संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : संवैधानिक पद और सत्ता की मर्जी से मनोनयन के नुकसान, और इसका इलाज
01-Feb-2025 6:24 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : संवैधानिक पद और सत्ता की मर्जी से मनोनयन के नुकसान, और इसका इलाज

छत्तीसगढ़ में कांग्रेस सरकार के वक्त मनोनीत अनुसूचित जनजाति आयोग के अध्यक्ष और सदस्यों को भाजपा सरकार आने पर बर्खास्त कर देने का फैसला छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने राज्य सरकार के कानूनी अधिकार के तहत ठहराया है। भाजपा सरकार ने आने के बाद तुरंत ही एक आदेश जारी करके सभी राजनीतिक नियुक्तियों को खत्म करने का निर्देश दिया था। इसी के तहत छत्तीसगढ़ राज्य अनुसूचित जनजाति आयोग के अध्यक्ष और सदस्यों को भी हटा दिया गया था। इसके खिलाफ वे हाईकोर्ट गए थे, और अदालत ने यह माना है कि इनकी नियुक्ति में ही लिखा हुआ था कि वे राज्य सरकार के इच्छा के अधीन पद पर रहेंगे, और इस हिसाब से सरकार को इन्हें हटा देने का अधिकार था, और इसमें कुछ गलत नहीं हुआ है। अदालत ने कहा है कि इन लोगों को पद पर बने रहने का संवैधानिक अधिकार नहीं था। अदालत ने यह भी कहा कि याचिकाकर्ताओं की नियुक्ति पिछली सरकार की इच्छा पर हुई थी, और उनकी विचारधारा वर्तमान सरकार की नीतियों के अनुरूप नहीं है, इसलिए उनकी बर्खास्तगी को उनके कार्य या चरित्र पर कलंक नहीं माना जा सकता।

देश-प्रदेश में बहुत से ऐसे पद हैं जो संवैधानिक रहते हैं, और उन पर नियुक्त किए गए लोगों को कोई सरकार साधारण आदेश से नहीं हटा सकती। सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जज, यूपीएससी या पीएससी के चेयरमैन, मानवाधिकार आयोग, महिला आयोग, बाल संरक्षण आयोग जैसी बहुत सी संस्थाएं हैं जिनमें एक निश्चित कार्यकाल के लिए, या एक उम्रसीमा तक के लिए लोगों की नियुक्ति होती है, और वहां से उन्हें हटाने के लिए सरकार को महाभियोग जैसी बड़ी गंभीर प्रक्रिया अपनानी होती है। सरकारें आती-जाती रहती हैं, सत्तारूढ़ विचारधारा भी बदलती रहती है, लेकिन संवैधानिक पदों पर निरंतरता बनी रहती है। इससे परे जो राजनीतिक मनोनयन होते हैं, उनसे उम्मीद की जाती है कि वे सरकार बदलते ही अपनी कुर्सियां छोड़ दें, खुद होकर छोड़ दें, इसके पहले कि सरकार उन्हें बर्खास्त करे। लेकिन बहुत से ऐसे लोग रहते हैं जो यह उम्मीद करते हैं कि विपरीत विचारधारा की सरकार आने पर भी उन्हें जारी रखा जाएगा, और वे इस्तीफा देने के बजाय बर्खास्तगी तक एक-एक पल ओहदे का मजा लेते रहना चाहते हैं।

लोकतंत्र दरअसल कानूनों में जकड़ी हुई व्यवस्था नहीं है, यह एक ऐसी लचीली व्यवस्था है जिसमें लोगों को एक गरिमामय व्यवहार करना चाहिए, और लोकतंत्र की उदार, पारदर्शी, और गौरवशाली परंपराओं को निभाना चाहिए। इसी के तहत किसी सत्तारूढ़ पार्टी के हार जाने पर अगली सरकार बनने तक प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री को अपने पद पर बने रहने को कहा जाता है, लेकिन यह अलिखित परंपरा रहती है कि इन गिने-चुने दिनों में वे कोई बड़े फैसले नहीं लेंगे, और सिर्फ पद की निरंतरता के लिए अगले व्यक्ति के आने तक वहां रहेंगे। इसी तरह लोकतांत्रिक परंपरा का तकाजा रहता है कि सत्तारूढ़ विचारधारा के बदलने पर मनोनीत लोग इस्तीफे दे दें। ऐसे में विश्वविद्यालयों के कुलपति, या ऐसे दूसरे लोगों को इस्तीफे देने की जरूरत नहीं रहती है जिन्हें कि किसी चयन प्रक्रिया के तहत छांटकर नियुक्त किया गया था, और जिनका कार्यकाल तय था, या जो कि निर्धारित कार्यकाल या आयु सीमा वाले संवैधानिक पदों पर बिठाए गए थे। लेकिन निगम, मंडल, या बिना संवैधानिक दर्जे वाले आयोगों के लोगों को पल भर में हट जाना चाहिए, ऐसा न करना एक बड़े ही लीचड़पन की बात रहती है कि वे कुर्सी से चिपके रहना चाहते हैं। 

