संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : अफसर मुजरिमों को सजा दिलवाएं, या समझाईश दें?
04-Feb-2025 3:37 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : अफसर मुजरिमों को सजा दिलवाएं, या समझाईश दें?

छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने राजधानी रायपुर में सडक़ पर जन्मदिन मनाते हुए दोनों तरफ ट्रैफिक जाम की नौबत खड़ी करने पर भारी नाराजगी जाहिर की है, और इस पर सिर्फ तीन सौ रूपए जुर्माना लगाने वाले अफसर को सस्पेंड करने, और उस पर विभागीय कार्रवाई करने को कहा है। इस घटना में शहर के व्यस्त इलाके में एक नौजवान का जन्मदिन बीच सडक़ कार पर केक रखकर, आतिशबाजी के साथ मनाया जा रहा था, और लंबे ट्रैफिक जाम के बाद कुल तीन सौ रूपए जुर्माना किया गया। सरकार की तरफ से अदालत को बताया गया कि इस मामले में मोटर व्हीकल एक्ट के तहत कार्रवाई की गई है, और तीन सौ रूपए का चालान काटा गया है। हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश पुलिस की इस गैरगंभीर कार्रवाई पर हक्का-बक्का हैं। इसके साथ ही हमें कुछ दूसरी खबरें भी इसी शहर की मिल रही हैं जिनमें सडक़ पर लंबे फेरे से बचने के लिए सौ मीटर का हिस्सा रांग साईड से जाने पर दुपहिया चालकों को दो-दो हजार रूपए जुर्माने के चालान उनके फोन नंबर पर पहुंचे हैं। ऐसा लगता है कि जब किसी मवाली की ताकत सडक़ को अपने बाप की साबित करने की हो जाए, तो उस पर हाथ डालने के पहले पुलिस सौ बार सोचती है। मामूली दुपहिया चालकों को इससे पांच-दस गुना जुर्माने के नोटिस मिल रहे हैं, और ऐसी गुंडागर्दी करने वाले से हो सकता है कि पुलिस केक खाकर लौटी हो।

यह अकेला मामला नहीं है, इसी राजधानी रायपुर में हाईकोर्ट की दर्जनों बार की लताड़ के बाद भी गाडिय़ों पर लदे हुए लाउडस्पीकरों को बजाते हुए निकलने वाले जुलूस पर भी अफसर ऐसी ही मामूली सी कार्रवाई करते हैं, और आज भी पूरी गुंडागर्दी के साथ न सिर्फ धार्मिक और राजनीतिक जुलूस, बल्कि निजी शादियों के जुलूस भी सडक़ों पर ट्रैफिक जाम करते हुए, कान फाड़ते हुए, और दूर-दूर तक रौशनी की अंधाधुंध मार करते हुए निकलते हैं, और रास्ते में पडऩे वाली पुलिस को मानो ये न दिखते हैं, न सुनाई पड़ते हैं। हाईकोर्ट कई बार यह कह चुका है कि अफसर कोई कार्रवाई करना ही नहीं चाहते। होना तो यह चाहिए कि इस तरह की तमाम गाडिय़ों को राजसात किया जाए, ऐसे लोगों पर जनजीवन तहस-नहस करने, लोगों की जिंदगी के लिए खतरा खड़ा करने जैसी धाराएं लगानी चाहिए, ताकि बाकी लोगों को कुछ सबक मिले। लेकिन अफसरों की हमदर्दी मुजरिमों के साथ रहती है, और शांति से जीने की चाहत रखने वाले आम लोग ऐसी सावर्जनिक गुंडागर्दी को बर्दाश्त करने के अलावा कुछ नहीं कर पाते। हमारा मानना है कि जब हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की बार-बार की फटकार भी पूरी तरह बेअसर हो जाती है, तो फिर लोगों को उम्मीद छोड़ देनी चाहिए। राजधानी में राजभवन, मुख्यमंत्री के बंगलों के इर्द-गिर्द का हिस्सा प्रशासन के एक अलग आदेश से कोलाहलमुक्त घोषित कर दिया जाता है, और शहर के, प्रदेश के, सडक़ किनारे बसे और काम करने वाले लोगों के तो मानो कान ही नहीं हैं। ध्वनि प्रदूषण से इसी प्रदेश में कुछ लोगों की जान जा चुकी है, लेकिन पुलिस और प्रशासन मौजूदा कानूनों पर भी अमल करना नहीं चाहते। एक पुरानी बात चली आ रही है कि हर सफल पुरूष के पीछे किसी महिला का हाथ होता है, उसी तरह कानून तोडऩे वाले हर मुजरिम की पीठ पर किसी न किसी नेता का हाथ होता है। जब शासन और प्रशासन कानून तोडऩे को एक नियमित बात मान लेते हैं, तो फिर वह जनता की नियति ही बन जाती है।

