छत्तीसगढ़ के गरियाबंद जिले और लगे हुए ओडिशा राज्य के बीच की सरहद पर कल से चल रही पुलिस-नक्सल मुठभेड़ में अब तक 14 या अधिक नक्सलियों के मारे जाने की खबर है। इनमें एक ऐसा नक्सल नेता चलपति शामिल है जिस पर एक करोड़ रूपए का ईनाम था। अभी दो दिन पहले ही छत्तीसगढ़ के बस्तर में एक दूसरी मुठभेड़ में 12 नक्सली मारे गए थे। कल शाम से चल रही गरियाबंद-ओडिशा सरहद का यह इलाका बस्तर से अलग है। अगर छत्तीसगढ़ में भाजपा सरकार आने के बाद से अब तक मारे गए नक्सलियों की गिनती की जाए तो वह तीन सौ पार दिख रही है। राज्य बनने के बाद से यह पहला ही मौका है जब 13 महीनों में सुरक्षा बलों को नक्सलियों से निपटने में इतनी कामयाबी मिली है। और ऐसे में पांच बरस की पिछली कांग्रेस सरकार से कुछ लोग यह सवाल करना चाहेंगे कि मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के राज में नक्सल मोर्चे पर इसी पुलिस और इसी पैरामिलिट्री को कामयाबी क्यों नहीं मिल रही थी? और ऐसा भी नहीं कि कांग्रेस सरकार ने पांच बरस में नक्सलियों से किसी शांतिवार्ता में कामयाबी पाई हो। वैसी न कोई कोशिश हुई, न सुरक्षा बलों को इतनी कामयाबी मिली। चूंकि बस्तर और लगे हुए प्रदेशों में नक्सलियों की वजह से सुरक्षा बलों और ग्रामीणों की भी लगातार मौतें होती हैं, इसलिए यह मुद्दा अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है कि नक्सलियों से परे भी लोग मारे जाते हैं।
एक पल के लिए कांग्रेस सरकार के आंकड़ों पर नजर डालें, तो उसके आते ही 2019 में 154 नक्सली मारे गए थे, 2020 में 134, 2021 में 128, 2022 में 66, 2023 में 57 नक्सली मारे गए। दूसरी तरफ 2024 में भाजपा सरकार आते ही एक बरस में करीब 300 नक्सली मारे गए, और 2025 के इन पहले तीन हफ्तों में ही 32 नक्सली मारे गए हैं। ये आंकड़े कम से कम सरकार का रूख और रूझान तो बताते ही हैं कि नक्सल मोर्चे पर किसकी क्या नीति थी, और क्या नीति है। हो सकता है कि कोई राजनीतिक दल चुनाव जीतने के लिए नक्सलियों से मदद लेते हों, लेकिन आम नागरिकों की, और सुरक्षा बलों की मौत की कीमत पर ऐसी मदद लेना और बदले में रियायत देना तो नाजायज है।
नक्सलियों से बातचीत भाजपा के मुख्यमंत्री रहे डॉ.रमन सिंह ने अपने कार्यकाल में विधानसभा के भीतर और बाहर दोनों जगह खूब जमकर वजन के साथ की थी, लेकिन वह किसी किनारे नहीं पहुंंच पाई। कांग्रेस के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने शांतिवार्ता की कोई सुगबुगाहट भी पैदा नहीं की, और वे सिर्फ यही कहते रहे कि नक्सली हथियार छोड़ेंगे तो ही उनसे बात होगी। उनका रूख न बातचीत का था, न सुरक्षा बलों की किसी बड़ी और मजबूत कार्रवाई का। भाजपा सरकार आते ही न सिर्फ राज्य के नेताओं ने, बल्कि केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह, और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी मार्च 2026 तक नक्सलियों को खत्म करने के इरादे की घोषणा की। अभी जिस रफ्तार से नक्सलियों को खत्म किया जा रहा है, और इक्का-दुक्का मामलों को छोडक़र नक्सलियों के नाम पर बेकसूरों को मार डालने की, फर्जी मुठभेड़ की शिकायतें भी नहीं हैं। तीन सौ नक्सलियों को खत्म करते हुए शायद आधा दर्जन बेकसूर लोगों को मारने के आरोप नक्सलियों ने लगाए हैं, और बाकी सारे लोगों के नक्सली होने की बात खुद उन्होंने ही मान ली है। मानवाधिकार कुचलने, और ज्यादती करने की इतनी कम शिकायतें राज्य बनने के बाद से पहले कभी नहीं रहीं। सुरक्षा बलों के इतने बड़े-बड़े ऑपरेशनों के बाद भी इतनी कम शिकायतें होना सावधान सुरक्षा कार्रवाई का ही संकेत है।
