सेहत-फिटनेस
नई दिल्ली, 29 अप्रैल । देवदारु हिमालय की वादियों में पाया जाने वाला एक विशाल वृक्ष है। यह न केवल अपनी प्राकृतिक सुंदरता और आध्यात्मिक महत्व के लिए प्रसिद्ध है, बल्कि इसके औषधीय, आर्थिक और पर्यावरणीय लाभ भी इसे अनमोल बनाते हैं। हाल के समय में आयुर्वेद के बढ़ते महत्व के बीच देवदारु ने विशेष तौर पर लोगों का ध्यान आकर्षित किया है। देवदारु को 'देवताओं की लकड़ी' के रूप में जाना जाता है। इस पौधे के सभी भागों का उपयोग विभिन्न औषधीय लाभों के लिए किया जाता है। भारत में यह हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, जम्मू-कश्मीर और सिक्किम जैसे राज्यों में उगता है और इसकी ऊंचाई 40-60 मीटर तक हो सकती है। इसकी शंकुधारी पत्तियां और सुगंधित लकड़ी इसे विशिष्ट बनाती हैं। हिंदू धर्म में देवदारु को पवित्र माना जाता है। पुराणों में इसे भगवान शिव से जोड़ा जाता है और कई धार्मिक स्थलों पर इसके वृक्ष लगाए जाते हैं। इसकी शीतल छाया और सुगंधित वातावरण ध्यान और योग के लिए बेहतर माहौल प्रदान करते हैं। आयुर्वेद में देवदारु का विशेष स्थान है। इसकी छाल, पत्तियां, तेल और राल का उपयोग विभिन्न रोगों के उपचार में किया जाता है। आयुर्वेद के अनुसार, देवदारु में एंटी-इंफ्लेमेटरी, एंटी-बैक्टीरियल और एंटीफंगल गुण होते हैं।
इसका तेल जोड़ों के दर्द, गठिया और मांसपेशियों की अकड़न को कम करने में प्रभावी है। इसके अलावा यह त्वचा रोगों में भी उपयोगी है। देवदारु जुकाम-खांसी के समय शरीर से अतिरिक्त कफ को भी बाहर निकालने में मदद करता है। इस गुण के कारण रेस्पिरेटरी ट्रैक्ट से बलगम को निकालकर खांसी जैसे कफ विकार रोगों से राहत दिलाने में मदद करता है। देवदारु का सेवन करने कफ को संतुलित करने और फेफड़ों से अतिरिक्त बलगम को बाहर निकालने में मदद मिलती है। जिससे यह अस्थमा के लक्षणों को नियंत्रित करने में मदद करता है और सांस फूलने की स्थिति में राहत देता है।
नई दिल्ली, 26 अप्रैल । एंटीमाइक्रोबियल रेसिस्टेंस (एएमआर) यानी संक्रमणों के इलाज में दवाइयों के असर कम होने की समस्या आज दुनिया भर में एक बड़ी स्वास्थ्य चिंता बन चुकी है। हर साल लाखों लोगों की मौत इसी वजह से होती है। एक नई रिसर्च में पता चला है कि थोड़े समय तक एंटीबायोटिक लेने से भी हमारे पेट के बैक्टीरिया में लंबे समय तक रेसिस्टेंस (प्रतिरोधक क्षमता) बन सकती है। अमेरिका की स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने इस अध्ययन में 'सिप्रोफ्लॉक्सासिन' नामक एंटीबायोटिक पर ध्यान केंद्रित किया। यह दवा शरीर के कई हिस्सों के बैक्टीरियल संक्रमण के इलाज में काम आती है। रिसर्च में पाया गया कि सिप्रोफ्लॉक्सासिन कई अलग-अलग बैक्टीरिया प्रजातियों में स्वतंत्र रूप से रेजिस्टेंस पैदा कर सकता है और यह असर दस सप्ताह से ज्यादा समय तक बना रह सकता है। एएमआर का मुख्य कारण एंटीबायोटिक दवाओं का जरूरत से ज्यादा या गलत इस्तेमाल है।
पहले के अध्ययन लैब में या जानवरों पर किए जाते थे, लेकिन इस नई रिसर्च में वैज्ञानिकों ने 60 स्वस्थ इंसानों पर लंबा अध्ययन किया और देखा कि कैसे एंटीबायोटिक के बाद बैक्टीरिया में बदलाव आते हैं। यह शोध 'नेचर' नामक पत्रिका में छपा है। शोधकर्ताओं ने 60 स्वस्थ वयस्कों को पांच दिन तक दिन में दो बार 500 मिलीग्राम सिप्रोफ्लोक्सासिन लेने को कहा। उन्होंने प्रतिभागियों के मल सैंपल लिए और एक कंप्यूटर तकनीक से 5,665 बैक्टीरियल जीनोम का विश्लेषण किया, जिसमें 23 लाख से ज्यादा जेनेटिक बदलाव (म्यूटेशन) पाए गए। इनमें से 513 बैक्टीरिया समूहों में 'जीवाईआरए' नामक जीन में बदलाव पाया गया, जो फ्लोरोक्विनोलोन नामक एंटीबायोटिक समूह से रेजिस्टेंस बनाने से जुड़ा है। फ्लोरोक्विनोलोन ऐसे एंटीबायोटिक्स हैं जो बैक्टीरिया के डीएनए बनाने की प्रक्रिया को बाधित कर उन्हें मारते हैं। ज्यादातर म्यूटेशन हर व्यक्ति के शरीर में अलग-अलग तरह से अपने आप बन गए।
नई दिल्ली, 26 अप्रैल । इंस्टीट्यूट ऑफ लिवर एंड बिलियरी साइंसेज (आईएलबीएस) के निदेशक डॉ. एसके. सरीन ने कहा कि लिवर को स्वस्थ रखने के लिए अच्छी नींद लेना और जंक फूड से बचना बहुत जरूरी है। डॉ. सरीन ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म 'एक्स' पर लिखा, "जैसा इसके नाम से ही साफ है, जंक फूड कूड़े में फेंकने लायक है। अगर इसे रोजाना खाते रहेंगे तो लिवर को गंभीर नुकसान हो सकता है। इसे डस्टबिन में डालना चाहिए। अगर आप अपने पेट और आंतों को डस्टबिन समझते हैं, तभी इसे खाएं, वरना बचें।" जंक फूड में खराब वसा, ज्यादा चीनी और प्रोसेस्ड चीजें होती हैं, जो मोटापा, हाई कोलेस्ट्रॉल और टाइप 2 डायबिटीज जैसी बीमारियों का खतरा बढ़ाती हैं। ये बीमारियां नॉन-अल्कोहलिक फैटी लिवर डिजीज का कारण बन सकती हैं और आगे चलकर सिरोसिस या लिवर कैंसर जैसी गंभीर समस्याओं में बदल सकती हैं। डॉ. सरीन ने यह भी कहा कि लोगों को समय पर सोना चाहिए और देर रात खाना नहीं खाना चाहिए, क्योंकि इससे पेट में मौजूद अच्छे बैक्टीरिया प्रभावित होते हैं, जो सेहत के लिए बहुत जरूरी हैं। रिसर्च से पता चला है कि जो लोग ठीक से नींद नहीं लेते, उन्हें फैटी लिवर की बीमारी होने का खतरा ज्यादा रहता है।
इसके अलावा, देर रात खाना खाने से लिवर को नुकसान पहुंच सकता है, क्योंकि सोते समय शरीर वसा और कार्बोहाइड्रेट को सही से पचा नहीं पाता, जिससे यह लिवर में जमा हो जाते हैं। डॉक्टर सरीन ने कहा, “देर से सोना और रात को देर से खाना, दोनों ही आदतें अच्छी नहीं हैं। आपकी आंतों के बैक्टीरिया भी तब देर से काम करेंगे। इसलिए अच्छी नींद लेना सबसे बढ़िया उपाय है।” डॉ. सरीन ने लोगों को सलाह दी कि वे पैसा, ताकत और ऊंचे पदों के पीछे भागते हुए अपनी सेहत न खो दें। एक स्वस्थ शरीर और अच्छी नींद ही असली खुशी देती है। नॉन-अल्कोहलिक फैटी लिवर डिजीज, जिसे अब मेटाबोलिक डिस्फंक्शन-एसोसिएटेड स्टीटोटिक लिवर डिजीज कहा जाता है, तब होती है जब शराब का सेवन न करने वालों के लिवर में भी वसा जमने लगती है।
नई दिल्ली, 25 अप्रैल । मुलेठी एक औषधीय जड़ी-बूटी है, जो औषधीय गुणों से भरपूर है। आयुर्वेद में मुलेठी का उपयोग विभिन्न स्वास्थ्य समस्याओं से निजात पाने के लिए किया जाता है। मुलेठी का सेवन हार्ट ब्लॉकेज को रोकने में मददगार साबित हो सकता है। मुलेठी का सेवन रक्त संचार को बेहतर बनाता है, जिससे हृदय तक रक्त (खून) का प्रवाह सुचारू रहता है और हार्ट ब्लॉकेज की आशंका कम हो जाती है। मुलेठी में एंटीऑक्सिडेंट और प्रोटीन जैसे तत्व हृदय की मांसपेशियों को मजबूत करते हैं और हृदय संबंधी सूजन को कम करते हैं, जिससे हार्ट अटैक का खतरा कम हो जाता है। मुलेठी का सेवन कोलेस्ट्रॉल के स्तर को भी नियंत्रित करता है, जो हार्ट ब्लॉकेज से बचाव में सहायक होता है। आयुर्वेद में हृदय रोग के मरीजों को तीन से पांच ग्राम मुलेठी के चूर्ण को 15 से 20 ग्राम मिश्री वाले पानी के साथ रोजाना सेवन करने की सलाह दी जाती है, जिससे हृदय की सेहत में सुधार होता है और हार्ट ब्लॉकेज का खतरा भी कम होता है।
मुंबई, 8 अप्रैल । आयुर्वेद में ऐसी कई औषधियां हैं, जिनके सेवन से शारीरिक समस्याएं चुटकी में दूर हो सकती हैं। आज बात करेंगे अनोखी खुशबू और औषधीय गुणों से भरपूर सितारे के आकार वाले चक्र फूल के बारे में जो तारे की तरह भले ही चमकता तो नहीं, मगर सेहत के लिहाज से बहुत फायदेमंद माना जाता है। आयुर्वेद में इसे लाभकारी बताया गया है। चक्र फूल सामान्य तौर पर हर भारतीय रसोई का अहम हिस्सा है। यह न सिर्फ खाने का स्वाद बढ़ाता है, बल्कि सेहत के लिहाज से भी बेहद फायदेमंद है। आयुर्वेदाचार्य बताते हैं कि चक्रफूल में कई पोषक तत्व पाए जाते हैं। पंजाब स्थित बाबे के आयुर्वेदिक मेडिकल कॉलेज एवं हॉस्पिटल के डॉक्टर प्रमोद आनंद तिवारी (एमडी) ने बताया, “चक्रफूल में मिनरल्स, एंटीऑक्सीडेंट और विटामिन पाए जाते हैं। रोजाना की डाइट में इसे शामिल करके कई तरह की बीमारियों से बचा जा सकता है, जो सेहत को फायदा पहुंचाता है।
इसका सेवन काढ़े, चाय या मसालों के रूप में भी किया जा सकता है।” आयुर्वेदाचार्य ने यह भी बताया कि चक्रफूल का सेवन कैसे करना चाहिए। उन्होंने विस्तार से इसके बारे में जानकारी देते हुए बताया, “आप इसे चाय की तरह पी सकते हैं। इसके लिए खौलते पानी में अदरक, इलायची के साथ चक्रफूल डालें और उसे खूब पका लें। इसे पीने से शरीर में ताजगी आती है और यह संक्रामक बीमारियों से लड़ने में भी मदद करता है।” उन्होंने बताया कि चाय के साथ ही चक्रफूल का काढ़ा भी मौसमी तकलीफों से लड़ने में सहायक होता है और इम्यूनिटी को भी बूस्ट करता है। डॉक्टर प्रमोद ने बताया, “बदलते मौसम में सर्दी, खांसी और बुखार की समस्या आम सी बात है। ऐसे में इससे राहत पाने के लिए चक्रफूल का इस्तेमाल किया जा सकता है। चक्रफूल में आयरन, कैल्शियम, मैग्नीशियम के साथ और भी कई पोषक तत्व पाए जाते हैं। यह इम्यूनिटी को मजबूत करता है।”
(ग्यूसेप्पे डी अगस्टिनो और जोआओ पाउलो अल्बुकर्क, मैनचेस्टर विश्वविद्यालय)
मैनचेस्टर (ब्रिटेन), 5 अप्रैल। भूख महसूस होने पर आप ना केवल कुछ खाने के लिए लालायित होते हैं, बल्कि यह आपकी प्रतिरक्षा प्रणाली को भी बदल सकता है।
चूहों पर हाल ही में किए गए अध्ययन में हमने पाया कि भूख के अहसास मात्र से ही रक्त में प्रतिरक्षा कोशिकाओं की संख्या में परिवर्तन हो सकता है। इससे पता चलता है कि मस्तिष्क में भूख के बारे में विचार आना भी प्रतिरक्षा प्रणाली के बदलाव को प्रभावित कर सकता है।
‘साइंस इम्यूनोलॉजी’ में प्रकाशित हमारा नया शोध, उस दीर्घकालिक धारणा को चुनौती देता है कि प्रतिरक्षा मुख्य रूप से पोषण में वास्तविक व भौतिक परिवर्तनों से प्रभावित होती है जैसे रक्त शर्करा या पोषक तत्वों के स्तर में परिवर्तन। इसके बजाय, नया शोध दर्शाता है कि केवल धारणा (मस्तिष्क का यह सोचना कि क्या हो रहा है) प्रतिरक्षा को नया आकार दे सकती है।
हमने दो प्रकार की अति विशिष्ट मस्तिष्क कोशिकाओं (एजीआरपी न्यूरॉन और पीओएमसी न्यूरॉन) पर ध्यान केंद्रित किया, जो शरीर की ऊर्जा स्थिति को समझती हैं तथा इसकी प्रतिक्रिया में भूख लगने और भूख मिटने का अहसास कराती हैं।
जब ऊर्जा कम होती है तो एजीआरपी न्यूरॉन भूख बढ़ने का अहसास देते हैं, जबकि पीओएमसी न्यूरॉन खाने के बाद तृप्ति का संकेत देते हैं।
आनुवंशिक उपकरणों का उपयोग करते हुए, हमने उन चूहों में भूख के न्यूरॉन को कृत्रिम रूप से सक्रिय किया, जिन्होंने पहले से ही भरपूर भोजन खा लिया था।
मस्तिष्क कोशिकाओं के इस छोटे लेकिन शक्तिशाली समूह को सक्रिय करने से चूहों में भोजन की तलाश करने की तीव्र इच्छा पैदा हुई। यह खोज पिछले कई अध्ययनों में दिखाए गए तथ्यों पर आधारित है।
हालांकि, हमें आश्चर्य हुआ कि इस कृत्रिम भूख की स्थिति के कारण रक्त में विशिष्ट प्रतिरक्षा कोशिकाओं में भी उल्लेखनीय गिरावट आई, जिन्हें ‘मोनोसाइट’ कहा जाता है। ये कोशिकाएं प्रतिरक्षा प्रणाली की पहली रक्षा पंक्ति का हिस्सा हैं और सूजन को नियंत्रित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
इसके विपरीत, जब हमने खाना नहीं खाने वाले चूहों में पीओएमसी न्यूरॉन को सक्रिय किया, तो मोनोसाइट स्तर सामान्य के करीब पहुंच गए, भले ही चूहों ने कुछ खाया न हो।
इन प्रयोगों से हमें पता चला कि भूख लगने या भोजन मिलने की मस्तिष्क की धारणा, रक्त में प्रतिरक्षा कोशिकाओं की संख्या को प्रभावित करने के लिए पर्याप्त थी।
यह समझने के लिए कि मस्तिष्क और प्रतिरक्षा प्रणाली के बीच यह आधार कैसे काम करता है, हमने देखा कि मस्तिष्क यकृत के साथ कैसे संचार करता है। यह अंग शरीर में ऊर्जा के स्तर को समझने में महत्वपूर्ण है। शोध से यह भी पता चला है कि यकृत अस्थि मज्जा के साथ संचार करता है, जो हड्डियों के अंदर का नरम ऊतक है जहां रक्त और प्रतिरक्षा कोशिकाएं बनती हैं।
हमने भूख संबंधी न्यूरॉन और यकृत के बीच तंत्रिका तंत्र के माध्यम से एक सीधा संबंध पाया, जो हृदय गति, रक्त प्रवाह जैसे कार्यों को विनियमित करने तथा अंगों द्वारा तनाव एवं ऊर्जा की मांग के संबंध में प्रतिक्रिया करने में व्यापक भूमिका निभाता है। (द कन्वरसेशन)
(द कन्वरसेशन) शफीक माधव
नयी दिल्ली, 31 मार्च। सोने से एक घंटे पहले स्क्रीन का इस्तेमाल करने से अनिद्रा का खतरा लगभग 60 प्रतिशत बढ़ सकता है और नींद का समय लगभग आधे घंटे कम हो सकता है। यह बात एक अध्ययन में सामने आयी है।
नॉर्वे में 18-28 वर्ष की आयु के 45,000 से अधिक छात्रों से उनके सोने के समय और आदतों के बारे में सवाल किया गया, जिसमें यह भी शामिल था कि वे सोने के बाद कितनी देर तक स्क्रीन का इस्तेमाल करते हैं। इन छात्रों ने स्क्रीन के इस्तेमाल का उद्देश्य, जैसे कि फ़िल्में देखना या सोशल मीडिया देखना, भी बताया।
‘फ्रंटियर्स इन साइकियाट्री’ पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन के मुख्य लेखक और नॉर्वेजियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक हेल्थ के गनहिल्ड जॉन्सन हेटलैंड ने कहा, ‘‘स्क्रीन गतिविधि का प्रकार उतना मायने नहीं रखता जितना कि बिस्तर पर स्क्रीन का उपयोग करते हुए बिताया गया कुल समय।’’
