता है.
सर्वेक्षण में हिस्सा लेने वाले 79 प्रतिशत लोग सोशल मीडिया इंफ्लुएंसरों को भरोसेमंद मानते हैं. इनमें से 30 फीसदी लोग तो पूरा भरोसा करते हैं जबकि बाकी 49 फीसदी को "कुछ हद तक भरोसा” है.
विज्ञापनों पर भारतीय उपभोक्ताओं को खासा भरोसा है. 91 प्रतिशत लोगों ने कहा कि वे विज्ञापनों पर भरोसा करते हैं. इनमें से 42 प्रतिशत को तो पूरा भरोसा है जबकि बाकी 49 प्रतिशत कुछ हद तक भरोसा करते हैं.
तेजी से बढ़ता असर
दस साल पहले तक सोशल मीडिया इंफ्लुएंसर नाम का कोई पेशा या उद्योग भारतीय बाजार में मौजूद नहीं था जबकि अब यह कुछ सबसे तेजी से बढ़ते उद्योगों में से एक बन चुका है. हाल के सालों में उपभोक्ता और ब्रैंड दोनों ही फिल्म और अन्य क्षेत्रों की मशहूर हस्तियों के बजाय सोशल मीडिया पर मशहूर हुए और बड़ी फॉलोइंग वाले लोगों के पास जा रहे हैं.
इसकी वजह यह भी है कि लोग अब सोशल मीडिया पर अन्य माध्यमों से ज्यादा वक्त बिता रहे हैं. दस में से छह लोगों ने कहा कि वे दिन में कम से कम दो घंटे सोशल मीडिया पर गुजार रहे हैं. 61 प्रतिशत लोगों ने बताया कि उन्होंने तीन या उससे ज्यादा चीजें इसलिए खरीदी क्योंकि किसी इंफ्लुएंसर ने उनकी तारीफ की थी.
इंफ्लुएंसर से प्रभावित होने वाले लोगों में 25 से 44 वर्ष के लोगों की संख्या सबसे ज्यादा थी. इंफ्लुएंसर के प्रभाव का फायदा स्थापित कंपनियों को ही नहीं नए ब्रैंड्स को भी हुआ है. नए उत्पादों को बड़ी संख्या में लोगों ने सोशल मीडिया के जरिए ही खोजा.
विज्ञापन परिषद ने मई 2021 में सोशल मीडिया इंफ्लुएस गाइडलाइन जारी की थी. काउंसिल की रिपोर्ट कहती है कि उसके बाद उसे 2,767 शिकायतें मिली हैं. नियमों का सबसे ज्यादा उल्लंघन इंस्टाग्राम (58 फीसदी) पर हुआ. उसके बाद यूट्यूब (33), ट्विटर (7) और फेसबुक (2) का नंबर है.
रायपुर, 11 फरवरी। अपर केन्द्रीय भविष्य निधि आयुक्त (म.प्र. एवं छ.ग.), श्री पंकज जी ने दिनांक 09/02/2023 से 10/02/2023 तक छत्तीसगढ़ प्रवास किया। इस दौरान दिनांक 09/02/2023 को जिला कार्यालय बिलासपुर में कार्यों की समीक्षा की गई तथा जिला कार्यालय बिलासपुर के क्षेत्रीय कार्यालय में विस्तार की संभावनाओं का अवलोकन किया।
प्रवास के दूसरे दिन 10/02/2023 को क्षेत्रीय कार्यालय, रायपुर में छत्तीसगढ़ के विभिन्न स्थापनाओं के नियोक्ता प्रतिनिधियों, कर्मचारी प्रतिनिधियों एवं क्षेत्रीय समिति सदस्यों के साथ बैठक का आयोजन किया गया।
बैठक की अध्यक्षता माननीय अपर केन्द्रीय भविष्य निधि आयुक्त श्री पंकज महोदय ने की तथा बैठक में माननीय केन्द्रीय न्यासी बोर्ड सदस्य, श्री आशीष मोहन विज के अतिरिक्त क्षेत्रीय समिति सदस्य के सदस्य - श्री राम अवतार पाठक, श्री ओम प्रकाश सिंघानिया, श्री एच.एस. मिश्रा, श्री सत्येन्द्र नाथ दुबे एवं श्री राधेश्याम जयसवाल के साथ ही राष्ट्रीय नियोक्ता संघ के प्रदेश अध्यक्ष श्री प्रदीप टंडन जी की भी उपस्थिति रही।
बैठक के दौरान क्षेत्रीय कार्यालय, रायपुर की उपलब्धियों एवं क्रिया-कलापों के संबंध में एक पॉवर-पाइंट प्रेजेंटेशन की प्रस्तुती भी की गई। साथ ही माननीय अपर केन्द्रीय भ.नि. आयुक्त महोदय ने बैठक में उपस्थित विभिन्न नियोक्ता एवं कर्मचारी प्रतिनिधियों के साथ कर्मचारी भविष्य निधि अधिनियम के अंतर्गत संचालित विभिन्न योजनाओं के क्रियान्वयन के दौरान कर्मचारियों व नियोक्ताओं को होने वाली समस्याओं व उनके निराकरण के संबंध में विस्तृत जानकारी दी।
एंटीबायोटिक दवाएं संक्रमण के इलाज में शुरुआती जरिया मानी जाती हैं. इनका अंधाधुंध इस्तेमाल पूरी दुनिया के लिए बड़ा खतरा है. इसके कारण बैक्टीरिया, संक्रमण का इलाज करने वाली दवाओं से जीतने की ताकत विकसित कर लेते हैं.