अब इसी राजधानी की कल की खबर है कि पुलिस ने मोटरसाइकिलों के लिए गैरकानूनी साइलेंसर बेचने वाले दुकानदारों की एक बैठक लेकर उन्हें बताया है कि ऐसे साइलेंसर बेचने पर छह महीने की कैद हो सकती है, और जुर्माना हो सकता है। अफसरों ने बैठक में यह भी कहा कि पहले भी कई बार वे इस पर बैठक कर चुके हैं। पुलिस की तरफ से कहा गया कि कारोबारियों को समझाईश दी गई है। अब सवाल यह उठता है कि जो जुर्म है, और जिस पर छह महीने की कैद हो सकती है, उस पर क्या पुलिस का काम पूरी जिंदगी बैठक ले-लेकर हिदायत देना है कि ऐसे मुजरिमों को जेल भेजना है? जो कारोबारी सोच-समझकर गैरकानूनी सामान बेच रहे हैं, और रईसों की जो बिगड़ैल औलाद सोच-समझकर हजारों रूपए खर्च करके कानून तोड़ रही है, लोगों का जीना हराम कर रही है, वे जेल जाने के हकदार हैं, या हिदायत पाने के? क्या कानून पुलिस को इस बात की छूट देता है कि वे मुजरिमों को हिदायत दे-देकर छोड़ते रहें? हर कुछ महीनों में पुलिस अलग-अलग किस्म की हिदायत देती है, और फिर उसे बहुत संगठित, और रहस्यमय तरीके से इजाजत भी देती है। यह हाल उस राजधानी का है जहां कि हर सडक़ से हर कुछ घंटों में मंत्रियों और बड़े अफसरों की आवाजाही चलती ही रहती है, इसलिए बाकी प्रदेश में हालत इससे बेहतर हो, ऐसी कोई वजह नहीं हो सकती।

यह देखना भी हैरान करता है कि अफसरों से ऊपर जो राज्य सरकार है वह हर दिन अखबारों मेें सार्वजनिक गुंडागर्दी की खबरें पढ़ती है, सरकारी वकील हर हफ्ते किसी न किसी ऐसे सार्वजनिक मामले पर हाईकोर्ट की फटकार झेलते हैं, और इसके बाद भी सरकार अगर कोई सुधार नहीं करती है, तो उससे ऐसी तस्वीर बनती है कि वह भी सार्वजनिक मुजरिमों के सामने बेबस है। हकीकत तो यह है कि ऐसी गुंडागर्दी को रोकने के लिए एक छोटा सा अफसर काफी हो सकता है, लेकिन सडक़ों पर अराजकता और गुंडागर्दी की छूट देने के पीछे संबंधित अफसरों की एक संगठित व्यवस्था काम करती है। बिना पुलिस की छूट के यह तो मुमकिन हो नहीं सकता, कि हर ऑटोरिक्शा ड्राइवर अपने दाएं-बाएं एक-एक और सवारी बिठाकर चलता है, तमाम ई-रिक्शा बैटरी बचाने के लिए बिना लाईट जलाए चलते हैं, स्कूली बच्चों को ले जाने वाली गाडिय़ां नियमों के खिलाफ चलती हैं, और ओवरलोड चलती हैं, और इनमें से किसी के खिलाफ भी जब कोई कार्रवाई नहीं होती है, तो यह जाहिर है कि यह संगठित-संरक्षण सडक़ों के मुजरिमों के लिए बिक्री पर उपलब्ध सामान है।

किसी भी प्रदेश में कानून का सम्मान कितना है यह वहां की ट्रैफिक को देखकर कुछ देर में ही समझ आ जाता है। हम बार-बार यह बात भी लिखते हैं कि लोग अपनी जिंदगी का पहला जुर्म ट्रैफिक नियम तोडऩे का करते हैं, और उस पर कोई कार्रवाई न होने पर वे धीरे-धीरे और गंभीर जुर्म की तरफ बढ़ते हैं। आज छत्तीसगढ़ के हर बड़े शहर में आए दिन चाकूबाजी दिखाई पड़ती है, और नाबालिग या नौजवान गुंडों का यह हौसला सडक़ों पर ट्रैफिक नियम तोडऩे से शुरू होकर बढ़ते-बढ़ते यहां तक पहुंचा हुआ रहता है। राज्य के मुख्यमंत्री एक से अधिक बार प्रदेश स्तर की बैठकों में ट्रैफिक को सुधारने के लिए कड़ाई बरतने की बात कह चुके हैं, मुख्य सचिव सरकारी अफसर-कर्मचारियों के लिए भी हेलमेट और सीट बेल्ट अनिवार्य करने को कह चुके  हैं। इसके बाद भी अगर इस राजधानी में गुंडे-मवाली सडक़-चौराहों पर ट्रैफिक रोककर अपना जन्मदिन मनाते हैं, तो सरकार को अपनी जिम्मेदारी और अपने असर के बारे में सोचना चाहिए, हाईकोर्ट तो सोच-सोचकर थक चुका है, निराश हो चुका है, और हथियार डाल चुका है।  

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