हेटलैंड ने कहा, ‘‘हमने सोशल मीडिया और अन्य स्क्रीन गतिविधियों के बीच कोई महत्वपूर्ण अंतर नहीं पाया, जिससे पता चलता है कि स्क्रीन का उपयोग ही नींद में व्यवधान का मुख्य कारण है।’’
अनिद्रा को सोने में 30 मिनट से अधिक समय लगने के रूप में परिभाषित किया जाता है और इसमें रात के दौरान अक्सर नींद से जागना जैसी परेशानियां शामिल हो सकती हैं। नींद की गुणवत्ता प्रभावित होती है और इसलिए, दिन के दौरान नींद आ सकती है, जिससे गतिविधियों में बाधा आती है। (भाषा)
नई दिल्ली, 24 मार्च । आयुर्वेद में तुलसी बेहद खास औषधीय पौधा है। इस पौधे की पत्तियों में ढेरों औषधीय गुण छिपे होते हैं। तुलसी के इस्तेमाल से इम्यूनिटी मजबूत होती है। तुलसी की पत्तियां चबाकर खाएं या इसका काढ़ा बनाकर पीएं, हर तरह से ये आपके लिए बहुत फायदेमंद होता है। तुलसी में एंटीऑक्सीडेंट और एंटी-बैक्टीरियल गुण होते हैं, जो इम्यूनिटी को मजबूत करते हैं और संक्रमण से बचाव में मदद करते हैं। मानसून में कई तरह के वायरस और बैक्टीरिया का खतरा बढ़ जाता है। यदि आपको इससे बचना है, तो तुलसी का सेवन जरूर करें। बुजुर्ग हमेशा से सुबह खाली पेट तुलसी का काढ़ा बनाकर पीने की सलाह देते आए हैं। तुलसी में विटामिन सी, जिंक और आयरन जैसे विटामिन और खनिज होते हैं, जो प्रतिरक्षा प्रणाली के लिए जरूरी हैं। बताया जाता है कि तुलसी का काढ़ा गले की खराश, खांसी और जुकाम को ठीक करने में बहुत असरदार है। इसके अलावा इसके सेवन से तनाव कम होता है। इसमें एडाप्टोजेन गुण होते हैं, जो तनाव और चिंता को कम करने में सहायक हैं। इसके अलावा तुलसी का काढ़ा पेट की गैस, अपच और कब्ज को दूर करने में मददगार है। अस्थमा, ब्रोंकाइटिस और सांस की अन्य समस्याओं में इसके सेवन से राहत मिलती है।
(दीपा कामदार, किंग्स्टन विश्वविद्यालय)
लंदन, 22 मार्च। ब्रिटेन के लगभग आधे वयस्क लोग वर्तमान में खाद्य पूरक पदार्थ (फूड सप्लीमेंट) लेते हैं लेकिन विटामिन और खनिजों की आमतौर पर कम मात्रा में आवश्यकता होती है और किसी भी अच्छी चीज की अधिकता आपके लिए हानिकारक हो सकती है।
यहां आपको कुछ सबसे आम विटामिन और खनिज पदार्थों के लाभों और जोखिमों के बारे में जानने की आवश्यकता है।
विटामिन ए
विटामिन ए संक्रमण से लड़ने में प्रतिरक्षा प्रणाली की सहायता करता है, आपको अंधकार में बेहतर देखने में मदद करता है और स्वस्थ त्वचा के लिए आवश्यक है। ज्यादातर लोगों को डेयरी और तैलीय मछली उत्पादों से पर्याप्त मात्रा में विटामिन ए मिल सकता है। पीली और लाल सब्जियों में बीटा-कैरोटीन होता है, जो शरीर में विटामिन ए में बदल जाता है। पुरुषों और महिलाओं के लिए अनुशंसित दैनिक खुराक (आरडीए) क्रमशः 700 माइक्रोग्राम और 600 माइक्रोग्राम है।
यद्यपि आपका शरीर अतिरिक्त विटामिन ए संग्रहीत कर लेता है, लेकिन कुछ शोधों से पता चलता है कि कई वर्षों तक प्रतिदिन 1.5 मिलीग्राम से अधिक विटामिन ए का सेवन करने से हड्डियां कमजोर हो सकती हैं। वृद्ध लोगों में, इससे फ्रैक्चर हो सकता है क्योंकि उन्हें ऑस्टियोपोरोसिस होने की अधिक आशंका होती है।
ऑस्टियोपोरोसिस एक ऐसी स्थिति है जिसमें हड्डियां कमजोर हो जाती हैं और उनका घनत्व कम हो जाता है।
यदि आप गर्भवती हैं, तो आपको विटामिन ए की खुराक से पूरी तरह बचना चाहिए - अधिक विटामिन ए जन्म दोष और गर्भपात का कारण बन सकता है।
विटामिन बी6
इसे पाइरिडोक्सिन भी कहा जाता है, यह विटामिन स्वस्थ लाल रक्त कोशिकाओं को बनाने और शरीर को भोजन से ऊर्जा संग्रहीत करने में मदद करने के लिए आवश्यक है। पुरुषों और महिलाओं के लिए आरडीए क्रमशः 1.4एमजी और 1.2एमजी प्रतिदिन है। इसे अनाज, चिकन और सोयाबीन के सेवन से प्राप्त किया जा सकता है।
फोलिक एसिड
स्वस्थ लाल रक्त कोशिकाओं के निर्माण के लिए फोलिक एसिड या फोलेट की आवश्यकता होती है। फोलिक एसिड के अच्छे स्रोतों में हरी पत्तेदार सब्जियां, चने और ‘फोर्टिफाइड’ अनाज शामिल हैं। आरडीए प्रतिदिन 200 माइक्रोग्राम है।
विटामिन और खनिज पदार्थों से युक्त अनाज को ‘फोर्टिफाइड’ अनाज कहा जाता है।
गर्भवती महिलाओं में स्पाइना बिफिडा जैसे न्यूरल ट्यूब दोषों को रोकने के लिए फोलिक एसिड की सिफारिश की जाती है। डॉक्टर उच्च जोखिम वाले रोगियों में अनुशंसित खुराक (5 मिलीग्राम) से अधिक खुराक लिख सकते हैं।
स्पाइना बिफिडा, न्यूरल ट्यूब दोष (एनटीडी) का एक प्रकार है। यह एक जन्म दोष है, जिसमें गर्भ में शिशु की रीढ़ की हड्डी ठीक से नहीं बनती। इससे रीढ़ की हड्डी में दरार आ जाती है और केंद्रीय तंत्रिका तंत्र को नुकसान पहुंचता है।
एक हजार माइक्रोग्राम (1 मिलीग्राम) से अधिक फोलिक एसिड का सेवन करने से विटामिन बी12 की कमी के लक्षण, जैसे थकान, हाथ-पैरों में झुनझुनी और मांसपेशियों में कमजोरी, छिप सकते हैं।
विटामिन डी और कैल्शियम
शरीर में कैल्शियम की मात्रा विटामिन डी द्वारा नियंत्रित होती है। दोनों पोषक तत्व स्वस्थ हड्डियों और दांतों के लिए सहायक होते हैं। विटामिन डी प्रतिरक्षा प्रणाली, मांसपेशियों और तंत्रिकाओं के लिए भी आवश्यक है। ‘फोर्टिफाइड’ अनाज जैसे कुछ खाद्य पदार्थों में विटामिन डी होता है, लेकिन यह ज्यादातर तब बनता है जब त्वचा सूरज की रोशनी के संपर्क में आती है। विटामिन डी के लिए आरडीए 10 माइक्रोग्राम है। जिन लोगों में विटामिन डी की कमी होती है, उन्हें ज्यादा खुराक दी जा सकती है।
जो लोग धूप में अधिक नहीं निकलते, उन्हें रोजाना पूरक आहार लेने से फायदा हो सकता है। लेकिन कई सालों तक विटामिन डी की बहुत अधिक मात्रा लेने से गुर्दे खराब हो सकते हैं और दिल की अनियमित धड़कन का कारण बन सकती है। यह हड्डियों के लिए भी बुरा हो सकता है।
लौह
आयरन लाल रक्त कोशिकाओं के निर्माण के लिए आवश्यक एक महत्वपूर्ण पोषक तत्व है। इसके स्रोतों में लाल मांस और बीन्स शामिल हैं। आयरन की कमी दुनिया में एनीमिया का सबसे आम कारण है; हालांकि, बहुत अधिक मात्रा में इसका सेवन करना विषाक्त हो सकता है।
आयरन के लिए आरडीए आपके लैंगिक और उम्र के आधार पर अलग-अलग होता है, लेकिन आपको प्रतिदिन 17 मिलीग्राम से ज्यादा आयरन नहीं लेना चाहिए।
फिश ऑयल
इन पूरक आहार में ओमेगा-3 फैटी एसिड होते हैं। शरीर में कोशिकाओं को सहारा देने के लिए और साथ ही हृदय, फेफड़े, रक्त वाहिकाओं और प्रतिरक्षा प्रणाली को ठीक से काम करने के लिए अलग-अलग वसा की आवश्यकता होती है। इनमें से कुछ शिशुओं के मस्तिष्क और आंखों के विकास के लिए आवश्यक हैं। फिश ऑयल को हृदय रोग की कम संभावना से जोड़ा गया है। हालांकि, अध्ययनों में इस बात के मिश्रित परिणाम मिले हैं कि ये वास्तव में कितने प्रभावी हैं। (द कन्वरसेशन)
कमला त्यागराजन
अक्सर जब कोई अपनी मांसपेशियां (मसल) बढ़ाना चाहता है तो मांस-मछली और अंडे से लेकर प्रोटीन शेक तक लेने की सलाह दी जाती है.
ऐसी सलाह कितनी कारगर है और ऐसे प्रोटीन से भरे भोजन को खाने का सही तरीका क्या है?
इंग्लैंड के वेस्ट ससेक्स की फ़िटनेस इन्फ्लुएंसर सोफ़िया मौलसन (21) ने फ़िटनेस पर 19 साल की उम्र में ध्यान देना इसलिए शुरू किया क्योंकि उनका वज़न अधिक था.
पहले वो अधिक खाना खाने के बाद अच्छा महसूस करते थे. फिर एक दिन उन्हें अहसास हुआ कि मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए इसपर नियंत्रण रखना ज़रूरी है.
वह कहती हैं, "मुझे पता चला कि मज़बूत होने में कितना सशक्त महसूस होता है. हर छोटा लक्ष्य पूरा करने मुझे आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया."
सोफ़िया ने रिसर्च शुरू की तो उन्हें मांसपेशियों को विकसित करने के लिए प्रोटीन की ज़रूरत के बारे में पता चला.
वे शाकाहारी हैं इसलिए शुरू में उन्हें लगा कि प्रोटीन सिर्फ डाइट से पूरा करने में मुश्किल होगी. इसलिए उन्होंने प्रोटीन पाउडर लेना शुरू किया.
सोफ़िया ने बताया, "संतुलित डाइट से अपनी ज़रूरतों को पूरा करना संभव था, लेकिन इसके लिए अक्सर समय और सही से प्लानिंग की आवश्यकता होती है. प्रोटीन पाउडर समस्याओं का सुविधाजनक समाधान पेश करता है. खासकर मेरे व्यस्त जीवन में."
पहले बॉडीबिल्डर मांस और कच्चा अंडा पीते थे. लेकिन आज प्रोटीन पाउडर और संतुलित आहार का एक बड़ा बिज़नेस है.
शरीर को मजबूत बनाने के लिए वास्तव में क्या इतने प्रोटीन की आवश्यकता है? इसका सेवन करने का सबसे अच्छा तरीका क्या है?
बॉडी बनाना
लंदन में स्थित प्योर स्पोर्ट्स मेडिसिन की स्पोर्ट्स डाइटिशियन लिनिया पटेल ने कहा कि इंसानी शरीर में प्रोटीन की बड़ी भूमिका होती है.
जैसी ही ये पचता है, खाने में मौजूद प्रोटीन अमीनो एसिड में टूट जाता है. अमीनो एसिड वो है, जिनसे प्रोटीन बनता है. प्रोटीन से कोशिकाएं बनतीं हैं. जो हमारे शरीर के विकास और इसके बेहतर काम करने के लिए ज़रूरी होती हैं.
मानव शरीर में 20,000 से अधिक प्रकार की प्रोटीन होती है. जो अलग-अलग भूमिका निभाती है.
हालांकि किसी को कितने प्रोटीन की ज़रूरत होती है ये उनकी उम्र, शरीर और जीवनशैली के आधार पर तय होता है.
लिनिया पटेल ने कहा, "ब्रिटेन में सरकारी गाइडलाइन के अनुसार जो व्यस्क अधिक एक्टिव नहीं है उन्हें अपने वज़न के हर किलोग्राम के लिए 0.8 और 0.75 ग्राम प्रोटीन का सेवन करना चाहिए."
"उदाहरण के तौर पर कोई 70 किलो का है तो उसे 0.8 से गुना कर लीजिए. तो ऐसे व्यक्ति को एक दिन में कुल 56 ग्राम प्रोटीन की ज़रूरत होगी."
अधिकतर लोगों को अपने सामान्य डाइट से अधिक मात्रा में प्रोटीन प्राप्त होता है. औसत अमेरिकी अपनी कुल कैलोरी का लगभग 14 से 16 फ़ीसदी प्रोटीन के रूप में लेता है.
लेकिन अगर आप ज्यादा एक्टिव है तो आपको हर दिन 1 ग्राम प्रति किलोग्राम से अधिक प्रोटनी की ज़रूरत होगी.
किसी को कितने प्रोटीन की ज़रूरत है, ये उनकी उम्र और अन्य कारणों पर निर्भर करता है. अधिक प्रोटीन लेने से मांसपेशियों को बनाए रखने में मदद मिलती है.
मेनोपॉज के बाद महिलाओं को अधिक प्रोटीन की ज़रूरत होती है.
लिनिया पटेल ने कहा कि मैंने अपनी प्रैक्टिस के दौरान उन महिलाओं के साथ काम किया है जो कि मेनोपॉज़ से गुजर रही थीं. ये महिलाएं अपनी ज़रूरत के अनुसार प्रोटीन नहीं ले रही थीं.
अलग अलग जरूरतें ?
रिसर्च में सामने आया है कि एथलीट, पावरलिफ्टर या बॉडीबिल्डर को हर रोज 1.6-2.2 ग्राम प्रोटीन की ज़रूरत होती है.
मेडिकल एक्सपर्ट का कहना है कि जहां भी संभव वो लोगों को अपने आहार से प्रोटीन की अपनी आवश्यकता पूरी कर लेनी चाहिए.
वीगन लोग सोया से बने सामान और दाल सहित अन्य चीजों से इसे पूरा कर सकते हैं. वहीं शाकाहारी लोग दूध-दही जैसे कई खाद्य पदार्थों से प्रोटीन की ज़रूरत को पूरा कर सकते हैं.
बाक़ी लोग मीट और सी फूड का सेवन बढ़ा सकते हैं.
अपने शरीर के लिए पर्याप्त मात्रा में प्रोटीन हासिल करने के लिए विभिन्न खाद्य पदार्थों का सेवन करने पड़ता है. लेकिन हर किसी के पास ऐसा करने का समय या पैसा नहीं होता है.
केरल के राजगिरी अस्पताल के लिवर स्पेशलिस्ट सिरियेक एबी फिलिप्स ने कहते हैं, "सिद्धांत के तौर पर अंडे, मांस, डेयरी उत्पाद और दालों जैसे संतुलित आहार के माध्यम से प्रोटीन की ज़रूरत पूरी की जा सकती है. लेकिन कई लोगों के लिए ये बिना सप्लीमेंटेशन के आसान नहीं."
अमेरिका के दक्षिण कैरोलिना की डाइटिशियन लॉरेन मानेकर ने कहा कि व्यस्त लोगों के लिए प्रोटीन पाउडर काफी सहायक होता है.
विश्व में प्रोटीन पाउडर का बाजार 2021 में 4.4 बिलियन डॉलर था. माना जा रहा है कि ये 2030 तक 19.3 बिलियन डॉलर तक पहुँच सकता है.
सोफ़िया मौलसन ने कहा, "जब मैंने प्लांट बेस्ड प्रोटीन पाउडर को अपनी डाइट का हिस्सा बनाया तो मेरे लिए अपने प्रोटीन लक्ष्य को हासिल करना आसान हो गया. वक्त के साथ मैंने प्रोटीन के साथ और भी प्रयोग किए. लेकिन मैंने पाया कि लीन प्रोटीन मेरे लिए सबसे अच्छे से काम कर रहा है क्योंकि इसमें कैलोरी की मात्रा कम होती है."
प्रोटीन पाउडर के अपने खतरे भी हैं.
चूहों पर हुए प्रयोग से पता चलता है कि बिना एक्सरसाइज के प्रोटीन पाउडर खाने से लिवर को नुकसान पहुंच सकता है.
प्रोटीन पाउडर में भ्रामक लेबल भी लगे हो सकते हैं और उनमें नुकसान पहुंचाने वाली चीजें हो सकती है.
एबी फिलिप्स और उनके अमेरिका के साथियों ने हाल ही में भारत में बेचे जाने वाले प्रोटीन पाउडर का अध्ययन किया.
उन्होंने लेबल पर दी गई जानकारी की तुलना में पाउडर में कम या ज्यादा प्रोटीन पाया. इससे प्रोटीन की ज्यादा मात्रा लेने का खतरा बढ़ जाता है जिससे लिवर को नुकसान पहुंच सकता है.
प्रोटीन पाउडर में हमारे अनुमान से ज्यादा टॉक्सिन्स भी हो सकते हैं. 2018 में क्लीन लेबल प्रोजेक्ट नाम की संस्था ने अमेरिका में बेचे जाने वाले पॉपुलर ब्रांड्स के प्रोटीन पाउडर्स पर रिपोर्ट जारी की थी.
रिसर्चर्स ने 130 टाइप के टॉक्सिन्स के लिए 134 प्रोडक्ट्स का चुनाव किया और उन्होंने कई प्रोटीन पाउडर्स में लेड (सीसा), आर्सेनिक, केडमियम और मरकरी जैसे हेवी मेटल मिले. इनका सीधा संबंध कैंसर या दूसरी शारीरिक बीमारियों से हो सकता है. कई टॉक्सिन्स की मात्रा तो काफी ज्यादा थी.
प्लांट बेस्ड प्रोटीन पाउडर में सबसे ज्यादा मिलावट हो सकती है, जबकि अंडे और व्हे प्रोटीन पाउडर से सबसे ज्यादा प्रोटीन मिलने की संभावना रहती है.