भारत और चीन में बेकार पानी और उसे साफ करके पीने के पानी में बदलने वाले ट्रीटमेंट प्लांट, एंटीमाइक्रोबियल रेजिस्टेंस (एएमआर) पैदा करने का बड़ा ठिकाना बन रहे हैं. इसकी वजह है, पानी में एंटीबायोटिक की मौजूदगी. यह जानकारी "दी लैंसेट प्लानेट्री" में छपे एक हालिया शोध में सामने आई है.इस रिसर्च के ऑथर हैं- नदा हाना, प्रोफेसर अशोक जे तामहंकर और प्रोफेसर सेसिलिया स्टाल्सबी लुंडबोर्ग.
रिसर्च के लिए चीन और भारत समेत कई जगहों पर पानी के नमूने जमा किए गए.इनमें वेस्टवॉटर और ट्रीटमेंट प्लांट्स से लिए गए पानी के नमूने भी थे. जांच में पाया गया कि कई जगहों के पानी में एंटीबायोटिक की मौजूदगी अधिकतम सीमा से ज्यादा है. चीन में एएमआर की स्थिति पैदा करने का सबसे ज्यादा जोखिम नल के पानी में पाया गया. इसमें सिप्रोफ्लोएक्सिन की काफी मौजूदगी मिली.
कारगर नहीं हैं वेस्टवॉटर ट्रीटमेंट प्लांट
भारत जैसे देशों में शहरी इलाकों में आमतौर पर नगर निगम और नगरपालिकाएं लोगों को नल के पानी की आपूर्ति करती हैं. इस पानी को पहले ट्रीटमेंट प्लांट में साफ किया जाता है. प्लांट तक पहुंचने वाले पानी में कई स्रोतों का योगदान होता है. मसलन, अस्पताल, मवेशीपालन की जगहें, दवा बनाने वाली जगहों से निकलने वाला पानी.
इस पानी में मौजूद एंटीबायोटिक अगर ट्रीटमेंट प्लांट से होकर गुजरने के बाद भी मौजूद रहा, तो सप्लाई होने वाले पानी में भी एंटीबायोटिक होगा. लोग पीने, मवेशियों को पिलाने जैसे कामों में इस पानी का इस्तेमाल करेंगे. इससे एमएमआर का जोखिम बढ़ेगा. इस रिसर्च से यह भी पता चलता है कि ट्रीटमेंट प्लांट की मौजूदा व्यवस्थाएं ऐसे तत्वों को हटाने में असरदार साबित नहीं हो रही हैं. ऐसे में मौजूदा ढांचे को और कारगर बनाने की जरूरत है.
पशुपालन में भी सख्त नियमों की जरूरत
इसके अलावा मवेशीपालन भी एएमआर का बड़ा जरिया बन रहा है. गाय, मुर्गा और सूअर जैसे मांस और दूध के लिए पाले जाने वाले जानवरों को बड़े स्तर पर एंटीमाइक्रोबियल दवाएं दी जाती हैं. यूरोप के कई देशों में इससे निपटने के लिए सख्त कानून बनाए गए हैं, जिनसे मदद भी मिल रही है. 2021 में यूरोपियन फूड सेफ्टी अथॉरिटी (ईएफएसए) ने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि मवेशियों को एंटीबायोटिक दिए जाने में कमी आई है.
2016 से 2018 के बीच मांस और डेयरी के लिए पाले जाने वाले जानवरों में पॉलीमिक्सिन श्रेणी के एंटीबायोटिक्स का इस्तेमाल करीब 50 फीसदी तक कम हुआ है. लेकिन भारत और चीन जैसे विकासशील देशों में अभी भी स्थिति चिंताजनक बनी हुई है. 2019 में साइंस जर्नल में एएमआर से जुड़ी एक रिसर्च में अनुशंसा की गई थी कि ये देश मवेशीपालन में एंटीबायोटिक के इस्तेमाल पर पाबंदी लगाने के लिए जल्द-से-जल्द प्रभावी कदम उठाएं.
भारत के लिए गंभीर स्थिति
एएमआर पूरी दुनिया के लिए एक बड़ा खतरा है. इसके कारण अकेले 2019 में ही दुनियाभर में करीब 50 लाख लोगों की मौत हुई. जानकारों का कहना है कि भारत एएमआर से सबसे ज्यादा प्रभावित देशों में है. 2016 में आई एक रिपोर्ट के मुताबिक, एएमआर के कारण भारत में हर साल करीब 60 हजार नवजात बच्चों की मौत हो रही है. इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 2021 में केवल 43 फीसदी न्यूमोनिया के मामलों को ही शुरुआती स्तर (फर्स्ट लाइन) के एंटीबायोटिक्स से ठीक किया जा सका. 2016 में यह आंकड़ा 65 फीसदी था.