नक्सलियों के हर जत्थे के मारे जाने के बाद उनकी ताकत कमजोर होती जा रही है, और उन पर अगली कार्रवाई कुछ आसान हो रही है। हम केन्द्र सरकार द्वारा तय किए गए लक्ष्य और राज्य शासन द्वारा उसे मानी गई चुनौती की तारीख पर कुछ कहना नहीं चाहते, लेकिन नक्सली छत्तीसगढ़ में कमजोर तो बहुत तेजी से हो रहे हैं, और ऐसे में कुछ लोगों को यह भी लग सकता है कि भाजपा के गृहमंत्री विजय शर्मा ने सरकार बनते ही जिस मजबूती से शांतिवार्ता की घोषणा की थी, और उसके बाद किसी वीडियो कॉल पर भी शांतिवार्ता करने के लिए अपना उत्साह दिखाया था, अब उसकी जरूरत नहीं रह गई है। लेकिन हम शांतिवार्ता को बिल्कुल गैरजरूरी मानने के खिलाफ हैं क्योंकि लोगों ने यह भी देखा है कि अभी-अभी बस्तर में 9 सुरक्षा कर्मचारी मारे गए, 24 पिछले बरस मारे गए, और पिछले बरस 80 नागरिक भी मारे गए थे। ये आंकड़े नक्सल मौतों से कम हैं, लेकिन 13 महीनों में 110 से अधिक ग्रामीण-सुरक्षाकर्मी खत्म होना छोटी बात नहीं है। हम अभी जिंदगी की कीमत की तुलना में सुरक्षा बलों पर हो रहे बहुत बड़े खर्च को भी नहीं गिन रहे हैं, लेकिन 60 हजार से अधिक सुरक्षाकर्मी छत्तीसगढ़ के नक्सल मोर्चे पर तैनात हैं, और उन पर देश-प्रदेश का बहुत बड़ा खर्च तो हो ही रहा है। इसलिए नक्सलियों की शिकस्त के इस दौर में सरकार को सुरक्षा कार्रवाई जारी रखते हुए भी शांतिवार्ता की कोशिश करनी चाहिए क्योंकि मौतें सिर्फ नक्सलियों की नहीं हो रही हैं।
ऐसा लगता है कि नक्सलि हिंसाग्रस्त इलाकों में सरकार की ढांचागत सुविधाओं, और जनकल्याण की योजनाओं के कुछ या अधिक हद तक कामयाब होने से भी जनता के बीच नक्सलियों का असर घटा होगा, और सुरक्षा बलों को पहले के मुकाबले कुछ अधिक जनसमर्थन मिल रहा होगा। इन बातों को अधिक बारीक हद तक आंकने का कोई जरिया हमारे पास नहीं है, लेकिन नक्सल इलाकों में चुनावों में जनता की भागीदारी और इन इलाकों में बढ़ी हुई आर्थिक गतिविधियों के पीछे सरकारी योजनाओं की कामयाबी जरूर रही होगी। नक्सलियों के खिलाफ मोर्चा सिर्फ बंदूकों से नहीं लड़ा जा सकता, और आम जनता का लोकतंत्र पर भरोसा दुबारा कायम करना होगा, मजबूत करना होगा, और उसे जारी रखना होगा। यहां पर राजनीतिक और प्रशासनिक तबकों की जिम्मेदारी आती है।
किसी सुरक्षा विशेषज्ञ को इस बात का विश्लेषण करना चाहिए कि पांच बरस के कांग्रेस राज में यही सुरक्षा बल इसी नक्सल मोर्चे पर इतना शांत, चुप, या असफल क्यों था? और भाजपा सरकार आने से इसकी कामयाबी में इतना इजाफा क्यों और कैसे हुआ है? हम इस जटिल मुद्दे का अतिसरलीकरण करना नहीं चाहते हैं, किसी जानकार का एक अध्ययन और विश्लेषण के बाद ऐसा करना बेहतर होगा। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)