चूंकि प्रोटीन पाउडर को आहार सामग्री के रूप में वर्गीकृत किया गया है. इसलिए इसके लिए नियम दवाइयों जैसे कड़े नहीं हैं. अमेरिका और ब्रिटेन में इसे खाद्य पदार्थ माना जाता है. इससे ये आंशका बढ़ती है कि इन पर पर्याप्त निगरानी नहीं की जा रही है.
प्रोटीन
पटेल ने कहा कि बॉडी मसल बनाने के लिए ये मुमकिन है कि प्रोटीन की ज़रूरत सिर्फ़ भोजन से पूरी हो जाए. इसलिए इसपर योजना बनाकर इस पर काम करना होता है.
इसकी ज़रूरत पूरा करने के लिए आपको खाते समय अपनी थाली में प्रोटीन के स्रोत पर ख़ास ध्यान देने की ज़रूरत होगी.
वे कहती हैं, "हमें हर भोजन में कम से कम 20-30 ग्राम प्रोटीन लेने का लक्ष्य रखना चाहिए. इसके लिए अंडा अच्छा स्रोत है. अगर आप चावल के साथ दाल खाते हैं तो वो भी प्रोटीन का अच्छा स्रोत होगा."
प्रोटीन पाउडर
अगर आप खाने में प्रोटीन पर ख़ासा ध्यान देने की जगह प्रोटीन सप्लीमेंट लेना चाहते हैं तो इसे चुनने के लिए कुछ चीजें हैं जिनका आपको ख़्याल रखना होगा. सबसे पहले तो आप उच्च गुणवत्ता वाले प्रोटीन को महत्व दें जिनमें बाहरी चीजें न के बराबर हों.
फिलीप्स कहते हैं कि ब्लेंडेड प्रोटीन से दूर रहना चाहिए.
अमेरिका के दक्षिण कैरोलिना की डाइटिशियन लॉरेन मानेकर पाउडर में प्रोटीन के स्रोत पर भी विचार करने की सलाह देती हैं. उनका कहना है कि यह देखना ज़रूरी है कि ये सोया, पौधे या पशु-आधारित प्रोटीन से बना है या नहीं. वो कहते हैं कि ऐसा प्रोटीन स्रोत चुनें जो आपकी आहार संबंधी प्राथमिकताओं, एलर्जी या संवेदनशीलता के अनुरूप हो.
अक्सर कसरत के बाद 30 मिनट से एक घंटे के भीतर प्रोटीन का सेवन करने की सलाह दी जाती है ताकि इस दौरान पोषक तत्वों को उपयोग करने की शरीर की बढ़ी हुई क्षमता का लाभ उठाया जा सके.
मानेकर कहती हैं, "प्रोटीन पाउडर और प्रोटीन युक्त खाद्य पदार्थों तक लोगों की पहुंच बढ़ी है और ऐसे में कई लोग ज़रूरत से ज़्यादा प्रोटीन का इस्तेमाल करते हैं. उदाहरण के लिए, एक औसत व्यक्ति को प्रतिदिन 45-56 ग्राम प्रोटीन की ज़रूरत होती है."
अधिक प्रोटीन के इस्तेमाल से सावधान
मानेकर कहती हैं कि मांसपेशियां बनाने और समग्र स्वास्थ्य के लिहाज से प्रोटीन जरूरी है लेकिन ज़रूरत से ज़्यादा प्रोटीन का सेवन स्वास्थ्य के लिए ख़तरा भी हो सकता है.
वो कहती हैं, "लंबे समय तक ज़्यादा मात्रा में प्रोटीन लेने से किडनी पर असर पड़ता है. अगर किसी व्यक्ति को किडनी में दिक्कत है तो उन्हें ख़ास तौर पर सावधान रहने की ज़रूरत है."
इसके अलावा, ज़रूरत से अधिक प्रोटीन के कारण कभी-कभी पाचन संबंधी समस्याएं जैसे पेट फूलना, गैस और कब्ज भी हो सकती है.
प्रोटीन का सेवन बढ़ाने की स्थिति में अपने शरीर की प्रतिक्रिया पर ख़ास नज़र रखने की ज़रूरत होती है.
जानकारों की सलाह है कि लोगों को अपने खाने में गुणवत्तापूर्ण कार्बोहाइट्रेड, विटामीन डी, मैग्नीशियम, आयरन और ओमेगा 3 वसा जैसे पोषक पदार्थ रखने की ज़रूरत है.
(बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.) (bbc.com/hindi)
भारत में विटामिन डी की कमी को अब "मौन महामारी" कहा जाता है. इससे देश के सार्वजनिक स्वास्थ्य और विकास पर लम्बे समय के लिए असर हो सकता है.
डॉयचे वैले पर प्रेरणा देशपांडे की रिपोर्ट-
आत्महत्या के विचारों से पीड़ित लगभग 60 फीसदी लोगों में एक बात समान है: विटामिन डी की कमी. मिशिगन स्टेट यूनिवर्सिटी की एक नई रिपोर्ट बताती है कि विटामिन डी की कमी को अब तक जितना माना गया था उससे ज्यादा हानिकारक हो सकती है. यह मानसिक स्वास्थ्य की समस्याओं और आत्महत्या की प्रवृत्तियों को और बढ़ा सकती है.
भारत दुनिया के उन देशों में से एक है जहां लोगों में विटामिन डी की कमी सबसे अधिक है. टाटा 1एमजी लैब्स के 2023 के आंकड़ों से पता चलता है कि हर चार में से तीन भारतीय, यानी करीब 76 फीसदी लोग, विटामिन डी की कमी से जूझ रहे हैं. दुनिया में सबसे ज्यादा सूरज की रोशनी पाने वाले देशों में शामिल होने के बावजूद क्यों यहां "विटामिन डी" की कमी की समस्या इतनी बड़ी है?
विटामिन डी की कमी बनी मौन महामारी
रिसर्च रिपोर्ट बताती है हमारी खाने-पीने की आदतें और संस्कृति से जुड़े कुछ तौर तरीके इसके लिए जिम्मेदार हैं. देश में ऐसे लोगों की संख्या बड़ी है जो मछली, अंडे की जर्दी और फोर्टिफाइड डेयरी जैसे विटामिन डी से भरपूर चीजों को अपने आहार में शामिल नहीं करते. इसके अलावा, पारंपरिक पहनावा भी अक्सर धूप को सीधे त्वचा तक पहुंचने नहीं देता. यह कमी पूरे देश में हुई है, लेकिन शहरों में स्थिति और गंभीर है. इसके कारण हैं प्रदूषण, बदलती जीवनशैलियां, सनस्क्रीन का बढता इस्तेमाल और सस्ते सप्लीमेंट्स की कमी. शहरी इलाकों में पर्याप्त धूप भी विटामिन डी के पर्याप्त स्तर में तब्दील नहीं होती क्योंकि लोग बाहर कम समय बिताने लगे हैं और हवा में प्रदूषण का स्तर बढ़ता जा रहा है.
विटामिन डी का पर्याप्त स्तर सेहत के लिए बड़ा महत्वपूर्ण होता है, और इसकी कमी से प्रतिरक्षा तंत्र, उपापचय, हृदय स्वास्थ्य और समग्र स्वास्थ्य को लंबे समय तक नुकसान पहुंचा सकता है. चिंताजनक रूप से लोगों पर इसका बढ़ता असर और इसके बारे में कम जागरूकता होने की वजहों से भारत में विटामिन डी की कमी को अब "मौन महामारी" कहा जा रहा है.
दूसरी मौन महामारी
इस बीच, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों (आईआईटी) में आत्महत्याओं की बढ़ती घटनाओं के चलते, एक और मौन महामारी की आखिर कार देश के लिए नीतियां बनाने वालों का ध्यान गया है, यह है मानसिक स्वास्थ्य में गिरावट.
राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य और तंत्रिका विज्ञान संस्थान (निमहांस) के रिसर्चरों की एक रिपोर्ट से पता चला है कि कॉलेज के छात्रों में अवसाद, चिंता और आत्महत्या के विचार परेशान करने वाले स्तर पर हैं. इस परिस्थिति से निपटने के लिए कई कदम उठाए गए हैं. इसमे शामिल हैं नेशनल वेलबीइंग कॉन्क्लेव जो केंद्र सरकार के जरिए हो रहा है. इसके अलावा कई और कार्यक्रम हैं जो आईआईटी ने शुरू कराए हैं.
लेकिन और कोशिशें जरूरी हैं क्योंकि यह संकट काफी बड़ा है. सरकारी आंकड़ों के अनुसार, पिछले दो दशकों में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों में 115 से ज्यादा छात्रों की आत्महत्या से मौत हुई है. आत्महत्या के विचारों में विटामिन डी की कमी की भूमिका पर आए नए आंकड़ों के मद्देनजर सवाल उठता है: क्या देश में चल रहीं दोनों मौन महामारियों के बीच कोई अंतर्संबंध हो सकता है?
आगे का रास्ता
विटामिन डी और समग्र मानसिक स्वास्थ्य के बीच संबंध है, कम से कम यह बात तो अनुसंधान साफ दिखाता है. रिसर्चर यह सलाह देते हैं कि विटामिन के स्तर की नियमित जांच होनी चाहिए, और सस्ती सप्लीमेंट्स और भरपूर पोषण वाली खाने पीने की चीजें मुहैया कराई जानी चाहिए. रिसर्चरों का कहना है कि ऐसे कदम भारत में विटामिन डी की कमी पूरा करके देश के सार्वजनिक शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य में सुधार ला सकते हैं. देश में चल रहे स्वास्थ्य की समस्याओं पर तुरंत कदम नहीं उठाए गए तो लंबे समय के लिए देश कि उत्पादकता और प्रगति पर भी इनका असर हो सकता है. (dw.com/hi)
मुंबई, 11 जनवरी । सिर में उठने वाला तेज और असहनीय दर्द है माइग्रेन, जिसका दर्द सिर के एक तरफ तेजी से होता है। माइग्रेन का दर्द कुछ मिनट से लेकर लगातार कुछ दिनों तक बना रह सकता है। ठंड में माइग्रेन के मरीजों की तकलीफ बढ़ जाती है। ऐसे में उनके लिए काली मिर्च खाना फायदेमंद हो सकता है। माइग्रेन का दर्द शारीरिक गतिविधियों, तेज रोशनी या तेज आवाज से भी बढ़ जाता है। माइग्रेन का दर्द छोटे बच्चों से लेकर ज्यादा उम्र के लोगों को भी हो सकता है। आमतौर पर दर्द बढ़ने से उल्टी, सूजन और चक्कर जैसी समस्याओं से भी माइग्रेन के मरीजों को जूझना पड़ता है। हालांकि, इसके दर्द से राहत पाने का उपाय रसोई में उपलब्ध काली मिर्च के रूप में है।
आयुर्वेद में काली मिर्च को काफी फायदेमंद माना जाता है। यह जुकाम-खांसी, वायरल, फेफड़े संबंधित समस्याओं के साथ ही माइग्रेन के लिए भी रामबाण माना जाता है। पंजाब स्थित बाबे के आयुर्वेदिक मेडिकल कॉलेज एवं हॉस्पिटल के बीएएमएस, एमडी डॉक्टर प्रमोद आनंद तिवारी ने माइग्रेन दर्द की वजह बताई और ये भी कि काली मिर्च का सेवन कैसे किया जाना चाहिए? उन्होंने बताया, “ माइग्रेन केवल सिर में ही नहीं बल्कि पूरे शरीर में होने वाला तेज दर्द है। जब पूरे शरीर की नसें तन जाती हैं और फिर सिकुड़ जाती हैं तो इससे माइग्रेन का दर्द होता है। सिर में एक तरफ से शुरू होकर यह गर्दन, कंधे और पीठ के साथ हाथ में भी हो सकता है।” उन्होंने बताया, “माइग्रेन के दर्द की सबसे बड़ी बात यह है कि यह जब शुरू हो जाता है तो इसे कंट्रोल करना मुश्किल होता है ऐसे में राहत पाने के लिए दर्द से पहले होने वाले तनाव में ही दवा का सेवन कर लेते हैं तो मरीज को राहत मिल जाती है।” डॉक्टर ने काली मिर्च की औषधीय खूबियों पर प्रकाश डालते हुए बताया, “ माइग्रेन से राहत पाने के लिए मरीज को दो या तीन काली मिर्च को मुंह में रखकर चबाना चाहिए।
इससे वे बेहतर महसूस करते हैं।” काली मिर्च में 'पिपेरिन' नामक एक एंजाइम होता है, जो सूजन रोधी है और माइग्रेन के दर्द से राहत दिलाने में सहायक होता है।” वैद्य जी सावधानी की भी सलाह देते हैं। उनके मुताबिक काली मिर्च की तासीर गर्म होती है और इसका ज्यादा सेवन नुकसान भी दे सकता है। दो या तीन काली मिर्च से ज्यादा का सेवन नहीं करना चाहिए यह गर्म होता है और इससे नाक से खून आने का खतरा रहता है। --(आईएएनएस)
पीटर स्वोबोडा
एक हफ़्ते में कितनी कसरत करनी चाहिए? कई लोग इस बात से परेशान रहते हैं कि वो पर्याप्त कसरत नहीं कर पाते.
मगर, रिसर्च बताती है कि कम कसरत का असर भी अच्छा-ख़ासा होता है .
दरअसल इसमें कोई शक ही नहीं है कि कसरत आपके दिल के लिए अच्छी होती है. नियमित तौर पर की जा रही कसरत से आपका ब्लड प्रेशर और कोलेस्ट्रॉल कम होता है.
इससे आपको हार्ट अटैक या स्ट्रोक आने की आशंका कम हो जाती है.
मगर, कई बार कसरत करने के लिए समय निकालना मुश्किल हो जाता है.
तो इसका ज़वाब इस बात पर निर्भर है कि आप शुरुआत करने के लिए कितने स्वस्थ हैं.
क्योंकि फ़िटनेस के मामले में आप शुरुआती दौर में जितने कम स्तर पर होंगे, आपको उतने ही कम प्रयास से फ़ायदा देखने को मिलेगा.
अगर आप उन लोगों में से हैं, जो पूरे समय बैठे रहते हैं, तो थोड़ी सी कसरत भी आपके लिए दिल संबंधी रोगों के जोखिम को कम करने का काम कर सकती है.
जैसे, शुरुआत में एक घंटा या सप्ताह में दो बार साइकिल चलाना या फिर तेज़ गति से चलना भी आपके लिए हृदय संबंधी रोगों से होने वाली मौत के जोखिम को 20 फ़ीसदी तक कम कर सकता है.
कसरत का समय
जैसे-जैसे आप फ़िट होते जाते हैं आप ज्यादा कसरत करने लगते हैं. लेकिन ऐसा करने पर आपके दिल की सेहत को होने वाले फ़ायदे कम हो जाते हैं या फिर स्थिर हो जाते हैं.
सरल शब्दों में इसे ऐसे समझिए कि मानव शरीर में ब्लड प्रेशर कम होना चाहिए. लेकिन अगर वो सामान्य से कम हो जाए तो मुश्किल खड़ी कर सकता है.
अधिकतर समय बैठे रहने वाला कोई व्यक्ति अगर थोड़े समय के लिए कसरत करना शुरू कर देता है, तो उसमें दिल से संबंधित रोगों का जोखिम घट जाता है.
अगर सप्ताह भर में की जाने वाली कसरत की अवधि चार घंटे बढ़ा भी दी जाए तो दस फ़ीसदी ख़तरा और कम हो जाएगा.
मगर, सप्ताह में चार से छह घंटे की कसरत करने वालों को जितना फ़ायदा मिलता है वो अधिकतम है.
इससे ज़्यादा कसरत करने पर कोई अतिरिक्त लाभ नहीं होता है.
ये एक अध्ययन में पता चला है. ये अध्ययन उन लोगों पर केंद्रित था, जिन्हें मैराथन जैसे किसी इवेंट को पूरा करने के लिए ट्रेन किया गया है.
इस दौरान यह देखा गया कि जिन लोगों सप्ताह में सात से नौ घंटे तक कसरत की, उनके दिल की सेहत में उल्लेखनीय बदलाव आया.
यह बदलाव उतना ही था जितना किसी चार से छह घंटे कसरत करने वाले व्यक्ति के साथ होता. यानी कम कसरत करने व्यक्ति को भी दिल से संबंधित रोगों के जोखिम का ख़तरा कम होता.
इस दौरान न सिर्फ़ प्रतिभागियों के दिल की मांसपेशियों की मात्रा बढ़ी बल्कि उनके कार्डियक चैंबर का फ़ैलाव भी हुआ. यानी उनके दिल की सेहत पहले से और बेहतर हो गई.
दिखता है बदलाव
दरअसल आपका दिल भी शरीर की बाकी मांसपेशियों जैसा है. अगर आप ढंग से कसरत करें तो तीन महीने में आपको बदलाव दिखने लगते हैं.
लेकिन ज़रूरत से ज्यादा कसरत से दिल की सेहत को कोई अतिरिक्त लाभ नहीं होता.
पहले ये सोच ये थी कि सिर्फ़ बड़े एथलीट दिल की सेहत में इतना सुधार कर सकते हैं.
ये अध्ययन साबित करता है कि अगर हम कम कसरत करें तब भी हम अपना दिल एक एथलीट की तरह फिट रख सकते हैं.
जब आप दिल की सेहत में सुधार लाने के मकसद से सप्ताह में एक या दो घंटे कसरत करना शुरू करते हैं तो आपके सामने कुछ अविश्वसनीय और अप्रत्याशित नतीजे आते हैं.
सप्ताह में चार घंटे कसरत करना भी एक बेहतर विकल्प है, जो आपके दिल संबंधित रोगों के जोखिम को कम करने में मदद करता है.
व्यायाम और आराम
बिल्कुल कसरत न करने की तुलना में, हफ़्ते में चार घंटे कसरत करना शुरुआत में चुनौती हो सकता है.
लेकिन आप दिल संबंधित रोगों का जोखिम कम करना चाहते हैं, तो आपको पसीना बहाना होगा.
हाई इंटेन्सिटी इंटरवल ट्रेनिंग (हिट) एक ऐसा ही वक्त बचाने का तरीका है. कसरत के इस तरीके से आपको कम समय में प्रभावी परिणाम मिलते हैं.
हिट आमतौर पर 20 मिनट की कसरत होती है.