एएमआर के घातक जोखिम के मद्देनजर विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 2015 में इस विषय पर वैश्विक रणनीति की घोषणा की थी. भारत भी 2017 में इसपर एक नेशनल ऐक्शन प्लान लाया. इसके अंतर्गत राज्य सरकारों को प्रदेश स्तर पर एक रणनीति बनाने की सलाह दी गई. लेकिन "डाउन टू अर्थ" की एक रिपोर्ट के मुताबिक, नवंबर 2022 तक केवल तीन ही राज्य अपनी कार्य योजना ला पाए हैं.
आईएएनएस लाइफ
नई दिल्ली, 17 नवंबर । यदि आप दिल्ली में रहते हैं, तो आप शायद शहर में बढ़ते प्रदूषण के स्तर से वाकिफ होंगे। लंबे समय तक या बार-बार वायु प्रदूषकों के उच्च स्तर के संपर्क में आने से आपकी त्वचा को गंभीर नुकसान हो सकता है।
चूंकि दिल्ली लगातार स्मॉग की चपेट में आ रही है और हवा की गुणवत्ता खतरनाक स्तर तक पहुंच रही है, अगर उचित देखभाल नहीं की गई तो हवा में हानिकारक प्रदूषक आपकी त्वचा को नुकसान पहुंचा सकते हैं। आपकी त्वचा को कठोर प्रदूषकों से बचाने के लिए, सेटाफिल के संवेदनशील त्वचा विशेषज्ञों की एक टीम यह सुनिश्चित करने के लिए कुछ सुझाव साझा करती है कि हमारी त्वचा अपना पोषण खो न दे।
एयर प्यूरीफायर: अपने लिए एक अच्छे एयर प्यूरीफायर में निवेश करें। चूंकि अधिकांश एलर्जी धूल से होती है, एक अच्छी गुणवत्ता वाला वायु शोधक घर के वातावरण को साफ करने और धूल और अन्य हानिकारक कणों को हटाने में मदद करने के लिए आदर्श है।
अच्छी स्वच्छता रखे: हमेशा हर काम के बाद और अपनी त्वचा को छूने से पहले अपने हाथों को अच्छी तरह धो लें। अपने कपड़े दिन में कम से कम दो बार बदलें और सुनिश्चित करें कि आप अपनी त्वचा से सभी प्रदूषकों को हटाने के लिए नियमित रूप से स्नान करें।
त्वचा को पोषण दें: बढ़ते प्रदूषण और मौसमी बदलावों के कारण आपकी त्वचा को नुकसान हो सकता है, जिससे यह अधिक संवेदनशील हो जाती है और जलन और एलर्जी के प्रति संवेदनशील हो जाती है। संवेदनशील त्वचा वाले लोगों में त्वचा की नमी की पतली या कमजोर बाधा हो सकती है, जो जलन पैदा करने वाले तत्वों को घुसने देती है और हाइड्रेशन को बाहर निकलने देती है। सुनिश्चित करें कि संवेदनशील त्वचा की लचीलापन में सुधार करने के लिए आपकी त्वचा अच्छी तरह से पोषित और मॉइस्चराइज है। बाहर निकलते समय, हमेशा सेटाफिल मॉइस्चराइजिंग क्रीम जैसा मॉइश्चराइजर साथ रखें जो चिड़चिड़ी त्वचा को शांत कर सकता है और तीव्र नमी प्रदान कर सकता है।
बाहरी समय सीमित करें: वायु गुणवत्ता पर नजर रखना सुनिश्चित करता है कि आप अपने बाहरी समय का बेहतर प्रबंधन कर सकते हैं। सुबह टहलने के लिए जाएं जब हवा ताजी हो और अपने दिन और कार्यों की योजना बनाएं ताकि बाहर कई यात्राएं करने से बचें। इसके अलावा, सनस्क्रीन लगाना न भूलें क्योंकि खतरनाक हवा की गुणवत्ता के साथ सूरज की कठोर किरणें आपकी त्वचा को और अधिक परेशान कर सकती हैं।
हाइपोएलर्जेनिक उत्पादों की तलाश करें: हाइपोएलर्जेनिक उत्पादों का उपयोग करना आवश्यक है, खासकर यदि आपकी इस कठोर जलवायु में संवेदनशील त्वचा है। जब त्वचा पहले से ही चिड़चिड़ी हो तो मजबूत उत्पादों का उपयोग करने से आप जितना सोच सकते हैं उससे अधिक नुकसान हो सकता है। नियासिनमाइड जैसे अवयवों की तलाश करें, जो सूजन से निपटने में मदद करता है और आपकी त्वचा में तेल के नियमन में मदद करता है। (Health)।