छत्तीसगढ़ में जैसे ही पहले मुख्यमंत्री अजीत जोगी सत्ता से बाहर हुए थे, उनके सचिव रहे सुनिल कुमार ने चुनावी नतीजे आते ही मुख्यमंत्री सचिवालय का अपना कमरा खाली कर दिया था, और सचिवालय में एक दूसरे साधारण कमरे में बैठने लगे थे। ऐसा माना जाता है कि हर नए मुख्यमंत्री को अपने सचिव और निजी सहयोगी अधिकारियों को चुनने का अधिकार रहता है, और इसी को ध्यान में रखकर सुनिल कुमार ने अगला मुख्यमंत्री भी तय होने के पहले सीएम सचिवालय छोड़ दिया था। दूसरी तरफ राज्य में कुछ ऐसे भी अफसर रहे जो कि रिटायर होने के बाद भी सरकार के मनोनीत किसी पद पर सत्ता बदलने के बाद भी बने रहे, और जब तक उन्हें बर्खास्त करने की खबर नहीं दी गई, उन्होंने कुर्सी नहीं छोड़ी। लोकतंत्र अदालती स्थगन आदेश लेकर किसी मनोनीत कुर्सी से चिपके रहने का नाम नहीं रहता। लोगों को अपनी खुद की इज्जत का भी ख्याल रखना चाहिए, और नई सरकार आते ही इस्तीफा देने के लिए तैयार रहना चाहिए।

हर सरकार को अपनी पसंद और विचारधारा के मुताबिक लोगों को मनोनीत करने का अधिकार रहना चाहिए। और चूंकि इस देश में संवैधानिक या इस दर्जे से परे के ओहदों पर राजनेताओं और रिटायर्ड जज-अफसरों को मनोनीत करने की परंपरा है, और इसके लिए कोई विचार-विमर्श नहीं होता है, इसलिए यह पूरा मामला अपने मकसद को ही शिकस्त देते रहता है। हम पहले भी बहुत बार इस पर लिख चुके हैं कि किसी राज्य से रिटायर होने वाले जजों और अफसरों को उसी राज्य में किसी नाजुक ओहदे पर मनोनीत नहीं करना चाहिए। धीरे-धीरे यह सिलसिला मजबूत हो जाता है कि रिटायरमेंट के बाद वृद्धावस्था-पुनर्वास के लिए सत्ता को खुश रखते हुए जज और अफसर अपने कई फैसले देने लगते हैं। इससे अपने अदालती या सरकारी ओहदों पर रहते हुए भी लोग भविष्य की अपनी संभावनाओं को मजबूत करते रहते हैं। इसके साथ-साथ कई ओहदों पर सत्तारूढ़ पार्टी अपने संगठन या अपनी विचारधारा के लोगों को मनोनीत करती है, और नतीजा यह होता है कि जब देश-प्रदेश में ऐसे आयोगों या दूसरे पदों से संवैधानिक जिम्मेदारी निभाने की उम्मीद की जाती है, तो ये लोग अपने को बनाने वाली सरकार को बचाने में लग जाते हैं, जनता के संवैधानिक अधिकारों को बचाने के बजाय। ऐसी नौबत से बचने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक टैलेंटपूल बनाना चाहिए जिसमें रिटायर्ड जज और अफसर अपनी दिलचस्पी से अपने नाम भेज सकें, और उनमें से अलग-अलग प्रदेशों के अलग-अलग ओहदों के लिए राज्य की जरूरत के मुताबिक उस राज्य में कभी काम न किए हुए लोगों में से यूपीएससी जैसी कोई स्वतंत्र संस्था लोगों को छांटे, और उन राज्यों में भेजे। जब तक राज्य की राजनीतिक ताकतों की पसंद से ऐसी नियुक्तियां होंगी, वे नियुक्तियां या तो रिटायरमेंट के करीब जजों और अफसरों के फैसलों और कामकाज को प्रभावित करेंगी, या ऐसे नेताओं और समविचारकों की होंगी जो कि संवैधानिक दायित्व पूरा नहीं कर सकेंगे। 

अगर लोकतंत्र को पारदर्शी, पूर्वाग्रहमुक्त, और गैरपक्षपाती बनाना है, तो ऐसे तमाम संवैधानिक-गैरसंवैधानिक मनोनयन अनिवार्य रूप से राज्य के बाहर के लोगों के ही होने चाहिए, और नियुक्ति प्रक्रिया में सरकार, विपक्ष, और न्यायपालिका जैसे अलग-अलग तबकों के लोगों को भी जोडऩा चाहिए ताकि राजनीतिक पसंद-नापसंद से संवैधानिक जिम्मेदारियां तय न हों। ऐसा होने पर ऐसी तमाम नियुक्तियों को एक निर्धारित कार्यकाल तक रखा जा सकेगा, और महाभियोग जैसी किसी गंभीर प्रक्रिया से ही उन्हें हटाया जा सकेगा। लोकतंत्र को गरिमामय और पारदर्शी रहना चाहिए, जो कि सिर्फ सरकार द्वारा राज्य के भीतर के लोगों की नियुक्ति से संभव नहीं है।

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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