इसमें आप 30 से 60 सेकेंड तक कसरत करते हैं और फिर कुछ मिनट आराम करते हैं.
ये छोटी-छोटी कसरतें, जब आप कई सप्ताह तक करते हैं, तो आपको इसका असर साफ़ दिखने लगता है. इस तरीके से कसरत करने से आपका ब्लड प्रेशर और कोलेस्ट्रॉल नियंत्रण में आ सकता है.
लेकिन हाई इंटेन्सिटी इंटरवल ट्रेनिंग पर किए गए अध्ययन फ़िलहाल छोटे सैंपलों पर आधारित हैं. इसलिए इससे होने वाले लाभ की तस्वीर इतनी सटीक नहीं है.
ऐसे लोग बरतें सावधानी
अगर आपको दिल संबंधित कोई बीमारी है तो आपको सावधानी बरतने की ज़रूरत है.
ऐसी कई स्थितियां हैं.
अगर आप कार्डियोमायोपैथी (दिल की मांसपेशियों की बीमारी), इस्केमिक हार्ट डिज़िज (दिल की धमनियों का सिकुड़ना) और मायोकार्डिटिस (दिल में सूजन) जैसी दिक्कतों से परेशान हैं तो आपको ज़्यादा कसरत की सलाह नहीं दी जाती है.
अगर आपको सप्ताह भर में कसरत के लिए समय निकालने में मुश्किल आ रही है, और आप केवल सप्ताह के अंत में कसरत कर सकते हैं, तो यह भी आपके लिए फ़ायदेमंद हैं.
इस संबंध में 37 हज़ार से ज़्यादा लोगों पर एक अध्ययन किया गया.
ये वो लोग थे, जो पूरे सप्ताह कसरत नहीं कर पाए. इन लोगों ने केवल सप्ताह के आख़िर में एक या दो दिन कसरत की.
इनको भी दिल से संबंधित रोगों का जोखिम उतना ही कम था, जितना सप्ताह भर कसरत करने वाले लोगों के लिए था.
उनको भी इस वीकेंड कसरत का लाभ हुआ.
इसलिए, जो लोग खुद को आलसी समझते हैं मगर अपने दिल की सेहत को सुधारना चाहते हैं उनके लिए संदेश साफ़ है कि थोड़ी कसरत भी, एक बड़ा बदलाव ला सकती है.
(बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित) (bbc.com/hindi)
भारत में टीबी यानी तपेदिक के मामलों में गिरावट आ रही है और ये वैश्विक गिरावट दर की तुलना में काफी बेहतर है. लेकिन अभी भी कई हॉट स्पॉट्स ऐसे हैं जहां तमाम प्रयासों के बावजूद मामलों में बढ़ोत्तरी हो रही है.
डॉयचे वैले पर समीरात्मज मिश्र की रिपोर्ट-
भारत को टीबी मुक्त बनाने के मकसद से पिछले दिनों सरकार ने सौ दिवसीय एक सघन अभियान शुरू किया. आठ दिसंबर 2024 से शुरू हुआ यह अभियान 17 मार्च 2025 तक चलेगा. लेकिन अभियान की शुरुआत से ही जिस तरह से टीबी के मामले सामने आ रहे हैं, वह टीबी उन्मूलन को लेकर चल रहे प्रयासों के लिए अच्छा संकेत नहीं है.
अभियान के एक सप्ताह के भीतर ही टीबी के 6,267 नए मामले सामने आए हैं. इस अभियान में स्वास्थ्य और आरोग्य केंद्रों पर शिविर लगाकर और 850 मोबाइल परीक्षण वैन के माध्यम से संवेदनशील इलाकों में सक्रिय जांच करने का लक्ष्य रखा गया है. इसके तहत 347 ऐसे जिलों में विशेष अभियान चलाया जाना है जो टीबी के लिए उच्च जोखिम वाले जिले हैं. इन इलाकों के करीब 25 करोड़ संवेदनशील लोगों की जांच की जाएगी. अब तक करीब लाख से अधिक लोगों की जांच की जा चुकी है और उसके आधार पर ये आंकड़े सामने आए हैं.
राजधानी दिल्ली से सटे यूपी के गाजियाबाद जिले में भी टीबी के नए आंकड़े कुछ ऐसे आए हैं जिनकी वजह से देश को टीबी मुक्त बनाने के अभियान को धक्का लगा है. ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, गाजियाबाद जिले के कुछ इलाके हॉट स्पॉट के रूप में चिह्नित हुए हैं जहां काफी संख्या में टीबी के नए मामले सामने आए हैं.
दिल्ली-एनसीआर में टीबी के हॉट स्पॉट
चालू वित्त वर्ष में इस जिले में सबसे ज्यादा 3,865 टीबी के मरीज लोनी इलाके में नोटिफाइड हुए हैं. इस वजह से लोनी इलाका टीबी का नया हॉट स्पॉट बन गया है जो स्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों के लिए परेशानी का सबब बन गया है. इससे पहले इस जिले में सबसे ज्यादा मरीज खोड़ा और विजयनगर इलाके में मिल रहे थे. हालांकि अधिकारियों का कहना है कि मरीजों की संख्या इसलिए भी ज्यादा है क्योंकि कई बार मरीज टीबी की जांच कराने से कतराते हैं और गंभीर होने पर ही कराते हैं. इस वजह से जब तक जांच नहीं कराते तब तक कई और लोगों में संक्रमण का कारण बनते हैं.
पूरे जिले में चालू वित्त वर्ष में 18 हजार से ज्यादा टीबी के मरीज नोटिफाइड किए गए हैं. संक्रमण से बचाव के लिए पिछले तीन महीने से संक्रमित मरीजों के परिवार में बच्चों के अलावा अन्य सदस्यों को भी टीबी प्रिवेंटिव थैरेपी (टीपीटी) के तहत तीन महीने में 12 डोज दवाएं दी जा रही हैं ताकि परिवार के अन्य सदस्यों में संक्रमण न हो.
गाजियाबाद के मुख्य चिकित्सा अधिकारी डॉक्टर अखिलेश मोहन कहते हैं, "टीबी संक्रमण रोकने के लिए सामुदायिक सर्वेक्षण, जांच और उपचार का बेहतर इंतजाम किया जा रहा है. टीबी मरीजों को चिह्नित कर उनकी निगरानी की जा रही है. नियमित दवा लेने के लिए प्रेरित किया जा रहा है. इसके अलावा निक्षय योजना का अनुदान एक हजार रुपये सीधे खातों में भेजा जा रहा है. लोनी में जहां संक्रमण के मामले ज्यादा आ रहे हैं वहां अतिरिक्त शिविर लगाने की योजना है. टीबी रोकथाम के लिए पहली बार संक्रमित सदस्य के पूरे परिवार को संक्रमण से बचाव के लिए दवाएं दी जा रही हैं.”
आठ दिसंबर को सौ दिवसीय कार्यक्रम के मौके पर स्वास्थ्य मंत्रालय की अतिरिक्त सचिव आराधना पटनायक ने बताया था कि पिछले कुछ वर्षों में हमने लापता मामलों यानी अनुमानित मामलों की संख्या और पता लगाए गए वास्तविक मामलों की संख्या के बीच के अंतर को काफी हद तक कम किया है. उनके मुताबिक, पहले यह संख्या 15 लाख थी जो अब सिर्फ 2.5 लाख रह गई है.
2025 में ही भारत पाना चाहता है टीबी-मुक्त बनने का लक्ष्य
पिछले दिनों केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री जेपी नड्डा ने भी सोशल मीडिया साइट एक्स पर लिखा था, "हम टीबी मुक्त भारत बनाने की अपनी प्रतिबद्धता पर कायम हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने 2015 से 2023 तक टीबी की घटनाओं में 17.7 फीसदी की गिरावट के साथ भारत की उल्लेखनीय प्रगति को मान्यता दी है. यह दर 8.3 फीसदी की वैश्विक गिरावट के आंकड़े के दोगुने से भी ज्यादा है. यह स्वीकृति टीबी देखभाल और नियंत्रण के प्रति भारत के परिवर्तनकारी दृष्टिकोण को दर्शाती है.”
साल 2018 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 'टीबी मुक्त भारत अभियान' की शुरुआत की थी. उस वक्त पीएम मोदी ने कहा था कि दुनिया ने टीबी को खत्म करने के लिए 2030 तक समय तय किया है, लेकिन भारत ने अपने लिए ये लक्ष्य 2025 तय किया है. उसी को धार देने के लिए सौ दिन के विशेष अभियान की शुरुआत की गई है लेकिन टीबी के नए मामलों की संख्या में हो रही बढ़ोत्तरी इस अभियान को कमजोर कर रही है.
डब्ल्यूएचओ के मुताबिक, हर साल दुनिया में टीबी के जितने मरीज सामने आते हैं, उनमें से सबसे ज्यादा मामले भारत में होते हैं. डब्ल्यूएचओ की 'ग्लोबल ट्यूबरकुलोसिस रिपोर्ट 2023' की मानें तो साल 2022 में टीबी के 27 फीसदी मामले भारत में सामने आए थे. दूसरे नंबर पर इंडोनेशिया और तीसरे नंबर पर चीन था.
एनटीईपी प्रोग्राम में मिलती है मुफ्त जांच और परामर्श
कोविड-19 महामारी के बाद, भारत ने राष्ट्रीय टीबी उन्मूलन प्रोग्राम (एनटीईपी) के माध्यम से टीबी को खत्म करने के अपने प्रयासों को तेज किया जो राष्ट्रीय रणनीतिक योजना (एनएसपी) 2017-25 के साथ जुड़ा हुआ एक कार्यक्रम है. एनटीईपी के जरिए व्यापक देखभाल पैकेज और विकेन्द्रीकृत टीबी सेवाएं शुरू की गईं जिसके जरिए जांच, उपचार में तेजी लाने और टीबी देखभाल की गुणवत्ता को बढ़ाने को प्राथमिकता दी गई.
इस प्रोग्राम के तहत अन्य मंत्रालयों और विभागों के साथ सहयोग करके टीबी का कारण बनने वाले कारकों जैसे- कुपोषण, मधुमेह, एचआईवी और नशीले पदार्थों के सेवन से निपटने के लिए पहल शुरू की गई. इन प्रयासों का मकसद टीबी के मरीजों को समग्र सहायता प्रदान करना था, ताकि उनके इलाज में आसानी हो सके.
केंद्र सरकार की ओर से साल 2025 तक भारत को टीबी मुक्त बनाने का अभियान काफी तेजी से चल रहा है. खुद पीएम मोदी कई मौकों पर इस बात को दोहरा भी चुके हैं. लेकिन डब्ल्यूएचओ का कहना है कि साल 2025 तक टीबी के मामलों में कमी तभी आ सकती है, जब हर साल 10 फीसद की दर से टीबी के मामलों में कमी आए.
स्वास्थ्य मंत्रालय ने साल 2017 में साल 2025 तक टीबी के खात्मे के लिए जो योजना पेश की थी उसके तहत सरकार ने 2025 तक हर एक लाख आबादी पर टीबी मरीजों की संख्या 44 सीमित करने का लक्ष्य रखा है. लेकिन समय सीमा करीब आने के बावजूद यह लक्ष्य काफी पीछे है.
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा ने पिछले हफ्ते लोकसभा में बताया था कि भारत में टीबी के मामलों की दर कम हुई है. साल 2015 में प्रति एक लाख की जनसंख्या पर 237 लोगों को ये बीमारी थी जो 2023 में 17.7 फीसदी घटकर प्रति एक लाख की जनसंख्या पर 195 हो गई है. यानी ये आंकड़े अब भी देश से टीबी के उन्मूलन के लक्ष्य से काफी दूर हैं. (dw.com)
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक टीबी फिर से दुनिया की सबसे घातक संक्रामक बीमारी बन गई है, जिसके कारण कोविड-19 से भी ज्यादा मौतें हो रही हैं.
डॉयचे वैले पर विवेक कुमार की रिपोर्ट-
विश्व स्वास्थ्य संगठन की नई "ग्लोबल ट्यूबरकुलोसिस रिपोर्ट 2024" के मुताबिक 2023 में 82 लाख लोग टीबी से संक्रमित हुए, जो 1995 में निगरानी शुरू होने के बाद से सबसे ज्यादा है. यह आंकड़ा 2022 के 75 लाख नए मामलों से काफी अधिक है.
रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि 2023 में टीबी से संक्रमित लोगों की अनुमानित संख्या 1.08 करोड़ रही, जिसमें वे लोग भी शामिल हैं जिनकी बीमारी का औपचारिक रूप से पता नहीं चला था. हालांकि, अनुमानित और दर्ज मामलों के बीच का अंतर 27 लाख तक घट गया है, जो कि कोविड-19 महामारी के दौरान 40 लाख तक पहुंच गया था.
बढ़ती मौतें और चिंता
2023 में 12.5 लाख लोगों की टीबी से मौत हुई, जो 2022 के 13.2 लाख मौतोंसे थोड़ी कम है. इसके बावजूद, यह संख्या 2023 में कोविड-19 से हुई 3.2 लाख मौतों से कहीं ज्यादा है. टीबी अब एचआईवी से भी ज्यादा लोगों की जान ले रही है. 2023 में एचाईवी से 6.8 लाख मौतें हुईं, जबकि टीबी से होने वाली मौतें लगभग दोगुनी हैं.
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के महानिदेशक डॉ. टेड्रोस अधानोम गेब्रियासुस ने कहा, "यह चौंकाने वाली बात है कि जब हमारे पास टीबी को रोकने, पहचानने और इलाज करने के साधन हैं, तो भी यह इतनी ज्यादा मौतें और मरीज पैदा कर रही है." उन्होंने सभी देशों से टीबी के खिलाफ कदम उठाने की अपील की.
रिपोर्ट में कुछ सकारात्मक संकेत भी मिले हैं. टीबी के निदान और उपचार से जुड़ी सेवाएं कोविड-19 महामारी के प्रभाव से उबर रही हैं और टीबी से होने वाली मौतों में कमी आ रही है. लेकिन, यह अभी भी डब्ल्यूएचओ के ‘टीबी की समाप्ति' की रणनीति के तहत तय किए गए लक्ष्यों से बहुत पीछे है. इस रणनीति के तहत 2025 तक टीबी के मामलों में 50 फीसदी की कमी का लक्ष्य तय किया गया है. 2015 से 2023 के बीच टीबी के मामलों में केवल 8.3 फीसदी की कमी आई है.
भारत में सबसे ज्यादा असर
टीबी का सबसे ज्यादा प्रभाव कम और मध्यम आय वाले देशों पर पड़ रहा है. 30 देशों में टीबी के मामले पूरी दुनिया के 87 फीसदी हैं. इनमें से भारत, इंडोनेशिया, चीन, फिलीपींस और पाकिस्तान सबसे ज्यादा प्रभावित हैं. 2023 में टीबी से संक्रमित लोगों में 55 फीसदी पुरुष, 33 फीसदी महिलाएं और 12 फीसदी बच्चे और किशोर शामिल थे.
रिपोर्ट के अनुसार, दवा-प्रतिरोधी टीबी (एमडीआर/आरआर-टीबी) के मामलों में सुधार हुआ है. टीबी के सामान्य मामलों में इलाज की सफलता दर 88 फीसदी है, जबकि एमडीआर/आरआर-टीबी के मामलों में यह 68 फीसदी तक पहुंच गई है. यह सुधार डब्ल्यूएचओ की सिफारिश से चलाए गए छोटे और कम जहरीले इलाज कार्यक्रमों का नतीजा है.
हालांकि, दवा-प्रतिरोधी टीबी के 4 लाख मामलों में से केवल 44 फीसदी लोगों को ही सही तरीके से निदान और उपचार मिल पाया. सामान्य टीबी वाले लोगों में 63 फीसदी का बैक्टीरियोलॉजिक रूप से निदान हुआ और 75 फीसदी को इलाज मिला.
आर्थिक बोझ की चुनौती
टीबी के इलाज में आने वाला खर्च भी बड़ी समस्या है. रिपोर्ट में पाया गया कि 50 फीसदी मरीजों को इलाज के दौरान "विनाशकारी" खर्च का सामना करना पड़ता है, जिसका मतलब है कि उनका इलाज खर्च उनकी आय का 20 फीसदी से ज्यादा होता है. यह स्थिति विशेष रूप से उन देशों में खराब है जहां स्वास्थ्य सेवाएं सीमित हैं.
रिपोर्ट में टीबी सेवाओं के लिए फंडिंग की कमी पर भी जोर दिया गया है. 2023 में संयुक्त राष्ट्र की उच्चस्तरीय बैठक में यह लक्ष्य रखा गया कि 2027 तक टीबी सेवाओं के लिए हर साल 22 अरब डॉलर जुटाए जाएंगे. लेकिन 2023 में केवल 5.7 अरब डॉलर की फंडिंग उपलब्ध थी, जो पिछले तीन सालों से भी कम है और कुल जरूरत का सिर्फ 26 फीसदी है.
रिपोर्ट में बताया गया कि टीबी के इलाज और निदान के क्षेत्र में नई प्रगति हो रही है. फिलहाल 15 टीबी वैक्सीन विकास की प्रक्रिया में हैं, जिनमें से 6 का परीक्षण उच्च जोखिम वाले देशों में चल रहा है. डब्ल्यूएचओ ने उम्मीद जताई है कि 2028 तक कम से कम एक नई प्रभावी टीबी वैक्सीन उपलब्ध हो सकती है. (dw.com)
कैलिफोर्निया, 27 अक्टूबर । कैंसर ट्रीटमेंट में भी संयुक्त राज्य अमेरिका की बुजुर्ग अश्वेत महिलाओं को भेदभाव का शिकार होना पड़ता है। किसी श्वेत महिला के मुकाबले उन्हें लंबा इंतजार भी करना पड़ता है। नस्लीय असमानता पर प्रकाश डालते एक अध्ययन में ये बात सामने आई है।
समाचार एजेंसी सिन्हुआ के अनुसार, अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन नेटवर्क ओपन के जर्नल में प्रकाशित शोध में प्रारंभिक चरण के स्तन कैंसर से पीड़ित 65 वर्ष और उससे अधिक आयु की 258,000 से अधिक महिलाओं का डाटा जुटाया गया। उनका विश्लेषण किया गया तो ये बात सामने आई।
रिपोर्ट दावा करती है कि लगभग 18 प्रतिशत अश्वेत महिलाओं को आवश्यक दिशानिर्देश के मुताबिक इलाज का लाभ नहीं मिला, जबकि 15 प्रतिशत श्वेत महिलाओं को दिशानिर्देश के मुताबिक (गाइडलाइन रिकमेंडेड) देखभाल मिली।
अध्ययन में कहा गया है कि " इसमें गैर-हिस्पैनिक अश्वेत नस्ल की महिलाएं दिशा-निर्देशों के अनुरूप देखभाल न मिलने और समय पर उपचार शुरू न होने की शिकार थीं।" यह असमानता उम्र, कैंसर के चरण, बीमा कवरेज और पड़ोस की आय के स्तर जैसे कारकों को ध्यान में भी दिखी।
2010 से 2019 तक के राष्ट्रीय कैंसर डेटाबेस रिकॉर्ड विश्लेषण के अनुसार, डायग्नोसिस के 90 दिनों के भीतर उपचार शुरू करने के मामले में अश्वेत रोगी पिछड़ गए जबकि इनके मुकाबले श्वेत रोगियों का इलाज जल्द शुरू किया गया। ये तादाद दोगुनी से अधिक थी।
अध्ययन में पाया गया कि श्वेत महिलाओं की तुलना में अश्वेत महिलाओं को विभिन्न रोगों के कारण मृत्यु का 26 प्रतिशत अधिक जोखिम था। हालांकि, जब शोधकर्ताओं ने स्टैंडर्ड रिकमेंडेड उपचार और अन्य नैदानिक और सामाजिक-आर्थिक कारकों के अंतर को ध्यान में रखा, तो यह अंतर लगभग 5 प्रतिशत तक कम हो गया।
अधिकांश रोगियों को मेडिकेयर कवरेज, एक संघीय स्वास्थ्य बीमा कार्यक्रम होने के बावजूद नस्लीय असमानताओं का शिकार होना पड़ा। जिससे ये पता चलता है कि अकेले बीमा ही उपचार में असमानता को पाटने में अहम नहीं हो सकता है।
अध्ययन में पाया गया कि लगभग 79 प्रतिशत अश्वेत रोगियों और 84 प्रतिशत श्वेत रोगियों के पास मेडिकेयर कवरेज था।
शोधकर्ताओं के अनुसार, पिछले अध्ययनों से पता चला है कि श्वेत महिलाओं की तुलना में अश्वेत महिलाओं को स्तन कैंसर से मृत्यु दर 40 प्रतिशत अधिक है। (आईएएनएस)
चिली के वैज्ञानिकों ने एक वैक्सीन विकसित की है जो जानवरों की अस्थायी नसबंदी कर सकती है. बड़े पैमाने पर जानवरों की नसबंदी करने में बिना सर्जरी की यह प्रक्रिया काफी फायदेमंद साबित हो सकती है.
फिंडली का नसीब अच्छा है कि वह एक वैज्ञानिक प्रयोग का हिस्सा बना. इस छोटे सफेद और भूरे चिलियन टेरियर कुत्ते की नसबंदी एक नई तकनीक के जरिए बिना किसी सर्जरी के हो गई. फिंडली दुनिया के उन पहले कुत्तों में से एक है जिनकी नसबंदी बिना किसी सर्जरी के हुई.
यह प्रक्रिया सैंटियागो में उसके घर पर ही की गई. तब उसकी मालकिन उसे पकड़कर रखे हुए थी. प्रक्रिया के दौरान और बाद में खाने के लिए उसे ट्रीट्स दी गईं. इसके बाद, वह ऐसा दिखा मानो कुछ हुआ ही न हो और मस्ती से इधर-उधर दौड़ने लगा.
प्रक्रिया के लिए ना तो फिंडली को बेहोश किया गया और ना ही कोई चीरफाड़ हुई. बस एक साधारण इंजेक्शन दिया गया, जिसे वैक्सीन के रूप में विकसित करने वालों ने 'इम्यूनोकैस्ट्रेशन वैक्सीन' कहा है. इस वैक्सीन का नाम है "एगालिटे".
कई तरह के फायदे
इस वैक्सीन को विकसित करने वाले चिली यूनिवर्सिटी के वेटरनरी विशेषज्ञ और प्रोफेसर लियोनार्डो साएंज का कहना है कि यह वैक्सीन उस हॉर्मोन को ब्लॉक करती है जो प्रजनन के लिए जिम्मेदार होता है, और यह प्रक्रिया वापस पलटी जा सकती है.
उन्होंने समझाया, "अगर हम उस हॉर्मोन को ब्लॉक कर देते हैं, तो गोनाडोट्रोपिन नहीं निकलता और इसीलिए सेक्सुअल हार्मोन्स भी नहीं बनते, जिससे जानवर नसबंदी की स्थिति में रहता है."
यह वैक्सीन नर और मादा दोनों के लिए इस्तेमाल की जा सकती है और इसकी कीमत लगभग 50,000 चिलियन पेसोस (करीब 4,500 भारतीय रुपये) है. इसके लिए पशु चिकित्सक की पर्ची और यह सुनिश्चित करने के लिए जांच की जरूरत होती है कि कुत्ता इस प्रक्रिया के लिए उपयुक्त है या नहीं.
साएंज का कहना है कि यह उत्पाद बड़े पैमाने पर जानवरों की नसबंदी में भी मदद कर सकता है, क्योंकि यह सर्जिकल नसबंदी से कम जटिल और कम आक्रामक है. भारत जैसे देशों में यह तकनीक कामयाब हो सकती है जहां आवारा कुत्तों की नसबंदी एक चुनौतीपूर्ण काम होता है.
उन्होंने कहा, "इंजेक्शन देना बहुत आसान है और अगर आपको प्रजनन नियंत्रण के लिए बड़ी संख्या में जानवरों का टीकाकरण करना हो, तो यह एक अच्छा विकल्प है."
मालिकों के लिए सुविधाजनक
फिंडली की मालकिन तामारा जामोरानो कहती हैं कि उन्होंने यह तरीका इसलिए चुना क्योंकि एक तो यह बहुत सरल है और स्थायी नहीं है.
उन्होंने कहा, "दूसरी प्रक्रिया, यानी सर्जिकल नसबंदी से हम थोड़े डरे हुए थे. यह प्रक्रिया न सिर्फ सरल है, बल्कि उलटी भी जा सकती है, ताकि अगर हम भविष्य में उसका प्रजनन करना चाहें, तो सही समय पर कर सकें."
फिंडली ने इस प्रक्रिया पर कोई टिप्पणी नहीं की, हालांकि इंजेक्शन के दौरान वह थोड़ा हिला, लेकिन बाद में उसने खुशी-खुशी पशु चिकित्सक के हाथ को चाटा और अपनी मस्ती में वापस लौट गया.
वीके/सीके (रॉयटर्स)
मोटापा घटाने के लिए काफी लोकप्रिय हो चुकी वीगोवी और ओजेंपिक जैसी दवाएं असल में टाइप-2 डायबिटीज के लिए स्वीकार की गई थीं.
डॉयचे वैले पर फ्रेड श्वालर की रिपोर्ट-
कोरोना महामारी के दौरान ही वीगोवी और ओजेंपिक आम लोगों के बीच काफी चर्चा में आ गए थे. तब से इन दवाओं ने वजन घटाने से जुड़े उद्योग में तूफान मचा दिया है. ध्यान देने वाली बात यह है कि दोनों उत्पाद एक ही दवा या इंग्रेडिएंट ‘सेमाग्लूटाइड' पर आधारित हैं, लेकिन वीगोवी और ओजेंपिक मूल रूप से अलग-अलग मामलों में इस्तेमाल के लिए बनाए गए थे.
ओजेंपिक को पहली बार 2017 में यूएस फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (एफडीए) ने ‘भोजन और व्यायाम के अलावा, टाइप 2 मधुमेह वाले वयस्कों में शुगर लेवल को कम करने वाली इंजेक्शन योग्य दवा' के तौर पर अनुमति दी थी.
उसी वर्ष वीगोवी को व्यस्कों और 12 वर्ष या उससे ज्यादा उम्र के ऐसे बच्चों के लिए अनुमति दी गई थी जिनका वजन काफी ज्यादा था या जो मोटापे से ग्रसित थे. सेमाग्लूटाइड को टैबलेट के रूप में भी लिया जा सकता है, जिसे राइबेलसस नाम से बेचा जाता है.
जब मशहूर हस्तियों ने घटाया वजन
तकनीकी क्षेत्र के दिग्गज से लेकर ऑनलाइन प्लैटफॉर्म पर मशहूर हस्तियों ने इस दवा का समर्थन किया है. इनमें ओपरा विनफ्रे, केली क्लार्कसन और एमी शूमर जैसे लोग शामिल हैं. टेस्ला के सीईओ इलॉन मस्क से जब किसी ने पूछा, "आप इतना तंदुरुस्त और स्वस्थ कैसे दिखते हैं? इसका क्या राज है?, तो उन्होंने अक्टूबर 2022 में एक ट्वीट किया कि वे वीगोवी ले रहे थे.”
मशहूर हस्तियों ने जब इन दवाओं का समर्थन किया, तो सामाजिक स्तर पर इसका काफी प्रभाव पड़ा है. हालांकि, इसका वित्तीय प्रभाव भी पड़ा है. यह खास तरह के इलाज के लिए दवा थी, लेकिन अब इसका प्रभाव काफी ज्यादा बढ़ गया है. यह फैशन कैटवॉक पर भी दिखने लगा है.
डेनमार्क की दवा कंपनी नोवो नॉर्डिस्क इस दवा के तीनों वर्जन बनाती और बेचती है. मई में इस कंपनी की वैल्यू 570 अरब डॉलर थी, जो डेनमार्क की पूरी अर्थव्यवस्था या जीडीपी से भी ज्यादा है.
सेमाग्लूटाइड कैसे काम करता है?
सेमाग्लूटाइड जीएलपी-1 नामक एक प्राकृतिक हार्मोन की नकल करके भूख को कम करता है. जीएलपी-1 हमारे खाने के बाद रिलीज होता है. यह मस्तिष्क में जाता है और संकेत देता है कि हमारा पेट भर चुका है. यह पाचन तंत्र में भी जाता है, जहां भोजन पचने की प्रक्रिया को धीमा कर देता है.
सेमाग्लूटाइड अग्न्याशय को अधिक इंसुलिन बनाने में मदद करके ब्लड शुगर के लेवल को कम करता है. ओजेंपिक दवा इसी आधार पर असर करती है और इससे टाइप 2 मधुमेह वाले लोगों का इलाज करने में मदद मिलती है, क्योंकि उनका शरीर अपनी जरूरत के हिसाब से इंसुलिन का उत्पादन नहीं कर पाता है.
ब्रिटेन में स्थित किंग्स कॉलेज लंदन में फिजीशियन-डॉक्टर पेनी वार्ड ने कहा, "ओजेंपिक मधुमेह वाले लोगों के लिए हृदय संबंधी जटिलताओं के जोखिम को भी कम कर सकता है.” वार्ड ने ईमेल के माध्यम से डीडब्ल्यू को बताया, "जब वजन घटाने की दवा के रूप में वीगोवी का इस्तेमाल किया जाता है, तो उसे काफी ज्यादा मोटापे से जूझ रहे लोगों को आहार और व्यायाम के सप्लीमेंट के रूप में लेने का सुझाव दिया जाता है.”
क्लिनिकल ट्रायल में पता चला है कि वजन घटाने के इलाज के दौरान जिन लोगों ने वीगोवी का इस्तेमाल किया, उनका वजन 68 सप्ताह बाद 5 से 15 फीसदी तक कम हो गया. हालांकि, इस दवा को इस्तेमाल करने का सुझाव सिर्फ उन लोगों को दिया जाता है जिनका बॉडी मास इंडेक्स या बीएमआई 30 किग्रा/एम2 से अधिक है. इतना ज्यादा मोटापा किसी भी व्यक्ति के सेहत के लिए खतरा माना जाता है.
अगर किसी व्यक्ति का बीएमआई 25.0 और 29.9 किग्रा/एम2 के बीच है या उसका वजन सामान्य है, तो वैसे लोगों को वीगोवी का इस्तेमाल करने का सुझाव नहीं दिया जाता है.
खुद को फिट दिखाने के लिए नहीं है वीगोवी
वार्ड और अन्य स्वास्थ्य विशेषज्ञ चिंतित हैं कि कुछ लोग तुरंत वजन कम करने के लिए इस दवा का दुरुपयोग कर रहे हैं. वार्ड ने कहा कि वीगोवी ऐसी दवा नहीं है जिसे खुद को फिट दिखाने के लिए इस्तेमाल किया जाना चाहिए.
वीगोवी और ओजेंपिक से कई तरह के साइड इफेक्ट हो सकते हैं. जैसे, मतली, उल्टी, दर्द, थकान या किडनी के काम करने की क्षमता को नुकसान पहुंचना. ब्रिटेन के एंग्लिया रस्किन यूनिवर्सिटी में फिजियोलॉजिस्ट साइमन कॉर्क ने कहा कि अधिकांश लक्षण हल्के और थोड़े समय के लिए होते हैं. हालांकि, कुछ गंभीर दुष्परिणाम भी हो सकते हैं, जैसे कि पित्ताशय की पथरी और पैन्क्रियाटाइटिस.
कई बार आंतों में रुकावट, गर्भावस्था संबंधी जटिलताएं और आंखों की रोशनी जाने जैसे दुर्लभ और गंभीर दुष्प्रभावों की रिपोर्टें भी मिली हैं. कॉर्क ने कहा कि ऐसा इसलिए हो सकता है, क्योंकि लोग ‘चिकित्सीय सीमाओं के बाहर, या तो लाइसेंस के बिना या अवैध तरीके से' खुराक लेते हैं.
वार्ड ने कहा, "साइड इफेक्ट का मतलब है कि सेमाग्लूटाइड दवाओं को काफी ज्यादा मोटापे से जूझ रहे लोगों को ही लेना चाहिए, जिन्हें हृदय संबंधी बीमारियों का खतरा है और वह भी चिकित्सकों की निगरानी में.”
बढ़ रही है वजन घटाने वाली दवाओं की नकल
तुरंत वजन घटाने का दावा करने वाले नुस्खे पुराने समय से प्रचारित किए जा रहे हैं. वीगोवी और ओजेंपिक के लोकप्रिय होने के बाद वे और ज्यादा बढ़ गए हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने चेतावनी दी है कि ऑनलाइन बाजार में वीगोवी और ओजेंपिक की तरह दिखने वाली नकली दवाएं भर गई हैं.
कुछ विक्रेता तो वीगोवी और ओजेंपिक के विकल्प के तौर पर, वजन घटाने की दवा के रूप में "प्राकृतिक" और "साइड-इफेक्ट मुक्त" दवा उपलब्ध कराने का वादा करते हैं. सेलिब्रेटी और कारोबारी कॉर्टनी कार्डेशियन भी इस ट्रेंड में शामिल हो गई हैं. उन्होंने अपने सप्लीमेंट ब्रांड लेम्मे के माध्यम से ‘जीएलपी-1 डेली' लॉन्च किया है. हालांकि, नाम के बावजूद सप्लीमेंट में प्राकृतिक या सिंथेटिक रूप में कोई जीएलपी-1 नहीं है और सप्लीमेंट हार्मोन की तरह काम नहीं करता है. कैप्सूल में नींबू, केसर और संतरे के खाने वाले अर्क होते हैं.
इसे ‘मेटाबोलिक हेल्थ के लिए एक नई खोज के रूप में प्रचारित किया जाता है, जो आपके शरीर में जीएलपी-1 के उत्पादन को स्वाभाविक रूप से बढ़ाने, भूख को कम करने और वजन घटाने के लिए तैयार किया गया है.' हालांकि, डीडब्ल्यू ने जिन विशेषज्ञों से संपर्क किया उन्हें संदेह था कि यह सप्लीमेंट काम करेगा. कॉर्क ने कहा कि उन्हें ‘कोई ठोस सबूत नहीं मिला' है. वहीं, वार्ड ने कहा कि उत्पाद के बारे में दावे ‘तथ्य के बजाय प्रचार' पर आधारित थे.
वार्ड ने कहा, "यह ध्यान रखना जरूरी है कि ‘ब्रांड एंबेसडर' को अक्सर किसी उत्पाद को बढ़ावा देने के लिए भुगतान किया जाता है. कई दावे किए गए हैं, लेकिन नियम बनाने वाली संबंधित संस्था ने इनमें से किसी की भी समीक्षा नहीं की है और न ही अनुमति दी है. उत्पाद के बारे में जिन अध्ययन की जानकारी दी गई है वे बेहतर गुणवत्ता वाले नहीं हैं.”
उन्होंने आगे बताया, "सुरक्षा से जुड़ी बातों पर किसी तरीके की चर्चा नहीं की गई है. इसलिए यह जानना संभव नहीं है कि क्या इसे लेने से किसी तरह का दुष्प्रभाव हुआ है या नहीं. इसलिए, फिलहाल मैं किसी ऐसे रोगी को यह दवा लेने का सुझाव नहीं दूंगी जिसे ब्लड शुगर को कम रखना है या हृदय संबंधी जोखिम को कम करना है.” (dw.com)
अमेरिकी न्यूरोसाइंटिस्ट्स ने एक गर्भवती महिला के मस्तिष्क को गर्भावस्था से पहले, उस दौरान और उसके बाद लगातार स्कैन किया. गर्भावस्था में महिलाओं के दिमाग में बदलावों को देखने के लिए ऐसी स्टडी पहली बार हुई है.
डॉयचे वैले पर फ्रेड श्वालर की रिपोर्ट-
हम जानते हैं कि गर्भावस्था के दौरान एक मां का शरीर पूरी तरह से बदल जाता है, लेकिन एक नए शोध में मां बनने वाली महिला के दिमाग में कई दिलचस्प बदलाव दिखाए गए हैं.
एक स्वस्थ 38 वर्षीय महिला के दिमाग को दो वर्षों तक स्कैन कर वैज्ञानिकों ने पहली बार गर्भावस्था के दौरान मस्तिष्क में आए बदलावों का एक व्यापक मानचित्र बनाया है. नेचर न्यूरोसाइंस जर्नल में प्रकाशित हुए यह आंकड़े मां के मस्तिष्क के बदलावों की ओर इशारा करते हैं. ऐसे बदलाव जो गर्भावस्था के दौरान पूरी तरह से अलग दिख रहे हैं.
मस्तिष्क के लगभग सभी हिस्सों में इस दौरान अपने कार्य और संरचना में बदलाव दिखे. यहां तक कि सामाजिक और भावनात्मक प्रक्रिया में भी कुछ बदलाव आए- जो बच्चे के जन्म के बाद मां में दो वर्षों तक बने रहे.
यह शोध महिलाओं की गर्भावस्था पर केंद्रित था. इसमें एक और छोटा सा अध्ययन शामिल था जो मां बनने के सफर के दौरान शरीर में आए बदलावों को देखता था. इस बदलाव को मेट्रेसेंस कहा जाता है जो विकास का एक अगला चरण है.
वैज्ञानिक अब यह भी खोज रहे हैं कि गर्भावस्था और मातृत्व के दौरान मस्तिष्क में आए हार्मोनल बदलाव शारीरिक संरचना और कार्य पर किस तरह असर डालते हैं. ऐसा किशोरावस्था और मेनोपॉज के दौरान भी होता है.
अमेरिका के सेंटा बारबरा में यूनिवर्सिटी ऑफ केलिफोर्निया में कार्यरत इस शोध की मुख्य लेखक एमिली जेकब्स कहती हैं, "ऐसा लगता है कि गर्भावस्था के दौरान मानव मस्तिष्क एक कोरियोग्राफ किये गए बदलाव से गुजरता है और हम अंततः असल समय में इस तरह के बदलाव को ऑब्जर्व कर पा रहे थे.”
गर्भावस्था के दौरान आते हैं बड़े बदलाव
इस शोध के लिए एलिजाबेथ क्रैस्टिल के मस्तिष्क का अध्ययन किया गया है. वे खुद भी यूनिवर्सिटी ऑफ केलिफोर्निया, इरविन में एक न्यूरोसाइंटिस्ट हैं. शोधकर्ता क्रैस्टिल के मस्तिष्क को हर कुछ हफ्तों में मैग्नेटिक रेजोनेंस इमेजिंग (एमआरआई) के जरिए स्कैन करते थे और यह सिलसिला गर्भावस्था के पहले से लेकर बच्चे को जन्म देने के दो साल बाद तक चलता रहा.
क्रैस्टिल ने जेकब्स के साथ मीडिया में दिए एक बयान में कहा, "यह एक बहुत ही गहन कार्य था. हमने पहले 26 स्कैन किये.” शोधकर्ताओं को गर्भावस्था के दौरान सप्ताह-दर-सप्ताह सामने आए मस्तिष्क के न्यूरोएनाटॉमी में पूरी तरह से बदलाव देखने को मिले. क्रैस्टिल के मस्तिष्क के अंदर ग्रे मैटर वॉल्यूम, कॉर्टिकल थिकनेस, व्हाइट मैटर, माइक्रोस्ट्रक्चर और वेंट्रीकल वॉल्यूम सब कुछ बदल चुका था.
अमेरिका के न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी, लैंगोन हेल्थ के न्यूरोसाइंटिस्ट क्लेयर मैककॉरमैक कहते हैं, "इसके निष्कर्ष दिलचस्प थे. यह दिखाते हैं कि कम समय में गर्भावस्था दिमाग को पूरी तरह बदल सकती है, जैसे कि किशोरावस्था के दौरान जीवन में बदलाव के कई स्तर आते हैं.” मैककॉरमैक इस अध्ययन का हिस्सा नहीं थे.
क्रैस्टिल के दिमाग के कुछ व्हाइट मैटर गर्भावस्था के दूसरी तिमाही में बहुत ही मजबूती से विकसित हो गए थे. व्हाइट मैटर दिमाग के अलग अलग जगहों में जानकारियां भेजे जाने वाले रास्ते हैं. व्हाइट मैटर के मजबूत होने का मतलब है कि जानकारी और बेहतर तरीके से एक जगह से दूसरी जगह भेजी जा रही है.
क्रैस्टिल ने कहा, "बदलाव पूरे दिमाग में थे. मेरे मस्तिष्क के 80 फीसदी हिस्से में ग्रे मैटर वॉल्यूम में कमी भी देखी गई.” ग्रे मैटर दिमाग के टिश्यू हैं जिनमें न्यूरोसेल बॉडीज (तंत्रिका तंत्र) की बड़ी मात्रा (कॉन्सेन्ट्रेशन) होती है, यहां पर जानकारी प्रोसेस की जाती है. ग्रे मैटर वॉल्यूम में गिरावट कभी-कभी याददाश्त कमजोर होने और कुछ अन्य क्रियाकलाप से जुड़ी हो सकती है.
हालांकि अध्ययनकर्ताओं का कहना है कि ग्रे मैटर में गिरावट गर्भावस्था के दौरान हमेशा गलत नहीं हो सकती. यह मस्तिष्क के लिए एक लहर के जैसी हो सकती है क्योंकि मस्तिष्क स्वयं को मातृत्व के लिए तैयार कर रहा है- उसी तरह जैसे संगमरमर का एक टुकड़ा किसी मूर्ति का आकार ले रहा हो.
जैकब्स कहती हैं, "इस तरह के बदलाव न्यूरल सर्किट में बेहतर ट्यूनिंग को दर्शा सकते हैं. इस तरह की प्रक्रियाएं मस्तिष्क को और अधिक स्पेशलाइज्ड (विशिष्ट) बनाने में मदद करती हैं.”
गर्भावस्था वाले बदलावों को समझने के कई फायदे
क्रैस्टिल के मस्तिष्क में आए बदलाव एस्ट्रोजन और प्रोजेस्टरॉन हार्मोन के बदलते स्तर से भी जुड़े थे. लेकिन इस शोध से यह पता नहीं चल पाया है कि इन शारीरिक बदलावों से मां के मानसिक स्वास्थ्य में क्या बदलाव आ रहे हैः क्या दिमाग में आए बदलाव उनके मूड को बदलने या गर्भावस्था के दौरान नींद में परेशानी का कारण बन सकते हैं? कौन से बदलाव मातृत्व प्रेम (वात्सल्य) के बंधन को मजबूत करते हैं? वैज्ञानिकों को अब तक इसका पता नहीं चला है.
कई और महिलाओं के साथ अब यह निर्धारित करने के लिए शोध चल रहे हैं कि मस्तिष्क में इस तरह के परिवर्तन मां के मनोविज्ञान और स्वास्थ्य पर कैसे प्रभाव डालते हैं.
इसके निष्कर्ष गर्भावस्था के बाद होने वाले पोस्टनेटल डिप्रेशन और प्रीक्लेम्पसिया की स्थिति को समझने में मदद कर सकते हैं. प्रीक्लेम्पसिया गर्भावस्था के दौरान उच्च रक्तचाप को कहा जाता है.
मैककॉरमैक ने डीडब्ल्यू को बताया, "इस शोध में कई महत्वपूर्ण कदम शामिल हैं जो गर्भावस्था के दौरान होने वाले पेरिनेटल मूड और एंजाइटी की परेशानियों को समझ कर इलाज करने में मददगार हो सकते हैं. इससे जन्म देने वाली हर पांच में से एक मां पर असर पड़ता है.”
हालांकि क्रैस्टिल रहती हैं, "वास्तव में यह अध्ययन जवाबों से ज्यादा सवालों को उठाता है. हमने गर्भावस्था के दौरान मस्तिष्क की समझ को देखना बस शुरू किया है.”
गर्भावस्था पर शोध की कमी ‘आश्चर्यजनक'
सबसे ज्यादा "अचंभे" वाली तो यह रही कि गर्भावस्था के दौरान मस्तिष्क में आने वाले बदलावों को लगातार मैप करने वाला यह अपनी तरह का पहला शोध है.
जैकब्स कहती हैं, "यह 2024 है और हम पहली बार इतने बेहतरीन न्यूरोलॉजिकल बदलावों की झलक देख पा रहे हैं. गर्भावस्था की न्यूरोबायोलॉजी के बारे में बहुत कुछ ऐसा है जिसको अभी तक हम समझ नहीं पाए हैं. यह इस बात का उदाहरण है कि बायोसाइंस के इतिहास में अब तक महिलाओं के स्वास्थ्य को नजरअंदाज किया जाता रहा है. ”
जैकब्स ने कहा कि पिछले 30 वर्षों में ब्रेन इमेजिंग के जो करीब 50 हजार लेख प्रकाशित हुए लेकिन उनमें गर्भावस्था जैसे महिला स्वास्थ्य के मुद्दों पर केंद्रित लेख एक फीसदी से भी कम थे.
अमेरिका के इरविन में यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया की हॉर्मोन विशेषज्ञ डायना क्रॉउस कहती हैं, "पुरुष और महिला के मस्तिष्क की गतिविधियों में अंतर को क्लीनीशियन या न्यूरोसाइंटिस्ट्स ने पारंपरिक रूप से कभी नहीं सराहा.”
क्रॉउस ने डीडब्ल्यू से कहा, "क्यों? एक महिला वैज्ञानिक होने के नाते मुझे इस बात से कोई मतलब नहीं है, लेकिन साफ तौर पर सेक्स और हार्मोन का काफी प्रभाव पड़ता है और यह देखकर अच्छा लग रहा है कि इस तरह के मामलों पर अब ध्यान केंद्रित किया जा रहा है.”
इस नई स्टडी से 'मैटर्नल ब्रेन प्रोजेक्ट' यानि मातृत्व मस्तिष्क प्रोजेक्ट की शुरुआत हो गई है. यह महिला के दिमाग पर प्रेगनेंसी के असर को समझने के लिए चलाया जाने वाला एक अंतरराष्ट्रीय प्रयास है. अमेरिका और स्पेन की महिलाएं और उनके साथी एक बड़े पैमाने पर इन अध्ययनों का हिस्सा बन रहे हैं. (dw.com)
नई दिल्ली, 4 सितंबर । हरी सब्जियां न केवल स्वादिष्ट होती हैं बल्कि स्वास्थ्य के लिए भी फायदेमंद होती हैं। इनके नियमित सेवन से शरीर को कई तरह के पोषक तत्व मिलते हैं। हरी सब्जियों में पोषक तत्वों से भरपूर कुंदरू की सब्जी सेहत के लिए बहुत फायदेमंद होती है। कुंदरू, जिसे अंग्रेजी में "टेंडर गॉर्ड" या "कन्फ्यूजन गार्ड" के नाम से भी जाना जाता है। इस पौष्टिक सब्जी का उपयोग भारत में प्राचीन काल से किया जाता रहा है।
यह सब्जी न केवल अपने स्वाद के लिए जानी जाती है बल्कि इसके कई स्वास्थ्य लाभों के कारण भी इसका सेवन किया जाता है। कुंदरू सब्जी का सेवन कई तरह की बीमारियों की रोकथाम के लिए वरदान साबित हो सकता है। हम आपको कुंदरू सब्जी के स्वास्थ्य लाभ, इसके पोषण और इसे अपने आहार में शामिल करने के तरीके के बारे में बताने जा रहे हैं। कुंदरू में विटामिन ए, सी और के भरपूर मात्रा में होते हैं।
विटामिन ए आंखों के स्वास्थ्य के लिए जरूरी है, जबकि विटामिन सी प्रतिरक्षा प्रणाली को मजबूत करता है। विटामिन के हड्डियों के स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण है। इसके अलावा कुंदरू में आयरन, कैल्शियम और फास्फोरस जैसे खनिज भी होते हैं, जो शरीर को पूर्ण रूप से स्वास्थ्य बनाए रखने में मदद करते हैं। कुंदरू में फाइबर भरपूर मात्रा में होता है जो पाचन तंत्र को सुचारू रूप से काम करने में मदद करता है। फाइबर कब्ज और अन्य पाचन समस्याओं से राहत देता है और आंत के स्वास्थ्य में सुधार करता है। इसके नियमित सेवन से पेट की समस्याएं कम होती हैं और पाचन बेहतर होता है। कुंदरू में फाइबर भी भरपूर मात्रा में होता है और यह ब्लड शुगर को नियंत्रण में रखता है। इन गुणों के कारण कुंदरू डायबिटीज के मरीजों के लिए फायदेमंद हो सकता है।
कुंदरू की सब्जी कैलोरी की कम मात्रा के कारण वजन बढ़ने से रोकती है। इसके नियमित सेवन से शरीर में अतिरिक्त चर्बी को कम किया जा सकता है। कुंदरू की सब्जी को कई तरह से बनाकर अपने आहार में शामिल किया जा सकता है। मसालेदार सब्जी बनाने के लिए कुंदरू को हल्दी, मिर्च, धनिया और जीरे के साथ पकाया जाता है। यह सब्जी तीखी और मसालेदार होती है। आप इसे रोटी या चावल के साथ सेवन करके इसका आनंद ले सकते हैं। कुंदरू की सब्जी को दही और मसाले भी डालकर पकाया जा सकता है। यह सब्जी न केवल स्वादिष्ट होती है बल्कि पाचन शक्ति को भी मजबूत करती है।
कुंदरू को उबालकर और मसाले डालकर चटनी बनाई जा सकती है। यह चटनी रोटी या पराठे के साथ बहुत स्वादिष्ट लगती है और स्वास्थ्य लाभ भी प्रदान करती है। कुंदरू की सब्जी को दैनिक आहार में शामिल करने से आपको कई स्वास्थ्य समस्याओं से राहत मिल सकती है और कई स्वास्थ्य समस्याओं में सुधार हो सकता है। इसलिए, कुंदरू की सब्जी को अपने खाने की सूची में शामिल करना न भूलें और इसके स्वास्थ्य लाभों का आनंद लें। -- (आईएएनएस)
वैज्ञानिक झड़ चुके बालों को दोबारा उगाने के तरीके ढूंढ़ते रहते हैं. कई बार ऐसा उपाय चूहों पर परीक्षण करने के दौरान गलती से भी मिल जाता है. चलिए जानते हैं कि ये उपाय गंजेपन को खत्म करने में कितने कारगर हैं.
डॉयचे वैले पर फ्रेड श्वालर की रिपोर्ट-
समाज में गंजे लोगों को कम सुंदर समझा जाता है. 1993 में एमी अवार्ड जीतने के बाद कॉमेडियन लैरी डेविड ने कहा था कि यह सब बहुत अच्छा और बढ़िया है, लेकिन मैं अभी भी गंजा हूं. डेविड के पास उन गंजे लोगों के लिए बड़े सबक हैं, जो बालों के झड़ने को स्वीकार करने की बजाय उसकी भरपाई करने की कोशिश करते हैं. साल 2000 में डेविड ने न्यूयॉर्क टाइम्स मैगजीन के लिए एक आर्टिकल लिखा था, जिसका शीर्षक था- "मेरे सिर को चूमिए.”
डेविड ने लिखा था, "मैं एक गंजा व्यक्ति हूं. मैं टोपी, हैट, दाढ़ी या ट्रांसप्लांट का सहारा नहीं लेता. अगर हम इन हास्यास्पद तरीकों का सहारा लेंगे तो कोई भी गंजे लोगों की इज्जत क्यों करेगा. यही वजह है कि बालों वाले लोग खुद को हमसे बेहतर मानते हैं.”
85 फीसदी पुरुष अपने जीवनकाल में बाल झड़ने की समस्या का सामना करते हैं. लेकिन यह सिर्फ पुरुषों तक सीमित नहीं है. 33 फीसदी महिलाओं को भी बालों के झड़ने या पतले होने की समस्या होती है. डेविड लैरी जैसे लोगों के प्रयासों के बावजूद कई लोग हेयर ग्रोथ को वापस पाने के तरीके ढूंढ़ते रहते हैं. पहले की तुलना में अब इसके लिए विकल्प भी काफी ज्यादा उपलब्ध हैं.
लेकिन सबसे पहले जान लेते हैं कि गंजापन होता क्यों है?
क्या मां से विरासत में मिलता है गंजापन?
अधिकतर मामलों में व्यक्ति के गंजे होने का संबंध उसके जींस से होता है. इसको लेकर कई अलग-अलग अनुमान हैं, लेकिन गंजे होने का 60 से 70 फीसदी खतरा जेनेटिक्स से जुड़ा है. बाल झड़ने की सबसे आम वजह को आनुवंशिक-पैटर्न वाला गंजापन कहा जाता है. इसका तकनीकी नाम एंड्रोजेनेटिक अलोपीशिया है. यह 50 फीसदी पुरुषों और महिलाओं को प्रभावित करता है.
एक चुटकुला सुनाया जाता है कि पुरुषों को गंजापन अपनी मां से विरासत में मिलता है. लेकिन यह पूरी तरह सही नहीं है. यह बात सही है कि गंजेपन का एक जीन से बेहद मजबूत संबंध होता है. यह जीन एक्स क्रोमोसोम पर पाया जाता है, जो व्यक्ति को उसकी मां से प्राप्त होता है. इसे एआर जीन कहते हैं. लेकिन गंजापन पॉलीजेनिक है, यानी इसमें कई जींस की भूमिका रहती है.
कुछ अनुमानों के मुताबिक, इसमें लगभग 200 जींस शामिल होते हैं. इनमें से कुछ जींस ही मां की ओर से प्राप्त होते हैं. वहीं, बहुत सारे जीन पिता से मिलते हैं. इसलिए गंजेपन के लिए मां के जीन को जिम्मेदार ठहराना पूरी तरह से सही नहीं है. कई रिसर्च में सामने आया है कि बाल झड़ने की समस्या का सामना कर रहे 80 फीसदी लोगों के पिता भी गंजे हैं या गंजे थे.
निश्चित नहीं है गंजा होना
आपके जींस आपके बालों का भविष्य तय नहीं करते हैं. भले ही आपके घर के सभी पुरुष गंजे हों, तो भी यह पक्का नहीं होता कि भविष्य में आपके बाल भी उड़ ही जाएंगे. इसके अलावा बहुत सारे गंजे लोग ऐसे भी होते हैं, जिनके घर में सभी के अच्छे बाल होते हैं.
कुछ पर्यावरण संबंधी कारक भी बाल झड़ने की वजह बनते हैं. इनमें तनाव और पोषण का सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ता है. तनाव से भरी नौकरी और घरेलू जिंदगी, कीमोथेरेपी और पोषण की कमी से स्थायी या अस्थायी तौर पर बाल झड़ सकते हैं. इसमें पोनीटेल जैसी कुछ हेयरस्टाइल की भी भूमिका हो सकती है, जिनमें बालों को कसकर बांधा जाता है. इसका एक और कारण अलोपीशिया एरीटा है, जो ऑटोइम्यून रिएक्शन की वजह से होता है.
गंजेपन में हॉर्मोनों की भी भूमिका होती है. यह कहा जाता है कि टेस्टोस्टेरोन हॉर्मोन की अधिकता से गंजापन होता है. लेकिन यह आंशिक रूप से ही सही है. गंजेपन का संबंध कुछ विशिष्ट हॉर्मोन और बालों पर उनके प्रभाव से होता है. खासकर सेक्स हॉर्मोन डीहाइड्रोटेस्टोस्टेरोन (डीएचटी) से, जो टेस्टोस्टेरोन से प्राप्त होता है. डीएचटी हॉर्मोन के प्रति हेयर फॉलिकल्स की संवेदनशीलता से बालों का झड़ना प्रभावित होता है.
ऐसा नहीं है कि हॉर्मोनों की वजह से सिर्फ पुरुषों के बाल ही झड़ते हैं. 80 साल की उम्र तक आते-आते आधी से ज्यादा महिलाओं को बाल झड़ने की समस्या झेलनी पड़ती है. इसकी मुख्य वजह हॉर्मोन संबंधी बदलाव हैं जो मेनोपॉज, गर्भावस्था और बच्चे के जन्म के समय होते हैं.
झड़ते बालों को दोबारा कैसे उगाएं
हेयर ग्रोथ प्रोडक्ट्स का व्यवसाय तेजी से बढ़ रहा है. 2020 में बाल झड़ने की समस्या का उपचार करने वाले उत्पादों का कुल मार्केट साइज करीब 300 करोड़ डॉलर था. माना जा रहा है कि यह 2030 तक दोगुना हो जाएगा. जिन लोगों के बाल झड़ रहे हैं, उनके बाल दोबारा से उगाने के लिए बाजार में कई उपचार मौजूद हैं, मानो गंजापन कोई बीमारी हो.
हाल के दशकों में हेयर ट्रांसप्लांट सर्जरी की लोकप्रियता भी बढ़ी है. हेयर ट्रांसप्लांट के दौरान शरीर में पहले से मौजूद हेयर फॉलिकल्स को गंजेपन वाली जगह पर लगाया जाता है. हेयर ट्रांसप्लाट और दूसरी कॉस्मेटिक सर्जरी करवाने की इच्छा रखने वाले लोगों के बीच तुर्की एक लोकप्रिय स्थान बन गया है.
हेयर ग्रोथ के लिए दवाइयां भी आती हैं, जिनके लिए डॉक्टर के पर्चे की जरूरत होती है. उनमें से एक है फिनास्टेराइड. यह दवाई डीएचटी हॉर्मोन को रोकने का काम करती है, जिससे वह हेयर फॉलिकल्स को प्रभावित ना करे. एक मिनोक्सिडिल है जो रक्त वाहिकाओं को खोलने वाली दवाई है. हालांकि, यह पूरी तरह समझा नहीं गया है कि यह हेयर ग्रोथ को कैसे बढ़ाती है.
हेयर ग्रोथ का एक मान्यता प्राप्त उपाय लेजर हेयर थेरेपी भी है. वैज्ञानिकों को यह पूरी तरह स्पष्ट नहीं है कि यह थेरेपी कैसे काम करती है, लेकिन जब हर दिन कम तीव्रता वाला लेजर ट्रीटमेंट छह से 12 महीनों तक दिया जाता है, तो उससे हेयर फॉलिकल्स की ग्रोथ बढ़ती है. यह स्टेम सेल एक्टिविटी के बढ़ने की वजह से होता है.
लेकिन वैज्ञानिक बाल झड़ने की समस्या के लिए और भी उपाय खोजने में लगे हए हैं.
शुगर जेल से बढ़ती है हेयर ग्रोथ
चूहों पर किए गए एक अध्ययन में इंसानों और जानवरों में प्राकृतिक रूप से पाई जाने वाली एक शुगर का परीक्षण किया गया था. इसका नाम टू-डिऑक्सी-डी-राइबोज (टूडीडीआर) था. स्टडी में इसकी घाव भरने में मदद करने की क्षमता का परीक्षण किया गया था. इसी दौरान रिसर्चरों ने पाया कि इस शुगर की वजह से घाव के आसपास हेयर ग्रोथ बढ़ गई.
इसके बाद रिसर्चर्स ने हेयर ग्रोथ के लिए इसका परीक्षण किया और पाया कि 21 दिनों तक इस शुगर को जेल की तरह लगाने से हेयर फॉलिकल्स तेजी से बढ़ते हैं. लेकिन इसमें एक पेंच यह है कि अभी तक इसका परीक्षण सिर्फ चूहों पर हुआ है. इसलिए निकट भविष्य में इसके बाजार में आने की उम्मीद नहीं की जा सकती.
तब तक डेविड की इस बात को ध्यान में रखिए कि गंजे लोग अच्छे प्रेमी होते हैं. उन्होंने सालों पहले लिखा था, "हमें टेस्टोस्टेरोन काफी मात्रा में मिला है. इसलिए हम सबसे पहले गंजे हो गए.” (dw.com)
रोबिना (ऑस्ट्रेलिया), 25 जुलाई सोशल मीडिया ऐसे दावों से भरा पड़ा है कि रोजमर्रा की आदतें आपकी त्वचा को नुकसान पहुंचा सकती हैं। यह उन उत्पादों की सिफ़ारिशों या विज्ञापनों से भी भरा है जो आपकी सुरक्षा कर सकते हैं।
अब सोशल मीडिया पर हमारे उपकरणों की नीली रोशनी पर इसकी नजर है।
तो क्या फ़ोन पर स्क्रॉल करने से सचमुच आपकी त्वचा को नुकसान पहुँच सकता है? और क्या क्रीम या लोशन लगाने से मदद मिलेगी?
यहां बताया गया है कि सबूत क्या कहते हैं और हमें वास्तव में किस पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।
मुझे बताएं, नीली रोशनी वास्तव में क्या है?
नीली रोशनी दृश्यमान प्रकाश स्पेक्ट्रम का हिस्सा है। सूर्य का प्रकाश इसका सबसे प्रबल स्रोत है। लेकिन हमारे इलेक्ट्रॉनिक उपकरण - जैसे हमारे फोन, लैपटॉप और टीवी - भी इसे उत्सर्जित करते हैं, भले ही 100-1,000 गुना कम स्तर पर।
यह देखते हुए कि हम इन उपकरणों का उपयोग करने में इतना समय बिताते हैं, हमारी आंखों और नींद सहित हमारे स्वास्थ्य पर नीली रोशनी के प्रभाव के बारे में कुछ चिंताएं पैदा हुई हैं।
अब, हम हमारी त्वचा पर नीली रोशनी के प्रभाव के बारे में और अधिक सीख रहे हैं।
नीली रोशनी त्वचा को कैसे प्रभावित करती है?
त्वचा पर नीली रोशनी के प्रभाव के प्रमाण अभी भी सामने आ रहे हैं। लेकिन कुछ दिलचस्प निष्कर्ष भी हैं।
1. नीली रोशनी पिग्मेंटेशन को बढ़ा सकती है
अध्ययनों से पता चलता है कि नीली रोशनी के संपर्क में आने से मेलेनिन का उत्पादन उत्तेजित हो सकता है, जो त्वचा को प्राकृतिक तौर पर उसका रंग देता है।
इसलिए बहुत अधिक नीली रोशनी संभावित रूप से हाइपरपिग्मेंटेशन को खराब कर सकती है - मेलेनिन के अत्यधिक उत्पादन के कारण त्वचा पर काले धब्बे हो जाते हैं - विशेष रूप से गहरे रंग की त्वचा वाले लोगों में।
2. नीली रोशनी आपको झुर्रियाँ दे सकती है
कुछ शोध से पता चलता है कि नीली रोशनी कोलेजन को नुकसान पहुंचा सकती है, जो त्वचा की संरचना के लिए आवश्यक प्रोटीन है, जो संभावित रूप से झुर्रियों के गठन को तेज कर सकता है।
एक प्रयोगशाला अध्ययन से पता चलता है कि ऐसा तब हो सकता है जब आप अपने उपकरण को अपनी त्वचा से एक सेंटीमीटर की दूरी पर कम से कम एक घंटे के लिए रखें।
हालाँकि, अधिकांश लोगों के लिए, यदि आप अपने उपकरण को अपनी त्वचा से 10 सेमी से अधिक दूर रखते हैं, तो इससे आपका जोखिम 100 गुना कम हो जाएगा। इसलिए इसके महत्वपूर्ण होने की संभावना बहुत कम है।
3. नीली रोशनी आपकी नींद में खलल डाल सकती है, जिससे आपकी त्वचा प्रभावित हो सकती है
यदि आपकी आंखों के आसपास की त्वचा सुस्त या सूजी हुई दिखती है, तो इसके लिए सीधे नीली रोशनी को दोष देना आसान है। लेकिन जैसा कि हम जानते हैं कि नीली रोशनी नींद को प्रभावित करती है, आप शायद जो देख रहे हैं वह नींद की कमी के कुछ स्पष्ट लक्षण हैं।
हम जानते हैं कि नीली रोशनी मेलाटोनिन के उत्पादन को दबाने में विशेष रूप से अच्छी होती है। यह प्राकृतिक हार्मोन आमतौर पर सोने का समय होने पर हमारे शरीर को संकेत देता है और हमारे सोने-जागने के चक्र को नियंत्रित करने में मदद करता है।
मेलाटोनिन को दबाने से, सोने से पहले नीली रोशनी का संपर्क इस प्राकृतिक प्रक्रिया को बाधित करता है, जिससे सोना मुश्किल हो जाता है और संभावित रूप से आपकी नींद की गुणवत्ता कम हो जाती है।
स्क्रीन सामग्री की उत्तेजक प्रकृति नींद में और बाधा डालती है। सोशल मीडिया फ़ीड, समाचार लेख, वीडियो गेम, या यहां तक कि काम के ईमेल भी हमारे दिमाग को सक्रिय और सतर्क रख सकते हैं, जिससे नींद आने में बाधा आ सकती है।
लंबे समय तक नींद की समस्या मुँहासे, एक्जिमा और रोसैसिया जैसी त्वचा की मौजूदा स्थितियों को भी खराब कर सकती है।
नींद की कमी कोर्टिसोल के स्तर को बढ़ा सकती है, एक तनाव हार्मोन जो कोलेजन को तोड़ता है और त्वचा की मजबूती के लिए जिम्मेदार प्रोटीन है। नींद की कमी त्वचा के प्राकृतिक स्वरूप को भी कमजोर कर सकती है, जिससे यह पर्यावरणीय क्षति और शुष्कता के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाती है।
क्या त्वचा की देखभाल मेरी रक्षा कर सकती है?
सौंदर्य उद्योग ने नीली रोशनी के बारे में चिंताओं का फायदा उठाया है और मिस्ट, सीरम और लिप ग्लॉस जैसे सुरक्षात्मक उत्पादों की एक श्रृंखला पेश की है।
व्यावहारिक दृष्टिकोण से, संभवतः मेलास्मा नामक अधिक परेशानी वाले हाइपरपिग्मेंटेशन वाले लोगों को ही उपकरणों से निकलने वाली नीली रोशनी के बारे में चिंतित होने की आवश्यकता है।
इस स्थिति के लिए त्वचा को हर समय सभी दृश्य प्रकाश से अच्छी तरह से संरक्षित करने की आवश्यकता होती है। एकमात्र उत्पाद जो पूरी तरह से प्रभावी हैं, जो सभी प्रकाश को रोकते हैं, अर्थात् खनिज-आधारित सनस्क्रीन या कुछ सौंदर्य प्रसाधन। यदि वह अपारदर्शी हैं तो वे प्रभावी होंगे।
लेकिन प्रयोगशालाओं के बाहर गैर-अपारदर्शी उत्पादों के लिए कठोर परीक्षण की कमी है। इससे यह आकलन करना मुश्किल हो जाता है कि क्या वे काम करते हैं और क्या उन्हें आपकी त्वचा देखभाल की दिनचर्या में शामिल करना उचित है।
फिर मैं नीली रोशनी को कम करने के लिए क्या कर सकता हूँ?
यहां कुछ सरल कदम दिए गए हैं, जिन्हें अपनाकर आप नीली रोशनी के संपर्क में आने को कम कर सकते हैं, खासकर रात में जब यह आपकी नींद में खलल डाल सकती है:
शाम के समय नीली रोशनी के संपर्क में आने को कम करने के लिए अपने डिवाइस पर "नाइट मोड" सेटिंग का उपयोग करें या ब्लू-लाइट फ़िल्टर ऐप का उपयोग करें
सोने से पहले स्क्रीन पर बिताए जाने वाले समय को कम करें और सोने के समय की आरामदायक दिनचर्या बनाएं ताकि नींद में आने वाली उन परेशानियों से बचा जा सके जो आपकी त्वचा के स्वास्थ्य को प्रभावित कर सकती हैं।
नीली रोशनी के संपर्क को कम करने के लिए अपने फोन या डिवाइस को अपनी त्वचा से दूर रखें
सनस्क्रीन का प्रयोग करें। टाइटेनियम डाइऑक्साइड और आयरन ऑक्साइड युक्त खनिज और भौतिक सनस्क्रीन नीली रोशनी सहित व्यापक सुरक्षा प्रदान करते हैं।
संक्षेप में
नीली रोशनी के संपर्क को कुछ त्वचा संबंधी चिंताओं से जोड़ा गया है, विशेष रूप से गहरे रंग की त्वचा वाले लोगों के लिए पिग्मेंटेशन। हालाँकि, शोध जारी है।
जबकि त्वचा की देखभाल नीली रोशनी से बचाने का वादा दिखाती है, यह निर्धारित करने के लिए कि यह काम करती है या नहीं, अधिक परीक्षण की आवश्यकता है।
अभी के लिए, ब्रॉड-स्पेक्ट्रम सनस्क्रीन के साथ अच्छी धूप से सुरक्षा को प्राथमिकता दें, जो न केवल यूवी से बचाता है, बल्कि प्रकाश से भी बचाता है। (द कन्वरसेशन)
पृथ्वी के उत्तरी गोलार्ध का ज्यादातर हिस्सा भीषण गर्मी का सामना कर रहा है. प्रशासन, सार्वजनिक स्वास्थ्य के विशेषज्ञ लोगों को सुरक्षित रहने के लिए चेतावनी दे रहे हैं. आखिर यह भीषण गर्मी इंसानों पर क्या असर डालती है.
चीन, भारत, मध्य पूर्व, दक्षिणी यूरोप और अमेरिका के कई हिस्सों में ऊंचा तापमान नया रिकॉर्ड बनाने की आशंका पैदा कर रहा है. भीषण गर्मी सेहत पर कई तरह से असर डालती है. गर्मी की वजह से शरीर को थकावट का अनुभव होता है. इसमें सिरदर्द, चक्कर आना, प्यास और शरीर के लड़खड़ाने जैसी समस्याएं होती हैं. ऐसा किसी के भी साथ हो सकता है. आमतौर पर यह गंभीर नहीं होता है. 30 मिनट के अंदर अगर ठंडक मिल जाए तो ये समस्याएं अपने आप खत्म भी हो जाती है.
सबसे गंभीर समस्या है लू लगना. यह स्थिति तब आती है शरीर के अंदर का तापमान 40.6 डिग्री सेल्सियस के पार चला जाता है. यह सेहत के लिए आपातकाल की स्थिति है. इसकी वजह से लंबे समय के लिए कोई अंग बेकार या फिर मौत भी हो सकती है. सांस की गति तेज होना, उलझन या फिर सदमा और मितली आना इसके सामान्य लक्षण हैं.
जलवायु परिवर्तन के कारण तापमान आने वाले सालों में लगातार बढ़ता ही जाएगा. ऐसे में नमी का खतरा भी बढ़ने की आशंका है. गर्म हवाएं ज्यादा नमी को रोके रख सकती हैं. हवा में ज्यादा नमी होने का मतलब है कि पसीना नहीं आएगा जिससे कि शरीर ठंडा हो और उसे राहत मिल सके.
गर्मी का सबसे ज्यादा खतरा किसे?
गर्मी का खतरा कुछ लोगों के लिए ज्यादा है. इसमें छोटे बच्चे और बुजुर्ग सबसे पहले आते हैं. इसके साथ ही उन लोगों के लिए भी ज्यादा खतरा है. जो ज्यादा देर तक गर्म वातावरण में काम करते या फिर रहते हैं जैसे कि बेघर लोग.
इन लोगों में अगर पहले से सांस या दिल की बीमारी हो या फिर डायबिटीज हो तो इनके लिए खतरा गर्मी की वजह से कई गुना ज्यादा बढ़ जाता है.
कई देशों में गर्मी को मौत की खास वजह के रूप में दर्ज नहीं किया जाता. इस वजह से इन देशों में गर्मी का खतरा झेल रहे समुदायों के बारे में कोई आंकड़ा नहीं है. हालांकि 2021 में विज्ञान पत्रिका द लांसेट ने एक रिसर्च के जरिए बताया था कि हर साल लगभग पांच लाख लोगों की मौत अत्यधिक गर्मी की वजह से हो रही है. यह आंकड़े सही तस्वीर नहीं दिखाते क्योंकि कम आय वाले कई देशों में गर्मी से होने वाली मौत का आंकड़ा मौजूद नहीं है. भारत में भी गर्मी से सैकड़ों लोगों के मरने की बात कही जा रही है.
यूरोप में बहुत से लोग 2022 जैसी गर्मी पड़ने की आशंका जता रहे हैं. उस साल यहां गर्मी की वजह से 61,000 लोगों की मौत हुई थी. गर्मी से खतरा आने वाले दशकों में और बढ़ते रहने की आशंका है क्योंकि जलवायु परिवर्तन के कारण तापमान लगातार ऊपर ही जा रहा है.
गर्मी के वो खतरे जो दिखाई नहीं देते
शरीर के अंदर के तापमान को प्रभावित करने के साथ ही अत्यधिक गर्मी कई और खतरे पैदा कर सकती है. गर्म वातावरण बैक्टीरिया और कवकों के विकास को बढ़ावा देता है. इसकी वजह से गर्मी बढ़ने पर हैजे जैसी बीमारी फैलाने वाले बैक्टीरिया पानी को प्रदूषित कर सकते हैं. इसके साथ ही तालाब, कुएं या इस तरह के जलस्रोत जहरीले कवकों की वजह से पीने के लायक नहीं रहते.
गर्मी फसलों को भी बर्बाद कर देती है जिसके कारण खाद्य सुरक्षा को लेकर चिंता पैदा होती है.
डब्ल्यूएचओ के मुताबिक विशेषज्ञों को आशंका है कि 2030 के बाद जलवायु से जुड़े चार खतरों के कारण सेहत पर आया संकट हर साल मरने वाले लोगों की संख्या 2,50,000 और बढ़ जाएगी. यह खतरे हैं गर्मी, खाद्य असुरक्षा की वजह से कुपोषण, मलेरिया और डायरिया.
गर्मी के कारण सूखने वाले पेड़ और झाड़ियां जंगल की आग को न्यौता देते हैं और फिर भयानक स्तर का वायु प्रदूषण होता है. इसकी वजह से फेफड़ों में सूजन और ऊतकों को नुकसान होता है. रिसर्चों से पता चला है कि अत्यधिक गर्मी और जंगल की आग के धुएं के संपर्क में आने की वजह से नवजात शिशुओं का वजन घटता है और इनके संपर्क में मां के आने से बच्चे समय से पहले पैदा भी हो जाते हैं.
गर्मी के कारण मानसिक स्वास्थ्य पर भी काफी असर होता है. गर्मी बढ़ने से लोगों के नींद की आदतें खराब हो जाती हैं और मानसिक स्वास्थ्य के और बिगड़ने का खतरा रहता है.
समय का प्रभाव
विशेषज्ञों का कहना है कि ज्यादा मौतें तब होती हैं जब लोगों के शरीर को गर्मी के लिए तैयार होने का मौका नहीं मिलता. यानी जब गर्मी का मौसम एकाएक धावा बोल देता है. इसके साथ ही जगह का भी प्रभाव होता है. ऐसी जगहों के लोगों के लिए ज्यादा खतरा है जिन्हें इस तरह की गर्मी झेलने की आदत नहीं है. इनमें यूरोप के कुछ हिस्से शामिल हैं.
भीषण गर्मी के मौसम में घर से बाहर निकलना बेहद खतरनाक है. कुछ देशों और इलाकों में इसी वजह से स्कूल बंद कर दिए जाते हैं और दुकान और दफ्तरों के लिए कामकाजी घंटे दिन के वक्त घटाए जाते हैं. कई जगहों पर तो दोपहर में पूरी तरह से काम ठप्प कर दिया जाता है.
भीषण गर्मी से बचने के लिए क्या करें
अमेरिका और भारत की सार्वजनिक स्वास्थ्य एजेंसियों ने लोगों के लिए सलाह और दिशानिर्देश जारी किए हैं. लोगों को ठंडा रहने की सलाह दी जा रही है. जितना संभव हो घर के अंदर रहने और लगातार पानी या तरल पीते रहना चाहिए ताकि शरीर में पानी की मौजूदगी लगातार एक स्तर तक बनी रहे.
अधिकारी इस प्रयास में हैं कि कूलिंग सेंटर बनाएं. लोगों को पीने का पानी मुहैया कराने की कोशिशें हो रही हैं और साथ ही सार्वजनिक परिवहन में मुफ्त एसी की व्यवस्थाएं विकसित की जा रही हैं. वैज्ञानिकों के मुताबिक कामकाजी लोगों को ज्यादा ब्रेक लेना चाहिए और साथ ही अपने कपड़े भी बदलने चाहिए. बुजुर्ग और कमजोर लोगों का ध्यान रखा जाना खासतौर से बहुत जरूरी है. लू लगना एक आपातकालीन स्थिति है और इसमें तुरंत डॉक्टर से सलाह लेना जरूरी है.
एनआर/एडी (रॉयटर्स)
एस्ट्राजेनेका ने माना है कि अति दुर्लभ मामलों में उसकी कोरोना वैक्सीन से खून में थक्के बन सकते हैं और प्लेटलेट्स भी कम हो सकते हैं. महामारी के दौरान भारत में कोविशील्ड के नाम से ये वैक्सीन करोड़ों लोगों को लगाई गई.
डॉयचे वैले पर ओंकार सिंह जनौटी की रिपोर्ट-
जर्मनी की अदालत में शुरुआती झटका लगने के बाद ब्रिटेन में भी एंग्लो -स्वीडिश दवा निर्माता कंपनी एस्ट्राजेनेका को धक्का लगा है. सोमवार को ब्रिटेन की एक अदालत में एस्ट्राजेनेका ने स्वीकार किया कि उसकी कोविड-19 वैक्सीन से "अति दुर्लभ मामलों में" थ्रोम्बोसाइटोपेनिया सिंड्रोम (टीटीएस) की शिकायत हो सकती है. टीटीएस के चलते शरीर में खून में थक्के बनने लगते हैं और प्लेटलेट्स की संख्या भी गिर जाती है.
स्वास्थ्य विशेषज्ञों के मुताबिक ऐसे थक्कों के कारण स्ट्रोक और हार्ट अटैक जैसी गंभीर परेशानियां भी हो सकती हैं.
दिग्गज फॉर्मास्यूटिकल कंपनी की कोविड-19 वैक्सीन, महामारी के दौरान दुनिया भर में अरबों लोगों को लगाई गई. इसे ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के साथ मिलकर तैयार किया था. कुछ देशों में इस वैक्सीन को कोविशील्ड और वैक्सजेवरिया नाम भी दिया गया. भारत में इसे सीरम इंस्टीट्यूट ने बनाया था. भारतीय अखबार बिजनेस स्टैंडर्ड के मुताबिक भारत में 29 अप्रैल 2024 तक 1.7494 अरब वैक्सीन लगाई गईं. अखबार ने यह जानकारी भारत सरकार के कोविन पोर्टल के हवाले से दी है.
जर्मनी से हुई शुरुआत
ब्रिटेन से पहले अप्रैल 2024 में जर्मनी में भी एक महिला ने एस्ट्राजेनेका के खिलाफ शुरुआती कानूनी लड़ाई जीती. 33 साल की महिला ने एस्ट्राजेनेका की वैक्सजेवरिया वैक्सीन के संभावित साइड इफेक्ट्स के खिलाफ याचिका दायर की थी. दक्षिणी जर्मनी के बामबेर्ग हायर रिजनल कोर्ट के प्रवक्ता ने फैसले के बाद कहा, कंपनी को वैक्सीन के अब तक पता चले सभी साइड इफेक्ट्स और इससे जुड़ी ऐसी अहम जानकारियां सार्वजनिक करनी चाहिए "जो टीटीएस वाले थ्रोम्बोसिस से जुड़ी हों."
जर्मन अदालत के मुताबिक वैक्सीन को अप्रूवल मिलने की तारीख 27 दिसंबर, 2020 से लेकर 19 फरवरी, 2024 तक की जानकारी उपलब्ध कराई जानी चाहिए. याचिकाकर्ता महिला ने यह वैक्सीन मार्च, 2021 में लगवाई. महिला का दावा है कि वैक्सीन के बाद से उनकी आंतों की धमनियों में खून के थक्के बनने लगे. हालत इतनी बिगड़ी कि वह कोमा में चली गईं और अंत में उनकी आंत का एक हिस्सा हटाना पड़ा.
महिला के वकील फोल्कर लॉषनर के मुताबिक अदालत के इस फैसले से उन तमाम लोगों को राहत मिलेगी, जो एस्ट्राजेनेका की वैक्सीन लगाने के बाद गंभीर साइड इफेक्ट्स से जूझ रहे हैं.
भारत में भी बीते दो साल में युवाओं में हार्ट अटैक के मामले काफी बढ़े हैं. कुछ लोग शक जताते हैं कि इनमें से कुछ मौतों के लिए कोविड वैक्सीन जिम्मेदार है. हालांकि भारत के स्वास्थ्य मंत्रालय ने ऐसे आरोपों को खारिज किया है.
महामारी के लंबे साइड इफेक्ट्स
2019 के अंत में चीन के वुहान प्रांत में एक रहस्यमयी बीमारी फैलनी शुरू हुई. श्वसन तंत्र और फेफड़ों पर घातक हमला करने वाली यह बीमारी असल में एक वायरस के जरिए तेजी से लोगों में फैल रही थी. जनवरी 2020 तक कोविड-19 नाम की यह बीमारी कई और देशों में फैल गई. इसके बाद दुनिया भर के देशों में सख्त लॉकडाउन लगाए गए. वायरस को रोकने के लिए लोगों को मास्क लगाने और एक दूसरे से दूरी बनाए रखने (सोशल डिस्टेंसिंग) के निर्देश दिए गए. कोविड-19 के कारण दुनिया भर में 70 लाख से ज्यादा लोग मारे गए.
- बीमारी फैलने के करीब साल भर बाद बॉयोनटेक, मॉर्डेना और एक्स्ट्राजेनेका जैसी दिग्गज कंपनियों ने सार्स कोव वी-2 वायरस के खिलाफ सफल वैक्सीन बनाने का दावा किया. बड़ी संख्या में लोगों की मौत और ऑक्सीजन की कमी जैसी मेडिकल इमरजेंसी के बीच कई सरकारों ने फटाफट कोविड वैक्सीनेशन प्रोग्राम शुरू किए. कुछ विशेषज्ञों ने तब भी चेताया था कि पर्याप्त क्लीनिकल ट्रायल के बिना इन वैक्सीनों को लगाना भविष्य में कुछ परेशानियां खड़ी कर सकता है. (डीपीए) (dw.com)
दुनियाभर में लगभग चार प्रतिशत बच्चे फूड एलर्जी से जूझ रहे हैं. एक नए अध्ययन में फूड एलर्जी को दूर करने के लिए दिशा-निर्देश दिए गए हैं. विशेषज्ञों का कहना है कि यह मैराथन के लिए प्रशिक्षण लेने जैसा है.
बच्चों के लिए फूड एलर्जी एक बड़ी समस्या हो सकती है. स्कूल में टिफिन बांटकर खाने से भी उन्हें फूड एलर्जी होने का खतरा होता है. इससे बच्चों और उनके माता-पिता को चिंता और तनाव झेलना पड़ता है. उनकी रोजमर्रा की सामाजिक जिंदगी प्रभावित हो सकती है. उनके घूमने-फिरने की योजनाओं और पार्टियों में जाने पर भी असर पड़ सकता है.
रिसर्चर्स ने पहली बार इसके लिए मानकीकृत दिशा-निर्देश तैयार किए हैं. जो बच्चों में फूड एलर्जी कर सकने वाले खाद्य पदार्थों के प्रति सहनशक्ति विकसित करने में मदद करेंगे.
इस थेरेपी को ओरल इम्यूनोथेरेपी कहा जाता है. इसमें बच्चों को मूंगफली जैसे एलर्जी कर सकने वाले खाद्य पदार्थ बहुत थोड़ी मात्रा में दिए जाते हैं. धीरे-धीरे उनकी मात्रा बढ़ाई जाती है ताकि बच्चों में उनके प्रति सहनशक्ति विकसित हो सके.
अब तक, डॉक्टरों के पास साक्ष्य-आधारित दिशा-निर्देश बेहद कम थे. जिन्हें वे अपने बच्चों को इम्यूनोथेरेपी दे रहे माता-पिता के साथ साझा कर पाते. लेकिन इन नए दिशा-निर्देशों से डॉक्टरों को बहुत मदद मिलेगी. वे फूड एलर्जी से पीड़ित बच्चों और उनके परिवारों के साथ बेहतर तरीके से काम कर पाएंगे.
डगलस मैक इस अध्ययन के प्रमुख लेखक और कनाडा की मैकमास्टर यूनिवर्सिटी में बाल रोग विशेषज्ञ हैं. वह कहते हैं, "यह हमारे क्षेत्र में एक ऐतिहासिक अध्ययन है क्योंकि ऐसा पहले कभी नहीं किया गया और कभी इस प्रक्रिया का मानकीकरण नहीं किया गया. हमें ओरल इम्यूनोथेरेपी के बारे में मार्गदर्शन की बहुत जरूरत है.”
कितनी आम हैं खाने से एलर्जी?
दुनियाभर में लगभग चार फीसदी बच्चे और एक फीसदी वयस्क फूड एलर्जी से जूझ रहे हैं. पश्चिमी देशों में यह समस्या थोड़ी ज्यादा है. वहां आठ फीसदी बच्चों और चार फीसदी वयस्कों को फूड एलर्जी है.
एक बच्चे का खाना दूसरे बच्चे को बीमार कर सकता है. मूंगफली से होने वाली एलर्जी ब्रिटेन, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में ज्यादा होती है. एशिया में यह एलर्जी उतनी अधिक नहीं है. यहां पर गेहूं, अंडे और दूध से होने वाली एलर्जी सबसे ज्यादा आम है.
पिछले दो दशकों से फूड एलर्जी के मरीज बढ़ रहे हैं. स्वास्थ्य वैज्ञानिकों का मानना है कि यह बढ़ती साफ-सफाई और स्वच्छता की वजह से हो रहा है. इसके पीछे की सोच यह है कि जब बच्चों के आस-पास कम कीटाणु होते हैं, तो उनका इम्यून सिस्टम मूंगफली और दूध जैसी सामान्य चीजों के खिलाफ ही काम करने लगता है. विटामिन डी की कमी भी इसका एक कारण है.
कई देशों के स्वास्थ्य अधिकारियों का कहना है कि एलर्जी को रोकने के लिए बच्चों को धीरे-धीरे एलर्जी कर सकने वाले खाद्य पदार्थों के संपर्क में लाना चाहिए. ऐसे परिवार जिनमें पहले भी फूड एलर्जी की समस्या रही है, उन्हें बाल रोग विशेषज्ञ के मार्गदर्शन में काम करना चाहिए.
ओरल इम्यूनोथेरेपी का फूड एलर्जी से पीड़ित बच्चों की मदद करने का लंबा और सफल इतिहास रहा है. इसका पहली बार इस्तेमाल 1908 में किया गया था. तब इसके जरिए एक बच्चे की अंडे से एलर्जी ठीक की गई थी. शुरुआत में बच्चे को अंडे का दस हजारवां हिस्सा खिलाया गया. छह महीने बाद वह बिना किसी परेशानी के अंडे खाने लगा.
जूलिया ऐप्टन कनाडा में बच्चों के एक अस्पताल में क्लिनिकल इम्यूनोलॉजिस्ट हैं. वह कहती हैं, "हमारे पास एक ऐसा उपचार है, जो काम करता है. जिसे लेकर अलग-अलग क्षेत्रों के डॉक्टरों के बीच व्यापक सहमति है. अध्ययनों में कई अलग-अलग तरीकों की जांच की जा रही है, जिससे उपचार बेहतर होता रहे और आगे चलकर सुरक्षा बेहतर हो, मेडिकल जरूरतें कम हों और इलाज की पहुंच बढ़े.”
मदद करती है ओरल इम्यूनोथेरेपी
ओरल इम्यूनोथेरेपी देने के दौरान देखभाल करने वाले व्यक्ति को एक नौसिखिए स्वास्थ्यकर्मी की तरह व्यवहार करना होता है. यह भी देखना होता है कि बच्चे का एलर्जी करने वाले खाद्य पदार्थ के साथ संपर्क खतरनाक स्तर पर ना पहुंच जाए. इस दौरान बच्चों में पेट दर्द और उल्टी जैसे दुष्प्रभाव नजर आना आम बात है.
एप्टन ने डीडब्ल्यू से कहा, "परिवारों को फूड एलर्जी, एनाफिलेक्सिस (एलर्जी की गंभीर प्रतिक्रिया) और इम्यूनोथेरेपी के बारे में जानना चाहिए. उन्हें यह भी सीखना चाहिए कि खाने को सही तरीके से कैसे खिलाएं, किन चीजों का ध्यान रखें, कब इलाज करें और कब डॉक्टरों से संपर्क करें.”
अध्ययनकर्ताओं के मुताबिक, करीब एक तिहाई मरीजों को उपचार शुरू करने से पहले कोई तैयारी नहीं करवाई गई.
मैकमास्टर यूनिवर्सिटी के मैक कहते हैं, "यदि परिवार ओरल इम्यूनोथेरेपी के लिए तैयार नहीं होंगे, तो वे सफल नहीं होंगे या यह असुरक्षित हो जाएगी. इन परिवारों को हर दिन यह थेरेपी देनी होगी. इसलिए यह दिशा-निर्देश इतने जरूरी हैं.”
मैराथन की ट्रेनिंग जैसा
ये दिशा-निर्देश डॉक्टरों के लिए बनाए गए हैं. ये सीधे तौर पर माता-पिता और परिवारों के लिए नहीं हैं. इसलिए यह जरूरी है कि माता-पिता डॉक्टरों के साथ मिलकर काम करें और फूड एलर्जी को सुरक्षित और प्रभावी तरीके से खत्म करने में अपने बच्चों की मदद करें.
हालांकि इस अध्ययन में माता-पिता और देखभाल करने वाले अन्य लोगों के लिए भी काम की जानकारी दी गई है.
एप्टन कहती हैं, "यह दिखाता है कि सुरक्षा से जुड़ी प्रमुख सलाहों और संभावित परिणामों को लेकर मजबूत सहमति है. उदाहरण के लिए, इम्यूनोथेरेपी से पहले और इसके दौरान अस्थमा को नियंत्रण में रखना बहुत जरूरी है. सुरक्षा और खुराक से जुड़े कई निर्देशों का भी पालन करना होता है.”
एप्टन इस थेरेपी को मैराथन के लिए दी जाने वाली ट्रेनिंग की तरह देखती हैं. बच्चों को रोजाना यह थेरेपी लेनी होती है. अगर वे ओरल इम्यूनोथेरेपी को पूरी तरह से बंद कर देते हैं तो उनकी सहनशक्ति कम हो जाती है.
एप्टन कहती हैं, "फूड एलर्जी से पीड़ित कई लोगों में इम्यूनोथेरेपी से होने वाला सुधार इस बात पर निर्भर करता है कि वे एलर्जी करने वाले खाद्य पदार्थों के कितने संपर्क में आ रहे हैं. इसके लिए अक्सर काफी ज्यादा काउंसलिंग की जरूरत होती है. ऐसे में परिवारों के लिए यह देखना बहुत मददगार होता है कि उस पर (थेरेपी पर) व्यापक सहमति है.”